
इस्लाम में सुधारों और बदलाव से जुड़े सवाल का जवाब दो हिस्सों में दिया जाना चाहिए. एक हिस्सा इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों से जुड़े बदलावों से संबंधित होगा और दूसरा अन्य बदलावों से.
जहां तक धर्म के उन सिद्धांतों का सवाल है जो कुरान के मुताबिक बुनियादी या शाश्वत हैं और सभी धार्मिक परंपराओं में एक समान हैं उनमें बदलाव की न तो कोई आवश्यकता है और न ही ऐसा करना जरूरी है. कुरान कहता है, ‘अल्लाह ने तुम्हारे लिए वही दीन (धर्म) मुकर्रर किया है जिसका उसने नूह (पैगंबर) को हुक्म दिया था और जिसकी वाही (आकाशवाणी) हमने तुम्हारी तरफ की है, और जिसका हुक्म हमने इब्राहिम (पैगंबर), मूसा (पैगंबर और यहूदी धर्म के प्रवर्तक) और ईसा (पैगंबर और ईसाई धर्म के प्रवर्तक) को दिया था कि दीन को कायम रखो और उसमें बिखराव न डालो.’ (कुरान 42.13)
धर्म की इस कल्पना के बारे में मौलाना आजाद अपनी किताब ‘तर्जुमानुल कुरान’ में लिखते हैं, ‘सत्य एक है और सभी परंपराओं में समान है. परंतु उसके आवरण अलग-अलग हैं. हमारा दुर्भाग्य यह है कि दुनिया शब्दों की पुजारी है और अर्थ को अनदेखा कर देती है. सभी लोग एक परमेश्वर की उपासना करते हैं लेकिन उस परमेश्वर के अलग-अलग नामों को लेकर झगड़ते हैं.’ मौलाना आजाद इस साझी आध्यात्मिकता को मुश्तरक हक (साझा सत्य) कहते हैं. वे कहते हैं कि धर्म का उद्देश्य ऐसा मानस निर्मित करना है जिससे दैविक करुणा और सुंदरता प्रतिबिंबित हो सके. वे इस बात पर अफसोस जाहिर करते हैं कि धर्म, जो कि मानवीय एकता पैदा करने का माध्यम है उसका इस्तेमाल एकता को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है. मौलाना आजाद जिस साझा सत्य और धर्म के उद्देश्य की बात करते हैं उन्हें कैसे बदला जा सकता है?
इन बुनियादी सिद्धांतों के बाद जो दूसरी बातें हैं उनका संबंध समय से है जोकि निरंतर बदल रहा है. कुरान निरंतर होने वाले परिवर्तनों-जैसे रात और दिन का बदलना, समंदर के ज्वार-भाटे, नदियों का सैलाब, बढ़ती हुई उम्र, इंसानों के अलग-अलग रंग और भाषाएं, विभिन्न सभ्यताओं के उत्कर्ष और पतन आदि – को अल्लाह की निशानियां कह कर पुकारता है और इनका गंभीर अध्ययन करने का आह्वान करता है.
परिवर्तनों के अध्ययन के इस आह्वान से एक बात स्पष्ट होती है. कुरान यह चाहता है कि हमें न सिर्फ परिवर्तनों का बोध रहे बल्कि हम इनके कारण पैदा हुई नई परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना करने के लायक भी बन सकें. कुरान की आयत है- ‘अगर तुम आगे नहीं बढ़ोगे तो अल्लाह तुम्हें दर्दनाक सजा देगा और तुम्हारी जगह दूसरे लोगों को ले आएगा.’ (कुरान 9.39)
निरंतर परिवर्तन हमारे जीवन की सच्चाई है. अगर किसी बेजान वस्तु जैसे किसी पत्थर को पर्यावरण के प्रभावों से बचाकर सुरक्षित रख दिया जाए तो संभव है कि वह हजार साल बाद भी वैसी ही मिल जाए. लेकिन कोई भी ऐसी वस्तु जिसमें जीवन है, वह चाहे मानव हो या पशु या पेड़-पौधे, वह हर दिन के साथ या तो बढ़ेगी या घटेगी. वह एक सी हालत में रह ही नहीं सकती. प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान इब्ने खल्दून ने अपनी किताब ‘मुकद्दिमा’ में लिखा है, ‘दुनिया के हालात और विभिन्न देशों की आदतें हमेशा एक जैसी नहीं रहती हैं. दुनिया परिवर्तन और संक्रांतियों की कहानी का नाम है. जिस तरह से ये परिवर्तन व्यक्तियों, समय और शहरों में होते हैं, उसी तरह दुनिया के तमाम हिस्सों, अलग-अलग दौर और हुकूमतों में होते रहते हैं. खुदा का यही तरीका है जो उसके बंदों में हमेशा से जारी है.’
इस्लामी कानून के विशेषज्ञ डॉ. सिबही मेहमसानी ने इब्ने खल्दून के विचारों के आधार पर अपनी किताब ‘फलसफा शरियते इस्लाम’ में लिखा है, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि दुनिया की इस परिवर्तनशीलता का नतीजा यह है कि मानव समाज का जीवन स्तर बदलने से उसके कल्याण के पैमाने भी बदल जाते हैं. चूंकि मानव की बेहतरी ही कानून की बुनियाद है, इसलिए अक्ल का फतवा यही है कि समय और समाज में तब्दीलियों के साथ-साथ कानून में भी मुनासिब और जरूरी परिवर्तन होते रहें और वह अपने पास-पड़ोस से भी प्रभावित होता रहे.’
एक अन्य इस्लामी विद्वान इब्ने कय्यिम अल जौज़ी ने जोरदार शब्दों में इस बात को रेखांकित किया है, ‘कानून की तब्दीली, समय और काल के परिवर्तन, बदलते हुए हालात और इंसानों के बदलते हुए व्यवहार के साथ जुड़ी है.’ इसी बात को इब्ने कय्यिम ने आगे बढ़ाते हुए कहा है कि मानव समाज और कानून का एक रिश्ता है और इस रिश्ते को न जानने के कारण एक गलतफहमी पैदा हो गई है. इसने इस्लामी कानूनों के क्षेत्र को सीमित कर दिया है. इस्लामी कानूनों के दायरे को सीमित करने वालों के बारे में इब्ने कय्यिम लिखते हैं कि जिस कानून में मसालेह इंसानी (लोक कल्याण) का सबसे ज्यादा लिहाज रखा गया हो उसमें ऐसे तंग नजरियों की कोई गुंजाइश नहीं है. यह बात अपने आप में महत्वपूर्ण है कि आज से 800
साल पहले इब्ने खल्दून ने और 400 साल पहले इब्ने कय्यिम ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि कानून का उद्देश्य केवल और केवल लोक कल्याण है.
इस स्थिति को मुजल्लातुल अहकामुल अदालिया (इस्लामी कानून नियमावली) के अनुच्छेद 39 में और ज्यादा साफ कर दिया गया है. वहां कहा गया है, ‘ला युंकिर तघइय्युरिल अहकाम बित तघाय्युरुज्जमन’, अर्थात इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि जमाना बदलने के साथ-साथ कानून भी बदल जाते हैं. इस संदर्भ में मौलाना अलाई की बात भी बहुत महत्वपूर्ण है, ‘कानून का प्रावधान किसी विशेष कारक पर आधारित होता है. उस कारक के समाप्त हो जाने पर वह प्रावधान भी स्वतः समाप्त हो जाता है.’
जब हम इस्लामी कानून के इतिहास पर नजर डालते हैं तो हमें ऐसे अनेक मामले मिलते हैं जहां विभिन्न कारकों के परिवर्तनों के साथ कानून के प्रावधानों में भी जरूरी परिवर्तन किए गए हैं. इसकी कुछ मोटी-मोटी मिसालें हैंः
- खिराज वह टैक्स है जो खेती करने वालों को देना होता था. इसकी दरें हजरत उमर (इस्लाम धर्म के दूसरे खलीफा या शासक) के जमाने में तय कर दी गई थीं, लेकिन इमाम अबू यूसुफ ने समय बदलने के साथ इन दरों को कम कर दिया.
- इमाम शाफई उन चार इमामों में से हैं जिनके नाम चारों सुन्नी न्याय व्यवस्थाओं के साथ जुड़े हैं. उन्होंने बहुत-सी यात्राएं कीं और वे अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध हैं. अपनी यात्राओं के बाद इमाम शाफई ने अपनी बहुत -सी मान्यताओं, जिनको इतिहास में इराकी मजहब कहा गया है, को छोड़कर नया मिस्री मजहब इख्तियार कर लिया.
- मुस्लिम हुकूमत के पहले दौर में स्कूल में पढ़ाने वाले उलेमा के लिए बड़े-बड़े वजीफे मुकर्रर थे. इस आधार पर इमाम अबू हनीफा और उनके साथियों ने कुरान और दूसरे धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाने के लिए उन्हें मेहनताने देने पर पाबंदी लगा दी थी. बाद में जब वजीफे बंद हो गए तो उस समय के उलेमा ने फतवे देकर इस प्रकार की तनख्वाह को जायज करार दे दिया.काल और समय के परिवर्तन के साथ कानून में परिवर्तन के सिद्धांत को इस्लामी न्यायसंहिता में पूरी मान्यता है. लेकिन ऊपर जितने उदाहरण दिए गए हैं वे उन कानूनों से संबंधित हैं जो मुस्लिम विधि शास्त्रियों की राय और फतवों के आधार पर बनाए गए थे. इनके अतिरिक्त वे कानून भी हैं जिनका आधार कुरान और सुन्नत (परंपराएं) है. इनकी महत्ता इस्लामी कानूनों में सबसे ज्यादा है. हालांकि यह माना जाता है कि कुरान और सुन्नत पर आधारित किसी भी कानून को बदला नहीं जा सकता, लेकिन इतिहास में ऐसी कई मिसालें मिलती हैं. खास तौर से हजरत उमर की खिलाफत के दौर में जहां उन्होंने समय और परिस्थितियों में बदलाव के कारण उन कानूनों और नियमों में परिवर्तन किए जिनका संबंध सीधे कुरान और सुन्नत से था. ऐसे कुछ उदाहरण हैं:
- कुरान में खैरात और सदकात (दान-दक्षिणा) के लिए स्पष्ट प्रावधान है: “सदकात दरअसल फकीरों और मिसकीनों (वंचितों) के लिए है, नेक काम में लगे लोगों के लिए, उनके लिए जिनको तकलीफ-ए-कल्ब (दिल भराई) की जरूरत है, गुलामों को आजाद कराने और दूसरों के कर्जे अदा करने के लिए और अल्लाह के रास्ते पर चलने वाले मुसाफिरों की मदद के लिए. (कुरान 9.60)यहां दिल भराई से मतलब वे लोग या नए मुसलमान थे जिनको पैगंबर साहब कुछ रकम दिया करते थे. इस्लामी टीकाकार बैहक्की ने लिखा है कि कुरान के इस प्रावधान के बावजूद हजरत उमर ने दिल भराई वालों का हिस्सा देना बंद कर दिया और कहा कि पैगंबर साहब यह रकम तुम्हें इसलिए दिया करते थे कि तुम्हारी दिल भराई करके तुम्हें इस्लाम पर कायम रख सकें. लेकिन अब ऐसा करने की जरूरत नहीं है.
- हदीस (हजरत मुहम्मद साहब के वचनों का संकलन) की प्रसिद्द किताब ‘सही मुस्लिम’ के मुताबिक पैगंबर साहब, हजरत अबू बक्र (इस्लाम धर्म के पहले खलीफा) और हजरत उमर की खिलाफत के आरंभिक दौर में एक साथ तीन बार कहे गए तलाक को एक ही माना जाता था बाद में जब लोग तलाक में जल्दी करने लगे तो हजरत उमर ने उन्हें एक ही बार में तीन तलाक देने की इजाजत दे दी. (मुस्लिम किताब 009, हदीस नंबर 3493)हजरत उमर ने अपने जमाने के लिहाज से जिस राय को बेहतर समझा उसको लागू किया लेकिन यह भी सही है कि बहुत-से उलमा ने हजरत उमर की इस राय से सहमत नहीं थे और आज भी इस्लामी कानून की कई धाराओं में एक वक्त के तीन तलाक को एक तलाक ही माना जाता है. शेख अहमद मोहम्मद शाकिर ने अपनी किताब ‘निजामे तलाक फी इस्लाम’ में लिखा है कि हजरत उमर का यह फैसला एक हंगामी हुकुम की हैसियत रखता है जो उन्होंने सियासती जरूरत के चलते दिया था.
- इस्लामी कानून में चोरी की सजा हाथ काटना है और इसका प्रावधान कुरान में है – ‘और चोर मर्द और चोर औरत दोनों के हाथ काट दो, यह उनकी कमाई का बदला है’ (कुरान 5.38)खुद पैगंबर साहब ने इस प्रावधान के तहत चोरी करने वालों को यही सजा दी थी, लेकिन हजरत उमर ने अकाल के समय जनहित में इस सजा को निलंबित कर दिया और इस को आम तौर पर स्वीकार कर लिया गया.
- किसी अविवाहित व्यक्ति द्वारा अवैध यौन संबंध की सजा इस्लामी कानून के अनुसार 100 कोड़े और एक साल के लिए उस स्थान से बाहर भेज देना है. लेकिन हजरत उमर के बारे में आया है कि जब उन्होंने राबिया बिन उमय्या को शहर से निकाला तो वह जा कर रोमन लोगों से मिल गया जिनके साथ उस समय जंग चल रही थी. इस पर हजरत उमर ने कहा कि अब मैं कभी किसी को शहर से बाहर नहीं निकालूंगा. हजरत उमर का यह फैसला भी वक्त और हालात के हिसाब से राज्य के हित में लिया गया फैसला था जो साफ तौर पर इस्लामी कानून के प्रावधानों से अलग था.
- इस्लामी कानून उन अपराधों के मामले में शासक को सजा तय करने का अधिकार देते हैं जहां साफ तौर पर किसी सजा का प्रावधान नहीं है. लेकिन एक हदीस में यह साफ कर दिया गया है कि यह सजा 10 कोड़ों से ज्यादा नहीं हो सकती. मगर हजरत उमर ने एक मामले में, जहां एक आदमी ने सरकारी खजाने की जाली मोहर बना ली थी, 100 कोड़ों की सजा सुनाई. इमाम मालिक जो हदीस के पहले संकलनकर्ता हैं उन्होंने इस मामले में कहा है कि 10 कोड़ों की सजा पैगंबर साहब के समय के हिसाब से सही थी. यह हर दौर में लागू नहीं होती है.
- हत्या के मामले में इस्लामी कानून में ‘खून बहा’ का प्रावधान है. इसके अनुसार हत्या करने वाले या उसके कबीले पर यह जिम्मेदारी आती है कि वह एक निर्धारित रकम मारे गए व्यक्ति के परिजनों को दे. लेकिन हजरत उमर ने इस तरीके को बदल दिया. इसका कारण यह था कि उन्होंने पहली बार शासन और फौज को संगठित किया तो सामूहिक सत्ता कबीलों के हाथ से निकलकर सरकार के पास आ गई
इमाम सरखासी ने इस फैसले की तारीफ करते हुए कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि हजरत उमर का यह फैसला पैगंबर साहब की परंपरा से हट जाना था. वास्तव में यह उसी परंपरा के अनुसार था क्योंकि वे यह जानते थे कि पैगंबर साहब ने यह जिम्मेदारी कबीले पर इसलिए डाली थी कि उनके समय कबीला ही शासन और सत्ता की बुनियादी इकाई था. लेकिन सरकारी फौज के संगठित होने के बाद सत्ता फौज के हाथ में आ गई और बहुत बार फौजी होने के नाते आदमी कभी-कभी अपने ही कबीले के खिलाफ जंग करने के लिए मजबूर होता था. दूसरी तरफ इमाम शाफई ने इस तर्क को पैगंबरी परंपरा के खिलाफ कह कर रद्द कर दिया.
इस बहस से इतना तो साफ है कि इस्लामी परंपरा में कानून कोई जड़ संस्था नहीं है बल्कि हर प्रसंग के प्रति अत्यंत संवेदनशील है. ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि इस्लामी कानून में इतनी जीवंतता और लोच है कि यह बदलते हुए वक्त के हर तकाजों और चुनौतियों का सकारात्मक उत्तर दे सके. इस सिलसिले में सबसे मजबूत और दिलचस्प तर्क सर सैयद अहमद खान (1817-1898) ने दिया है. उन्होंने कहा कि कुरान खुदा का शब्द है और जो कुछ हम दुनिया में देखते हैं वह खुदा का कर्म है. उन्होंने कहा कि यह असंभव है कि खुदा की कथनी और करनी में विरोधाभास हो. अगर हमें दोनों में अंतर नजर आता है तो इसका एक ही मतलब है कि हमने खुदा के कहे को सही तरह से समझा नहीं है. इसलिए हमें उस प्रावधान विशेष के बारे में अपनी समझ की पुनर्समीक्षा करनी होगी और शब्द और कर्म के बीच सामंजस्य स्थापित करना होगा.