जल्द चुनावों की आशंका
क्या विपक्षी गठबंधन के दबाव का नतीजा है ‘भारत’ नाम और ‘एक चुनाव’?
एक साल पहले जब कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने 4,000 किलोमीटर पैदल चलने वाली ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू की थी, तो किसी को आभास तक नहीं था कि साल भर में ‘भारत’ शब्द राजनीति का बड़ा अखाड़ा बन जाएगा। संयोग ही है कि इस यात्रा के एक साल के भीतर ही विपक्ष ने सत्तारूढ़ भाजपा और एनडीए के ख़िलाफ़ अपना गठबंधन भी खड़ा कर लिया, जिसका नाम इंडिया (संविधान के मुताबिक भारत का अन्य नाम) रख लिया।
मोदी सरकार अब संविधान से देश के नाम के रूप में ‘इंडिया’ शब्द हटाने की तैयारी कर रही है। दिलचस्प यह भी है कि मोदी सरकार इसी दौरान ‘एक देश, एक चुनाव’ का क़ानून लाने की तैयारी में है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में उसने आठ सदस्यीय समिति बनायी है, जो उसे इस पर रिपोर्ट देगी। मोदी सरकार के अचानक उठाये इन क़दमों से संकेत मिल रहे हैं कि वह लोकसभा के चुनाव जल्दी करा सकती है। इस बात को इससे भी बल मिलता है कि सरकार ने 18 सितंबर से संसद का विशेष अधिवेशन बुला लिया है। ऐसे समय जब सरकार (भाजपा) इंडिया गठबंधन के कारण ख़ुद को दबाव में महसूस कर रही है, सितंबर के पहले पखवाड़े में छ: राज्यों की सात सीटों के लिए लिए हुए विधानसभा उपचुनाव में चार सीटें जीतकर इंडिया गठबंधन ने भाजपा पर और दबाव बना दिया है।
लिहाज़ा सरकार चाहती है कि देश के नामों में से इंडिया हटाकर सिर्फ़ भारत करने, एक देश एक चुनाव और संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को आरक्षण देने के बिल लाकर माहौल अपने हक़ में करने की कोशिश करे। भाजपा में यह आशंका है कि लोकसभा चुनाव में देरी होने से उसे नुक़सान उठाना पड़ सकता है। लिहाज़ा समय से पहले चुनाव की थ्यूरी सामने आ रही है।
इस साल चुनाव वाले राज्य मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ने 7 सितंबर को यह कहकर कि चुनाव आयोग निर्धारित समय से छ: महीने पहले चुनाव की घोषणा करने का अधिकार रखता है; कयासों को और हवा दे दी। चूँकि मोदी सरकार लोकसभा, विधानसभाओं, नगर पालिकाओं और पंचायतों के चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे पर $गौर करने और जल्द-से-जल्द सिफ़ारिशें देने के लिए सितंबर के पहले हफ़्ते में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति के गठन की अधिसूचना जारी की थी।
भारत बनाम इंडिया
भारत का दूसरा नाम ‘इंडिया’ सिर्फ़ भारत की राजनीति तक सीमित नहीं है। इसके अंतरराष्ट्रीय मायने भी हैं। इंडिया नाम से भारत दुनिया में अब तक ख़ुद की एक सफल धर्मनिरपेक्ष राज्य की छवि दिखाने में सफल रहा है। कई जानकार मानते हैं कि इंडिया नाम हटाना मुश्किल होगा। पड़ोसी पाकिस्तान में तो इस पर जबरदस्त चर्चा भी शुरू हो गयी है। यह माना जाता है कि भारत नाम होने से पाकिस्तान ज़्यादा सहज रहेगा और भारत की छवि एक हिन्दू राष्ट्र के रूप में दिखाने की कोशिश करेगा, जैसा कि भारत पाकिस्तान के एक मुस्लिम राष्ट्र होने के नाते इसे कुछ मंचों पर इस्तेमाल करता रहा है। इंडिया नाम के साथ भारत की वैश्विक धर्मनिरपेक्ष पहचान रही है। इतिहास की पुस्तकें खँगालने से पता चलता है कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना इस बात से परेशान थे कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत के नाम के साथ इंडिया नाम को प्रमुखता दी, न कि हिन्दुस्तान या सिर्फ़ भारत नाम को। पाकिस्तान के निर्माण के बाद जिन्ना ने अपने देश को मुस्लिम राष्ट्र बनाया। इसका उसे अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में नुक़सान हुआ। भारत से बाहर भारत ही इंडिया भी है। लिहाज़ा उसकी एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की छवि आज तक बनी हुई है। कह सकते हैं कि यह एक चतुराई भरा फ़ैसला था। दक्षिण एशिया क्षेत्र में भारत ही एक ऐसा राष्ट्र है, जिसकी लोकतांत्रिक छवि और धर्मनिरपेक्षता ही दुनिया में पहचान रही है। अभी कहना मुश्किल है कि मोदी सरकार की देश के नामों में से इंडिया हटाने की कोशिश का आख़िर क्या होगा? लेकिन यह तय है कि इसके दूरगामी नतीजे होंगे; क्योंकि ज़्यादातर लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार चुनाव की दृष्टि से यह सब कर रही है।
चुनाव का माहौल
मोदी सरकार अचानक बहुत जल्दी में कुछ फ़ैसले कर रही है। ‘एक देश-एक चुनाव’ पर चर्चा और रिपोर्ट के लिए सरकार ने आनन-फ़ानन समिति बना दी। राज्यों में हार की आशंका से भाजपा भयभीत है। ‘एक देश-एक चुनाव’ के नाम पर वह अपनी सुविधा वाला रास्ता निकाल सकती है। यही नहीं, 18 से 22 सितंबर तक संसद का विशेष अधिवेशन सरकार ने बुलाया है, जबकि संसद का मानसून सत्र अगस्त में ही ख़त्म हुआ है। इस विशेष सत्र में एक देश-एक चुनाव से जुड़ा विधेयक, यूसीसी (जिससे हाल के दो महीनों में मोदी सरकार बचती दिखी है) और महिला आरक्षण बिल भी ला सकती है। इस बीच मोदी सरकार ने एक लोकलुभावन फ़ैसला यह किया कि खाना पकाने की गैस (एलपीजी) के दाम 200 रुपये कम कर दिये; भले यह अभी भी उतनी क़ीमत में मिल रहा है कि आम आदमी पर बोझ है।
कांग्रेस और विपक्ष का कहना है कि यह ‘इंडिया’ गठबंधन के तेज़ी बढऩे के कारण उपजा दबाव है। इन सब फ़ैसलों का संकेत यह गया है कि मोदी सरकार कुछ बड़ा करने वाली है। क्या जल्द ही (दिसंबर में) लोकसभा के चुनाव हो सकते हैं? या सरकार एक देश-एक चुनाव के बहाने चुनावों को आगे खिसका देगी? आने वाले दो महीनों में तस्वीर साफ़ हो जाएगी। दिसंबर में चुनाव की बात को तब बल मिला, जब यह चर्चा शुरू हुई कि भाजपा ने दिसंबर के लिए बड़ी संख्या में हवाई जहाज़ बुक कर लिये हैं। माना जा रहा है कि ये बड़े नेताओं के प्रचार में इस्तेमाल किये जाने हैं। कर्नाटक में कांग्रेस की बड़ी जीत के बाद विपक्ष ने महसूस किया कि भाजपा को हराया जा सकता है। इसके बाद ही उसके एकजुट होने की प्रक्रिया तेज़ हुई। वैसे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर्नाटक के नतीजों से पहले ही दिल्ली में कांग्रेस नेताओं सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी से मुलाक़ात कर चुके थे। इसके बाद 01 अगस्त तक विपक्ष ने तीन बैठकें कीं। हर बैठक में विपक्ष सरकार पर राजनीतिक दबाव बनाने में सफल रहा। उसने अपना नाम तय किया और वरिष्ठ नेताओं की एक 13 सदस्यीय समिति गठित कर दी।
एक देश-एक चुनाव क्यों?
एक देश एक चुनाव की पैरवी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सन् 2020 में की थी। वैसे देश में आज़ादी के बाद सन् 1952 से लेकर सन् 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे। इसका कारण यह था कि उस दौरान कोई सरकार समय से पहले नहीं गिरी या गिरायी गयी। वर्तमान में लोकसभा के साथ आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव साथ ही होते हैं, जबकि लोकसभा चुनाव से छ: महीने पहले छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में और छ: महीने बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव होते हैं। हाल के वर्षों में देखें, तो आज एक देश एक चुनाव की बात करने वाली भाजपा ने ही प्रदेशों में सबसे ज़्यादा सरकारें गिरायी हैं। एक राष्ट्र, एक चुनाव के लिए सरकार से लेकर चुनाव आयोग तक को मशक्क़त करनी होगी। एक राष्ट्र, एक चुनाव के समर्थन में तर्क है कि इससे चुनाव पर होने वाले ख़र्च में कमी आएगी।
रिपोट्र्स के मुताबिक, सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में 60,000 करोड़ रुपये का घोषित ख़र्च हुआ था। इसमें चुनाव लडऩे वाले राजनीतिक दलों की ख़र्च की गयी राशि और चुनाव आयोग ऑफ इंडिया के चुनाव कराने में ख़र्च की गयी राशि शामिल है। वहीं सन् 1951-1952 में हुए लोकसभा चुनाव में 11 करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे।
सन् 2014-15 में सरकार ने चुनाव आयोग से एक देश एक चुनाव पर सुझाव माँगा था। जानकारों के मुताबिक, एक देश-एक चुनाव के लिए जन प्रतिनिधित्व क़ानून में हल्का संशोधन करना पड़ेगा। जानकार एक देश-एक चुनाव को लेकर दो तरह के फॉर्मूले का सुझाव देते हैं, जिसमें ढाई-ढाई साल का स्लॉट हो। अर्थात् पहले ढाई साल के स्लॉट में लोकसभा के साथ कुछ राज्यों के चुनाव कराये जाएँ और फिर दूसरे ढाई साल के स्लॉट में बाक़ी बचे राज्यों के चुनाव हों। यदि बीच में किसी राज्य में विधानसभा भंग होती है, तो वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू कर केंद्र शासन करे। लेकिन ऐसा होने पर हो सकता है, किसी राज्य में लंबे समय तक लोगों को जनप्रतिनिधियों से वंचित रहना पड़े और उन्हें अपने काम करवाने में दिक्क़त आये। मान लें यदि ढाई-ढाई साल के फार्मूले को अपनाया जाता है, तो वर्तमान हिसाब से विपक्ष के शासन वाले 8 राज्यों में समय से पहले चुनाव करवा लिये जाएँगे। इस स्थिति में लोकसभा के साथ आंध्र प्रदेश, अरुणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, झारखण्ड, केरल, मध्य प्रदेश, दिल्ली, ओडिशा, पुडुचेरी, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना के अलावा जम्मू-कश्मीर और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और दिल्ली में इंडिया गठबंधन की सरकारें हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ को छोड़ अन्य छ: राज्यों में चुनाव के लिए एक साल से अधिक का कार्यकाल है।
दिल्ली में फरवरी 2025 में; बिहार में नवंबर 2025 में और केरल, तमिलनाडु व पश्चिम बंगाल में मई 2026 में चुनाव होने हैं। इन आठ में छ: राज्यों में भाजपा दूसरे नंबर की पार्टी है। दूसरी तरफ़ महाराष्ट्र, हरियाणा, सिक्किम, मध्य प्रदेश, पुडुचेरी और अरुणाचल में एनडीए की सरकारें हैं, जहाँ 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले चुनाव होने हैं।