मणिपुरः नाै लाशें, सात महीने अाैर एक अांदाेलन

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फोटो : अमरजीत सिंह

ह्वाट अ फ्रेंड वी हैव इन जीसस,

आॅल आवर सिंस एंड ग्रीफ टू बीयर!

यानी ईश्वर के रूप में हमारे पास एक ऐसा दोस्त है जो हमारे सारे दुखों और पापों को सहन कर लेता है… दिल्ली के जंतर मंतर पर बने एक अस्थायी टेंट के पास मणिपुर की रहने वाली जेनेट बाल्टे इस कविता का गान कर रही हैं. इसमें कुछ और लोग भी उनका साथ दे रहे हैं. सभी के चेहरे पर उदासी और हताशा का भाव साफ देखा जा सकता है. दरअसल ये लोग तकरीबन सात महीने से यहां शांतिपूर्ण ढंग से मणिपुर के चूराचांदपुर जिले में एक और दो सितंबर को प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोलियों का शिकार हुए नौ लोगों के लिए न्याय की मांग कर रहे हैं. इन नौ लोगों में एक नाबालिग भी शामिल है.

ये लोग 31 अगस्त, 2015 को मणिपुर विधानसभा द्वारा पास किए गए तीन विधेयकों के विरोध में सड़क पर उतर गए थे, जहां  पुलिस ने इन्हें गोली मार दी थी. घटना के विरोध में मृतकों के परिवारवालों ने शव लेने और दफनाने से मना कर दिया है. मणिपुर की राजधानी इंफाल से करीब 70 किमी. दूर चूराचांदपुर जिला अस्पताल के मुर्दाघर में इन लोगों के शव अब भी रखे हुए हैं. इधर, जंतर मंतर पर इस प्रदर्शन की अगुआई कर रहे मणिपुर आदिवासी फोरम, दिल्ली (एमटीएफडी) ने भी टेंट के अंदर नौ प्रतीकात्मक ताबूत रखे हैं. विधेयकों को आदिवासी विरोधी बताया जा रहा है.

कविता पूरी हो जाने के बाद जेनेट जोर-जोर से नारा लगाते हुए आदिवासियों के लिए न्याय की मांग करती हैं. वहां मौजूद सारे लोग उनका साथ देते हैं. जेनेट दिल्ली के तीस हजारी स्थित सेंट स्टीफन हॉस्पिटल में नर्स हैं. वे पिछले चार सालों से दिल्ली में रह रही हैं और पिछले कई महीनों से काम खत्म करके अस्पताल से सीधे जंतर मंतर आकर इस प्रदर्शन में शामिल होती हैं.

बीते साल पास किए गए तीन विधेयकों के विरोध में सड़क पर उतर गए थे. इस बीच पुलिस फायरिंग में नौ लोगों की मौत हो गई थी. मृतकों के परिवारवालों ने शव दफनाने से मना कर दिया है. तब से ही जंतर मंतर में भी विरोध प्रदर्शन हो रहा है

जेनेट कहती हैं, ‘मणिपुर में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. हमारे हक की लड़ाई लड़ने वाले लोगों को मार दिया जाता है और जब हम पुलिसकर्मियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज किए जाने की मांग करते हैं, तो किसी भी कार्रवाई से इनकार कर दिया जाता है. यहां दिल्ली से लेकर मणिपुर तक फैली यह लड़ाई हमारी पहचान और अस्तित्व की है. जब तक इन नौ लोगों को न्याय नहीं मिल जाता है, तब तक मैं यहां आती रहूंगी.’

कुछ ऐसी ही बात आरबीआई में काम करने वाले पीएस ख्वाल करते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर दो हिस्सों में बंटा हुआ है. हिल एरिया (पहाड़ी) और वैली (घाटी). घाटी में जब प्रदर्शन होता है, तो पुलिसकर्मी रबर की गोलियां चलाते हैं, वहीं जब पहाड़ी क्षेत्र में प्रदर्शन होता है तो वे भीड़ को रोकने के लिए असल गोलियों का इस्तेमाल करते हैं. आप हमारे साथ होने वाले अन्याय का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं. सबसे दुखद बात यह है कि हमारी मांग को सुनने वाला कोई नहीं है. हम इतने दिनों से जंतर मंतर में प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन पुलिसकर्मियों से लेकर राज्य और केंद्र सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है.’

अपनी बात कहकर जेनेट और ख्वाल समेत दूसरे प्रदर्शनकारी खामोशी से कैंडल जलाने में जुट जाते हैं और फिर कैंडल लेकर प्रतीकात्मक ताबूतों के सामने प्रार्थना करने लगते हैं. दरअसल मणिपुर में पिछले कुछ महीनों से तनाव की स्थिति बनी हुई है. यहां पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोग राज्य विधानसभा द्वारा पास किए गए उन तीन विधेयकों का विरोध कर रहे हैं जो जमीन खरीदने और दुकानों में काम करने वाले बाहरी लोगों की पहचान से संबंधित हैं. इन आदिवासियों को डर है कि नया कानून आने के बाद पहाड़ी क्षेत्र में गैर-आदिवासी बसने लगेंगे. जबकि वहां जमीन खरीदने पर अब तक पाबंदी है.

31 अगस्त को मणिपुर विधानसभा द्वारा तीन विधेयक- मणिपुर जन संरक्षण विधेयक-2015, मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक-2015 और मणिपुर दुकान एवं प्रतिष्ठान (दूसरा संशोधन) विधेयक-2015 पारित किए जाने के बाद राज्य के आदिवासी छात्र संगठनों द्वारा बंद का आह्वान किया गया था. इस दौरान भड़की हिंसा में पुलिस फायरिंग के दौरान नौ लोगों की मौत हो गई जबकि 35 से अधिक लोग घायल हो गए थे.

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पुलिस के अनुसार, प्रदर्शनकारियों ने बाहरी मणिपुर लोकसभा सीट के सांसद थांगसो बाइते, राज्य के परिवार कल्याण मंत्री फुंगजथंग तोनसिंग, हेंगलेप विधानसभा क्षेत्र के विधायक मंगा वेईफेई और थानलोम के वुनगजागीन सहित पांच विधायकों के मकान को आग के हवाले कर दिया. पुलिस का कहना है कि हिंसक हो चुके प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मजबूरन फायरिंग करनी पड़ी, जिसमें कुछ लोगों की मौत हो गई.

देखा जाए तो मणिपुर का यह पूरा मामला भावनात्मक और संवेदनशील होने के साथ जटिल भी है. घाटी में रह रहे मेइतेई समुदाय का तर्क है कि जनसंख्या का सारा दबाव उनकी जमीन पर है. उनके अनुसार, घाटी में संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है लेकिन पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने पर मनाही है. वहीं पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी समुदाय के नुमाइंदे आरोप लगाते हैं कि सरकार ने कभी आदिवासियों से इस बारे में बात करके उनका भरोसा जीतने की कोशिश नहीं की और विधेयक पास कर दिया.

जंतर मंतर पर प्रदर्शन करने आए एमटीएफडी के सदस्य और दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एमए कर रहे सैम कहते हैं, ‘हमें इस वक्त इन विधेयकों का विरोध करना ही होगा क्योंकि ये कानून बनते ही मेइतेई समुदाय को अधिकार देने के लिए नहीं बल्कि आदिवासियों से उनका संवैधानिक अधिकार छीनने की कोशिश है. हम अपनों का अंतिम संस्कार तब तक नहीं करेंगे जब तक हमारी मांगें नहीं मानी जातीं, हालांकि यह इंतजार कितना लंबा होगा अभी इसका पता नहीं है.’

अगर हम हालिया विवाद पर नजर डालें तो इसकी शुरुआत गैर-आदिवासी बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय द्वारा जॉइंट कमेटी आॅन इनर लाइन परमिट सिस्टम (जेसीआईएलपीएस) स्थापित करने के बाद हुई. यह संगठन 30 सामाजिक संगठनों का प्रतिनिधित्व करता है. गौरतलब है कि इनर लाइन परमिट का मकसद बाहरी लोगों के मणिपुर राज्य में प्रवेश को नियंत्रित करना था. जेसीआईएलपीएस आंदोलन के जवाब में राज्य सरकार तीन विधेयक ले आई. विधेयकों का विरोध करने वालों का कहना है कि इससे जमीन के हस्तांतरण में तेजी आएगी और आदिवासियों के वजूद पर ही संकट मंडरा सकता है.  दरअसल मणिपुर के चूराचांदपुर, चंदेल, उखरुल, सेनापति, और तमेंगलाॅन्ग जिले पहाड़ी क्षेत्र में आते हैं. वहीं थॉबल, बिष्णुपुर, इंफाल ईस्ट और इंफाल वेस्ट जिले घाटी में आते हैं. यहां मेइतेई समुदाय का दबदबा है. लैंड बिल में कहा गया है कि क्षेत्रफल के हिसाब से मणिपुर का 10 फीसदी हिस्सा घाटी का है. हालांकि राज्य की 60 प्रतिशत जनता घाटी में रहती है. इस कारण मेइतेई समुदाय पहाड़ी क्षेत्र में जमीन दिए जाने की मांग करता रहता है. मार्च, 2015 में मणिपुर सरकार ने रेगुलेशन आॅफ विजिटर, टीनेंट्स एेंड माइग्रेंट वर्कर्स बिल पारित कर दिया था. इसका मकसद राज्य में बाहरी लोगों के प्रवेश की निगरानी करना था. हालांकि बाद में सरकार ने इसे वापस ले लिया.

Photo : tribal.unity.in
Photo : tribal.unity.in

सरकार द्वारा लाए गए तीनों विधेयकों के विरोध में चल रहे आंदोलन की अगुवाई कर रही जॉइंट एक्शन कमेटी (जेएसी) के संयोजक एच. मांगचिनखुप गाइते कहते हैं, ‘पहले विधेयक से हमारी आदिवासी पहचान का उल्लंघन होता है, दूसरा विधेयक भूमि संबंधी हमारे अधिकारों की अवहेलना करता है जबकि तीसरा हमारे जीवनयापन को नुकसान पहुंचाता है.’

वहीं एमटीएफडी के संयोजक रोमियो हमर कहते हैं, ‘पहाड़ी क्षेत्र को सरकार ने कभी मणिपुर का हिस्सा नहीं माना. हमारा विकास नहीं किया गया. हमेशा से पहाड़ के लोगों के साथ भेदभाव किया गया. अब भी यह जारी है. इन विधेयकों को देखने-समझने के बाद यह बात साफ हो जाती है. अब घाटी में जमीन को लेकर बढ़ता दबाव संशोधन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारण रहा है. इसके लिए पहाड़ी क्षेत्र तो जिम्मेदार नहीं है. इसके अलावा संशोधित बिल में भ्रमित करने वाली कई चीजें हैं. इसका इस्तेमाल आदिवासियों के खिलाफ आसानी से किया जा सकता है. बिल में मणिपुर के मूल निवासी को सही तरीके से परिभाषित नहीं किया गया है. हम अगर आज इसका विरोध नहीं करेंगे तो प्रशासन बाद में इसका हमारे खिलाफ ही इस्तेमाल करेगा. दरअसल सरकार की मंशा जमीन हड़पने की लगती है.’

हालांकि इस पूरे मसले को दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया के सेंटर फॉर नाॅर्थ ईस्ट स्टडीज एेंड पॉलिसीज रिसर्च में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. एम. अमरजीत सिंह दूसरे नजरिये से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर के लोग बहुत भावुक हैं. उन्हें अपनी जमीन से बहुत प्यार है. वे दूसरों की तर्कपूर्ण बात भी नहीं सुनना चाहते हैं. अब मणिपुर के साथ समस्या यह है कि करीब 90 प्रतिशत जमीन पहाड़ी क्षेत्र में है और 60 प्रतिशत आबादी घाटी में रहती है. अब आप देखिए कि घाटी में रहने वाले मेइतेई समुदाय को पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने की अनुमति नहीं है जबकि घाटी में किसी को भी जमीन खरीदने की अनुमति है. इस कारण मेइतेई समुदाय को लगता है कि उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है. इसी तरह पहाड़ी क्षेत्र की आबादी जो राज्य की कुल आबादी का 30 प्रतिशत है, चाहती है कि बाहरी लोगों को पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने की अनुमति न दी जाए. इससे उनकी आबादी में बदलाव आ जाएगा और उनकी निजता का हनन होगा.’

इस मामले में सभी पक्षों के बीच बातचीत न होने पर भी अमरजीत सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर की सबसे बड़ी समस्या यह है कि पहाड़ी और घाटी दोनों जगहों पर रहने वाले समुदाय खुद को बहुत असुरक्षित महसूस करते हैं. चाहे बात मेइतेई, नगा, कुकी या किसी और समुदाय की हो. अब ये जो विधेयक पास हुए हैं, मेइतेई समुदाय उसका समर्थन कर रहा है. कुकी और नगा उसका विरोध कर रहे हैं. हालत यह है कि पहाड़ी क्षेत्र के लोग कुछ कहते हैं तो घाटी के लोग उसका विरोध करते हैं और अगर घाटी के लोग कुछ कहते हैं तो पहाड़ी क्षेत्र के लोग उसका विरोध करते हैं. अगर आप इन तीनों विधेयकों को देखेंगे तो जो इसका विरोध कर रहे हैं वे गलत नहीं हैं. जो इसके पक्ष में हैं वे भी बहुत हद तक गलत नहीं हैं. मेरे ख्याल से अब वह वक्त आ गया है कि मणिपुर की समस्या को सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करना चाहिए, क्योंकि पहाड़ी क्षेत्र और घाटी के लोगों के लिए यह संभव नहीं है कि वे इस मामले को अपने स्तर पर सुलझा सकें. केंद्र को मामले में हस्तक्षेप करके एक कमेटी का गठन करना चाहिए जो यह निश्चित करे कि मणिपुर के लिए बेहतर क्या है. वैसे भी इन तीन विधेयकों को लागू होने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी की जरूरत होगी. अगर एक्सपर्ट कमेटी यह सलाह देती है कि ये विधेयक मणिपुर के लिए फायदेमंद हैं तो इनको पास कर देना चाहिए और अगर उन्हें लगता है कि ठीक नहीं हैं तो इन्हें मणिपुर विधानसभा को वापस भेज देना चाहिए. इतने दिनों बाद भी बिल का विरोध करने वाले लोगों और राज्य सरकार के बीच किसी भी तरह की बातचीत अंतिम रूप नहीं ले पाई है. ऐसे में राज्य की कानून व्यवस्था बहुत ही खराब हो जाएगी.’ 

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इतने दिनों तक इस मसले का हल न निकाल पाने में सरकार की नाकामी पर दूसरे विशेषज्ञ भी सहमत हैं. विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित और पूर्वोत्तर में लंबे समय तक तैनात रहे ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) आरपी सिंह कहते हैं, ‘यह बहुत दुखद बात है कि कोई भी मणिपुर में हुई इस घटना में रुचि नहीं ले रहा है. दरअसल यह राजनीतिक पार्टियों के लिए मुद्दा इसलिए नहीं है क्योंकि वहां वोटबैंक नहीं है. ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. मणिपुर में ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं, लेकिन दिल्ली समेत दूसरी जगहों पर बैठे लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता है. मुझे लगता है कि सरकार को सभी के साथ बातचीत करनी चाहिए, क्योंकि इसके बगैर हल निकलना संभव नहीं है. अब आप देखिए मणिपुर में ही एक महिला इरोम शर्मिला इतने सालों से प्रदर्शन कर रही हैं, लेकिन अब तक कोई हल नहीं निकला है. यह हमारी नाकामी है.’

हालांकि बाहरी मणिपुर लोकसभा सीट के सांसद थांगसो बाइते कहते हैं, ‘राज्य सरकार बातचीत के लिए तैयार है लेकिन प्रदर्शनकारी बातचीत नहीं करना चाहते हैं. दरअसल पहाड़ी क्षेत्र के कुछ समुदाय ऐसे हैं जो चाहते हैं कि मामले में केंद्र सरकार हस्तक्षेप करे. इसलिए वे राज्य सरकार से बातचीत नहीं कर रहे हैं.’

फिलहाल मणिपुर में छह महीने बाद भी चूराचांदपुर जिला अस्पताल के सामने लोगों का आना कम नहीं हुआ है. लोग शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करते हैं और कैंडल मार्च निकालते हैं. ऐसे ही एक प्रदर्शनकारी सियाम बाइक कहते हैं, ‘हमारे लिए यह बहुत ही कठिन है. हमारी आदिवासी संस्कृति में हम उनको बहुत आदर देते हैं जो मर चुके हैं. लेकिन हमने अभी अपने भाइयों के शव को दफनाया भी नहीं है. हम उन शवों को तब तक नहीं दफनाएंगे जब तक हमें न्याय नहीं मिल जाता. हमें उम्मीद है कि एक दिन केंद्र सरकार इस मामले में हस्तक्षेप करेगी और हमें न्याय मिलेगा.’ मारे गए नौ लोगों में सियाम बाइक के भाई भी शामिल हैं. वे कहते हैं, ‘राज्य सरकार कितनी संवेदनहीन है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि काफी समय तक शवों को रखने के लिए फ्रीजर तक का प्रबंध नहीं किया गया था. शवों को सुरक्षित रखने के लिए बर्फ का इंतजाम खुद करना पड़ता था. इसके अलावा सरकार ने नवंबर में ही ‘हियाम खम’ (आदिवासी प्रथागत कानून में हियाम खम का मतलब आरोपी द्वारा गलती को स्वीकार कर लेना होता है) किया था. लेकिन अब मार्च आ गया है पर अब तक राज्य सरकार ने उन पुलिस कमांडो को तलाशकर उनके खिलाफ कार्रवाई भी शुरू नहीं की है जिन्होंने हमारे लोगों को मारा है. इसका मतलब सरकार द्वारा किया गया हियाम खम भी सच्चा नहीं था.’

‘घाटी में रहने वाले मेइतेई समुदाय को पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने की अनुमति नहीं है जबकि घाटी में किसी को भी जमीन खरीदने की अनुमति है. इस कारण मेइतेई समुदाय को हमेशा से लगता रहा है कि उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है’

मांगचिनखुप गाइते कहते हैं, ‘दरअसल जो उग्र प्रदर्शन हुआ वह सिर्फ तात्कालिक नहीं था. इसके पीछे कई दशकों से पहाड़ी क्षेत्र के साथ किया जा रहा भेदभाव है. पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के मन में विकास, शिक्षा और सुरक्षा की भावना ही नहीं विकसित की गई है. पहाड़ी क्षेत्र और घाटी में सरकार के खर्च में स्पष्ट अंतर है. महत्वपूर्ण सामाजिक ढांचे जैसे कृषि विश्वविद्यालय, मणिपुर विश्वविद्यालय, दो मेडिकल इंस्टीट्यूट, आईआईटी, नेशनल गेम्स काॅम्प्लेक्स और राज्य स्तरीय प्रशासनिक भवन सभी घाटी में स्थित हैं. पहाड़ी क्षेत्र को हमेशा से अविकसित ही रखा गया.’ गाइते इसके पीछे राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व को जिम्मेदार ठहराते हैं.

दरअसल पहाड़ी क्षेत्र के लोग मणिपुर की विधानसभा में प्रतिनिधित्व का मामला भी उठाते हैं. वर्तमान में राज्य की 60 विधानसभा सीटों में से सिर्फ 20 आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं जबकि राज्य की जनसंख्या में आदिवासी 40 से 45 प्रतिशत हैं. औसतन हर आदिवासी विधानसभा क्षेत्र की जनसंख्या 37 हजार है लेकिन मेइतेई बहुल घाटी में यह 27 हजार है. परिसीमन आयोग ने आदिवासी क्षेत्रों में विधानसभा सीटें बढ़ाने का सुझाव दिया था लेकिन निहित स्वार्थों के चलते उस पर अमल नहीं हुआ. वहीं रोमियो हमर कहते हैं, ‘हम पहाड़ी क्षेत्र के लिए अलग राज्य की मांग नहीं करते हैं. हम सिर्फ अलग प्रशासन और संविधान की छठी अनुसूची का विस्तार चाहते हैं.’

गौरतलब है कि छठी अनुसूची के तहत असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के आदिवासी क्षेत्रों को ऐसे मामलों का निपटारा करने के लिए ज्यादा स्वतंत्रता मिलती है. हालांकि मणिपुर में पहले से ही छह आॅटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल कार्यरत हैं. इसके अलावा एक पहाड़ी क्षेत्र कमेटी का भी गठन किया गया है. लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि यह पर्याप्त नहीं है. वे कहते हैं कि जब विधेयक पारित हो रहा था तब पहाड़ी क्षेत्र के ज्यादातर विधायक चुप रहे. उन्हें घाटी के लोग खरीद लेते हैं. वे आदिवासियों की आवाज उठाने में नाकाम रहे हैं.

फोटो : अमरजीत सिंह
फोटो : अमरजीत सिंह

हालांकि इस पर डॉ. अमरजीत कहते हैं, ‘मणिपुर छोटा-सा राज्य है. यहां अलग प्रशासन की मांग उठाना बिल्कुल भी जायज नहीं है. उत्तर-पूर्व के ज्यादातर राज्य बहुत छोटे हैं. अगर उन्हें केंद्र सरकार से मदद न मिले तो राज्य सरकार को कार्य करने में दिक्कत आने लगती है. ऐसे में अलग प्रशासन के लिए खर्च कहां से आएगा? मेरे ख्याल से यह समस्या का सही हल नहीं है. जहां तक राज्य में पहाड़ी क्षेत्र के प्रतिनिधित्व की बात है तो हमारे यहां सीटों का बंटवारा जनसंख्या के हिसाब से हुआ है. पहाड़ी क्षेत्र में कम लोग रहते हैं, इसलिए उनके पास कम प्रतिनिधित्व (करीब 20 विधानसभा सीटें) है.’

वहीं ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) आरपी सिंह इस मांग के पीछे के एेतिहासिक कारणों का उल्लेख करते हुए इसे जायज बताते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर एक हिंदू राज्य था जिस पर 17वीं शताब्दी में बर्मा ने कब्जा कर लिया. 1826 में पहले एंग्लो-बर्मा युद्ध के बाद एक संधि के तहत मणिपुर को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया था, जबकि असम और चटगांव को भारत में शामिल कर लिया गया था. 1949 में यह भारत में शामिल हुआ, लेकिन वहां के लोग इससे खुश नहीं हुए. अब अगर वे आॅटोनॉमस दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं तो इसे देने में कोई बुराई नहीं है. हम भारत के लोग पता नहीं क्यों बहुत भावुक हो जाते हैं, जबकि चीन, कनाडा में कई आॅटोनॉमस राज्य हैं.’

 इसके अलावा इन विधेयकों के कानून बन जाने पर 1951 के बाद मणिपुर में बाहर से आकर बसने वाले लोग मणिपुरी नहीं कहलाएंगे. इस प्रकार उनके मणिपुर में भ्रमण और जमीन आदि खरीदने के अधिकार भी सीमित हो जाएंगे. बाहरी लोगों के जमीन खरीदने पर पाबंदी लग जाएगी. डाॅ. अमरजीत कहते हैं, ‘मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्र में बड़ी संख्या में म्यांमार से अवैध प्रवासी आकर बस गए हैं. इसके चलते वहां के कुछ समूह चिंतित भी हैं. अगर ये तीन विधेयक पास हो जाते हैं तो म्यांमार से आए लोगों को अवैध प्रवासी का दर्जा मिल जाएगा. इस कारण भी इस बिल का जोरदार विरोध हो रहा है. इसके अलावा इस इलाके में धर्म परिवर्तन बहुत तेजी से हुआ है. आदिवासी समुदाय के ज्यादातर लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया है. ऐसे में वे नहीं चाहते हैं कि हिंदू मेइतेई समुदाय के लोग उनके इलाके में रहें.’ आरपी सिंह कहते हैं, ‘पहाड़ी क्षेत्र इलाके में धर्मांतरण बड़ी समस्या है. ज्यादातर लोग धर्म बदलकर ईसाई बन गए हैं. मिशनरीज यहां बहुत ही आक्रामक तरीके से काम कर रहे हैं. यहां तेजी से बढ़ रही हिंसा में इनका भी हाथ होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता.’

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क्या है तीन विधेयकों में और क्यों है विवाद ?

बीते साल 31 अगस्त को मणिपुर विधानसभा में मणिपुर जन संरक्षण विधेयक-2015, मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक-2015 और मणिपुर दुकान एवं प्रतिष्ठान (दूसरा संशोधन) विधेयक-2015 पारित किए गए हैं. लेकिन इन विधेयकों के पास होने के बाद मणिपुर के आदिवासी समूह असंतुष्ट हो गए. जनजातीय छात्र संगठनों का दावा है कि मणिपुरी निवासी सुरक्षा विधेयक-2015 (प्रोटेक्शन ऑफ मणिपुर पीपुल्स बिल-2015) और अन्य दो संशोधन विधेयक राज्य के उन पहाड़ी जिलों में जमीन की खरीद और बिक्री की इजाजत देते हैं जहां नगा और कुकी रहते हैं. उनका कहना है कि इन विधेयकों के कुछ प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 371 (सी) और मणिपुर हिल पीपुल एडमिनिस्ट्रेशन रेगुलेशन एक्ट-1947 का हनन करते हैं, जिन्हें मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में बसने वाले जनजातीय लोगों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया था. इनके तहत राज्य के पहाड़ी जिलों को विशेष क्षेत्र का दर्जा मिला है यानी गैर-अनुसूचित जातियां यहां जमीन नहीं खरीद सकतीं. बाहरी लोगों के आने के कारण कुल आबादी में मूल निवासियों की तेजी से घटती संख्या की वजह से इन्हें अपनी पुश्तैनी जगह से बेदखल होने का डर पैदा हो गया है. इन तीनों विधेयकों में साल 1951 की समय सीमा ने जनजातियों में डर का एक माहौल पैदा कर दिया कि इस तारीख के बाद राज्य में आने वाले नगा और कुकी जनजातियों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ेगी. नए कानून के मुताबिक मणिपुर में जो लोग 1951 से पहले बसे हैं उन्हें ही संपत्ति का अधिकार होगा. इसके बाद बसे लोगों का संपत्तियों पर कोई हक नहीं होगा. ऐसे लोगों को राज्य से जाने के लिए भी कहा जा सकता है. नया कानून बनाने की मांग मणिपुर के बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय ने की थी. आदिवासी समूह इसका विरोध कर रहे हैं. आदिवासियों को आशंका थी कि उन्हें नए कानून का खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. यह अलग बात है कि नया कानून बनने के बाद बाहरी राज्यों से मणिपुर आने वाले लोगों के लिए परमिट लेना जरूरी होगा.

मणिपुर के बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीं किया गया है. लेकिन मेइतेई भी राज्य में बाहरी लोगों को आने से रोकने के लिए इनर लाइन परमिट (आईएलपी) लागू करवाना चाहते हैं. जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि 2001 और 2011 के बीच यहां बाहरी लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है. पड़ोसी राज्यों और पड़ोसी देशों से आने वाले प्रवासियों की बढ़ती संख्या से मेइतेई लोगों का गुस्सा इन विधेयकों के पारित होने से कुछ हद तक शांत हुआ. लेकिन इससे नगा और कुकी जनजातियां नाराज हो गईं और इन जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले छात्र संगठनों ने पूरे राज्य में आम हड़ताल का आह्वान कर दिया. इस बीच कुकी बहुल दक्षिणी जिले चूराचांदपुर में हिंसा के दौरान हुई पुलिस फायरिंग में नौ लोग मारे गए. विधेयकों के पास होने के बाद ऑल नगा स्टूडेंट्स एसोसिएशन ऑफ मणिपुर (एएनएसएएम), कुकी स्टूडेंट्स ऑर्गनाइजेशन (केएसओ) और ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर (एटीएसयूएम) ने राज्यपाल पर दबाव बनाने के लिए हड़ताल की, ताकि वे इन विधेयकों को अपनी मंजूरी न दें.

मणिपुर की 60 प्रतिशत आबादी राज्य के 10 प्रतिशत जमीन पर मैदानी भाग में रहती है. इसलिए यहां जमीन एक संवेदनशील मुद्दा है. इसलिए मणिपुर के छात्र संगठन राज्य में आईएलपी लागू करने की मांग कर रहे हैं. उनका आरोप है कि सरकार ने राज्य के मूल लोगों के हितों के लिए कुछ खास नहीं किया. आईएलपी भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला एक विशेष पास है. यह अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और मिजोरम में प्रवेश के लिए जरूरी है. इसे ब्रिटिश काल में लागू किया गया था. 1950 में मणिपुर में इसे निरस्त कर दिया गया. 1972 में राज्य बनने से पहले मणिपुर असम में शामिल था. मणिपुर में आईएलपी लागू करने की मांग 1980 में उठी. 2006 में ‘फ्रेंड्स’ नाम का संगठन बना और 2012 में आंदोलन शुरू हुआ. करीब 30 संगठन जॉइंट कमेटी ऑन इनर लाइन परमिट सिस्टम (जेसीआईएलपीएस) बनाकर आंदोलन कर रहे हैं. इनका कहना है कि राज्य में बाहरी लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है. वे मूल निवासियों की जमीन और नौकरी हड़प रहे हैं. मणिपुर के पड़ोसी राज्य नगालैंड में बाहरी लोगों के प्रवेश को सख्ती के साथ रोका जाता है. आईएलपी की व्यवस्था अंग्रेजों ने इसलिए बनाई थी ताकि बाहरी लोगों को इन इलाकों में जमीन खरीदने या यहां बसने से रोककर आदिवासियों को सुरक्षा दी जाए. यह व्यवस्था पूर्वोत्तर के तीन राज्यों अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नगालैंड में अब भी मौजूद है लेकिन मणिपुर में नहीं है.

इन विधेयकों के कुछ प्रावधान उन कानूनों का हनन करते हैं जिन्हें मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में बसने वाले आदिवासी लोगों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया था जिनके तहत पहाड़ी जिलों को विशेष क्षेत्र का दर्जा मिला है यानी गैर- अनुसूचित जातियां यहां जमीन नहीं खरीद सकतीं

मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक-2015 में सरकार ने कहा है कि गैर-मणिपुरी लोगों द्वारा राज्य में जमीन खरीदे जाने को रेगुलेट करने की आवश्यकता है ताकि आम जनता के हित में पहाड़ी क्षेत्र की जमीन राज्य के सभी मूल निवासियों के लिए उपलब्ध हो. लेकिन पहाड़ में रहने वाले लोगों का कहना है कि मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार की धारा 158 में साफ तौर पर कहा गया है कि गैर-अादिवासी को आदिवासी की जमीन खरीदने-बेचने के संबंध में उस क्षेत्र की ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल से अनुमति लेनी आवश्यक है जिसके अधिकार क्षेत्र में वह जमीन आती है. यदि नए विधेयक की धारा 14 (ए) लागू होती है तो वर्तमान में लागू धारा 158 की पूरी तरह से अनदेखी हो जाएगी. फिलहाल अभी लोगों के हित के लिए किए जाने वाले कार्यों के लिए हिल एरिया कमेटी की सहमति ली जाती है लेकिन अब गैर-मणिपुरी लोगों अथवा संस्थाओं को राज्य में जमीन खरीदने के लिए सरकार से अनुमति लेनी आवश्यक होगी. यह अनुमति राज्य सरकार की कैबिनेट देगी. 1972 में जब मणिपुर का गठन हुआ था तब इसके पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वालों के हितों को ध्यान में रखकर मणिपुर (पहाड़ी क्षेत्र) डिस्ट्रिक्ट काउंसिल एेक्ट संसद द्वारा लागू किया गया. मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों का विकास पहाड़ी क्षेत्र कमेटी द्वारा संचालित संविधान की धारा 371 (सी) द्वारा होता है. लेकिन नए कानूनों के तहत कमेटी के पास कोई न्यायिक और विधायी शक्तियां नहीं हैं. ऐसे में यह पहाड़ों में रहने वाले लोगों के हित के काम नहीं कर सकेगी. 
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फिलहाल राज्य के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह लगातार यह बात कहते रहे हैं कि इन विधेयकों में आदिवासी विरोधी कुछ भी नहीं है. उन्होंने पहाड़ी क्षेत्र के लोगों से अपील की है कि वे अपने प्रदर्शन को वापस ले लें. हालांकि प्रदर्शनकारियों पर उनकी इस अपील का कोई खास असर नहीं पड़ा है. वहीं केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने इस हिंसा पर अफसोस जताया है. उनका कहना है, ‘लोगों ने पारित हुए विधेयकों को ठीक से समझा नहीं और हिंसा भड़क उठी. कुछ लोग इस तरह की हिंसा को बढ़ावा देकर अपना राजनीतिक हित साध रहे हैं जो ठीक नहीं है. लोगों को विधेयकों को अच्छी तरह समझना चाहिए. केंद्र सरकार लगातार स्थिति पर नजर बनाए हुए है.’

वहीं भाजपा सांसद तरुण विजय इस मामले को राज्यसभा में उठा चुके हैं. राज्यसभा में उन्होंने कहा था, ‘मणिपुर में विरोध-प्रदर्शन करते हुए नौ युवक मारे गए. इस बात को लेकर इतना असंतोष और नाराजगी है कि इन नौ युवकों के शवों का अंतिम संस्कार तक नहीं किया गया. इस मामले में केवल मणिपुर ही नहीं, केंद्र सरकार को भी गौर कर उनकी मदद करनी चाहिए.’ उन्होंने सरकार से मांग की कि वह यह सुनिश्चित करे कि राष्ट्रपति इन विधेयकों का अनुमोदन न करें. साथ ही मारे गए लोगों के मामले की जांच के लिए एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन करने के साथ दोषियों को दंडित किया जाए.

‘पहाड़ी क्षेत्र और घाटी में सरकार के खर्च में स्पष्ट अंतर है. महत्वपूर्ण सामाजिक ढांचे जैसे कृषि विश्वविद्यालय, मणिपुर विश्वविद्यालय, आईआईटी, नेशनल गेम्स काॅम्प्लेक्स आदि घाटी में स्थित हैं. पहाड़ी क्षेत्र को हमेशा से अविकसित ही रखा गया’

वैसे मणिपुर में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इसके बावजूद राज्य सरकार व विपक्षी दल गतिरोध को दूर करने के लिए चिंतित नहीं दिखाई पड़ रहे हैं. फिलहाल चूराचांदपुर जिला अस्पताल में रखे गए नौ लोगों के शव हमारी संवेदनहीनता का एक नमूना हैं. ये शव यह याद दिला रहे हैं कि दिल्ली में बैठी सरकार, राष्ट्रीय मीडिया, मणिपुर सरकार समेत प्रशासनिक इकाइयों को आदिवासियों और दूर-दराज के लोगों की आवाज सुनाई नहीं देती है या फिर उन्हें जान-बूझकर अनसुना किया जाता है. शायद ये आवाजें वोटबैंक के लिहाज से कमजोर हैं. हमें इस मामले को आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी, पहाड़ी क्षेत्र बनाम घाटी, हिंदू बनाम ईसाई या फिर फायदे-नुकसान से ऊपर उठकर देखना होगा. एक सवाल यह भी उठता है कि क्या सरकार इस बात का इंतजार कर रही है कि मुर्दाघर में सड़ रहे इन शवों को दफनाने के लिए एक बार फिर हिंसक प्रदर्शन हो और इस आंदोलन को लेकर कुछ और लोगों की बलि चढ़ जाए.