11 जुलाई, आम बजट पेश होने के एक दिन बाद देशभर के समाचार चैनलों पर नई नवेली एनडीए सरकार के पहले बजट का पोस्टमार्टम चल रहा था. आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मामलों के तमाम विशेषज्ञ बहस में मशगूल थे. अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के लिहाज से इन बहसों को महत्वपूर्ण मानते हुए देशभर के अधिकांश लोग भी टीवी पर आंख-कान लगाए हुए थे. उसी देश की राजधानी दिल्ली के वजीरपुर स्थित औद्योगिक इलाके में एक और बहस चल रही थी. यह बहस इलाके के हॉट रोलिंग यानी गरम रोला कारखानों में काम करने वाले मजदूरों और कारखानों के मालिकों के बीच थी. इन कारखानों में अब तक रोजाना 12 घंटे काम करने वाले मजदूरों की मांग थी कि उनके काम की अवधि 12 के बजाय नौ घंटे होनी चाहिए. फैक्ट्री मालिक इस कटौती के खिलाफ थे. मजदूरों के इरादे देखते हुए कुछ मालिक उनकी बात मानने को तैयार हो गए, लेकिन बाकी कंपनियां अब भी 12 घंटे की ड्यूटी को ही नौकरी की शर्त बता रही थीं. इनमें से कुछ कंपनियों ने नौ घंटे ड्यूटी की मांग पर अड़े मजदूरों से अपना हिसाब-किताब करने की बात कही और फैक्ट्रियां बंद करने का ऐलान कर दिया. इस ऐलान के बाद कुछ कंपनियों ने मजदूरों को पिछला भुगतान करने का सिलसिला शुरू कर दिया. मजदूरों के मुताबिक अलग-अलग कंपनियों में काम कर रहे ऐसे कामगारों की संख्या अब तक 100 के पार पहुंच चुकी है. बताया जा रहा है कि कुछ दिनों में यह आंकड़ा दो से तीन सौ की संख्या को पार कर जाएगा.
दरअसल वजीरपुर में पिछले एक महीने से चल रही मजदूरों की हड़ताल आज ऐसी जगह पर पहुंच चुकी है जहां से उसकी हार-जीत को लेकर अलग-अलग परिभाषा गढ़ी जा सकती है. इसे विस्तार से समझने के लिए पिछले एक महीने के दौरान इस मजदूर आंदोलन पर एक सरसरी निगाह डालना जरूरी है.
वजीरपुर स्थित औद्योगिक इलाके को एशिया की सबसे बड़ी स्टील इंडस्ट्री के रूप में जाना जाता है. इस पूरे इलाके में स्टील उद्योग से जुड़ी तकरीबन 200 छोटी-बड़ी फैक्ट्रियां हैं. इन फैक्ट्रियों में स्टील को काटने, पिघलाने, पालिश करने और फिर उससे अलग-अलग सामान बनाने का काम किया जाता है. इन सभी कामों के लिए देश भर के अलग-अलग हिस्सों से आए तकरीबन पांच हजार मजदूर यहां काम करते हैं. वजीरपुर में हॉट रोलिंग के 23 कारखाने हैं जिनमंे लगभग आठ सौ मजदूर काम करते हैं. इन कारखानों में लोहे की मोटी-मोटी प्लेटों को पहले पिघलाया जाता है और फिर अलग-अलग सांचों में ढाल कर स्टील का सामान बनाया जाता है. इस काम को करने के लिए मजदूरों को भट्टियों के बेहद करीब खड़े रहकर काम करना होता है. भयंकर आग उगलने वाली इन भट्टियों के सामने खड़े होकर लगातार घंटों तक काम करने की परिस्थितियां जोखिम भरी और खतरनाक होती हैं. मजदूरों का आरोप है कि उनकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त इंतजाम नहीं होते. इसके अलावा उनसे आठ के बजाय 12 घंटे काम करवाया जाता है और अतिरिक्त मजदूरी के रूप में कुछ भी नहीं दिया जाता.
श्रम कानून के मुताबिक किसी भी औद्योगिक इकाई में नियत समय से अधिक वक्त तक काम करने के एवज में कामगारों को ओवरटाइम मनी के रूप में अतिरिक्त मेहनताना दिया जाना चाहिए, लेकिन मजदूरों के मुताबिक वजीरपुर स्थित इन 23 कारखानों में इस नियम का रत्तीभर भी पालन नहीं किया जाता. यहां तक कि मजदूरों को दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती. राज्य सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के मुताबिक औद्योगिक इकाइयों में आठ घंटे काम करने के एवज में हेल्परों को 8554, अर्ध कुशल कामगारों को 9,480 तथा पूर्ण रूप से कुशल कामगारों को 10,374 रुपए मासिक मेहनताना दिया जाना चाहिए. लेकिन इन मजदूरों को रोजाना 12 घंटे काम के बावजूद क्रमश: 8,000, 9,000 तथा 10,000 रुपये ही दिये जा रहे हैं. हैरत की बात यह भी है कि अधिकांश मजदूरों के पास न तो कंपनी का परिचय पत्र होता है और न ही उन्हें वेतन की पर्ची ही दी जाती है. तहलका ने इन कारखानों में काम करने वाले जितने भी मजदूरों से बात की उन सभी का कहना था कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी, बोनस, पीएफ तथा सरकारी छुट्टी जैसी सुविधाएं अभी तक नहीं मिल सकी हैं.
ये मजदूर लंबे समय से इन्हीं सब मांगों को लेकर कारखाना मालिकों की दरियादिली की बाट जोह रहे थे. लेकिन मालिकों ने इस पर कोई संजीदगी नहीं दिखाई. नाराज मजदूरों ने पिछले महीने छह जून से बेमियादी हड़ताल शुरू कर दी. ‘गरम रोला मजदूर एकता समिति’ की अगुवाई में शुरू हुई इस हड़ताल को धीरे-धीरे अन्य मजदूर संगठनों का भी समर्थन मिलने लगा. दिल्ली मजदूर यूनियन, करावल नगर मजदूर यूनियन, गुड़गांव मजदूर संघर्ष समिति तथा पीयूडीआर के कार्यकर्ता कई दिनों तक वजीरपुर में ही डटे रहे. इसके अलावा वजीरपुर की कई अन्य फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर भी इस हड़ताल में अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हो गए. हॉट रोलिंग कारखानों की ज्यादतियों के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन की गूंज 26 जून को पहली बार वजीरपुर से बाहर सुनाई दी. इस दिन तकरीबन 500 मजदूरों ने जंतर-मंतर पर रैली निकाली और प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ ही केंद्रीय श्रम मंत्रालय को एक ज्ञापन सौंपा. इसमें मजदूरों ने केंद्र सरकार से इस मामले में दखल की अपील की.
जंतर-मंतर पर हुए इस प्रदर्शन के बाद वजीरपुर स्थित हॉट रोलिंग की सभी 23 फैक्ट्रियों के मालिक सकते में आ गए. उन्होंने अगले ही दिन 27 जून को हड़ताली मजदूरों के सामने समझौता करने का प्रस्ताव रख दिया. यह हड़ताल के 22 दिन बाद की बात है. उस दिन श्रम विभाग के अधिकारियों की मध्यस्थता में मजदूरों और कंपनी मालिकों के बीच एक समझौता हुआ. इसके तहत हॉट रोलिंग वाली सभी कंपनियां 12 के बजाय नौ घंटे काम करवाने पर राजी हो गईं. इसके अलावा इन कंपनियों ने मजदूरों को बोनस, छुट्टी और अन्य सुविधाएं देने की बात भी मान ली. इस समझौते की एक प्रति तहलका के पास भी मौजूद है.
लेकिन अगले ही दिन अधिकांश कंपनियां अपने वादे से मुकर गईं. उस दिन कुछ कारखानों के मालिकों ने सुबह की शिफ्ट में काम करने आ रहे मजदूरों को गेट पर ही रोक दिया. इन मालिकों ने मजदूरों के सामने शर्त रखी कि 12 घंटे काम करने की सूरत में ही उन्हें काम पर रखा जाएगा. यानी समझौते के 24 घंटे के अंदर ही ये कंपनियां अपने वादे से मुकर चुकी थीं. मालिकों के इस रवैये के बाद मजदूर बुरी तरह भड़क गए. उन्होंने फैक्ट्रियों के गेट पर तालाबंदी करते हुए श्रम विभाग से इन कंपनियों की शिकायत कर दी. ‘गरम रोला मजदूर एकता समिति’ के सदस्य रघुराज बताते हैं, ‘शिकायत के बाद श्रम विभाग के अधिकारियों ने कंपनी मालिकों को तलब किया. विभाग ने समझौते का उल्लंघन करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई की बात कही. इसके बाद कंपनी मालिक एक बार फिर समझौता लागू करने को राजी हो गए.’
लेकिन इस समझौते के अगले दिन भी वही हुआ. फैक्ट्री मालिक 12 घंटे काम करने की सूरत में ही पैसा देने की बात करने लगे. इस बात का पता तब लगा जब कुछ कारखानों के मजदूर नौ घंटे बीत जाने के बाद भी बाहर नहीं आए. इसकी वजह यह थी कि इन कंपनियों ने फैक्ट्रियों के अंदर काम पर गए मजदूरों को 12 घंटे से पहले छुट्टी देने से मना कर दिया था. ऐसी ही एक फैक्ट्री में काम करने वाले बिहार के बेगूसराय जिले के राम कुमार कहते हैं, ‘मालिकों ने हमसे सुबह ही कह दिया था कि कल का समझौता अब लागू नहीं होगा. हमें 12 घंटे ही काम करना होगा.’ एक और मजदूर वीरेंद्र बताते हैं, ‘हमारी फैक्ट्री में तो ठेकेदार ने साफ कह दिया था कि जो 12 घंटे काम नहीं कर सकता उसे कल से काम पर आने की जरूरत नहीं है.’
इस आंदोलन को समर्थन दे रहे मजदूर बिगुल नामक संगठन के कार्यकर्ता अनंत कहते हैं, ‘श्रम विभाग के अधिकारियों के सामने एक बात कहना और फैक्ट्रियों के अंदर मजदूरों से दूसरी बात कहना अधिकांश कंपनियों की सबसे कुख्यात नीति रही है. बाहर अधिकारियों के सामने हर शर्त मान कर वे अपने खिलाफ होने वाली कार्रवाइयों से बच जाते हैं और कारखानों के अंदर मजदूरों को धमका कर अपना पूरा काम भी निकाल लेते हैं.’
कई लोगों के मुताबिक कंपनियों द्वारा समझौते से पीछे हटने की वजह कुछ और ही थी. मजदूर बिगुल संगठन के ही एक और कार्यकर्ता अभिनव के मुताबिक कारखाना मालिकों तक कुछ शरारती तत्वों ने मजदूर आंदोलन के कमजोर पड़ने की अफवाह पहुंचा दी. वे कहते हैं, ‘23 मालिकों को बताया गया कि हड़ताल से थक चुके मजदूर आंदोलन से पीछे हटने को तैयार हो गए हैं और अगर कंपनियां थोड़ी सख्ती दिखाएं तो इस आंदोलन को कुचला जा सकता है. यही वजह रही कि मालिकों ने समझौता लागू करने से इंकार कर दिया.’ लेकिन इस बात का खुलासा होने के बाद मजदूर और भी उग्र हो गए और उन्होंने आर-पार की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया. इस लड़ाई के पहले चरण में मजदूरों ने तीन जुलाई को कारखाना मालिकों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग को लेकर उप श्रमायुक्त कार्यालय का घेराव कर दिया. इसके साथ ही लगभग आधा दर्जन फैक्ट्रियों में तालाबंदी करते हुए मजदूरों ने पांच जुलाई से वजीरपुर स्थित राजा पार्क में अनशन शुरू कर दिया. यह अनशन तीन दिनों तक चला. इस बीच श्रम विभाग गरम रोला कारखानों के मालिकों को श्रम कानूनों का उल्लंघन करने के आरोप में नोटिस भेज चुका था. इन मालिकों को अपना पक्ष रखने के लिए सात जुलाई तक का समय दिया गया. नोटिस का असर यह हुआ कि इन कारखानों के मालिक बिना शर्त मजदूरों की सभी मांगें मानने को तैयार हो गए. आठ जुलाई को हुए तीसरे और अंतिम समझौते में उन्होंने वे सभी बातें एक बार फिर से दोहराईं जो इससे पहले के दो समझौतों में शामिल थीं.
इस समझौते के बारे में बताते हुए ,गरम रोला मजदूर एकता समिति की कानूनी सलाहकार शिवानी बताती हैं, ‘श्रम विभाग के अधिकारियों ने इस मौके पर कंपनी मालिकों को श्रम कानूनों का पालन करने की हिदायत देने के साथ ही दो और महत्वपूर्ण बातें कहीं. पहली यह कि विभाग के सीनियर अधिकारी खुद समय-समय पर सभी कारखानों का औचक दौरा करेंगे और दूसरी यह कि सभी फैक्ट्रियों में नौ घंटे की समय सीमा के साथ ही अन्य जरूरी श्रम कानूनों का पालन करवाने के लिए अगले एक हफ्ते तक श्रम विभाग के अधिकारी सुबह और शाम फैक्टरियों के सामने मौजूद रहेंगे. मजदूरों के मुताबिक उनके लिए यह अब तक का सबसे अच्छा फैसला था.’ यह बात तब सच लगती दिखी जब समझौते के अगले दिन श्रम विभाग के अधिकारी इन कंपनियों के सामने नियत समय पर पहुंच गए.
लेकिन इस समझौते को लेकर जब तक मजदूर अपनी जीत का जश्न मनाते तब तक कुछ कंपनी मालिकों ने फिर से पलटी मार ली और 12 घंटे काम करने की पुरानी बात पर अड़ गए. हालांकि इस बीच कुछ कंपनियां ऐसी भी थीं जिन्होंने समझौते के तहत नौ घंटे का नियम लागू कर लिया था.
इस तरह देखा जाए तो अब गरम रोला की 23 फैक्ट्रियों में तीन अलग-अलग स्थितियां बन गई थीं. पहली यह कि 23 में से आठ कंपनियां न्यूनतम मजदूरी तथा नौ घंटे काम करने की मांग पर राजी हो गईं. ऐसी ही एक कंपनी A-72 के मालिक जेके बंसल का कहना था कि उनकी फैक्ट्री में मजदूरों से 12 के बजाय नौ घंटे ही काम लिया जाएगा. इसके अलावा उन्होंने समझौते में रखी गई सभी शर्तों का पालन करने की बात कही. दूसरी स्थिति बिल्कुल इसके उलट थी. इस समझौते के बाद भी 10 कंपनियां ऐसी थीं जो किसी भी कीमत पर 12 घंटे से कम काम करने को तैयार नहीं हुई. इसके अलावा तीसरी और सबसे विचित्र स्थिति तब सामने आई जब पांच फैक्ट्रियों ने अपने यहां काम कर रहे सभी मजदूरों का हिसाब चुकता करने के साथ ही कंपनियों को बंद करने का फैसला कर लिया.
इन मजदूरों से न सिर्फ नियम से ज्यादा समय तक काम कराया जाता है बल्कि उन्हें दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती
फिलहाल इन तीनों स्थितियों का लब्बोलुबाब यही है कि एक नियत उद्देश्य को लक्ष्य बना कर एक महीने से चल रहा यह आंदोलन अब एक तिराहे पर पहुंच गया है. यानी कुछ मजदूरों को जहां 12 घंटे काम करने से आजादी मिल गई है वहीं अब भी कुछ मजदूर 12 घंटे काम करने को मजबूर हैं इसके अलावा जिन कंपनियों ने मजदूरों का हिसाब किताब करके अपने कारखाने बंद कर दिए हैं, उन मजदूरों के पास अभी कोई काम नहीं है.
अब सवाल उठता है कि डेढ़ महीने की इस कठिन परीक्षा के बाद मजदूरों के हिस्सों में अलग-अलग परिणाम क्यों आए जबकि उन सभी ने इस परीक्षा में एक समान प्रदर्शन किया था. सवाल यह भी है कि एक तरफ कुछ मालिक, मजदूरों की सभी मांगें मानने के लिए तैयार हो चुके हैं तो फिर बाकी मालिकों ने इन मांगों को मानने से इंकार क्यों कर दिया.
पहले सवाल का जवाब तलाशने के क्रम में जो बात सबसे प्रमुख तौर पर उभरती है वह मजदूरों की गरीब पृष्ठभूमि और काम की मजबूरी से जुड़ी है. दरअसल वजीरपुर में काम करने वाले मजदूर बेहद गरीब पष्ठभूमि के हैं. इन मजदूरों के पूरे परिवार की जिंदगी इनकी कमाई पर निर्भर करती है. ऐसे में कई मजदूरों ने हड़ताल के बाद भी 12 घंटे काम करना इस लिए स्वीकार किया क्योंकि ऐसा न करने पर रोजी-रोटी का संकट खड़ा होने का खतरा पैदा हो रहा था. उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के रहने वाले बाबू लाल ऐसे ही एक मजदूर हैं, जिनके पूरे परिवार की जिम्मेदारी उनके खुद के जिम्मे ही है. ढाई साल से वजीरपुर में रह रहे बाबू लाल अब तक तीन अलग-अलग फैक्ट्रियों में काम कर चुके हैं. वे कहते हैं, ‘आटा, चावल से लेकर लत्ते-कपड़े और मकान का किराया जिस रफ्तार से बढ़ रहा है उसका मुकाबला करने में हमारी तनख्वाह पूरी तरह फेल है. हालत इतनी खराब है कि दिनरात एक करने के बाद महीने के आखिर में मिलने वाले पैसों से न तो खुद की जरूरतें पूरी हो पाती हैं और न ही मैं इतना पैसा गांव भेज पाता हूं जिससे परिवार की दाल-रोटी ठीक से चल सके. ऐसे में अगर 12 घंटे काम नहीं करूंगा तो यह नौकरी भी हाथ से निकल जाएगी.’ ऐसे मजदूरों की पूरे वजीरपुर में भरमार है.
इसके अलावा कई लोगों के मुताबिक श्रम कानूनों को लेकर जागरूकता का अभाव होना भी इन मजदूरों के लिए बड़ी समस्या बन कर उभरा है. करावल नगर मजदूर यूनियन से जुड़े योगेश कहते हैं, ‘मालिक मजदूरों को तमाम तरह से धमका कर रखते हैं जिसके चलते मजदूर कई बार उनकी हर ज्यादती चुपचाप सह लेते हैं.’ मजदूर बिगुल के अभिनव कहते हैं, ‘इतना बड़ा आंदोलन होने के बाद भी जो मजदूर 12 घंटे काम करने को तैयार हैं, उनके साथ यही सारी समस्याएं हैं.’ हालांकि वे यह भी कहते हैं कि धीरे-धीरे ही सही इन मजदूरों को समझाने में उन्हें कामयाबी जरूर मिलेगी.
अब दूसरे सवाल पर आते हैं कि कुछ मालिकों द्वारा मजदूरों की सभी मांगें मानने के बाद भी बाकी कंपनियां 12 घंटे काम करवाने के फैसले पर क्यों अड़ी हुई हैं ?
दरअसल नौ घंटे काम करवाने की शर्त को मानने से इंकार करने वाले इन अधिकांश कारखानों का तर्क है कि ऐसा करने से उनकी कंपनियां घाटे में चली जाएंगी. नाम न बताने की शर्त पर एक फैक्ट्री के प्रतिनिधि कहते हैं, ‘सिर्फ नौ घंटे काम करवाने से बेहतर तो यही है कि हम अपनी फैक्ट्री ही बंद कर दें. काम में तीन घंटे की कटौती हमारे लिए हर तरह से घाटे का सौदा है.’ लेकिन वजीरपुर के अधिकतर मजदूर इस तर्क से सहमत नहीं दिखते. रघुराज कहते हैं, ‘गरम रोला की प्रत्येक फैक्ट्री हर महीने 10 से लेकर 20 लाख तक की कमाई करती है. अगर ये फैक्ट्रियां मजदूरों से नौ घंटे काम करवाने और उन्हें न्यूनतम मेहनताना देने पर राजी हो जाएं तो भी इन कंपनियों को हर महीने पहले के मुकाबले एक से डेढ़ लाख रुपये ही अतिरिक्त खर्च करने पड़ेंगे. और इसके बाद भी इनका मुनाफा आठ से लेकर 18 लाख तक रहेगा. ऐसे में आप ही बताइए कि फैक्ट्रियों को नुकसान कहां से हो रहा है ?’ वे आगे कहते हैं, ‘पिछले साल भी मजदूरों ने इन मांगों को लेकर हड़ताल की थी, लेकिन तब भी मालिक वेतन बढ़ाने और बोनस देने जैसे वादों से मुकर गए थे. क्योंकि उस वक्त हमारा आंदोलन थोड़ा कमजोर पड़ गया था इसलिए मालिकों को लग रहा है कि इस बार भी वे वादों से मुकरकर अपने बढ़े हुए मुनाफे को बरकरार रख सकते हैं.’
बहरहाल इस आंदोलन की दिशा को लेकर असमंजस की इन स्थितियों के बाद भी वजीरपुर के मजदूर अपनी जीत को लेकर आशावान नजर आ रहे हैं. गरम रोला मजदूर एकता समिति की कानूनी सलाहकार और इस आंदोलन में मजदूरों की प्रतिनिधि शिवानी कहती हैं, ‘जिन कंपनियों में अब भी 12 घंटे काम चल रहा है वहां के मजदूरों को दुबारा संगठित करने के प्रयास किए जा रहे हैं. साथ ही हमने उन कंपनियों के खिलाफ लेबर कोर्ट जाने की तैयारी कर ली है जिन्होंने नौ घंटे काम करने से इंकार करते हुए अपनी फैक्ट्रियां बंद कर दी हैं. इन कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों को पिछले छह महीने का बोनस तथा एरियर दिलाने के लिए हमारा संगठन हर तरह की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार है.’
मजदूरों और कंपनी मालिकों के बीच महीनेभर से चल रही इस लड़ाई में श्रम विभाग की भूमिका का जिक्र किए बगैर यह पूरी कथा अधूरी है. वजीरपुर के अधिकतर मजदूरों को इस पूरे आंदोलन के दौरान विभाग की भूमिका भी संदेहास्पद नजर आती है. मजदूर नेता नवीन कहते हैं, ‘सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि श्रम विभाग की मध्यस्थता में तीन-तीन बार समझौता हो गया फिर भी यह समझौता लागू क्यों नहीं हो सका?’ हालांकि दिल्ली के उप श्रम आयुक्त राजेश धर इस पूरे प्रकरण में विभाग की कार्रवाई को बेहद सराहनीय बताते हैं, वे कहते हैं, ‘एक महीने की इस हड़ताल के बाद मालिकों ने मजदूरों के हितों को लेकर प्रतिबद्धता दिखाई है जिसका प्रमाण यह है कि कुछ फैक्ट्रियों में नौ घंटे काम करने का नियम लागू हो चुका है. बाकी कारखानों में भी जल्द ही यह सब शुरू हो जाएगा. वरना इनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई तय है.’
लेकिन मजदूरों की नजर में ये बातें आश्वासन से अधिक कुछ नहीं. हड़ताली मजदूरों के एक नेता सनी कहते हैं, ‘मजदूरों का शोषण कोई आज की बात नहीं है. वजीरपुर की बात करें तो श्रम विभाग का उदासीन रवैया ही यहां के कारखानों मंे हो रहे श्रम कानूनों के खुलेआम उल्लंघन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है. हम पिछले कई सालों से विभाग के अधिकारियों को कंपनियों के काले कारनामों से अवगत कराते रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद श्रम विभाग की कार्रवाई नोटिस देने तक ही सीमित रही है.’ वे आगे कहते हैं, ‘वजीरपुर के इस औद्योगिक इलाके के पास ही निमड़ी कालोनी नाम की एक कालोनी है, जहां पर श्रम न्यायालय है. अगर वाकई में श्रम कानूनों को लागू करवाने को लेकर श्रम विभाग गंभीर होता तो क्या वजीरपुर के पास ही स्थित इस न्यायालय का खौफ कंपनी मालिकों के मन में नहीं होता ?’
बहरहाल, महीने भर से जारी इस लड़ाई में अब तक निकले अलग-अलग परिणामों वाले ताजा सूरते हाल को देखते हुए साफ तौर पर कहना मुश्किल है कि इसमें मजदूरों को आधी जीत मिली या आधी हार?