
लेखक: भगवानदास मोरवाल
मूल्य: 550 रुपये
प्रकाशन: राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
यह महज संयोग है कि एक तरफ बच्चों को बंधुआ मजदूरी और शोषण से बचाने के लिए एनजीओ चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलता है, तो वहीं दूसरी तरफ हिंदी में एनजीओ की भीतरी दुनिया के जाल-फरेब, अमानवीयता और संवेदनहीनता को परत दर परत उधेड़ता भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘नरक मसीहा’ का प्रकाशन होता है. उपन्यास जनता की गरीबी, अशिक्षा, जहालत, भूख जैसे नरक से छुटकारा दिलाने के नाम पर अपने लिए स्वर्ग पैदा करने वाले नरक मसीहाओं की दिलचस्प गाथा है.
पिछले दो दशकों में तेजी से पनपी और फली-फूली एनजीओ संस्कृति ने इस देश में जनआंदोलनों को लगभग समाप्त कर दिया है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के गठजोड़ ने एनजीओ का एक ऐसा महासमुद्र बनाया है जिसमें सभी परिवर्तन कामी धाराएं आकर मिलती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं. फिर मार्क्सवादी, गांधीवादी और अंबेडकरवादी सभी का रंग और चरित्र एक-सा हो जाता है. सभी के लिए लोगों के दुख और सपनों को बेचकर आर्थिक लाभ उठाना ही प्रधान उद्देश्य बन जाता है जिसके चलते सामाजिक परिवर्तन का स्वप्न कहीं खो जाता है. तात्पर्य यह कि एनजीओ आर्थिक लाभ और शोहरत का एक ऐसा अचूक साधन बनकर उभरा है जिसने व्यवस्था परिवर्तन या व्यापक बदलाव के लिए हो रहे हर एक प्रयास को खोखला कर दिया है.
प्रतिरोध का एनजीओकरण वर्तमान दौर की सबसे बड़ी समस्या है. एनजीओ संस्कृति में शामिल हो जाने के बाद कोई व्यक्ति न तो मार्क्सवादी रहता है और न ही गांधीवादी, न नारीवादी और न ही दलितवादी; वह सिर्फ और सिर्फ एनजीओवादी होता है. हिंदी में संभवतः यह पहला उपन्यास है जिसमें एनजीओ के पीछे की वैचारिक पृष्ठभूमि, पूंजीवाद से उसके नाभि-नाल संबंध और उसकी कारगुजारियों को एक आख्यान का रूप दिया गया है. एनजीओ युग के इस प्रचंड दौर में यह उपन्यास न सिर्फ एक सार्थक हस्तक्षेप है बल्कि इसे एक हिंदी लेखक के लेखकीय प्रतिरोध के रूप में भी देखा जाना चाहिए.