जाहिर है, यह भारतीय राजनीति का दबाव है जो नरेंद्र मोदी को बदलने पर मजबूर कर रहा है. इस लिहाज से आश्वस्त हुआ जा सकता है कि यदि वे भारत के प्रधानमंत्री बन गए, जिसका उन्होंने खुद को भरोसा-सा दिला रखा है, तो वे अपने सार्वजनिक व्यवहार में बदले हुए नरेंद्र मोदी होंगे. चाहे न चाहे, समरसता की भाषा बोलने वाले और सबके लिए थोड़ी-थोड़ी जगह निकालने वाले.
यानी नरेंद्र मोदी से डरने की जरूरत नहीं है. वे उसी सूरत में प्रधानमंत्री बन पाएंगे जब खुद को बदलेंगे और अगर वे चाहते होंगे कि उनका प्रधानमंत्रित्व दीर्घजीवी हो तो उन्हें अपनी विचारधारा में भी जरूरी फेर-बदल करने होंगे. आखिर जिस देश के वे प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं वह बहुत बड़ा और बड़ी अपेक्षाएं रखने वाला देश है. लेकिन इन अपेक्षाओं के पंख जैसे भी हों, इनके पांव कहां हैं?
नरेंद्र मोदी की जो तथाकथित लहर बताई जा रही है, उसके पीछे बहुत से कारण हैं. सच तो यह है कि 2010 में अन्ना का आंदोलन शुरू होने से पहले भाजपा एक हताश पार्टी थी. टीम अन्ना ने यूपीए के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया जिसे मध्यवर्ग का व्यापक समर्थन मिला. बढ़ती हुई महंगाई ने इस आग में घी का काम किया. अब नरेंद्र मोदी के पीछे बड़े पूंजीपतियों का हाथ देखने वाले केजरीवाल तब सिर्फ कांग्रेसी नेताओं का भ्रष्टाचार देख रहे थे. लेकिन टीम अन्ना और उसकी कोख से निकली आम आदमी पार्टी ने जो ऊर्जा और उम्मीद पैदा की, जो आवेग फूंका, वह खुद उन्हें नहीं संभाल सकी. इसी के बाद देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने नरेंद्र मोदी चले आए. उनके पीछे आरएसएस और भाजपा के दोयम दर्जे के नेताओं का बल था. इस बल के सहारे पहले उन्होंने पार्टी के भीतर के असंतोष को दबाया और फिर विराट प्रचार-उपक्रम के जरिये यह हवा बनाई कि नरेंद्र मोदी आएंगे तो सारे दुख दूर हो जाएंगे.
लेकिन वे अगर आ गए और सारे दुख दूर न हुए तो? खतरा दरअसल यहीं से पैदा होता है. इसके बाद भाजपा समझाना चाहेगी कि देश भर में गुजरात मॉडल लागू करने के रास्ते की बाधाओं को उसी तरह हटाना होगा जैसे गुजरात में हटाया गया. इसके बाद उन तमाम उदार और प्रगतिशील लोकतंत्रवादियों को ठिकाने लगाया जाएगा जो विराट पूंजी और बाजारवाद के खिलाफ हैं.
लेकिन इतने भर से दुख कम नहीं हुए तो? इसके बाद लागू होगा राष्ट्रवाद का वह एजेंडा जिसके आगे बड़े-बड़े दुख छोटे जान पड़ते हैं. चीन और पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात अभी ही की जा रही है. वह न संभव हुआ तो अपने यहां ऐसे तत्वों से निबटा जाएगा जो चीन और पाकिस्तान के साथ दोस्ती भरे रिश्ते रखना चाहते हैं.
अगर यह सब न हो और नरेंद्र मोदी अपने नए अवतार में बिल्कुल लोकतांत्रिक हो जाएं तो सबसे अच्छा. लेकिन इतिहास इसकी तस्दीक नहीं करता. लोकतांत्रिक सरकारों की विफलता से पैदा हताशा को एक मसीहाई मुद्रा के साथ अपने हक में मोड़ते हुए फासीवादी ताकतें ऐसे ही सत्ता पर काबिज होती रही हैं. इसकी कीमत आने वाले वक्तों को चुकानी पड़ती है.