
छह अप्रैल 2011 को किशन बापट बाबूराव उर्फ अन्ना हजारे ने जंतर मंतर पर जन लोकपाल के लिए पहला अनशन किया था. इस आंदोलन ने अन्ना को एक सीमित पहचान से निकालकर देश के घर-घर तक पहुंचा दिया. इस अनशन का कोई नतीजा नहीं निकला. 16 अगस्त 2011 को अन्ना एक बार फिर से रामलीला मैदान में आमरण अनशन पर बैठ गए. यह उपवास तेरह दिन तक चला. कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार पर इसका जबर्दस्त दबाव पड़ा. सरकार ने 27 अगस्त 2011 को संसद में इस विषय पर आपात बहस की. इस बहस के बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष ने एक सुर से अन्ना के प्रस्तावित जनलोकपाल के तीन मुख्य मुद्दों को शामिल करने का आश्वासन दिया. ये मुद्दे थे सिटिजन चार्टर, लोअर ब्यूरोक्रेसी को लोकपाल के दायरे में लाना और केंद्र के लोकपाल की तर्ज पर हर राज्य में लोकायुक्त का गठन. अन्ना ने अपना अनशन यह कहते हुए खत्म किया था कि वे कुछ समय के लिए अपना अनशन तोड़ रहे हैं. अगर सरकार ने उन्हें धोखा दिया और मजबूत लोकपाल नहीं बनाया तो वे एक बार फिर से अनशन पर बैठेंगे. सरकार और टीम अन्ना के बीच गतिरोध बना रहा क्योंकि सरकार अन्ना को आश्वासन से ज्यादा कुछ नहीं दे पायी थी. इसके बाद साल 2013 आया. अब तक स्थितियां बदल चुकी थीं. अन्ना के मुख्य साथी अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण उनका साथ छोड़कर राजनीतिक पार्टी बना चुके थे. अन्ना इस दौरान बार-बार यह कहते रहे कि राजनीति कीचड़ है, मैं इसमें जाने का पक्षधर नहीं हूं. केंद्र सरकार ने इस बीच अपना लोकपाल पारित कर दिया जिसे अन्ना ने अपनी जीत घोषित करते हुए स्वीकार कर लिया. जब उनके पुराने सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने केंद्र सरकार के लोकपाल की इस आधार पर आलोचना की कि इसमे वादे के मुताबिक तीन प्रमुख बिंदुओं को शामिल ही नहीं किया गया है तब अन्ना हजारे ने एक महत्वपूर्ण बयान दिया, ‘यह लोकपाल मजबूत है. अगर अरविंद को इससे कोई परेशानी है तो वे अपना लोकपाल खुद बना लें.’ यह अन्ना के रुख में चमत्कारिक परिवर्तन था, लेकिन अन्ना यहीं नहीं रुके. कुछ ही महीने के बाद जब अरविंद ने दिल्ली में लोकायुक्त के मसले पर अपनी सरकार गिरा दी तब अन्ना ने एक और महत्वपूर्ण बयान दिया, ‘अरविंद को केंद्र के लोकपाल पर समझौता कर लेना चाहिए था.’ उस एक मुद्दे पर जिसने अन्ना हजारे को घर-घर का जाना-पहचाना चेहरा बना दिया था, उस पर तीन सालों के भीतर तीन अलग-अलग बातें अन्ना के विचित्र और विरोधाभासी व्यक्तित्व के बारे में हमें काफी कुछ बताती हैं. अन्ना के शुरुआती जीवन से ही उनकी गतिविधियों को देख-परख रहे वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर के शब्दों में, ‘अन्ना हजारे के अंदर नेटिव कनिंगनेस (गंवई चतुराई) कूट-कूट कर भरी हुई है. वे समय-समय पर अपने को रिपोजीशन करते रहते हैं. उनके भीतर वैचारिक ठहराव नाम की चीज है ही नहीं.’
अन्ना के अतीत की कुछ घटनाएं उनके व्यक्तित्व को ज्यादा गहराई और ज्यादा आसानी से समझा सकती हैं. मसलन राजनीति के बारे में उनके विचारों को थोड़ा पीछे जाकर देखने पर हम पाते हैं कि उनमें जबर्दस्त उठापटक और विसंगतियां मौजूद हैं. आम सी पारिवारिक पृष्ठभूमि से आने वाले अन्ना हजारे ने सातवीं तक की पढ़ाई मुंबई में अपनी बुआ के पास रह कर की और वहीं पर दादर स्टेशन के पास वे फूलों की दुकान भी चलाते थे. समय बीतने के साथ अन्ना भारतीय सेना में ड्राइवर बन गए. 1965 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने शिरकत की. वहां से रिटायर होकर वे एक बार फिर से अपने गांव रालेगण सिद्धि वापस लौट आए. यहां से उनके सामाजिक जीवन की शुरुआत हुई. शुरुआती दौर में महाराष्ट्र के कद्दावर राजनेता शरद पवार के साथ उनकी खूब छनती रही. फिर नब्बे के दशक में ऐसा समय भी आया जब अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के निशाने पर पवार को ले बैठे. इस बात पर पवार से अन्ना के रिश्ते इस हद तक खराब हो गए कि अन्ना एक के बाद एक आंदोलन पवार के खिलाफ छेड़ते रहे. इनमें से ज्यादातर आंदोलन औंधे मुंह गिरे क्योंकि अक्सर अन्ना ऐसी सुनी-सुनाई बातों पर यकीन करके आंदोलन छेड़ बैठते थे जिनमें तथ्यों का अक्सर अभाव रहता था. ऐसे तमाम आंदोलन महाराष्ट्र और रालेगण के लोगों ने देखे जब अन्ना ने बीच में ही अपना आंदोलन वापस ले लिया. अन्ना को जानने वाले लोगों को बाद में ऐसा भी लगा कि अन्ना पवार के भ्रष्टाचार से ज्यादा उनके दंभी और नजरअंदाज करने वाले रवैये से नाराज रहते थे. यह बात उनकी गांधीवादी छवि के भी विपरीत जाती है. खैर जिस दौर में अन्ना शरद पवार को जमकर कोस रहे थे उसी समय में वे एक ऐसा काम कर रहे थे जिसे देखकर किसी को भी हैरत हो सकती है. वे एनसीपी के एक बड़े नेता आरआर पाटिल का चुनाव प्रचार भी कर रहे थे. अन्ना के गांव के ही एक निवासी के शब्दों में, ‘जिस नेता ने अच्छे से अन्ना की मिजाजपुर्सी कर दी अन्ना उसी के हो जाते हैं.’ अन्ना के आस-पास रहने वालों का भी यह मानना है कि उन्हें आसानी से प्रभावित किया जा सकता है. यह ऐसी स्थिति है जो अन्ना के उस बयान के बिल्कुल विपरीत छोर पर खड़ी है जिसमें अन्ना हाल ही तक कहते हुए मिलते थे कि राजनीति कीचड़ है. इसी एक मुद्दे पर वे अरविंद केजरीवाल के साथ अपने संबंधों को तोड़ने से भी नहीं हिचके जबकि उनका अतीत बताता है कि उन्होंने राजनीति और राजनेताओं के साथ जमकर गलबहियां की हैं. केतकर कहते हैं, ‘वे शरद पवार, बाल ठाकरे से लेकर विलासराव देशमुख तक सबके साथ अंतरंगता के साथ काम कर चुके हैं.’
दिवंगत विलासराव देशमुख के साथ अन्ना के रिश्तों की कहानियां महाराष्ट्र की राजनीति में दंतकथाओं की तरह सुनी-सुनाई जाती हैं. मिजाजपुर्सी का जो जिक्र रालेगण के ग्रामीण ने किया है उसकी वजह शायद यही विलासराव देशमुख थे. अन्ना के व्यक्तित्व की इस कमजोरी को विलासराव ने अपनी राजनीतिक पूंजी में बदल दिया. जिस दौर में शरद पवार ने अन्ना को तिरस्कृत करने का कदम उठाया था उस दौर में देशमुख बार-बार अन्ना से मिलने उनके गांव जाते रहे, जब भी अन्ना को जरूरत पड़ी उन्हें मिलने का समय दिया. एनसीपी के नेताओं, विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ कांग्रेस के लोग अंदरूनी खबरें लीक करते रहे और अन्ना उन तथ्यों की पड़ताल किए बिना ही अक्सर अनशन और अभियान पर निकल पड़ते थे. कई बार उनके अभियान निशाने पर लगे. कई नेताओं और मंत्रियों को अपना पद छोड़ना पड़ा. लेकिन इस जल्दबाजी और अंधविश्वास की कीमत भी उन्होंने चुकाई. 1995 में बनी शिवसेना-भाजपा की सरकार के वरिष्ठ मंत्री रहे बबन घोलप का मामला बेहद मौजूं है. अन्ना ने उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. अदालत ने घोलप को सभी आरोपो से मुक्त कर दिया. इसके बाद घोलप ने अन्ना के खिलाफ मानहानि का मामला दर्ज करवाया. इसके नतीजे में अदालत ने अन्ना को तीन महीने के कारावास की सजा सुनाई. अन्ना को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया. एक हफ्ते बाद राज्य के मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के हस्तक्षेप के बाद दोनों पक्षों में सुलह हो गई और अन्ना रिहा हो गए. इस मामले में एक बार फिर से यह बात सामने आई कि अन्ना के पास घोलप के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं थे लेकिन एक कांग्रेसी नेता की बात पर उन्होंने आंख मूंद कर यकीन कर लिया था. इस घटना ने अन्ना की प्रतिष्ठा को जबर्दस्त चोट पहुंचाई साथ ही शिव सेना के साथ उनके रिश्ते को भी हमेशा के लिए चौपट कर दिया. सेना प्रमुख स्वर्गीय बाल ठाकरे ने इसके बाद अन्ना के प्रति अपनी नाराजगी को कभी नहीं छिपाया. ठाकरे की नाराजगी का जबर्दस्त खामियाजा अन्ना हजारे और उनकी टीम को 27 अगस्त 2011 को उठाना पड़ा. इस दिन अन्ना हजारे ने अपने आंदोलन का खूंटा दिल्ली से उखाड़ कर मुंबई में गाड़ने का महत्वाकांक्षी फैसला लिया. सबको इस बात की उम्मीद थी कि महाराष्ट्र तो अन्ना का गृह प्रदेश है लिहाजा वहां आंदोलन को सफलता मिलने की संभावना दिल्ली से भी ज्यादा है. लेकिन सारे आकलन धराशायी हो गए. अन्ना की घोषणा के साथ ही सेना प्रमुख ने भी एक ऐलान किया कि सेना अन्ना का हरसंभव विरोध करेगी. ठाकरे का ऐलान काम कर गया. 27 अगस्त को शुरू हुआ अनिश्चितकालीन अनशन 28 अगस्त को अचानक से ही रद्द कर दिया गया. दिल्ली में जहां अन्ना के अनशन में हिस्सा लेने के लिए लोग उमड़-उमड़ कर आ रहे थे वहीं अन्ना के गृह प्रदेश के लोगों ने उन्हें लगभग नकार दिया था. जिस समय अन्ना अपने अनशन को खत्म कर रहे थे उस वक्त एमएमआरडीए के मैदान में बमुश्किल दो-तीन सौ लोग ही मौजूद थे.
एमएमआरडीए में लगे झटके के दौरान ही अन्ना हजारे ने अपनी फ्लिप-फ्लॉप वाली शैली का एक और उदाहरण दिया. इस अनशन तक अन्ना और उनकी टीम ने घोषणा कर रखी थी कि वे उत्तर प्रदेश समेत उन पांच राज्यों में कांग्रेस को हराने का अभियान छेड़ेंगे जिनमें विधानसभा के चुनाव प्रस्तावित थे. अभियान की रूपरेखा ऐसी थी कि अन्ना खुद अभियान का नेतृत्व करेंगे. लेकिन मुंबई में असमय ही अनशन खत्म करते वक्त अन्ना ने जो बयान दिया वह चौकाने वाला था. उन्होंने कहा, ‘अगर कांग्रेस संसद के शीतकालीन सत्र में जनलोकपाल को पारित करवा देती है तो मैं विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और यूपीए का समर्थन करूंगा.’ यह ऐसी हास्यास्पद स्थिति थी जिससे निपटना टीम अन्ना के अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण जैसे सदस्यों को भारी पड़ रहा था. बाद में रास्ता यह निकला कि अन्ना की तबियत ठीक नहीं है इसलिए वे उत्तर प्रदेश अभियान से अलग रहेंगे. सूत्र बताते हैं कि अन्ना के इस बयान से पहले रालेगण सिद्धि में कुछ कांग्रेसी नेताओं के साथ उनके लोगों की मुलाकात हुई थी.
राजनीति को लेकर अन्ना के विचार इतने उलझे हुए हैं कि उनके आधार पर अन्ना के प्रति कोई निष्कर्ष निकालना लगभग असंभव हो जाता है. 2012 की जुलाई आते-आते अन्ना और अरविंद के रिश्तों में गांठ पड़ने लगी थी. 25 जुलाई 2012 को टीम अन्ना के दूसरे साथियों ने उपवास शुरू किया. इसमें अरविंद केजरीवाल भी शामिल थे. यहां मंच से अन्ना ने घोषणा की कि अब वे राजनीतिक विकल्प देने के ऊपर विचार कर रहे हैं. यह उपवास इस विचार के साथ खत्म हो गया कि आंदोलन के रास्ते जितना हासिल किया जा सकता था वह हो चुका है अब इसे आगे ले जाने के लिए सक्रिय राजनीति में उतरना ही होगा. इसके बाद इसी विषय पर अन्ना के कई रंग हमें देखने को मिले. अन्ना ने अरविंद से अलग होने की घोषणा यह कहते हुए कर दी कि वे राजनीति को कीचड़ मानते हैं और इसमें उतरने को कतई तैयार नहीं है. यह उनके जंतर मंतर पर दिए गए उस भाषण के बिल्कुल विपरीत था जिसमें उन्होंने राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा की थी. अलगाव के उसी दौर में तहलका को दिए गए एक विस्तृत साक्षात्कार में अरविंद केजरीवाल ने इस पूरे वाकए पर रौशनी डाली है. अरविंद कहते हैं, ‘पार्टी बनाने का विचार पहली बार 29 जनवरी 2012 को सामने आया था. इसके चर्चा में आने की वजह यह थी कि पुण्य प्रसून वाजपेयी अन्ना से मिले थे. अन्ना उस समय अस्पताल में भर्ती थे. अस्पताल में ही दोनों के बीच दो घंटे लंबी बातचीत चली थी. मैं उस मीटिंग में नहीं था. पुण्य प्रसून ने ही अन्ना को इस बात के लिए राजी किया था कि यह आंदोलन सड़क के जरिए जितनी सफलता हासिल कर सकता था उतनी इसने कर ली है. अब इसे जिंदा रखने के लिए इसे राजनीतिक रूप देना ही पड़ेगा वरना यह आंदोलन यहीं खत्म हो जाएगा. अन्ना को प्रसून की बात पसंद आई थी. मीटिंग के बाद उन्होंने मुझे बुलाया. उन्होंने मुझसे कहा कि प्रसून जो कह रहे हैं वह बात ठीक लगती है. बल्कि हम दोनों ने तो मिलकर पार्टी का नाम भी सोच लिया है – भ्रष्टाचार मुक्त भारत, पार्टी का नाम होगा. मैंने अन्ना से कहा कि आप जो कह रहे हैं मेरे ख्याल से वह ठीक है. हमें चुनावी राजनीति के बारे में सोचना चाहिए. उसके बाद अन्ना तमाम लोगों से मिले और उन्होंने इस संबंध में उन लोगों से विचार-विमर्श भी किया. अब अन्ना के विचार निश्चित तौर पर बदल गए हैं. 19 सितंबर को कंस्टीट्यूशन क्लब में जो बैठक हुई थी जहां अन्ना ने हमसे अलग होने की घोषणा की वहां पर हमने उनसे यही कहा कि अन्ना आप ही तो कहते थे कि हम राजनीतिक पार्टी बनाएंगे तो अब यह बदलाव क्यों.’

अन्ना के रुख में आए बदलाव के लिए पुण्य प्रसून वाजपेयी जो हमें बताते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है और इससे जुड़ा एक अलग ही पक्ष हमारे सामने रखता है, ‘मेदांता में हमारी जो मुलाकात हुई थी वह राजनीतिक विकल्प को लेकर हुई थी. उसके तुरंत बाद कोई पार्टी नहीं बनी थी. उसके बाद बहुत व्यापक स्तर पर अन्ना ने लोगों के साथ राय-मशविरा किया था. आप जो बात कह रहे हैं कि अन्ना अपनी बात से पलट जाते हैं तो आप बताइए न कि देश में एक भी ऐसा नाम जो अपनी बात पर कायम रहता है. अन्ना जो बार-बार अपनी बात से मुकर रहे हैं मैं उसे उनका भटकाव नहीं बल्कि एक बेहतर विकल्प के लिए जारी उनकी खोज मानता हूं. विकल्प की खोज में वे अलग-अलग समय पर एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस के साथ जाते दिखे हैं. दुर्भाग्य यह है कि 2011 में इस देश के लोगों ने एक विकल्प की खोज शुरू की थी और आज 2014 में आकर भी वे विकल्पहीन ही हैं. उनके सामने आज भी जंतर मंतर या रामलीला मैदान में खड़ा होने का ही विकल्प बचा है.’
विरोधाभासों की कड़ी में या प्रसून के मुताबिक विकल्पों की सतत खोज के क्रम में कई बार ऐसा लगता है कि अन्ना अपने पिछले बयान को बौना साबित कर देना चाहते हैं. सितंबर 2012 में अरविंद केजरीवाल से अलग होने की घोषणा करने के महज दो महीने बाद चार नवंबर को तहलका को ही दिए गए एक विशेष साक्षात्कार में अन्ना ने एक बार फिर से सनसनी पैदा की. उन्होंने बेहद विस्तार के साथ इस बात पर रोशनी डाली कि उनका पूरा समर्थन अरविंद को है बल्कि उन्होंने ही अरविंद को राजनीति साफ करने के लिए भेजा है. अन्ना का शब्दश: बयान कुछ यों है- ‘हम अलग हो गए हैं, हमारे रास्ते अलग हो गए हैं लेकिन मंजिल हमारी एक ही है. चरित्रशील लोगों को संसद में भेजना जरूरी है. राजनीति एक रास्ता है. मैंने अरविंद को बोला है कि आप चरित्रशील लोगों को संसद में भेजिए मैं उनका समर्थन करूंगा. आज भी हम खुद को एक दूसरे से अलग नहीं मानते. अरविंद का रास्ता भी जरूरी है.’ हालांकि अन्ना अपने इस बयान पर भी ज्यादा दिन तक टिक कर नहीं रह सके. कुछ समय बाद ही उन्होंने एक लोकप्रिय जुमला अपना लिया कि राजनीतिक पार्टियां असंवैधानिक हैं. संविधान में इनका कोई जिक्र नहीं है इसलिए राजनैतिक पार्टियों को खत्म किया जाना चाहिए. इस नजरिए से देखने पर लगता है कि उनकी सोच बहुत एकपरतीय है. वर्तमान में अन्ना हजारे का अपने पूर्व सहयोगी अरविंद केजरीवाल के प्रति जो नजरिया है उसके मुताबिक अरविंद केजरीवाल सत्ता का लालची आदमी है और वह प्रधानमंत्री बनना चाहता है.
सीधी-सपाट सोच के चलते बार-बार अन्ना का स्थितियों की जटिलता को समझे बिना किताबी परिभाषा पर चले जाना ज्यादा चौंकाता नहीं है. एक दिलचस्प वाकए का जिक्र यहां जरूरी होगा. अक्टूबर 2012 में पाकिस्तान से सिविल सोसाइटी के सदस्यों का एक समूह भारत आया हुआ था. इसमें पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस नासिर असलम जाहिद और प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता करामात अली शामिल थे. यहां ध्यान देने वाली बात है कि यह प्रतिनिधिमंडल अगस्त महीने में रामलीला मैदान में आयोजित अन्ना के बेहद कामयाब आंदोलन के बाद भारत आया था. वे लोग रालेगण सिद्धी में अन्ना से मिलने गए. उनकी मंशा पाकिस्तान में भी अन्ना की तर्ज पर भ्रष्टाचार विरोधी आंंदोलन खड़ा करने की थी. इसी संबंध में वे लोग अन्ना से मिले थे और उन्हें पाकिस्तान आने का न्यौता भी दिया. अन्ना ने सार्वजनिक रूप से उन्हें भरोसा दिया कि वे पाकिस्तान आएंगे और भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाएंगे. इस मुलाकात के ठीक एक हफ्ते बाद 19 अक्टूबर को अन्ना ने पत्रकारों के साथ बातचीत करते हुए ऐसी बात कही जिसकी उम्मीद उनके जैसे कद के व्यक्ति से नहीं की जा सकती और यह बात उनके गांधीवादी चोले के भी बिल्कुल खिलाफ जाती है. जोश में अन्ना ने बयान दिया कि अगर उन्हें मौका मिलेगा तो एक बार फिर से पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध करने को तैयार हैं. यह बयान उनकी सोच-समझ का दायरा ही सीमित नहीं करता दिखता बल्कि शिष्टाचार के बुनियादी सिद्धांतों के भी खिलाफ जाता है. जिन लोगों ने अन्ना को अपने यहां आमंत्रित करके उन्हें सम्मान दिया उनके साथ अन्ना एक गैरजरूरी युद्ध की भाषा बोल रहे थे. केतकर बताते हैं, ‘मैं अन्ना को पिछले 35-36 सालों से जानता हूं. उन्होंनेे अपने पर्यावरण केंद्रित कामकाज का जमकर दोहन किया है. उनके भीतर राजनीतिक महत्वाकांक्षा की बजाय आत्मप्रशंसा की भावना भरी हुई है. टीवी आने के बाद उन्होंने जमकर अपना प्रचार-प्रसार किया है. खुद की तारीफें सुनना उन्हें बहुत अच्छा लगता है.’ केतकर की बातों की पुष्टि एक दूसरी घटना से भी होती है. साल 2006 में तहलका द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए अन्ना हजारे दिल्ली आए हुए थे. इस कार्यक्रम में अन्ना हजारे खुद ही अपने ऊपर बनी एक डॉक्युमेंट्री की सीडी लोगों में बांट रहे थे. इसी तरह हमने देखा कि साल 2011 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने उन्हें एक दिन के लिए अखबार के अतिथि संपादक के तौर पर आमंत्रित किया था. उस दिन के अखबार में अन्ना हजारे के खुद के जीवन और उपलब्धियों के बखान में तीन पूरे पन्ने समर्पित थे. किसी अखबार का संपादक अपने ही ऊपर तीन पन्ने कैसे खर्च कर सकता है?
इस साल इलेक्शन कुवांरो की पार्टी का है
नरेन्द्र मोदी
राहुल गाँध
ममता बनर्जी
जयललिता
अन्ना हजारे
देश का भविष्य सिर्फ कुंवारा व्यक्ति ही बदल सकता ही क्योंकि. . . . . .
शादीशुदा तो टी वी का चैनल तक भी अपनी मर्जी से नहीं बदल सकता