
अन्ना हजारे की अगुवाई वाले जनलोकपाल आंदोलन को बगैर किसी तार्किक नतीजे पर पहुंचाए जब अरविंद केजरीवाल ने सीधे तौर पर राजनीतिक दल बनाकर व्यवस्था में शामिल होकर बदलाव की लड़ाई लड़ने की घोषणा की तो बहुत लोगों ने उनकी आलोचना की. कहा गया कि ऐसे प्रयोग पहले भी हुए हैं और चुनावी राजनीति में केजरीवाल टिक नहीं पाएंगे. यह भी कहा गया कि इससे जनलोकपाल की लड़ाई पूरी नहीं होगी. अन्ना हजारे भी सीधे सियासी दल बनाकर राजनीति में उतरने के खिलाफ थे. फिर भी केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाकर सियासी मैदान में ताल ठोकने का फैसला किया. दिल्ली के चुनावी नतीजों ने बता दिया है कि केजरीवाल का फैसला सही था. भले ही उनकी पार्टी को दिल्ली में सरकार बनाने के लिहाज से कुछ कम सीटें मिली हों लेकिन इतने कम समय में ही अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की राजनीति में सालों से स्थापित कई नियमों को बदल दिया है और सियासत की एक नई लीक गढ़ी है. केजरीवाल का असर चुनाव से पहले भी दिख रहा था और चुनाव के बाद भी दिख रहा है. मौजूदा सियासी परिस्थिति में इन बदलावों को एक-एक कर समझना जरूरी है.
साफ-सुथरी छवि
पिछले दो दशक में सियासत का चरित्र कुछ इस कदर बदला है कि राजनीति का दूसरा नाम गुंडागर्दी हो चला था. लोग यह मानने लगे थे कि ईमानदार और सज्जन आदमी के लिए तो राजनीति है ही नहीं. कहा जाने लगा था कि राजनीति में सफल होना है तो कोई संगीन अपराध करके जेल जाना एक अनिवार्यता है. जो लोग चुनकर आ रहे थे उनके बारे में हुए अध्ययन भी यह बता रहे थे कि जीतने वालों में आपराधिक रिकाॅर्ड वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. लेकिन अरविंद केजरीवाल ने खुद अपना उदाहरण पेश करते हुए यह दिखाया कि ईमानदार और मेहनती लोग भी राजनीति कर सकते हैं. उन्होंने बेहद आक्रामक ढंग से शीला दीक्षित सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर किया और भाजपा को मजबूर किया कि वह अपनी ओर से मुख्यमंत्री पद का एक ऐसा उम्मीदवार दे जिसकी छवि साफ-सुथरी हो. यह केजरीवाल का ही असर था कि भाजपा ने अंतिम समय पर विजय गोयल को पीछे करके हर्षवर्धन को आगे किया और उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया.
यूं होता तो क्या होता
यदि ‘आप’ दिल्ली के बजाय दूसरे राज्य से लड़ती
आप के नेता और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं कि देश भर में राजनीतिक विकल्प का संदेश पहुंचाने के लिए दिल्ली सबसे मुफीद जमीन थी. साफ है कि आप ने खुद अपनी सफलता को लेकर दूसरे राज्यों को दिल्ली के मुकाबले कम आंका था. इसकी दो प्रमुख वजहें हो सकती हैं. पहली यह कि आप का संगठन दूसरे राज्यों में दिल्ली के मुकाबले उतना मजबूत नहीं है और दूसरा कारक यह कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में इस बार स्थानीय सरकारों की उपलब्धियों और नाकामियों के साथ ही मोदी फैक्टर को लेकर भी जबर्दस्त हवाबाजी मचाई जा रही थी. इस सबको जानते हुए अरविंद केजरीवाल की टीम ने पायलट प्रोजेक्ट के तहत दिल्ली को चुना जो कि उनके पक्ष में गया. दूसरे राज्य में ‘आप’ को शायद ही इतना समर्थन हासिल होता.
[/box]