‘कभी नहीं भूल सकता वो मंजर’

2013

मुझे याद आ रहा है, वह जून महीने की 14 तारीख थी और एफआरआई देहरादून में हम इस चर्चा में मुब्तिला थे कि अगर हम प्रकृति को नहीं समझेंगे तो प्रकृति हमें अपने तरीके से समझाएगी. इस बात को तीन ही दिन बीते थे कि रुद्रप्रयाग से पापा का फोन आया, ‘यहां तो बारिश ने कहर बरपा दिया है सड़कें तक बह गई हैं. अच्छा किया तूने जो 10 को ही चला गया. अगस्त्यमुनि में कई घर तबाह हो गए हैं. तेरी बुआ के घर तक भी पानी भर गया है.’ अगला दिन तो और भी हृदयविदारक खबर लेकर आया. पता चला कि केदारनाथ में भारी बारिश से कई लोगों की मौत हो गई है. लेकिन कोई स्पष्ट खबर सामने नहीं आ रही थी. आखिरकार मैंने एक स्थानीय पत्रकार साथी को फोन लगाया.

उन्होंने इस बात की पुष्टि की लेकिन ज्यादा कुछ न कहते हुए फोन काट दिया. तब तक टीवी पर खबरें आनी शुरू हो गई थीं लेकिन यह पता नहीं था कि दरअसल वह दिन कितने लोगों के लिए आखिरी दिन था. दो दिन बाद हमें जैसे ही आपदा का ठीक-ठीक अनुमान लगा, हम देहरादून के एक निजी विश्वविद्यालय के सहयोग से आपदा राहत के काम में जुट गए. 22 जून को 7 बजे सुबह 18 लोगों की टीम 7 ट्रक राहत सामग्री लेकर रुद्रप्रयाग की ओर रवाना हो गई. हम जैसे-तैसे श्रीनगर तक पहुंच गए. वहां हालात दिल दहला देने वाले थे. जलमग्र घर तथा उन पर गिरे विशाल वृक्ष. हमने आगे बढ़ना जारी रखा. रुद्रप्रयाग-तिलवाड़ा मार्ग बंद होने की वजह से हमें मयकोटी, दुर्गाधार होकर तिलवाड़ा जाना पड़ा.

तिलवाड़ा में हमने लोगों को राहत शिविरों में से बुलाकर सामान बांटना शुरू किया. कुछ परिवारों के पास तो केवल तन ढकने को कपड़े ही बचे थे. उनकी मदद करके हम अगस्त्यमुनि की ओर रवाना हो गए. रास्ते में सड़क टूटी थी और सीमा सुरक्षा बल के एक अधिकारी की सलाह पर हमने गुप्तकाशी जाने के लिए मयाली वाला वैकल्पिक रास्ता चुना जो काफी लंबा था. वहां का दृश्य कभी भूला नहीं जा सकता. हजारों लोगों का जन सैलाब, जिसको जहां जगह मिली थी वह ठंस गया था. हमने वह सामग्री वहां काम कर रहे सेना के जवानों और प्रशासन को सौंपी तथा वापस लौटने लगे.

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