नरेंद्र मोदी: अग्रतम, व्यग्रतम

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय
फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

पिछले साल 15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह परंपरा के मुताबिक लाल किले से अपना भाषण देने वाले थे तो उससे एक दिन पहले भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार  नरेंद्र मोदी ने एक बयान दिया. गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ने कहा कि स्वतंत्रता दिवस के दिन वे अहमदाबाद के लालन मैदान से बोलेंगे और देश की जनता प्रधानमंत्री और उनके भाषण की तुलना करके जान लेगी कि कौन क्या बोलता है. इतने से ही उनका मन नहीं भरा तो सितंबर में वे छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लाल किले की प्रतिकृति से भाषण दे आए.

दरअसल पिछले डेढ़-दो साल में नरेंद्र मोदी  की गतिविधियों को देखें तो साफ दिखता है कि वे अभी से ही खुद को प्रधानमंत्री मानकर चल रहे हैं. जो लोग राजनीति को देखते-समझते रहे हैं, उनका मानना है कि प्रधानमंत्री बनने के लिए जितनी व्यग्रता नरेंद्र मोदी दिखा रहे हैं उतनी शायद ही किसी ने दिखाई हो.

आज मोदी जिस स्थिति में हैं, उसे समझने के लिए 2002 में लौटना जरूरी है. वे गुजरात के नए-नए मुख्यमंत्री बने थे. फरवरी, 2002 में गोधरा प्रकरण हुआ. गुजरात के इस कस्बे से गुजर रही साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने से 59 लोगों की मौत हो गई. इस घटना के बाद पूरे गुजरात में दंगे हुए.

ये इतने भयानक थे कि खुद उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म याद दिलाना पड़ा. इस सबके बीच गुजरात में विधानसभा चुनाव हुए और मोदी ने जबरदस्त वापसी की.

इसके बाद से लेकर लगातार मोदी ने ऐसी छवि गढ़ने की सफल कोशिश की है जिसमें हिंदुत्व और विकास साथ-साथ चले. पहले से ही आर्थिक तौर पर मजबूत गुजरात की छवि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी गढ़ी जो निवेशकों और काॅरपोरेट घरानों की पहली पसंद हो. आर्थिक मानकों पर लगातार गुजरात का प्रदर्शन सुधरा. काॅरपोरेट घराने मोदी की तारीफ करने लगे. इसी बीच 2007 में गुजरात विधानसभा चुनावों में मोदी ने एक बार फिर से गुजरात की सत्ता में वापसी करने में सफलता हासिल की. इसके बाद दबे स्वर में ही सही लेकिन भाजपा में यह चर्चा चलने लगी थी कि इस व्यक्ति में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का माद्दा है. लेकिन उस वक्त मोदी ने ऐसी कोई व्यग्रता नहीं दिखाई और 2009 में आडवाणी ही भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे. इसके बाद जब भाजपा में युग परिवर्तन और बड़े बदलावों की बात चली तो हर तरफ से यह राय उभरी कि अब मोदी को केंद्र की राजनीति में लाने का वक्त आ गया है.

लेकिन दिल्ली में उनके साथ के नेता ही उनके विरोधी बने बैठे थे. केंद्र में उन्हें लाने का विरोध कर रहे नेताओं का तर्क यह था कि अगर मोदी को यहां लाया जाता है तो सहयोगी दल छिटक जाएंगे और गठबंधन राजनीति के इस दौर में सत्ता में आना मुश्किल होगा. लेकिन मोदी ने अपने जनसंपर्क अभियानों और ब्रांड प्रबंधन के जरिए सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की मीडिया में सकारात्मक छवि बनाए रखने में कामयाबी हासिल की. इस बीच 2012 में गुजरात में विधानसभा चुनाव हुए. भाजपा से अलग हुए दिग्गज नेता केशुभाई पटेल, गुजरात के मुख्यमंत्री रहे सुरेश पटेल और मोदी सरकार में गृह राज्य मंत्री रहे गोर्धन जडाफिया ने अलग गुजरात परिवर्तन पार्टी बनाकर मोदी को चुनौती दी. इसके बावजूद मोदी वापसी करने में कामयाब रहे.

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