कितने कमलेश्वर!

Article-kamlesh
इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव

कमलेश्वर जी से मेरी पहली मुलाकात 1957 में इलाहाबाद में प्रगतिशील लेखक संघ के एक बड़े आयोजन में हुई थी. मैं तब कलकत्ता में रहती थी और लेखन में बस कदम ही रखा था. राजकमल प्रकाशन से मेरा एक कहानी संग्रह छप चुका था, लेकिन तब भी मैं खुद को साहित्यकारों में शुमार कर पाने की न हिम्मत रखती थी न हैसियत. जब इस आयोजन में शामिल होने के लिए मुझे अमृत राय जी का निमंत्रण मिला तो मैं चकित तो हुई लेकिन चकित से ज्यादा उल्लसित भी. लगा जिन लेखकों को आज तक पढ़ती आई उनसे मिलना होगा, उन्हें देखूंगी-सुनूंगी. जब राजेन्द्र ने बताया कि वे इस आयोजन में भाग लेने जा रहे हैं तो मैं भी उनके साथ लटक ली. वहीं मैंने हजारी प्रसाद द्विवेदी और महादेवी वर्मा के अविस्मरणीय भाषण सुने. वहीं मैं मोहन राकेश, कमलेश्वर जी, नामवर जी, फणीश्वरनाथ रेणु से मिली और उनसे बात की, लेकिन निकटता बनी तो केवल कमलेश्वर जी, राकेश जी और बाद में नामवर जी से.

कमलेश्वर जी उन दिनों इलाहाबाद में ही रहते थे और इस आयोजन में व्यवस्थापक की भूमिका में थे. उन्होंने मुझे अपनी एक मित्र दीपा के यहां ठहराया. वे आयोजन में भूत की तरह काम कर रहे थे. कभी रात को एक बजे तो कभी दो बजे खाना खाने आते. दीपा उनकी प्रतीक्षा में जगती रहती थी और खाना गरम करके खिलाती. अगर कमलेश्वर जी उस आयोजन की व्यवस्था में लगे हुए थे तो दीपा उनकी देखभाल में! मुझे लेकर वह दीपा को आदेश देते रहते कि वह मेरी सुख-सुविधा और जरूरतों का पूरा ध्यान रखे, मुझे किसी तरह की असुविधा न हो. उन तीन दिनों में मैं इतना तो समझ ही गई कि दीपा उनकी मित्र से अधिक बढ़कर ‘कुछ’ है. कलकत्ता लौटकर कमलेश्वर जी और राकेश जी से मेरा पत्र-व्यवहार भी शुरू हो गया. कुछ समय बाद कमलेश्वर जी ने दीपा के साथ मिलकर ‘श्रमजीवी प्रकाशन’ खोला और उसके लिए पुस्तकें मांगीं तो मैंने ‘तीन निगाहों की एक तस्वीर’ नाम से अपने दूसरे कहानी-संग्रह की पाण्डुलिपि भेज दी और राजेंद्र ने ‘कुलटा’ नाम की उपन्यासिका. दोनों पुस्तकें उन्होंने छापीं भी.

गर्मी की छुट्टियों में मैं अजमेर चली गई थी. वहीं कमलेश्वर जी का पत्र मिला कि दीपा आपके पास आ रही है आप उसे राजस्थान के तीन-चार शहरों के प्रमुख पुस्तक-विक्रेताओं से मिलवा दीजिए और श्रमजीवी प्रकाशन की पुस्तकों के अधिक से अधिक ग्राहक बनवाने की कोशिश कीजिए, प्रकाशन के लिए मित्रों का सहयोग बहुत-बहुत जरूरी है! काफी गर्मी थी और मैं चर्म रोग से पीड़ित थी लेकिन दीपा आई तो उसे लेकर मैं जोधपुर और जयपुर तो गई – इससे अधिक मेरे लिए संभव नहीं था. बात दीपा ही करती थी और जमकर करती थी पर बहुत कोशिश के बावजूद दोनों शहरों से पांच-पांच प्रतियों की व्यवस्था ही हो पाई. वह जब बात करती थी तो मैं सिर्फ दीपा को देखती रहती थी उत्साह से भरी श्रमजीवी को सफल बनाने के लिए कृत-संकल्प. मेरे मन में एक ही बात उभरती कि सह-जीवन की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए कितना उत्साह भरा है यह सह-आयोजन. पर कोई साल-सवा साल बाद मुझे कमलेश्वर जी की शादी का कार्ड मिला- शादी हो रही थी गायत्री सक्सेना से. मैं हैरान-परेशान. यह क्या किया कमलेश्वर जी ने, क्यों किया, कैसे किया? क्या बीत रही होगी दीपा पर? उस समय तक कमलेश्वर जी से संबंध केवल पत्रों तक ही सीमित था. इतनी अनौपचारिक नहीं हो पाई थी कि उनसे कुछ पूछती या फटकारती सो बिना कुछ पूछे-कहे जो भी हुआ, उसे स्वीकार कर लिया. बहुत बाद में जब सारी स्थितियां खुलीं तो जो दुख उस समय दीपा के लिए उभरा था, वह गायत्री भाभी के लिए भी उभर आया! पता नहीं गायत्री भाभी को इस प्रसंग के बारे में कुछ मालूम भी था या नहीं!

कमलेश्वर जी से दूसरी मुलाकात दिल्ली में उनके नाई वालान गली के मकान में हुई जहां वे गायत्री भाभी के साथ रहते थे. कलकत्ता से मैं अकेली ही दिल्ली आई थी. उनसे मिलना तो था ही साथ ही अपने द्वारा संपादित ‘नई कहानियां’ के लिए कहानी भी लेनी थी. मैंने कोई पंद्रह दिन पहले ही लिख दिया था कि मैं दिल्ली आ रही हूं कहानी तैयार रखियेगा. जिंदगी में पहली और अंतिम बार संपादन का काम कर रही थी सो पूरी लगन से जुटी थी. उनके बताए पते पर पहुंची. शुरू की कुछ औपचारिक बातों के बाद मैंने अपनी मांग रख दी. बेहद निश्चिंत भाव से हंसते हुए उन्होंने कहा, ‘ठीक है कल ले लेना कहानी.’

‘लिख ली है क्या जो कल दे देंगे?’ उनके हाव-भाव व्यवहार से ही लग रहा था कि उन्होंने कहानी लिखी ही नहीं है!

‘लिखी तो नहीं, पर चलो अभी शुरू कर देते हैं.’

‘मजाक मत करिए कमलेश्वर जी, मैंने आपको कितने दिन पहले लिख दिया था और आप हैं कि…’ इस बार मेरी आवाज में मनुहार की जगह गुस्सा था.

मेरी पीठ थपथपाते हुए उन्होंने मुझे तसल्ली दी, ‘कहा न तुम्हें कल मिल जाएगी तो समझो कि बस कल मिल जाएगी.’

कमलेश्वर जी ने दरी बिछाई, कागज-कलम लिया और पेट के नीचे तकिया रखकर उल्टे लेट गए.

‘देखो मैं कहानी शुरू करता हूं, तब तक तुम गायत्री के पास एक प्याला कॉफी पियो.’ और भाभी को कॉफी बनाने को कहकर वे सचमुच लिखने बैठ गए.

पत्रों में हम चाहे अब तक बहुत अनौपचारिक हो गए थे पर मात्र दूसरी मुलाकात में ही इस तरह का नाटक मैं गले नहीं उतार पा रही थी. मैं मिलने आई हूं और ये कहानी लिखने बैठे हैं. इस तरह तो न बातचीत होगी, न कहानी. मन मारकर उठी और मैं रसोई में चली गई. वहीं मैं भाभी से पहली बार मिली थी. उन्होंने नमस्ते किया और कॉफी बनाने लगीं. एक चुपचुप उदास चेहरा. खयाल आया कि इस उदासी के पीछे कहीं दीपा-प्रसंग तो नहीं छिपा. मैं आई और कमलेश्वर जी ने भाभी को मुझसे मिलने के लिए बाहर भी नहीं बुलाया, न ही वे खुद आईं. सब कुछ बड़ा असहज, असामान्य सा लगा. मन हुआ कि इस बारे में अब कमलेश्वर जी से बात की जाए पर वह न घर में संभव था, न कॉफी हाउस में सो फिर टल गया.

आधे घंटे बाद कमलेश्वर जी ने आवाज दी. बाहर निकली तो देखा कि बहुत खूबसूरत लिखाई से भरा कोई पौन पेज लिखा था. न कहीं कोई काट-छांट, न कोई बदलाव! मैं तो हैरान.

‘देखो, शुरू कर ही दी न, अब कल पूरी करके शाम को जब कॉफी हाउस में मिलेंगे तो तुम्हें सौंप दूंगा, अब गुस्सा थूको और हो जाए गपशप’, उनकी इस अदाकारी पर मैं हंसे बिना नहीं रह सकी.

दूसरे दिन शाम को कॉफी हाउस में राकेश जी और कमलेश्वर जी मिले तो उन्होंने कहानी सौंप दी. कहानी खोलकर मैंने अपने विश्वास को पुख्ता करना चाहा कि कहानी ही है और पूरी है. शुरू का पेज कल वाला ही था. जस का तस. मैं तो हैरान. हंस-हंस कर मैंने राकेश जी को पिछले दिन वाला किस्सा सुनाया तो कमलेश्वर जी का कमेंट आया, ‘देखो मन्नू, मैं कोई मोहन राकेश तो हूं नहीं कि लिखने के लिए टाइपराइटर चाहिए ही…कमरे में ए.सी. भी चाहिए. बड़ी चीज लिखनी है तो पहाड़ पर गए बिना लिख ही नहीं सकते… या वो तुम्हारा राजेंद्र यादव… कॉफी के प्याले पर प्याले गटके जा रहा है… सिगरेट पे सिगरेट फूंके जा रहा है… लोट लगा रहा है, टहल रहा है पर शब्द हैं कि कलम से झरते ही नहीं! अब शब्द हों तो झरें. बस, लिखने के नाम पर ये चोंचलेबाजी किए जाओ.’ और फिर राकेश जी का छत-फोड़ ठहाका और कमलेश्वर जी की पीठ पर एक धप्प. और मैं सोच रही थी कि इतना आसान है कमलेश्वर जी के लिए लिखना? अपनी आंखों से देखा. कोई तामझाम नहीं. लिखा और बिना किसी काट-छांट, बदलाव-दोहराव के लिखते चले गए! मेरे लिए चाहे यह अविश्वसनीय हो, पर हकीकत थी यह उनके लेखन की! ऐसी ही एक और याद है.

8 COMMENTS

  1. मन्नू दी’ द्वारा लिखे नवीनतम संस्मरण पर जिस प्रकार साहित्यिक मित्रों में हाय-तौबा मची है वह गले नहीं उतरती। ये लोग अकारण ही मन्नू दी’ को आरोपित करने व धिक्कारने में लगे हैं। अनावश्यक व त्याज्य है ऐसी आलोचना-धारा जो व्यक्ति का मूल्यांकन तक नहीं कर पाती और अपने किसी प्रिय लेखक की छवि को ठेस लगने से इतनी आक्रान्त हो जाती है कि हथियारबंद हो कर एक वरिष्ठ सम्मानित लेखिका पर लामबंद होती है। ऐसे में आलोचना के वाक्चातुरी-भर रह जाने की बात की सच्चाई दीखने लगती है।

    यदि हम मन्नू जी जैसी ठहरी और सुलझी हुई ईमानदार महिला तथा लेखिका पर इतना भरोसा तक नहीं कर पा रहे तो अवश्य हम में कोई कमी है। क्या केवल इसलिए मन्नू जी जैसी ईमानदार महिला स्ंदिग्ध हो गईं कि एक वरिष्ठ लेखक कटघरे में आ गए हैं? मन्नू जी का इसमें भला क्या स्वार्थ हो सकता है ? क्या लोग कमलेश्वर जी की मृत्यु के बाद राजेन्द्र यादव जी द्वारा लिखे संपादकीय को भूल गए हैं जिनमें कमलेश्वर जी की खूब छीछालेदार की गई थी ? क्या इसलिए सच बोलना छोड़ देना चाहिए कि किसी की भावनाएँ आहत होती हैं या किसी की छवि धूमिल होती है? या स्त्रियों को क्या केवल इसलिए मुँह बंद रखने चाहिएँ कि सफ़ेद कॉलर वालों की कलफ उतर जाएगी ?

  2. बेहद अच्छा संस्मरण है, इसे हिंदी जगत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहाँ गल्पकारों को देवता बनाया जाता है और फिर कभी कोई उनपर ईमानदारी से बात नहीं कर सकता !

  3. कमलेश्वर पर मन्नू जी का संस्मरण बहुत ईमानदार प्रस्तुति है. इसमें केवल एक बात नई है जिसने मुझे चौंका दिया वह गायत्री जी के प्रति कमलेश्वर का दुर्व्यहार. मेरे लिए यह एक अछूता पहलू है जिसके विषय में मैं नहीं जानता था. शेष ऎसा कुछ भी नहीं लिखा मन्नू जी ने जो सच नहीं है. हाय तौबा मचाने वाले लोगों को राज पाल एण्ड संस से प्रकाशित कमलेश्वर जी के आत्मकथात्मक तीन संस्मरण पुस्तकें और वहीं से प्रकाशित गायत्री जी की संस्मरण पुस्तकें अवश्य पढ़ लेना चाहिए. स्वयं कमलेश्वर जी (जिसका उल्लेख मन्नू जी ने किया है)ने अपनी पुस्तकों में अपने बहुत से संबन्धों की चर्चा की है. बेशक उन्होंने नाम छुपाकर ऎसा किया और बहुत कुछ ट्विस्ट भी किया. हां, यह संस्मरण यदि मन्नू जी ८-१० साल पहले लिखतीं तो और अच्छा हुआ होता. लेकिन कोई रचना (संस्मरण भी उसमें शामिल है) अपना समय आने पर ही लिखवा लेती है. लेखक यदि बलात उसे लिखना चाहे तो वह उस रूप में नहीं तैयार हो पाएगी जैसा कि वह चाहता है. मन्नू जी के संस्मरण से कहीं भी कमलेश्वर का चरित्र हनन नहीं होता दिखता….इसलिए आलोचकों को इस संस्मरण पर हाय तौबा मचाने के बजाए शालिनी माथुर के आलेख – मर्दों के खेला में औरत का नाच’ पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए. यह आलेख वे सवाल उठाता है जो हममे से अधिकांश सोचते हैं.

    रूपसिंह चन्देल

  4. मन्नू जी ने बहुत ईमानदारी से कमलेश्वर जी के बारे में लिखा है. कमलेश्वर जी के व्यक्तिगत जीवन से जुडी बहुत सी सचाइयाँ सर्वविदित हैं. पढ़ कर अच्छा लगा.

  5. Mannu Ji Mai Chandra Bhanu Upadhyay Varanasi (UP) se belong karataa hu aur abhi present me Faridabad me rahataa hu.Private job hai.B.H.U se maine apni graduation English Literature me puraa kiyaa hai.Mannu Ji Hindi Sahitya se badaa prem hai mujhe aur maine colege ke time me bht Lekhako bhi Padha ,Kamleshwar Ji ki bhi Bht Kahaniyaa padhi lekin aapke is lekh ne Mind me bilkul hi Dhawndha machaa diyaa hai ki kya ek Lekhak Ki life eise bhi ho sakati hai.Vishwash nahi hotaa hai.

    Dimag puri tarah band ho chuka hai.Samajh me nahi aataa ki ise such maanu Yaa Kalpanaa?

    Halaki Kamaleshwar Ji ke Ghar 2006 me apne ek Mitra ke sath gayaa unse milaa bhi, aur aaj aapki is Sansmaran ko padh ke kuchh time ke liye JADWAT ho gayaa hu.

    Aabhar hai aapka ..Dhanaybaad

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