
‘वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है.’ यह टिप्पणी प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल ने अपने सबसे चर्चित उपन्यास ‘राग दरबारी’ में की थी. यह उपन्यास आज से लगभग पचास साल पहले लिखा गया था. यह वह दौर था जब शिक्षा के लिए लोग सरकारी स्कूलों पर ही आश्रित थे. गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह निजी स्कूल तब तक नहीं उगे थे. तब सरकारी स्कूल संख्या में तो काफी कम थे लेकिन जो थे उनकी स्थिति आज की तुलना में काफी बेहतर समझी जाती थी. ऐसे में यदि श्रीलाल शुक्ल की टिप्पणी पर आप थोड़ा भी विश्वास करते हैं तो फिर आपको यह भी मानना पड़ेगा कि अब तक तो इस व्यवस्था को इतनी लातें पड़ चुकी हैं कि यह मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई है. पिछले ही महीने सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बीएस चौहान और जस्टिस एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला की खंडपीठ ने भी कहा है कि ‘भारतीय शिक्षा व्यवस्था अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने में पूरी तरह से विफल रही है.’
मगर इससे भी बुरी स्थिति उन प्राथमिक शिक्षकों की है जिन पर इस व्यवस्था को जीवित रखने की जिम्मेदारी है. इसका अंदाजा आप दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका की बातों से लगा सकते हैं जो कहती हैं, ‘सरकार हमें जिस काम की तनख्वाह देती है उसे छोड़कर हमसे सब कुछ करवाती है’. इस शिक्षिका की बातों की सच्चाई आप किसी भी नजदीकी प्राथमिक विद्यालय में एक दिन गुजार कर जांच सकते हैं. दक्षिण भारत के कुछ राज्यों के अलावा लगभग सारे देश में सरकारी प्राथमिक शिक्षा की एक ही कहानी है. यही कहानी हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के एक प्राथमिक स्कूल में भी आप देख सकते हैं.
इस स्कूल में महेश कुमार (बदला हुआ नाम) बतौर शिक्षक तैनात हैं. वे यहां के एकमात्र शिक्षक हैं. वैसे इनका साथ देने को एक शिक्षिका भी हैं. लेकिन वे पिछले दो साल में सिर्फ तीन दिन स्कूल आई हैं. तीन दिन भी इसलिए कि आगे के लिए छुट्टियां ले सकें. पिछले दो साल से महेश ही शिक्षा के इस प्राथमिक मोर्चे पर अकेले डटे हुए हैं. महेश के अलावा राम सिंह (बदला हुआ नाम) भी स्कूल में हैं. वे चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हैं और दशकों से इसी स्कूल में हैं.
सुबह सबसे पहले राम सिंह ही स्कूल पहुंचते हैं. स्कूल का मुख्य प्रवेश द्वार खोलने के बाद वे महेश का ऑफिस खोलते हैं. यह ऑफिस प्रधानाध्यापक कक्ष होने के साथ ही मध्याह्न भोजन की सामग्री का भंडार भी है, स्टाफ रूम भी और तीन अलग-अलग कक्षाओं के लिए क्लास रूम भी. दो कमरों और पांच कक्षाओं वाले इस स्कूल में बाकी दो कक्षाओं के छात्र दूसरे कमरे में बैठते हैं.
राम सिंह के साथ ही स्कूल के छात्र भी वहां पहुंचते हैं. लगभग आठ बजे ही महेश भी अपनी मोटर साइकिल से स्कूल पहुंच जाते हैं. उनके आने तक जितने भी बच्चे स्कूल आ चुके हैं वे मैदान में प्रार्थना के लिए इकट्ठा होते हैं. प्रार्थना शुरू होती है-
मुनियों ने समझी, गुणियों ने जानी, वेदों की भाषा पुराणों की वाणी….
हम भी तो समझें, हम भी तो जानें, विद्या का हमको अधिकार दे मां ….
हे शारदे मां…हे शारदे मां….
आप पूछ सकते हैं कि भारत सरकार तो शिक्षा का अधिकार तीन साल पहले ही इन बच्चों को दे चुकी है तो फिर ये बच्चे मां शारदे से वही अधिकार हर रोज क्यों मांगे जा रहे हैं. इस सवाल का जवाब आपको इस कहानी के अंत तक खुद ही मिल जाएगा.
प्रार्थना के बाद बच्चों की उपस्थिति दर्ज करने का पहला चरण शुरू होता है. इस प्रक्रिया को कई चरणों में करने का कारण सिर्फ यही नहीं है कि पांच अलग-अलग कक्षाओं की उपस्थिति महेश को अकेले ही दर्ज करनी है. दरअसल स्कूल में छात्रों के आने का सिलसिला सुबह आठ बजे से शुरू होकर दोपहर का भोजन खत्म होने तक चलता ही रहता है. कई बच्चे सिर्फ भोजन करने ही स्कूल आते हैं इसलिए भोजन के बाद ही उपस्थिति दर्ज करने का अंतिम चरण निपटता है.
उपस्थिति रजिस्टर बंद करते ही महेश एक अन्य रजिस्टर खोलते हैं. यह मध्याह्न भोजन यानी मिड डे मील का रजिस्टर है. इसमें प्रतिदिन मध्यह्न भोजन से संबंधित ब्योरा दर्ज करना होता है. एक दिन पहले ही महेश बाजार से सारा राशन खरीद कर लौटे हैं. यह सारा राशन उन्होंने अपने पैसों से ही खरीदा है क्योंकि अब तक सरकारी पैसा नहीं पहुंचा है. राशन की खरीद के लिए महेश विद्यालय की जरूरत को नहीं बल्कि सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों को आधार बनाते हैं. इनके अनुसार एक बच्चे के लिए प्रति दिन का जो राशन आवंटित है, उसी अनुपात में उसे खरीदना और पकाना होता है. फिर भले ही रोज खाना ज्यादा बने और उसे फेंकना पड़े. ऐसा ही होता भी है. महाराष्ट्र के लगभग 30 हजार स्कूलों में तो शिक्षकों ने 16 अगस्त से इसी कारण मध्याह्न भोजन बनवाना ही बंद कर दिया है.
बिहार के एक शिक्षक ने लगभग दो साल पहले इस समस्या का उपाय खोज निकाला था. ये शिक्षक विद्यालय की जरूरत के मुताबिक ही खाना बनवाते थे. महीने भर में जो भी पैसा इसकी वजह से बच जाता था उससे स्कूल की अन्य आवश्यक चीजें खरीद ली जाती थीं. ऐसा करके उन्होंने स्कूल में पंखों से लेकर बच्चों के लिए कई सुविधाएं उपलब्ध करवाईं. लेकिन ऐसा करना उनको भारी पड़ा. उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई हो गई, जांच बिठाई गई और उन पर वित्तीय घोटाले के आरोप लगा दिए गए. शायद इसीलिए अब शिक्षक खाना फेंकना ही ज्यादा सुरक्षित मानते हैं.
महेश भी इन्हीं में से एक हैं. वे रोज सरकारी मानकों के हिसाब से खाना बनवाते हैं, इसका हिसाब रजिस्टर में दर्ज करते हैं, प्रतिदिन इसकी रिपोर्ट संबंधित अधिकारियों को भेजते हैं और प्रतिदिन ही बचा हुआ खाना फिंकवाते भी हैं.
महेश इस रजिस्टर को अभी भर ही रहे हैं कि स्कूल की दोनों भोजन-माताएं भी आ जाती हैं. महेश इनको भोजन सामग्री देते हैं जिसे लेकर वे रसोई की तरफ बढ़ जाती हैं. महेश उनको दिए गए एक-एक सामान को विस्तार से अपने रजिस्टर में दर्ज करते हैं. भोजन माताएं दिन के खाने की तैयारी शुरू करती हैं. इस समय से भोजन निपटने तक बस यही काम स्कूल में सबके लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है. आम तौर पर तो महेश का काम बस रजिस्टर में हिसाब-किताब दर्ज करके सामान को आगे भेजने तक का ही होता है. लेकिन जब से बिहार में मिड डे मील से कई बच्चों की मौत हुई है, तब से उनका काम और बढ़ गया है. अब वे खाना बनने के दौरान विशेष निगरानी रखते हैं और कई बार रसोई की तरफ हो आते हैं.
मध्याह्न भोजन का कागजी काम निपटाते ही महेश कुछ बच्चों को अपने पास बुलाते हैं. ये बच्चे वे हैं जिनका बैंक का खाता खुल चुका है. महेश पिछली शाम को ही बैंक से इनकी पासबुक लेकर आए हैं. इन बच्चों को वे उनकी पासबुक सौंपते हैं और यह भी सुनिश्चित करते हैं कि बच्चों ने उन्हें संभाल कर रख लिया है. इसके बाद वे कुछ अन्य बच्चों को नाम लेकर बुलाते हैं. ये वे बच्चे हैं जिनका खाता अब तक नहीं खुला है. इनमें से कुछ बच्चे तो अपनी फोटो और खाता खोलने के लिए जरूरी दस्तावेज ले आए हैं. कुछ ने आज भी ऐसा नहीं किया है. महेश इन बच्चों के बिना किताब स्कूल आने पर तो गुस्सा नहीं होते लेकिन खाता खुलवाने के लिए जरूरी दस्तावेजों का न लाना उनको परेशान कर देता है.
दरअसल किताबें तो बच्चे इसलिए भी नहीं लेकर आते कि लगभग आधे से ज्यादा सत्र बीतने पर भी अभी तक किताबें बच्चों को मिली ही नहीं हैं. कक्षा एक और दो की किताबें तो पिछली गर्मी की छुट्टियों में आ गई थीं लेकिन बाकियों का आना अभी बाकी है. यह आलम सिर्फ हरियाणा का ही नहीं बल्कि अधिकतर राज्यों की यही स्थिति है.
लेकिन खाता खुलवाने में जो देरी हो रही है उसका जवाब महेश से कभी भी लिया जा सकता है. अब सरकार ने यह तय किया है कि बच्चों के वजीफे का पैसा सीधे उनके खातों में जमा करवाया जाए. इसके लिए बैंक में बच्चों के खाते खुलवाए जा रहे हैं. स्कूल शिक्षक के अलावा और कौन इस काम को बेहतर कर सकता है? इसलिए महेश को ही यह काम भी जल्द से जल्द पूरा करना है. ऐसे में कुछ बच्चों का अब तक दस्तावेज न लेकर आना महेश को परेशान करेगा ही. लेकिन वे बच्चों पर अपनी नाराजगी जाहिर नहीं करते. ऐसा करने पर उन्हें दंडित भी होना पड़ सकता है. इसलिए फीकी मुस्कान के साथ कहते हैं, ‘कल मैं ही इनके घर जाकर सारी औपचारिकताएं पूरी कर लूंगा.’
इन बच्चों के खाते खुलवाने के फॉर्म अभी महेश भर ही रहे होते हैं कि स्कूल में चार-पांच लोग दाखिल होते हैं. ये सभी लोग गांव के ही हैं जिनको अपना फोटो पहचान पत्र बनवाना है. इस क्षेत्र के ‘बूथ लेवल ऑफिसर’ यानी बीएलओ भी महेश ही हैं. वे बताते हैं, ‘सरकार के निर्देश हैं कि कोई यदि क्लास के बीच में भी अपना पहचान पत्र बनवाने आता है तो उसको मना नहीं कर सकते.’ महेश उन लोगों के साथ लग जाते हैं और लगभग एक पूरा घंटा उनका काम करते हैं.
शिक्षक को चुनाव संबंधी जो काम सौंपा गया है उसे मोटे तौर से देखने पर आप कह सकते हैं कि चुनाव तो पांच साल में बस एक बार ही होते हैं. ऐसे में शिक्षक के लिए इसे करना कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए. लेकिन तब आपको यह भी ध्यान रखना होगा कि हर पांच साल में लोकसभा चुनाव के अलावा विधान सभा और निकाय चुनाव भी तो आते हैं. इस तरह से हर साल-दो साल में कोई-न-कोई चुनाव आ जाता है. लेकिन इनसे जुड़े कामों में सबसे बड़ा मतदाताओं के पहचान पत्र बनाने का है. इसके लिए कोई भी महेश की कक्षा में बिना सोचे-समझे आ सकता है.