
उत्तराखंड के लिए मई का पहला हफ्ता दो कारणों से बेहद महत्वपूर्ण है. एक, प्रदेश की पांचों लोकसभा सीटों पर मतदान होने हैं और दूसरा, चार धाम यात्रा शुरू होनी है. प्रदेश में सत्तासीन कांग्रेस इन दोनों ही मोर्चों पर विफलता के मुहाने पर खड़ी है. लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी की तैयारियां बेहद कमजोर हैं तो चार धाम यात्रा के लिए उसकी सरकार की तैयारियां जर्जर हालत में हैं. पिछले साल 16-17 जून को उत्तराखंड के पहाड़ों पर पानी कहर बनकर टूटा था. इसमें दर्जनों गांव, सैकड़ों भवन और हजारों लोगों का अस्तित्व हमेशा के लिए मिट गया. इस आपदा का सबसे ज्यादा प्रभाव केदारनाथ इलाके में हुआ था. केदारनाथ मंदिर तो सुरक्षित रहा लेकिन इसके आसपास और मंदाकनी घाटी में सैकड़ों किलोमीटर तक सब कुछ तबाह हो गया. दर्शन करने आए हजारों यात्रियों की मौत हो गई और हजारों लापता हुए. आशंका जताई जा रही थी कि यात्रा शायद अब दो-तीन साल तक संभव नहीं होगी. हालांकि कुछ महीनों बाद ही केदारनाथ मंदिर में दोबारा से पूजा शुरू कर दी गई, लेकिन यह औपचारिकता मात्र ही थी. श्रद्धालुओं का मंदिर तक पहुंच पाना असंभव था. सभी मोटर और पैदल मार्ग ध्वस्त हो चुके थे. ऐसे में मंदिर समिति के कुछ लोगों और पुजारियों को हवाई मार्ग से मंदिर तक पहुंचाया गया और पूजा शुरू हुई.
इस आपदा में हजारों स्थानीय लोग बेघर हुए और सैकड़ों गांवों के सभी संपर्क मार्ग टूट गए. ऐसे में सरकार की दो महत्वपूर्ण प्राथमिकताएं थीं. एक, प्रभावित लोगों का पुनर्वास और दूसरा, प्रभावित क्षेत्रों का पुनर्निर्माण. लेकिन सरकार ने एक तीसरे ही विकल्प को अपनी प्राथमिकता बनाया. वह था किसी भी तरह केदारनाथ यात्रा को जल्द से जल्द दोबारा शुरू करना. उत्तराखंड में सात मई को लोकसभा के लिए मतदान होना है. इससे तीन दिन पहले ही चार मई को केदारनाथ यात्रा शुरू हो रही है. चुनाव प्रचार में यात्रा के शुरू होने को एक उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है. सरकार यह संदेश देना चाहती है कि उसने इतने कम समय में ही इतनी भीषण आपदा से निपट कर चार धाम यात्रा को सुचारू कर दिया है. लेकिन हकीकत यह है कि हजारों प्रभावित लोगों के पुनर्वास और उनकी मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज करके वह दूसरे हजारों लोगों को एक खतरनाक यात्रा का निमंत्रण दे रही है.
केदारनाथ यात्रा के शुरू होने से एक हफ्ता पहले तहलका ने पूरे यात्रा मार्ग का दौरा किया. हमने देखा कि पूरा रास्ता कदम-कदम पर सरकार की असफलताओं की गवाही देता है. इससे साफ लगता है कि इस यात्रा को सुचारु बनाने का यह दावा एक खतरनाक चुनावी स्टंट ही है.
पिछले साल आई आपदा से अब तक 10 महीने से ज्यादा का समय बीत चुका है. इस दौरान प्रभावित लोगों और क्षेत्रों की स्थितियां सुधारने के लिए सभी समीकरण अनुकूल थे. प्रदेश और केंद्र दोनों जगह एक ही पार्टी यानी कांग्रेस की सरकार थी, आपदाग्रस्त क्षेत्र सहित प्रदेश के पांच में से चार सांसद कांग्रेस के ही थे, वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत उस वक्त केंद्रीय जल संसाधन मंत्री थे, सरकारी और गैर-सरकारी स्रोतों से आया अरबों रुपये का राजस्व था और साथ ही लाखों लोग स्वयंसेवक बनकर सरकार की हर संभव मदद को उतर आए थे.
इस सबके बावजूद भी सरकार ने स्थानीय लोगों और यात्रा की तैयारियों को जिस स्थिति में छोड़ दिया है उसे यात्रा मार्ग के अनुसार ही देखते हैं.
उत्तराखंड में चार धाम यात्रा का पहला और शुरूआती पड़ाव ऋषिकेश माना जाता है. यहां तक यात्री रेल और हवाई जहाज के माध्यम से भी पहुंचते हैं. इससे आगे का पहाड़ी सफर यात्रियों को सड़क से ही तय करना होता है. ऋषिकेश से केदारनाथ की दूरी लगभग 225 किलोमीटर है. पिछली आपदा से सबक लेते हुए उत्तराखंड पर्यटन विभाग ने इस साल ऋषिकेश में यात्रियों के पंजीकरण की व्यवस्था शुरू की है. पंजीकरण न होने के कारण ही पिछले साल राहत कार्यों में लगी टीमों के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं था जिससे वह जरूरतमंद लोगों की संख्या का अनुमान लगा सकें. लापता और मृतकों की संख्या का भी इसी कारण कोई पता नहीं लग सका था. पर्यटन विभाग के अपर निदेशक एके द्विवेदी बताते हैं, ‘ऋषिकेश में यात्रियों के बायोमेट्रिक रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था शुरू की गई है. इसके अलावा यात्रा मार्ग पर जगह-जगह सत्यापन केंद्र बनाए जा रहे हैं. सत्यापन होने पर ही यात्रियों को दर्शन के लिए जाने दिया जाएगा.’ पंजीकरण और सत्यापन का यह काम दक्षिण भारत की एक संस्था को सौंपा गया है. ‘त्रिलोक सेक्युरिटी सिस्टम्स’ नाम की यह संस्था वैष्णो देवी, तिरुपति और अजमेर की दरगाह शरीफ समेत कई बड़े धार्मिक स्थलों पर भी पंजीकरण का काम करती है. संस्था के प्रबंध निदेशक रविचंद बताते हैं, ‘उत्तराखंड में हमारे 15 केंद्र होंगे. इनमें से पांच मोबाइल केंद्र होंगे जो अलग-अलग जगहों पर जाकर भी पंजीकरण और सत्यापन का काम करेंगे. इसके लिए अभी हमारे लगभग 120 लोग वहां काम कर रहे हैं.’ यह संस्था अपने काम के लिए न तो उत्तराखंड सरकार से और न ही यात्रियों से कोई शुल्क लेती है. इस बारे में रविचंद बताते हैं, ‘पंजीकरण के समय हम हर यात्री को एक कार्ड (प्रवेश पत्र) देते हैं. इसी में यात्रियों की सारी जानकारियां दर्ज होती हैं. इसके पिछली तरफ हम विज्ञापन छापते हैं. यह विज्ञापन भी व्यापारिक नहीं होते बल्कि केंद्रीय मंत्रालयों के सामाजिक विज्ञापन होते हैं. इसी से हमारी वित्तीय जरूरतें भी पूरी हो जाती हैं.’
ऋषिकेश में यात्रियों का पंजीकरण होते देखकर यात्रा की शुरुआत में एक सुखद एहसास होता है. लगता है कि यात्रा की व्यवस्थाएं सुधारने की दिशा में सरकार ने काम किए हैं. हालांकि इसमें सरकार का कोई खास योगदान नहीं है. यह संस्था स्वयं ही पंजीकरण का प्रस्ताव लेकर उत्तराखंड सरकार के पास आई थी और प्रदेश सरकार को बिना कोई पैसा खर्च किए ही यह सुविधा मिल गई है. ऋषिकेश से कुछ आगे बढ़ने पर भी यह सुखद एहसास बना रहता है. लगभग 15 किलोमीटर दूर बसे शिवपुरी इलाके में आपदा का कोई प्रभाव नहीं दिखता. यहां आज भी पुरानी रौनक बरकरार है. सड़क से नीचे गंगा बहती है और उसके चौड़े-चौड़े किनारों पर कई व्यावसायिक टेंट लगे हैं. चमचमाती सफेद रेत पर बने टेंट, उनके बाहर वॉलीबाल खेलते देशी-विदेशी यात्री और नदी की बलखाती धारा में हो रही राफ्टिंग. शिवपुरी से लगभग 20 किलोमीटर आगे कौडियाला तक यात्रा मार्ग के निचली तरफ ऐसे ही रोमांचक दृश्य मिलते हैं. इन मोहक दृश्यों के कारण सड़क की टूटी-फूटी हालत और बीच-बीच में पहाड़ों से पत्थर गिरने पर भी यात्रियों का ध्यान अब तक नहीं जाता.

केदारनाथ यात्रा मार्ग पर ऋषिकेश के बाद पहला बड़ा पड़ाव आता है श्रीनगर. ऋषिकेश से लगभग 100 किलोमीटर दूर बसे इस नगर में आपदा का पहला बड़ा सबूत मिलता है. शहर की शुरुआत में ही सड़क से लगी आईटीआई की इमारत यात्रियों को पिछले साल की आपदा का पहला किस्सा सुनाती है. इस इमारत की एक मंजिल आज भी रेत के नीचे दफन है. श्रीनगर में सरकारी भवनों के अलावा लगभग 70 घरों में नदी का पानी और मलवा भर गया था. इन भवनों का सारा सामान इस रेत के नीचे ही दफन होकर बर्बाद हो गया. इस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा लोगों को सुझाव दे रहे थे कि ‘घरों में रेत भर गई है तो निकालो और बेचो.’ सरकार की उदासीनता के चलते अंत में लोगों ने अपने-अपने घरों से खुद ही मलवा साफ करवाया. सरकारी भवन आज भी वैसे ही मलवे में दबे पड़े हैं. आईटीआई की दुमंजिला इमारत की आज बस एक ही मंजिल जमीन से ऊपर है. इसमें पढ़ने वाले छात्रों के लिए जहां वैकल्पिक व्यवस्था की गई है वहां कुल उतने कमरे भी नहीं हैं जितनी इस परिसर में इमारतें थी. इस आईटीआई परिसर के बिलकुल साथ में हो रहा एक निर्माण कार्य भी अपनी ओर ध्यान खींचता है. नदी के साथ आए मलवे को साफ करने की जगह उसी के ऊपर एक भव्य इमारत खड़ी की जा रही है. आपदा के बाद इस क्षेत्र में किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगा दी गई थी. इसके बावजूद भी यह इमारत राष्ट्रीय प्रोद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) के लिए बनाई जा रही है. श्रीनगर निवासी सामाजिक कार्यकर्ता मानव बिष्ट बताते हैं, ‘एनआईटी की यह इमारत दस करोड़ की लागत से बनाई जा रही है. सरकार का तर्क है कि यह प्री फैब्रिकेटेड इमारत है लिहाजा इसे जरूरत पड़ने पर किसी दूसरे स्थान तक सुरक्षित पहुंचाया जा सकता है. लेकिन यह क्षेत्र सुरक्षित नहीं है और इस आपदा में यह प्रत्यक्ष देखा भी जा चुका है. ऐसे में 10 करोड़ रुपये इस असुरक्षित निर्माण पर खर्च करने का क्या औचित्य है?’ मानव बिष्ट का अपना घर भी इस आपदा में पूरी तरह रेत में दब चुका है. श्रीनगर में अब एक मात्र वे ही हैं जिन्होंने अभी तक घर से मलवा नहीं हटाया. अपने घर की हालत दिखाते हुए वे कहते हैं, ‘घर का सारा सामान और मेरे दो दुपहिया वाहन इस मलवे के नीचे दफन हैं. मैंने घर इसलिए साफ नहीं करवाया क्योंकि मैं स्थायी समाधान की मांग कर रहा हूं. यह क्षेत्र अब सुरक्षित नहीं है. सरकार को इस क्षेत्र के प्रभावित लोगों का विस्थापन करना चाहिए.’ बिष्ट आगे बताते हैं, ‘श्रीनगर की जल विद्युत परियोजनाएं यहां के लोगों के लिए अभिशाप बनीं. ये सारा मलवा जो लोगों के घरों में भर गया था वह यहां बिजली परियोजना बना रही जीवीके कंपनी द्वारा डंप किया गया मलवा था. इस तबाही के लिए ये परियोजनाएं सीधे तौर से जिम्मेदार हैं.’
कई रिपोर्टों के मुताबिक उत्तराखंड विश्व के उन क्षेत्रों में से एक है जहां जल विद्युत परियोजनाओं का घनत्व सबसे ज्यादा है. बीती आपदा के बाद यह बहस तेज हो गई थी कि ये परियोजनाएं भी आपदा का एक कारण हैं. एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए पिछले साल 13 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को इस संदर्भ में जांच निर्देश दिए. इस पर मंत्रालय ने एक 11 सदस्यीय टीम का गठन किया था. 28 अप्रैल 2014 को इस टीम ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी रिपोर्ट पेश की है. इसमें पहली बार यह बात आधिकारिक तौर से कही गई है कि ये परियोजनाएं भी आपदा का एक कारण हैं और इनसे पर्यावरण को कई खतरे हैं. रिपोर्ट में उत्तराखंड की कई परियोजनाओं की अनुमति निरस्त करने की भी संस्तुति की गई है.
इन परियोजनाओं का पहले भी समय-समय पर विरोध होता रहा है. श्रीनगर में जीवीके कंपनी द्वारा बनाई जा रही परियोजना का तब सबसे ज्यादा विरोध हुआ था जब स्थानीय धारी देवी मंदिर के इस परियोजना से डूबने की बात सामने आई. यह मंदिर श्रीनगर से लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहां के लोगों की आस्था का केंद्र है. जीवीके कंपनी ने मंदिर के पास ही एक ऊंचा मंच तैयार कर मंदिर को वहां स्थापित करने की बात कही थी. स्थानीय लोगों ने इसका जमकर विरोध किया और मंदिर नहीं हटने दिया था. श्रीनगर निवासी प्रमोद बेलवाल बताते हैं, ‘आपदा के दौरान जब पानी बढ़ने लगा तो जीवीके कंपनी ने बांध की सुरंगों को नहीं खोला. उन्होंने नदी का पानी बढ़ने दिया और लोगों को डराया कि मंदिर डूबने वाला है. आपदा की आड़ लेकर कंपनी ने मंदिर को अपने बनाए मंच के ऊपर स्थापित करवा लिया. इसके बाद जो पानी नदी में भर गया था उसे एक साथ ही छोड़ दिया. इस कारण श्रीनगर में नुकसान कई गुना बढ़ गया.’
यात्रा मार्ग पर श्रीनगर से कुछ ही आगे बढ़ने पर सिरोबगड़ नामक इलाका पड़ता है. इस इलाके में खड़ा एक दैत्य रुपी पहाड़ पिछले कई साल से यात्रा में बाधा उत्पन्न करता है. यह पहाड़ हर साल टूटता है और कई बार तो पूरी सड़क ही इससे धंस जाती है. सरकार के पास आज तक इसका कोई इलाज नहीं है. इस समस्या से निपटने के नाम पर बस यहां एक छोटा-सा मंदिर बना दिया गया है. यात्री भले ही सिरोबगड़ में हर साल फंसते हों, लेकिन सरकार आस्था का सहारा लेकर इस बाधा को अपनी जिम्मेदारियों समेत लांघ चुकी है.
यहां से कुछ आगे बढ़ने पर आपदा के निशान और गाढे होते जाते हैं. रुद्रप्रयाग में नदी से काफी ऊपर बने भवन भी टूट कर लटकते हुए दिखाई पड़ते हैं. सड़क जगह-जगह पर अब भी इस तरह से कटी हुई है कि किसी भी पल पूरी धंस जाए. हालांकि स्थानीय लोग बताते हैं कि जब से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन हुआ है और हरीश रावत मुख्यमंत्री बने हैं तब से सड़कों का काम बहुत तेजी से हो रहा है. यह काम प्रदेश के लोक निर्माण विभाग द्वारा किया जा रहा है. विभाग के मुख्य अभियन्ता केके श्रीवास्तव बताते हैं, ‘अनुमति देरी से मिलने के कारण कुछ जगह निर्माण कार्यों में देरी हुई है. कई जगह यह तय नहीं हो पा रहा था कि काम सीमा सड़क संगठन द्वारा किया जाना है या लोक निर्माण विभाग द्वारा.’ इस मुद्दे पर स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अजेंद्र अजय कहते हैं, ‘सरकार की प्राथमिकता यह नहीं थी कि काम जल्द से जल्द हो. इनकी प्राथमिकता यह थी कि काम कौन-सा संगठन करे. लोक निर्माण विभाग द्वारा काम किए जाने पर आसानी से इनका कमीशन तय हो जाता है.’
आपदा के बाद वर्ल्ड बैंक की वित्तीय मदद से ‘उत्तराखंड डिजास्टर रिकवरी प्रोजेक्ट’ बनाया गया था. इसका मुख्य उद्देश्य था आपदा प्रभावित इलाकों में पुनर्निर्माण करना. लेकिन इसकी स्थिति यह है कि इसके तहत आज तक एक भी काम नहीं हुआ है. इस प्रोजेक्ट के मुख्य अभियन्ता केके श्रीवास्तव बताते हैं, ‘मैं पिछले लंबे समय से केदारनाथ सड़क मार्ग पर काम कर रहा हूं. अभी हमारी प्राथमिकता यही है. जहां तक इस प्रोजेक्ट का सवाल है तो इसमें अभी तक तीन अनुबंध ही हुए हैं. क्रियान्वयन के स्तर पर अभी तक इसमें कुछ भी नहीं हो पाया है. लेकिन अब काम तेजी से चल रहा है.’ श्रीवास्तव आगे बताते हैं, ‘इस बार जिस तेजी से काम हो रहा है वह सच में तारीफ के काबिल है. इससे पहले यदि कहीं भी काम होता था तो ज्यादा से ज्यादा कुछ जूनियर इंजीनियरों को ही मौके पर भेजा जाता था. लेकिन इस बार सभी बड़े अधिकारी न सिर्फ मौके पर जा रहे हैं बल्कि कई-कई दिनों वहीं रह भी रहे हैं.’ हालिया दिनों में सड़क निर्माण में आई इस तेजी के बारे में अजेंद्र अजय बताते हैं, ‘सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से स्टेटस रिपोर्ट मांगी थी. 28 अप्रैल तक सरकार को यह रिपोर्ट कोर्ट में पेश करनी थी. सिर्फ इसी डर से काम में यह तेजी देखी जा रही है.’
ये सरकार काम की ही नही थी खुनी सरकार थी