‘जज साहब’

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नॉरम आशीष

नौ साल हो गए, उत्तरी दिल्ली के रोहिणी इलाके में तेरह साल तक रहने के बाद, अपना घर छोड़ कर, वैशाली की इस जज कॉलोनी में आए हुए. यह वैशाली का ‘पॉश’ इलाका माना जाता है. उत्तर प्रदेश की सरकार ने न्यायाधीशों के लिए यहां प्लाट आवंटित किए थे. ऐसे ही एक प्लॉट पर बने एक घर में मैं रहता हूं.

जिस सड़क पर यह अपार्टमेंट बना है, उसका नाम है- ‘न्याय मार्ग’. हालांकि इस सड़क में जगह-जगह गड्ढे हैं, हर तीन कदम पर यह सड़क उखड़ी-पुखड़ी है और कई जगह से ‘वन वे’ हो गई है, क्योंकि बिल्डर्स ने सड़क के ऊपर ही रेत, ईंटें, रोड़ी-गिट्टी, सीरिया-पाइप के ढेर लगा रखे हैं. नतीजा यह कि हर रोज यहां ‘वन वे’ की वजह से एक्सीडेंट होते रहते हैं और कोई कार्रवाई इसलिए नहीं होती कि बिल्डर्स और ठेकेदारों के पास बहुत रुपया और ऊपर तक पहुंच है.

इसी कॉलोनी में रहने वाले एक रिटायर्ड न्यायाधीश का पोता इसी ‘वन वे’ पर एक डंपर के नीचे आ गया था और तीन महीने तक अस्पताल में रहने के बाद उसकी मौत हो गई थी.

लेकिन वे बिल्डिंगें अभी भी बन रही हैं. डंपर और ट्रक अभी भी चल रहे हैं. वैशाली का ‘न्याय मार्ग’ अभी भी गड्ढों-हादसों से भरा हुआ ‘वन वे’ है.

वी.आई.पी. जज कॉलोनी बहुत तेजी से ‘डेवलप’ होती कॉलोनी है. नौ साल पहले जब मैं यहां आया था तो दो किलोमीटर की दूरी तक सिर्फ दो शॉपिंग माल थे. अब इक्कीस बड़े-बड़े बहुमंजिला माल, दो इंटरनेशनल फाइव स्टार होटल और शेवरले से लेकर ह्युंडेई और सुजुकी कार कंपनियों के जगमगाते शो रूम हैं, हल्दी राम, मक्डॉनल्ड्स, डोमिनोज पिज्जा, कैंटुकी फ्राइड चिकन, बीकानेर वाला जैसी सैकड़ों खाने-पीने की जगहें हैं. रेस्टोरेंट और बार तो हर कदम पर हैं.

अपने साठ साल के जीवन में मैंने इतना पीने-खाने वाला समय पहले कभी नहीं देखा.

नौ साल पहले जब मैं यहां आया था, तब यहां जंगल और खेत हुआ करते थे. सरसों और गेहूं-बासमती के खेत. कभी यह सरसों के पीले फूलों के रंग और बासमती धान की खुशबू से भरा इलाका था. मोहल्लों में रहने वाले रुई धुनकने वाले धुनकिये, गोबर के उपले पाथती औरतें, लोहे की कड़ाहियां, चिमटे, खुरपी बनाने वाले लोहार और उनकी कोयले की आग से सुलगती धौंकनियां, सबेरे-सबेरे सुअर का शिकार करने वाले लोगों के जत्थे, खुले में दिशा-फराकत करती हुई गरीब औरतें चारों ओर थीं. सुबह मैं जल्दी अपनी बालकनी में इसलिए नहीं निकलता था क्योंकि सामने के खाली पड़े मैदान में औरतें और पुरुष, सुअरों के साथ उसी मैदान में नित्यक्रिया करते आंखों के सामने आते थे. पास में ही, नहर के किनारे-किनारे उगी झाड़ियों से लगी सुनसान जगहें यहां ‘एनकाउंटर ग्राउंड’ हुआ करती थीं, जहां ‘अपराधियों’ को पकड़ कर रात में पुलिस गोली मारती थी और अगली सुबह अखबार में डाकुओं या आतंकवादियों के साथ हुई पुलिस की साहसिक मुठभेड़ की खबरें छपा करतीं थीं.

लेकिन अब तो इन बीते नौ वर्षों में सब कुछ बदल गया है. जैसे किसी लंबी फिल्म का कोई बिल्कुल दूसरा शॉट परदे पर अचानक आ गया हो.

इस कॉलोनी में बहुत से न्यायाधीश रहते हैं. कुछ रिटायर्ड और कुछ अभी भी अलग-अलग अदालतों में न्याय देने की अपनी-अपनी नौकरियां करते हुए.

बगल में ही एक पार्क है. सुंदर-सा. सुबह-सुबह जब कभी वहां घूमने जाता हूं, तो हर सुबह कई जजों से मुलाकात होती है. इनमें से जो बूढ़े हो चुके हैं, वे अधिक देर और दूर तक चल नहीं पाते या फिर धीरे-धीरे छड़ी के सहारे चलते हैं. एक-दो के साथ उनका कोई सहायक भी होता है, उन्हें गिरने से बचाने के लिए या अचानक दिल का दौरा पड़ने या सांस रुक जाने पर तुरंत उन्हें अस्पताल पहुंचाने के लिए. ये जज अब अपनी कोठियों में अकेले रहते हैं. कुछ अपनी पत्नियों के साथ और कुछ बिल्कुल अकेले. उनके बच्चे बड़े होकर दूसरे शहरों या देशों में चले गए हैं, जो साल-दो साल में कभी-कभार कुछ दिनों की छुट्टियों में यहां आगरा, शिमला, नैनीताल, दार्जीलिंग वगैरह घूमने आते हैं. एक अकेले रह गए बूढ़े जज का कहना है कि पता नहीं उनकी अमेरिकी बहू और उनके बेटे को इंडियन चिड़ियों का इतना क्रेज क्यों है कि जब भी दो-चार साल में वे आते हैं तो दो-चार दिन उनके साथ रह कर भरतपुर और राजस्थान की बर्ड्स सैंक्चुअरी देखने निकल जाते हैं. वे धीरे से कहते हैं, ‘पता नहीं क्या ऐसा है इन चिड़ियों में कि मैं अपनी जिंदगी, नौकरी, न्याय और अदालत से ऊब गया, लेकिन वे लोग चिड़ियों से नहीं ऊबे.’ इसके बाद एक लंबी उदास सांस भर कर वे कहते हैं, ‘मुझे अच्छी तरह से पता है कि मेरा बेटा और उसकी फैमिली मुझे नहीं, इंडिया में चिड़िया और पुरानी इमारतें देखने आती है.’

इन बूढ़े जजों का इस तरह चलना देख कर लगता है जैसे उनका पूरा शरीर अतीत की असंख्य स्मृतियों के वजन से लदा हुआ है और यह उनका बुढ़ापा नहीं, स्मृतियों का भार ही है, जिसे वे संभाल नहीं पा रहे हैं और किसी कदर ढो रहे हैं. मैंने देखा है, अक्सर वे बहुत जल्दी थककर पार्क में बनी किसी बेंच पर बैठ जाते हैं. वहां भी उनका माथा किसी बोझ से नीचे की ओर गिरता हुआ दिखता है.

बहुत भार होगा जरूर गहरी लकीरों से भरे उनके बहुत पुराने माथे के ऊपर. उनके भीतर की ‘हार्डडिस्क’ भर चुकी होगी.

क्या वे अपने पिछले दिनों में किए गए किसी फैसले के बारे में इस समय दुबारा सोच रहे होते हैं? पछतावे से भरे हुए.

कई बार उनकी मिचमिचाती बूढ़ी हो चुकी आंखों से आंसू की कुछ बूंदें लकीर बनाती हुई उनका चेहरा भिगा देती हैं. वे जेब में रखा हुआ कोई बहुत पुराना, मटमैला हो चुका रूमाल निकाल कर झुर्रियों से भरा अपना चेहरा और चश्मा धीरे-धीरे पोंछते हैं.

लेकिन जो न्यायाधीश अभी भी उतने जर्जर और बूढ़े नहीं हुए हैं, वे पार्क में अपने जॉगिंग सूट और स्पोर्ट्स शू के साथ तेज कदमों से टहलते हैं. वे किसी न किसी जल्दबाजी में हैं. उन्हें शायद कोई फैसला सुनाना है. कोई न कोई मामला उनकी अदालत में विचाराधीन है और उसकी गुत्थियां वे अपने टहलने की बेचैन रफ्तार में सुलझा रहे होते हैं.

इन सभी जजों के पास बहुत से किस्से हैं. सैकड़ों-हजारों. अनंत. सच और झूठ के उलझे हुए ऐसे मामले, जिनके बारे में अपने दिए गए फैसलों को लेकर उन्हें अभी भी असमंजस है. अगर मैं आपको उन सारे किस्सों को अलग-अलग सुनाना शुरू करूं तो एक तो कोई ऐसा उपन्यास बन जाएगा, जिसे पढ़ने के बाद आपका विश्वास सच, झूठ, न्याय, अन्याय सबसे उठ जाएगा.

मेरा तो उठ चुका है इसीलिए दरगाहों, जंगलों, बच्चों और मंदिरों में ज्यादा समय बिताता हूं. न्यायाधीश मुझे असहाय और न्यायालय एक खास तरह का रोजगार और वेतन देने वाले किसी बहुत पुराने माल या स्मारक जैसे लगते हैं.

ओह! लेकिन मैं किस्सा तो जज सा’ब का सुनाने जा रहा था, जिनका हमारी जज काॅलोनी में तो अपार्टमेंट ही नहीं था. वे कहीं दूसरी जगह, किसी दूसरे सेक्टर में रहते थे, लेकिन नौ साल पहले जब मैं यहां आया था, तब से उनसे मुलाकात होती रहती थी. उनका असली, औपचारिक नाम जो भी रहा हो, सब लोग उन्हें ‘जज सा’ब’ ही कहते हैं.

उनसे मेरी मुलाकात हमेशा सुनील यादव की पान की दुकान पर होती थी. पान और खैनी, ये दो ऐसी चीजें थी जिनकी लत हमें एक-दूसरे से जोड़ती थी.

इसके अलावा एक एडिक्शन या लत और थी. (उसके बारे में मैं कहानी के बिल्कुल अंत में बताऊंगा. …और यह कहानी, जिसका ‘डिस्क्लेमर’ मैं यहीं रख देना जरूरी समझता हूं कि इसका संबंध किसी वास्तविक व्यक्ति, स्थान या समय से नहीं है. अगर ऐसा पाया जाता है, तो वह फकत संयोग है और इस पर कोई मुकदमा उन्हीं ‘जज सा’ब’ की अदालत में चलेगा, जहां वे उस समय नियुक्त होंगे.)

तो, अब असली किस्से पर आएं. यह बहुत छोटा-सा और कुछ-कुछ सेंसेशनल जैसा है.

हर सुबह ठीक नौ बजे, जज सा’ब सुनील की पान की दुकान पर मिलते थे. हमेशा ताजगी से भरे और मुस्कुराते हुए. पचास के कुछ पार रही होगी उनकी उम्र, लेकिन चश्मा नहीं लगाते थे.

‘नमस्कार ! कैसे हैं सर जी ?’ यह उनका पहला वाक्य होता था. ‘मैं ठीक हूं, जज सा’ब. आप कैसे हैं ?’ यह हमेशा मेरा पहला जवाब होता था. ‘मैं वैसा ही हूं, राइटर जी, जैसा कल था.’ यह भी उनका हर बार

का उत्तर था.

‘हम सब भी वैसे ही हैं, जैसे कल थे !’ मेरे यह कहने पर जज सा’ब ही नहीं, सुनील की दुकान पर खड़े सारे लोग हंसने लगते थे. यह भी हर बार का उत्तर था और सब का हंसना भी हर बार का

हंसना था.

यह सच था. चारों ओर सब कुछ तेजी से बदल रहा था, लेकिन हम सब, कल या परसों या और उसके पहले के दिनों जैसे ही थे. लगभग ज्यों के त्यों.

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नॉरम आशीष

सुनील पानवाले की दुकान में हम सब के हर रोज इकट्ठा होने की वजह भी यही थी कि सुनील भी हर रोज पिछले रोज की तरह ही होता था. उसकी पत्नी को क्रोनिक दमा था और एलोपैथी, आयुर्वेद से लेकर जादू-टोना और जड़ी-बूटियों तक का सहारा वह ले रहा था. पांच बच्चे थे जिनमें से तीन स्कूल जाते थे. दो लड़कियां, तीन लड़के. हर रोज वह स्कूल को गालियां देता था जो किताब-कापियों के अलावा, जूते, मोजे, बस्ता-वर्दी किसी खास तरह की, किसी खास ब्रांड और क्वालिटी की मांग करता था और अगर वह अपने बच्चों को यह सब जल्दी, किसी एक खास नियत तारीख तक खरीद कर नहीं दे पाता था, तो बच्चे स्कूल नहीं जाते थे. इस डर से क्योंकि वहां की मैडम उन्हें क्लास से भगा देती थी. वह उस बस को भी गालियां देता था जो उसके बच्चों को स्कूल ले जाती थी और हर दूसरे-तीसरे महीने उसका किराया बढ़ जाता था. वह सरकार और पेट्रोल कंपनियों को गालियां देता था जिनकी वजह से हर महीने पेट्रोल के दाम बढ़ जाते थे, जिससे उसकी पुरानी मोटर साइकिल का खर्च बढ़ जाता था. वह अपने बच्चों और पत्नी को गालियां देता था जिनकी वजह से वह दिन-रात खटता रहता था और कभी अपने पहनने के लिए ठीक कपड़ा और पीने के लिए दारू का पउआ नहीं खरीद पाता था. वह पुलिस और म्युनिसपैलिटी को गालियां देता था, जो उसके पान के खोखे को हफ्ता-वसूली के बाद भी, महीने-दो महीने में हटा देते थे और फिर उसे अदालत में जाकर जुर्माना भरना पड़ता था.

लेकिन उसने अपने साठ साल के पिता की बीमारी में सत्तर हजार खर्च कर के और उनकी दिन-रात सेवा करके, उनके स्पाइनल के रोग को ठीक करा डाला था और वे फिर से चलने फिरने लगे थे. लेकिन अब वह अपने पिता जी को भी मां-बहन की गालियां देता था क्योंकि उन्होंने गांव में जो जमीन बेची थी, उसमें उसको एक पैसा नहीं दिया था और सारी जायदाद उसके निकम्मे, गंजेड़ी भाई के नाम कर दी थी, जो बड़ी चालू चीज था.

सुनील यादव पानवाले की भाषा में इतनी अधिक गालियां थीं कि मैं अचंभे में आ जाता था. लेकिन अफसोस यह होता था कि ऐसी भाषा में राजभाषा ‘हिंदी’ का कोई साहित्य नहीं रचा जा सकता था. ‘हिंदी’ के शब्दकोशों और शब्द-सागरों में सुनील पनवाड़ी की भाषा के शब्द नहीं थे.

उसकी गालियां सुन कर हम सब हंसते थे क्योंकि हम सब अपनी-अपनी गालियों को अपनी-अपनी हंसी में हुनर के साथ छुपाते थे.

जज सा’ब तो सबसे ज्यादा हंसते थे. ठहाका लगा कर. कई बार, जब उनका मुंह पान से भरा रहता था और सुनील गालियां देने लगता था, जिसे सुन कर सब हंसते थे और जज सा’ब ठहाका मारते थे, तो पान की पीक उनके कपड़ों पर गिर जाती थी और तब वे भी बहुत गाली देते थे और फिर सुनील से चूना मांग कर पान की पीक के ऊपर रगड़ते थे क्योंकि इससे दाग छूट जाता था.

ऐसा ही कोई दिन था, जब वे अपनी सफेद शर्ट के ऊपर पड़ी पान की पीक के दाग के ऊपर चूना रगड़ रहे थे, और तब पहली बार मैंने

अचानक पाया कि पिछले दस महीने से हर रोज, हर सुबह वे हमेशा वही एक सूट पहन कर वहां आते थे. शायद उनके पास कोई दूसरा सूट या कोट पैंट नहीं था.

सुबह वे इस तरह तैयार हो कर आते थे जैसे किसी कोर्ट में जाने वाले हों और अभी कुछ ही देर में कोई चार्टर्ड बस आएगी और उसमें बैठ कर वे चले जाएंगे.

लेकिन जज सा’ब हमेशा पैदल ही लौट जाते थे. सुनील ने बताया कि वे अभी इंतजार कर रहे हैं. पिछली बार जब वे जज थे तो उनकी मियाद बढ़ाई नहीं गई. जिस मंत्री की सिफारिश पर वे किसी अदालत में जज बने थे, वह मंत्री किसी बलात्कार के केस में जेल जा चुका है और अभी तक वे कोई नया कांटेक्ट नहीं बना पाये हैं, जो उन्हें दुबारा जज बना दे.

उस दिन के बाद से मुझे उनसे सहानुभूति होने लगी थी और कई बार मैं उन्हें पास के ही पंडिज्जी के ढाबे में चाय पिलाने लगा था.

एक दिन वे सुबह नहीं, शाम तीन बजे सुनील की दुकान पर बहुत परेशानी की हालत में मिले. उन्होंने बताया कि उनका बेटा घर से भाग गया है और कहीं मिल नहीं रहा है. दो दिन से वे उसे खोज रहे हैं. थाने में भी उन्होंने गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाई है लेकिन ऐसा लगता है कि पुलिस वाले उनके सात साल के बेटे को जिंदा खोजने के बजाय कहीं उसकी लाश की इत्तिला पाने के इंतजार में हैं. यही अक्सर होता था. गुमशुदा बच्चे मुश्किल से ही दुबारा कभी मिलते थे. अक्सर उनकी लाश ही मिला करती थी.

गनीमत थी कि उस समय तक गैस आ चुकी थी और मेरी कार सीएनजी से चलने लगी थी. मैं भी चिंतित हुआ और जज सा’ब के बेटे को खोजने के लिए, उनके साथ वैशाली के सारे इलाकों में, उसकी जानी-अनजानी सड़कों, गलियों, मोहल्लों-बस्तियों में निकल पड़ा.

जज सा’ब कृतज्ञ थे और बार-बार उनकी आंखों में आंसू छलक आते थे. वे भावुकता में कभी मेरा हाथ थाम लेते थे, कभी कंधों पर झूल जाते थे. उन्होंने बताया कि पार्थिव को उन्होंने डांटा था क्योंकि वह पढ़ने के बजाय क्रिकेट का ट्वेंटी-ट्वेंटी मैच देख रहा था, जबकि सुबह उसका इम्तहान था. उन्होंने टीवी बंद कर दिया था, ठीक उस समय, जब डेल्ही डेयर डेविल्स को राजस्थान रॉयल्स से जीतने के लिए आखिरी चार ओवरों में पैंतीस रन बनाने थे और सुरेश रैना चौके छक्के लगा रहा था.

सुबह पार्थिव स्कूल के लिए निकला था और तब से लौट कर नहीं आया था. स्कूल से पता चला कि वह इम्तहान में भी नहीं बैठा था.

तो वह कहां गया ?

हम तीन घंटे से उसे हर जगह खोज रहे थे. कोई कोना नहीं छोड़ रहे थे. तकरीबन छह बज चुके थे और डर था कि अगर अंधेरा हो गया तो आज का एक दिन और व्यर्थ चला जाएगा. दूसरी बात यह थी कि जज सा’ब अपने घर में अपने बेटे के साथ अकेले ही इन दिनों रह रहे थे क्योंकि उनकी पत्नी उनके घर, झांसी जा चुकी थी. वे दो वजहों से यहां रुके हुए थे. एक तो बेटे पार्थिव की पढ़ाई और परीक्षा और दूसरे, उन्हें पिछले दस महीने से हर रोज, हर सुबह, यह उम्मीद लगी रहती थी कि शायद आज उनका काम कहीं बन जाए और वे दुबारा किसी जगह, लेबर कोर्ट ही सही, जज बन जाएं. हर सुबह वे अखबार में राशिफल देख कर निकलते थे. मंत्रों का जाप करते थे.

शनिदेव के मंदिर में तेल और सिक्के चढ़ाते थे. लेकिन हर रोज हर रोज जैसा ही होता था.

अब तक कार से और पैदल चलकर हमने सारी समझ में आ सकने वाली जगहें खोज डाली थीं. हर जगह निराशा. वैशाली के चप्पे-चप्पे से हारी हुई चार खाली सूनी आंखें. अनगिनत लोगों से पार्थिव का हुलिया, उम्र, नाक-नक्श बता कर पूछे गए सवालों के जवाबों से हताशा.

और तब, जब लगने लगा कि अंधेरा अब बढ़ जाएगा और रात उतर आएगी, तब मुझे एक डरावना खयाल आया. नहर के किनारे-किनारे उगी झाड़ियों में पार्थिव की खोज. जीवित न सही, जीवन के बाद का शरीर.

लेकिन समस्या यह थी कि मैं यह जज सा’ब से कहता कैसे? इसलिए, बिना उन्हें बताए मैं कार नहर की ओर ले गया. यह हमारी आज की आखिरी कोशिश थी.

8 COMMENTS

  1. उदय सर, मैं सहमा हुआ था कि आज बाबू जी (तिरिछ) जैसी बेचैन कर देने वाली यात्रा जज साहब के साथ करनी पड़ेगी| लेकिन आपने उन बेचैनियों पर परत डालते रहे| पनवारी सुनील का किरदार बहुत सजीव और जीवन से जुड़ा हुआ लगा| आपने पाठक के ऊपर कई अनसुलझे पहलुओं को छोड़ दिया ..अनकही दिनों का जीवन संघर्ष कैसा रहा होगा जज साहब का …बेटा पार्थिव किस कारण पिता के साथ जाने से इनकार करते रहे| हमेशा की तरह ये कहानी भी पसंद आई|

  2. अभी की जो पीढ़ी है उसने अपनी अपनी गालियाँ अपने अपने भीतर छिपा कर रखने के हुनर को धत्ता बता दी है, ज़िन्दग़ी के ऐडिक्‍शन का यह कवच-कुण्डल है। जज साहेब जैसे अन्त से तो गालियाँ हज़ार गुना बेहतर, जिन्दग़ी का ठेठ अपना स्वाद, र्धती का नमक

  3. आजकल सामान्यत: कथा कम ही पढ़ पाता हूं। यह कहानी सामने आई तो पढ़ गया। दिलचस्प कहानी हॆ। उदय के पास अपनी शॆली हॆ जिसने एक पापुलर थीम को भी विशिष्ट बना दिया हॆ। बहुत पहले एक कहानी पढ़ी थी –ठेलागाड़ी’। शायद हृदयेश जी की थी।याद हो आई।

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