
भाजपा में हर तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार जय-जयकार के बीच हाल ही में दिल्ली के रामलीला मैदान में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद आयोजित की गई थी. उसमें भी लाल कृष्ण आडवाणी ने मोदी को आगाह करने का मौका नहीं गंवाया. भाजपा के इस दिग्गज ने इस मौके पर मोदी की सराहना तो की लेकिन साथ ही साथ यह भी कहा कि पार्टी अगले लोकसभा चुनावों में जीत को लेकर अतिआत्मविश्वास से ग्रस्त हो गई दिखती है. आडवाणी ने आगाह करते हुए कहा कि 2004 में भाजपा लोकसभा चुनाव इसी वजह से हारी थी, इसलिए इससे बचते हुए अगले चुनाव में उतरना चाहिए. इस मौके पर उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा, ‘मैं पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और उन अन्य सहयोगियों को बधाई देना चाहूंगा जिन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने का फैसला किया.’
साफ है कि आडवाणी भले ही मोदी की सराहना कर रहे हों लेकिन वे बार-बार इस तथ्य को स्थापित कर रहे हैं कि मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने के फैसले में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं है. जो दूसरा संकेत उनके बयानों से निकलता है, वह यह है कि उन्हें इस बात का अंदाजा है कि मोदी की अगुवाई की वजह से अतिआत्मविश्वास की शिकार भाजपा बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच रही है.
यही वजह है कि कई सालों से प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब संजोए आडवाणी उम्र के नवें दशक के करीब पहुंचकर भी अपने सपने का साथ छोड़ने को तैयार नहीं हैं. वे राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हैं. राज्यसभा जाने की चर्चाओं को विराम देते हुए उन्होंने साफ कर दिया है कि वे इस बार भी लोकसभा चुनाव लड़ेंगे. इससे पहले एक साक्षात्कार में वे कह चुके हैं कि वे उसी गांधीनगर से लड़ेंगे जहां से गुजरात सरकार की कमान संभालते हुए मोदी, आडवाणी को ही पीछे करके भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन गए.
उनकी राय की अनदेखी करते हुए नरेंद्र मोदी को भाजपा की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया था. इसके बाद जब उन्होंने इस्तीफा दिया और फिर इसे उन्होंने वापस लिया, तो लगने लगा कि आडवाणी ढलान पर हैं और अब उनके लिए आज की राजनीति में जगह नहीं है. इस चर्चा को उस वक्त और मजबूती मिली जब उनकी अनिच्छा के बावजूद मोदी को भाजपा ने अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया. हालांकि, आडवाणी ने इस्तीफा इस शर्त पर वापस लिया था कि भाजपा को लेकर उनकी जो आपत्तियां हैं उन्हें दूर करने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी. तय हुआ था कि पार्टी के बड़े फैसले आपसी सहमति से होंगे और चुनाव अभियान समिति के बड़े फैसलों के लिए भी संसदीय बोर्ड की मंजूरी अनिवार्य होगी. आडवाणी को यह कहकर भी मनाया गया कि मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार नहीं बल्कि सिर्फ चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित किया गया है. लेकिन बाद में उनकी सभी चिंताओं को दरकिनार कर दिया गया.
आडवाणी के पुराने वफादारों में से जो नरेंद्र मोदी के पाले में नहीं गए हैं और अब भी उनके प्रति वफादार हैं, उन लोगों ने और खुद आडवाणी ने भी अपने आप को समझाया कि नाराज होकर बैठ जाना सबसे आसान रास्ता है. इसलिए उन्होंने तय किया कि वे पार्टी में ही नहीं बल्कि चुनावी राजनीति में सक्रिय रहकर अपने प्रधानमंत्री बनने के सपनों को पूरा करने के लिए प्रयासरत रहेंगे. हाल ही में अपनी पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर पुस्तकों से अपने लगाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, ‘अनेक पुस्तकें मुझे फादर एजनेल हाईस्कूल दिल्ली के फादर बेंटों राड्रिग्स ने भेंट की हैं. नरसिम्हा राव के शासनकाल में मेरे विरुद्ध लगाए गए आरोपों के चलते न केवल मैंने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था बल्कि यह घोषणा भी की थी कि जब तक मुझे न्यायालय द्वारा इन आरोपों से मुक्त नहीं किया जाता तब तक मैं संसद में प्रवेश नहीं करूंगा. 1970 में मैं पहली बार संसद के लिए चुना गया था. उसके बाद से सिर्फ इन दो वर्षों (1996-1998) में मैं संसद में नहीं था. इस अवधि के दौरान फदर राड्रिग्स ने मुझे एक प्रेरणास्पद पुस्तक ‘टफ टाइम्स डू नॉट लास्ट! टफ मैन डू’ भेंट की. कुछ महीने पूर्व उन्होंने मुझे एक और रोचक पुस्तक दी जिसका शीर्षक है ‘दि शिफ्ट’. पुस्तक के लेखक हैं डा. वायने डब्ल्यू डायर. पुस्तक का उपशीर्षक है ‘टेकिंग युअर लाइफ फ्रॉम एम्बीशन टू मीनिंग’. इस उपशीर्षक ने तत्काल मेरे मस्तिष्क को झंकृत कर दिया.’ जिन पुस्तकों का उल्लेख आडवाणी कर रहे हैं, उनके नामों से ही साफ है कि वे अभी हार मानने के लिए नहीं बल्कि भिड़ने के लिए तैयार हैं.