
अभी मैं लिखने बैठा ही था कि अचानक अंधेरा छा गया. कुछ नजर नहीं आता था. जबकि लाइट आ रही थी. आंखों को कई बार भींचा. ट्यूब लाइट की तरह लपलपाया. मगर कोई फायदा नहीं. तभी किसी ने मेरा हाथ पकड़ा. मैं कांप गया. ‘डरो नहीं! अराम से बैठो यहां!’ एक आवाज गूंजी. आवाज एक महिला की थी. ‘तुम कौन हो!’ ‘…मैं बरसात हूं..’ ‘बरसात!’ बरबस मेरे मुंह से निकल पड़ा. ‘हां, बरसात…’ ‘मगर यहां कैसे!’ ‘मैं अपना दर्द तुम से बांटने आई हूं. ‘तुम्हें कैसा दर्द?’ मैंने पूछा. ‘हूंऽऽऽ यही तो!’ ‘बताओ तो सही!’ ‘सबसे ज्यादा भला-बुरा मुझे ही सुनना पड़ता है.’ ‘नेताओं से भी ज्यादा!’ ‘हां नेताओं से भी ज्यादा!’ ‘नेता तो हर दिन कोसे जाते है. तुम्हारे साथ भी ऐसा है क्या!’ ‘सही कह रहे हो. मगर मेरा दर्द उनसे बढ़ कर है.’ यह कहते हुए उसकी आंखे नम हो गईं. ‘वह कैसे भला!’ ‘उनसे कोई उम्मीद नहीं करता और मुझसे सब उम्मीद लगाए रहते हैं.’ ‘यह तो अच्छी बात है!’ ‘यही तो सबसे बड़ी मुसीबत है!’ ‘मैं समझा नहीं!’ ‘समझना चाहते हो!’ ‘हां क्यों नहीं! आखिर कुछ सोचकर ही आई होगी यहां.’ ‘तो चलो मेरे साथ!’
मैं और बरसात; अब दोनों साथ-साथ चलने लगे. हम दोनों जहां से गुजरते जाम लगता जाता. राहगीरों की झुंझलाहट. उनके तीखे स्वर. परस्पर होड़ लेती हार्न की आवाजें. ‘देख रहे हो मंजर-ए-आम!’ ‘हां…’ ‘वो तो आजकल मेरी तबीयत खराब चल रही है.’ ‘क्या हुआ है तुम्हें!’ मैंने सहानुभूति दिखाई. ‘अलनीनो!’ वह बोली. ‘अलनीनो! ये कैसा रोग! ‘अरे मुआ बड़ा जबदस्त रोग है अलनीनो! देखो, सूख के कांटा हो गई हूं…’ ‘वह तो मैं देख ही रहा हूं…’ ‘और देखो यहां, तब यह हाल है!’ यह सुनकर मुझ पर घड़ो पानी पड़ गया.
बहरहाल, हम दोनों फिर निकल पड़े थे. आवारा बादलों की मानिंद. थोड़ी दूर उड़ने के बाद उसने एक ऊंची बिल्डिंग के पास रुकने को कहा. और देखते ही देखते वह उसमें समा गई. जाते वक्त उसने कहा था कि थोड़ा रुक कर मेरे पीछे आना. मैंने वैसे ही किया. ‘बादल बहुत लकी है! सही समय पर निकल गया!’ ‘ये साली बरसात रुके तो हम भी निकलंे!’ ‘इसे भी अभी आना था!’ थोड़ी देर बाद ही वह वहां से निकल आई और उसके पीछे-पीछे मैं भी. वह बोली, ‘समय क्या हुआ है?’ ‘साढ़े पांच!’ वह मुस्कुरायी और मैं झेंपा. मैं यह कतई नहीं बताऊंगा कि अभी कुछ देर पहले जहां हम दोनों गए थे, वह एक सरकारी कार्यालय था.