इंजीनियर संतोष यादव बिहार के एक युवा राजनेता हैं. राजनीति में बेहद सक्रिय. उनके लिए राजनीति ही ओढ़ना-बिछौना जैसा है. वह जदयू से ताल्लुक रखते हैं. सामाजिक न्याय की राजनीति के पक्षधर हैं और उसकी समझ भी रखते हैं. वैचारिक नजरिये और व्यावहारिक रूप से भी. मधुबनी जिले के युवा हैं रामकुमार मंडल. वह राष्ट्रीय लोक समता पार्टी से ताल्लुक रखते हैं. इनके लिए भी राजनीति ही ओढ़ना-बिछौना है. वे अतिपिछड़ा समूह से आते हैं. टिकट पाने की लाइन में थे, लेकिन संयोग न बन सका. पेशे से वकील मनीष रंजन भी राजनीति की गहरी समझ रखते हैं. दलितों-वंचितों के हक की आवाज को बुलंद करने में ऊर्जा लगाते हैं. वैचारिक राजनीति की ये भी समझ रखते हैं और बामसेफ से भी इनका ताल्लुक है. पटना में एक मशहूर राजनीतिक बैठकी वाले चौपाल में कई और लोगों के साथ ये तीनों युवा नेता मौजूद होते हैं. बातचीत की शुरू होती है, जो जल्द ही बहस का रूप ले लेती है.
संतोष के अपने तर्क होते हैं कि चूंकि लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ा कार्ड सही समय पर, सही तरीके से खेल दिया है इसलिए अब बाजी उसके पाले में है. संतोष अपने तर्क और तथ्य गिनाते हैं, रामकुमार पिछड़ों के साथ अतिपिछड़ों का समूह बनाने को तैयार नहीं होते. संतोष बहुत कोशिश करते हैं कि रामकुमार को अपनी बातों से समझा दें, लेकिन नहीं कर पाते और इन दोनों के बीच में मनीष रंजन जैसे कार्यकर्ता साफ कहते हैं कि अभी दलितों का वोट किधर जा रहा है, यह आसानी से नहीं कहा जा सकता. तीन घंटे तक बहस चलती है, कोई नतीजा नहीं निकल पाता. तीनों तीन छोर पर अपनी बात रखते हैं. ऐसा नहीं कि संतोष, मनीष या रामकुमार की ही बातों और बहसों का परिणाम यह निकला कि तय नहीं हो सका कि कौन किधर जाएगा.
अतिपिछड़ों और दलितों और पिछड़ों के भी एक बड़े हिस्से के वोट को लेकर इस बार के बिहार के चुनाव में स्थिति ही ऐसी बनी है कि बड़े से बड़े राजनीतिक दिग्गज सफल विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं. संयोग से विकास के छोटे हिस्से को मिलाकर जाति के बड़े हिस्से के साथ बने कॉकटेल के कारण बिहार का चुनाव इस बार इन्हीं तीन जातीय समूहों के वोटिंग पैटर्न पर जाकर टिक गया है. बात सिर्फ इतनी भी नहीं. यह आकलन करना इस बार इसलिए भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि जो चुनाव लड़ रहे हैं, वे अपने दुश्मनों से भी लड़ रहे हैं और दोस्तों से भी. यह दुविधा यूं ही नहीं बनी है. मसले और एजेंडे रोज बदल रहे हैं. विकास से बात की शुरुआत हुई थी. पैकेज वार चला था लेकिन अचानक ही बात जाति और मंडल पर आ गई. बात इतनी ही नहीं हुई, रातोंरात इतने लोग पाले बदलते रहे कि उससे भी बने-बनाए कई समीकरण ध्वस्त होते दिख रहे हैं.
हालांकि बिहार में राह चलते विश्लेषकों से बात कीजिए तो वे फटाफट यह बता देंगे कि देखिए यादवों का 14 प्रतिशत, मुस्लिमों का 16 प्रतिशत और कुर्मियों का तीन प्रतिशत तीन मिलाकर 33 प्रतिशत वोट तो सीधे-सीधे लालू प्रसाद नीतीश कुमार के कोर वोट में हैं, फिर मुश्किल कहां है. दूसरी ओर भाजपा समर्थक विश्लेषकों से बात कीजिए तो वे सीधे समझा देंगे कि कुशवाहा का पांच प्रतिशत, अगड़ों का करीब 14 प्रतिशत, वैश्यों का सात प्रतिशत, पासवानों का तीन प्रतिशत और मांझियों का तीन प्रतिशत इधर भी बराबर कोर वोट बैंक बनाते हैं. फिर सारी बात दलितों और अतिपिछड़ों पर ही जाकर टिक जाती है. हालांकि यह समीकरण भी कोई एक लकीर जैसी नहीं क्योंकि लालू प्रसाद नीतीश कुमार के समूह को भी इस बार पता है कि यादव वोटों पर शत-प्रतिशत की दावेदारी उनके समूह की नहीं रह गई और मुस्लिम भी ओवैसी के प्रवाह में आकर सीमांचल में हिंदुओं को ध्रुवीकृत करके मंडल की राजनीति की धार को 24 सीटों पर कुंद कर सकते हैं.
यादव और मुस्लिम राजनीति इस बार दूसरे किस्म के मुहाने पर खड़ी है. मुस्लिम वोटों का बिखराव ओवैसी और तीसरा मोर्चा के जरिये होने की गुंजाइश है तो इन वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा को फायदा पहुंचाने की स्थिति बनाएगा. यादव राजनीति की कहानी बिल्कुल ही अलग दिशा में है. मंडल टू के बहाने पिछड़ी जातियों और दलितों की बजाय लालू अपने बिखरते कोर समूह यादव वोटरों को समेटने में ऊर्जा लगाए हुए हैं. उनकी पार्टी राजद 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिसमें उन्होंने 48 सीटों पर यादवों को टिकट देकर संकेत साफ दे दिए गए हैं. यह बताता है कि वे मंडल टू के बहाने अपने कोर समूह को बचाने की जुगत में लगे हैं. हालांकि लालू ने दूसरी ओर सवर्णों की सबसे आक्रामक राजनीतिक जाति भूमिहारों को एक भी टिकट न देकर यह संकेत देने की भी कोशिश की है कि वे दलितों और अतिपिछड़ों के हितैषी हैं. हालांकि सैद्धांतिक तौर पर लालू प्रसाद की यह कोशिश ठीक है, लेकिन बिहार को जानने वाले जानते हैं कि 15 सालों तक सत्ता में रहने के कारण यादव पिछड़ों से एक अलग समूह के रूप में विकसित हो चुके हैं. यादवों के खिलाफ गोलबंदी होने के कारण ही सभी दूसरे पिछड़ों और अतिपिछड़ों को गोलबंद कर नीतीश कुमार सत्ता तक पहुंचने के सफर को आसानी से पार कर सके थे. यादव राजनीति को संतुलित करने के लिए 101 सीटों पर लड़ रहे नीतीश कुमार ने भी अपनी पार्टी से 12 टिकट दिए हैं और कांग्रेस ने भी 41 सीटों में चार टिकट यादवों को दिए हैं. दूसरी ओर भाजपा और एनडीए ने भी यादव राजनीति को साधने की कोशिश की है. एनडीए ने कुल 26 यादव प्रत्याशियों को उतारा है, जिनमें 22 भाजपा, दो लोजपा और दो मांझी की पार्टी ‘हम’ की ओर से हैं. भाजपा यादवों को संतुलित करके दूसरे पिछड़ों को अपने समूह में लाना चाहती है. लालू प्रसाद ने महागठबंधन की ओर से समग्रता में पिछड़ों को अधिक टिकट दिए जाने का ऐलान कर कुछ और बताने की कोशिश की है लेकिन जानकार बताते हैं कि भाजपा और राजग ने ये फैसला यूं ही नहीं लिया है. पहली बात कि यह कोशिश यादवों के एक हिस्से को बिना यादववादी राजनीति किए अपने पाले में लाने में सफल रही थी, दूसरी बात यह कि बिहार विधानसभा में हालिया वर्षों में यादव प्रतिनिधियों की संख्या भी तेजी से घटी है. 2000 यादव विधायकों की संख्या बिहार में 64 थी जो 2005 में 54 हो गई और फिर 2010 में 39. महागठबंधन को यादव मतों के ध्रुवीकरण से मंडल टू आने की उम्मीद है. भाजपा और एनडीए को यादवों के एक हिस्से और गैर यादव पिछड़ों को अपने साथ करके सियासत का गणित साध लेने की उम्मीद है.
बिहार की सियासत में यादवों पर इतनी बात इसलिए हो रही है क्योंकि भाजपा और एनडीए को भी पता है कि यदि मुस्लिम और यादव समूह में सेंधमारी हो गई या वह बिखर गया तो फिर राजग के लिए जीत की राह आसान हो जाएगी. दूसरी ओर लालू प्रसाद को भी पता है कि अगर वे यादव मतदाताओं को नहीं संभाल सके तो फिर उनकी भावी पीढ़ी की सियासत कहीं की नहीं बचेगी. नीतीश भी लालू के इसी कोर जनाधार को अपने पाले में लाकर फिर से सत्ता पाने के लिए अपने मूल स्वरूप में बदलाव लाकर लालू से समझौता किया है.
भाजपा ने यादव राजनीति को साधने के लिए इस बार सवर्णों का कार्ड खुले तौर पर खेला है. राजग ने इस बार 18 ब्राह्मणों को मैदान में उतारा है, जबकि महागठबंधन ने नौ ब्राह्मणों को टिकट दिए हैं. इसी तरह राजग ने 29 भूमिहारों और महागठबंधन ने 13 को टिकट दिया है. कायस्थों को टिकट देने में महागठबंधन राजग से आगे रहा है. इस जाति को महागठबंधन ने चार टिकट दिया हैं, जबकि राजग ने तीन ही उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. कायस्थों को लेकर महागठबंधन की यह सोच इसलिए भी है, क्योंकि उसके एक बड़े नेता शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा से नाराज चल रहे हैं. उधर, लालू कायस्थों को दलित बनाने का लॉलीपॉप भी दिखा चुके हैं. इसके अलावा एक महत्वपूर्ण जाति राजपूत है, जिसे राजग की ओर से 35 टिकट और तो महागठबंधन की ओर से 12 टिकट मिले हैं. राजपूत एक ऐसी जाति रही है, जिसका एक हिस्सा पिछले दो चुनाव से लालू प्रसाद के साथ रहा है. राजपूतों के कई बड़े नेता जगतानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिंह वगैरह भी लालू के साथ रहे हैं. लेकिन इस बार राजपूतों का टिकट कम करने की पीछे की वजह यह बताई जा रही है कि लाल जान चुके हैं कि राजपूत उम्मीदवार उतारने पर वे उनके मतदाताओं का वोट पाकर विधायक तो बन जाएंगे लेकिन दूसरे इलाके में राजपूतों का वोट महागठबंधन की ओर ट्रांसफर नहीं करवा पाएंगे.
भाजपा सवर्णों को साधकर महागठबंधन के पिछड़े कार्ड को काटना चाहती है. लेकिन यह भी एक किस्म का भ्रम जैसा ही है. भाजपा और उसके सहयोगियों को भी पता है कि वे जिन सवर्णों को शत-प्रतिशत अपने साथ मानकर चल रहे हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा बिहार में रहता ही नहीं, वे पलायन कर चुके हैं. कोई रहता भी है तो वोट डालने नहीं जाता. भाजपा को यह भी पता है कि जिस मांझी और पासवान को साथ रखकर वह दलित वोटों के अपने पाले में आने को लेकर आश्वस्त हैं, उसमें रविदासों का समूह सबसे बड़ा है और वह अभी भी नीतीश कुमार के साथ है. हां, सुकून की बात यह है कि मायावती की पार्टी के सभी सीटों पर लड़ने से रविदासों के वोट का एक हिस्सा उधर जाकर थोड़ा राहत देगा. इन सबके बीच तीसरे मोर्चे और पहली बार छह वाम दलों के एक होकर लड़ने की अपनी कहानी है. उनके साथ लड़ने से खुशी की लहर भाजपा में है, क्योंकि वे भाजपा का कम और महागठबंधन का नुकसान ज्यादा करेंगे. ऐसी स्थिति में गुणा-गणित वाले समीकरण में कौन किस पर भारी पड़ रहा है, इसे कहना मुश्किल है. चुनाव किस दिशा में जा रहा है और हालात कैसे बन रहे हैं, इसे समझने के लिए अलग-अलग बिंदुओं पर बात कर सकते हैं.
बिहार के इस चुनाव में लालू प्रसाद यादव ने सीधे-सीधे तौर पर मंडल-2 का ऐलान कर दिया है. लालू प्रसाद को यह मौका तब मिला जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की बात कही. लालू प्रसाद पहले से ही चुनाव को मंडलवाद की दिशा में ले जाना चाहते थे, भागवत के बयान के बाद लालू ने कहना शुरू किया तो नीतीश ने भी सहम-सहमकर, डरे हुए भाव से थोड़ा-थोड़ा इस विषय पर बोलना शुरू कर दिया है. बेशक लालू प्रसाद बिहार की राजनीति में मंडलवादी राजनीति के और सामाजिक न्याय की राजनीति को उफान और परवान चढ़ाने वाले नायक रहे हैं. अभी भी बिहार में एक ठोस वर्ग है, जिसके नायक लालू हैं. लालू के साथ नीतीश के आ जाने से सामाजिक न्याय का स्वरूप और बनता हुआ दिखा. नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय की राजनीति का विस्तार भी कोई कम नहीं किया. उन्होंने पिछड़ों से अतिपिछड़ों और दलितों से महादलितों को अलग कर एक अलग किस्म की सामाजिक न्याय की शुरुआत करवाई लेकिन अब वही सामाजिक न्याय की राजनीति लालू नीतीश के लिए जितनी बड़ी ताकत के रूप में है, उतनी ही बड़ी कमजोरी भी बनकर सामने खड़ा हो गया है. लालू प्रसाद के पास मंडल का एजेंडा है, वे उसे उभार रहे हैं लेकिन उसके खानसामे दूसरी ओर यानी राजग के खेमे में हैं.
रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे तीन प्रमुख नेता राजग के खेमे में हैं. मंडल टू में फिर से नई जातियों का उभार की कोशिश होगी, क्योंकि पिछले 25 सालों में समूह के नाम पर उभार की कोशिश में सत्ता और शासन दो जातियों के पास ही सिमटा रहा. अगर बीच में जीतन राम मांझी वाले फैक्टर को छोड़ दे तो. भाजपा ने इन तीन पिछड़े और दलित नेताओं को अपने पाले में करके मंडल टू के समूहों को बांट दिया है.
राजनीतिक विश्लेषक प्रेमकुमार मणि कहते हैं, ‘भाजपा को इसलिए ही बढ़त लेने का मौका दिख रहा है क्यों उसके पाले में दलितों का एक बड़ा हिस्सा जाएगा और वे निर्णायक साबित होंगे. गांव-गांव में मांझी की धमक बढ़ी है. लालू प्रसाद के पास मंडल का नारा है लेकिन नारा लगाने वाले दूसरी जमात में हैं.’ मणि की बात सही है लेकिन यह सच है कि जाति की राजनीति में अगर अतिपिछड़ों का एक बड़ा हिस्सा और दलितों का आधा हिस्सा भी महागठबंधन की ओर पलटी मार देता है तो फिर नीतीश और लालू के लिए जीत आसान होगी. दूसरी ओर भाजपा ने इस काट के लिए अपने तरीके से जाल बिछाया है. भाजपा ने मंडल और कमंडल का एक साथ इस्तेमाल किया है. वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘2010 में जब भाजपा नेताओं का नीतीश कुमार ने भोज रद्द कर दिया था, उसी वक्त तय हो गया था कि इनके बीच अलगाव होगा. उस हिसाब से भाजपा ने अपनी तैयारी उसी समय से शुरू कर दी थी लेकिन नीतीश कुमार अपने को तैयार नहीं कर सके. भाजपा अपमानित होकर भी अगले विधानसभा चुनाव यानी 2010 के चुनाव में इसलिए बनी रही ताकि वह उसका लाभ उठा सके और ऐसा उसने किया भी.’
तिवारी के बातों का विस्तार कर देखें तो यह साफ दिखता है. 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने न सिर्फ अपनी अपार सीटें बढ़ाईं बल्कि चुनाव जीतने के बाद से ही संगठनात्मक गतिविधियां भी बढ़ा दीं. नीतीश की दूसरी पारी में ही संघ परिवार ने बिहार में बड़े-बड़े आयोजन किए, जिसमें पटना में सुब्रमण्यम स्वामी, उमा भारती, अशोक सिंघल जैसे नेताओं की उपस्थिति में संस्कृति के नाम पर हुए जहरीले आयोजन से लेकर बेगूसराय में सामाजिक कुंभ और प्रवीण तोगड़िया का त्रिशूल वितरण कार्यक्रम तक रहा. साथ ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठन ने, जो इस चुनाव में भाजपा के लिए ग्राउंड लेवल पर काम कर रही है, उसने भी अपना राष्ट्रीय सम्मेलन पटना में करवाकर अपने आधार का विस्तार किया. संघ की कार्यकारिणी की बैठक भी बिहार के ही राजगीर में हुई. इसके अलावा और भी कई आयोजन बिहार में हुए. यह सब तो कमंडल की राजनीति को साधने के लिए भाजपा करती रही लेकिन उसने समानांतर रूप से मंडलवादी राजनीति के बिखराव में भी उतनी ही ऊर्जा लगाई. लोकसभा चुनाव में ही उपेंद्र कुशवाहा को अलग से चुनाव लड़वाकर नीतीश के कोर समीकरण ‘लवकुश’ में से कुशवाहा वोट यानी ‘कुश’ को अलग कर दिया. रामविलास पासवान और बाद में जीतन राम मांझी को साथ रखकर भाजपा ने अपने सामाजिक आधार का ही विस्तार किया. सामाजिक न्याय की राजनीति को साधने के लिए बड़े नेताओं को अपने पाले में करने के साथ ही सुक्ष्मता से दूसरे काम भी होते रहे, जिसमें यह माना जाता है कि मल्लाह जैसी जाति को, जिसकी आबादी ठीक-ठाक है, मुजफ्फरपुर और जहानाबाद में मुस्लिमों से टकराकर अलग से हिंदुत्व के खोल में समा चुकी है. अतिपिछड़ी जातियों में ही एक सशक्त जाति कहार है, जिसका झुकाव भाजपा की ओर माना जा रहा है. व्यावहारिक तौर पर अतिपिछड़ों का झुकाव किधर होगा अभी कहना मुश्किल है लेकिन मल्लाहों को, धानुकों के एक बड़े हिस्से को और कहारो को अपनी ओर खींचकर भाजपा ने उस बड़े लेकिन राजनीतिक तौर पर अपरिपक्व समूह में सेंधमारी की है. अतिपिछड़ों का एक कोई सर्वमान्य नेता अभी भी बिहार में नहीं माना जाता लेकिन हालिया वर्षों में राज्य के दो पूर्व मंत्री भीम सिंह और प्रेम कुमार का उभार हुआ और दोनों एनडीए की ओर है. साथ ही बिहार के चुनाव में इस बार एक नाम मुकेश सहनी का भी बार-बार उभरता रहा. मुकेश मुजफ्फरपुर इलाके के हैं. अच्छे खासे पैसे वाले हैं और मुजफ्फरपुर इलाके में, जिधर सहनी आबादी बहुतायत में हैं, उनके बीच रॉबिनहुड की छवि भी रखते हैं. फिल्म इंडस्ट्री में करोड़ों का कारोबार करने वाले सहनी इस बार अपने समुदाय के नेता बनकर उभरे हैं. उन्होंने नरेंद्र मोदी की मुजफ्फरपुर वाली सभा स्थल के पास ही उसी दिन अपनी अलग सभा कर अपनी ताकत भी दिखाई थी. इसके अलावा पटना में भी प्रदर्शन किया. पटना में सहनियों की सभा में पुलिस का लाठीचार्ज भी हुआ था. मुकेश सहनी आखिरी समय तक टिकट के लिए एक दल से दूसरे दल का चक्कर काटते रहे, नीतीश लालू के पास भी गए लेकिन बात नहीं बनी और आखिरकार अब वे भाजपा और राजग के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं. मुकेश सहनी का असर पूरे बिहार में भले ही न हो लेकिन अपने इलाके में पैसे और अपने समुदाय पर पैसे खर्च करने के कारण उनकी छवि नायक की है और कुछ जगहों पर वे असर जरूर डालेंगे. सहनी की चर्चा यहां इसलिए, क्योंकि अतिपिछड़े समूह के वोटों का हिसाब इस बार अलग-अलग इलाके में ऐसे ही छोटे-छोटे फैक्टर पर निर्भर करेंगे. हालांकि सहनी और तांती जैसी जातियों को साधने में नीतीश कुमार ने भी कोई कम ऊर्जा नहीं लगाई है. उन्होंने आचार संहिता लगने के पहले सहनी को अनुसूचित जनजाति में शामिल किया और तांती जैसी जाति को अतिपिछड़ा से दलितों की सूची में लाकर उसे साधने की कोशिश की है. हालांकि तांती जाति पर हाल में खगड़िया जिले के परबत्ता इलाके में एक जदयू नेता के गांव में सवर्णों के हमले के कारण उनका नीतीश से मोहभंग हुआ है और वे भी बिखरते हुए नजर आये हैं. इसी तरह छोटे-छोटे समीकरण राज्य भर में खेल बिगाड़ रहे हैं. कोई समीकरण भाजपा का खेल बिगाड़ रहा है तो कुछ समीकरण राजद-जदयू का. बिहार के राजनीति के जानकार विश्लेषक प्रो नवल किशोर चैधरी कहते हैं लड़ाई आरपार की है, बहुत कांटे का टक्कर है लेकिन मुझे एनडीए को एज मिलता हुआ दिखता है. इसका आधार पूछने पर प्रो चैधरी कहते हैं कि जाति का समीकरण तो एक फैक्टर है ही लेकिन पिछले 25 वर्षों से जो सत्ता में है, वही फिर नेतृत्वकर्ता के तौर पर सामने आकर चुनावी मैदान में हैं तो उसका असर होने के साथ सत्ता विरोधी लहर भी काम करेगी.
इस तरह देखें तो कई मामलों में भाजपा की बढ़त दिखती है. लेकिन जब आंकड़ों की पड़ताल होती है तो बाजी सीधे पलटते हुए दिखती है. बिहार के चुनाव में अतीत के आंकड़े भाजपा के लिए भयावह भविष्य के संकेत दे रहे हैं. बात की शुरुआत 2004 के लोकसभा चुनाव से करते हैं. 2004 के लोकसभा चुनाव में राजद को कुल 22 सीटें मिलीं और कुल वोट प्रतिशत का 30.67 प्रतिशत वोट मिला था. जदयू को छह सीटें मिलीं और कुल वोट का 22.36 प्रतिशत वोट मिला था. भाजपा को पांच सीटें मिलीं और 14.37 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ था. कांग्रेस को तीन सीटें मिलीं और 4.49 प्रतिशत वोट प्राप्त हुआ था. उस वक्त जदयू और भाजपा जिगरी यार हुए थे. गहरी यारी के दिनों में साथ मिलकर लड़ने की मजबूत कोशिश की गई थी. हालांकि दोनों को मिलाकर 36.73 प्रतिशत वोट पा सके थे. अगर उसी साल जदयू, राजद और कांग्रेस साथ लड़े होते तो 57.52 प्रतिशत वोट का गणित उनके पक्ष में बन सकता था. 2005 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो जदयू को 88 सीटें मिली थीं और कुल मतों का 20.46 प्रतिशत मिला. भाजपा को 55 सीटें मिलीं और कुल मतों का 15.65 प्रतिशत वोट मिला. राजद को 54 सीटें मिलीं और कुल मतों का 23.45 प्रतिशत मत मिला. कांग्रेस को 9 सीटें मिलीं और कुल मतों का 6.09 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था. भाजपा और जदयू साथ लड़े थे तो 36.11 प्रतिशत मत मिले थे. अगर उसी साल अगर जदयू, राजद और कांग्रेस को मिले वोट साथ मिलाकर वोट देख लें तो यह 50 प्रतिशत होता है. 2005 के बाद 2009 का लोकसभा चुनाव हुआ. जदयू को 20 सीटें और 24.04 प्रतिशत वोट मिला. भाजपा को 12 सीटें और 13.93 प्रतिशत वोट मिला. राजद को चार सीटें और 19.31 प्रतिशत वोट मिला. कांग्रेस को दो सीटें मिलीं, 10.26 प्रतिशत वोट मिला. जदयू-भाजपा साथ लड़े थे, उन्हें 37.97 प्रतिशत वोट मिला. जदयू, राजद और कांग्रेस का साथ मिलाकर वोट प्रतिशत 53.61 था. एक साल बाद ही 2010 में बिहार में फिर विधानसभा चुनाव की बारी आई. उस साल के विधानसभा चुनाव को देखें तो उसमें भी इसी तरहके संकेत मिले थे. 2010 के चुनाव में, जदयू को 115 सीटें और 22.5 प्रतिशत वोट मिला थे. भाजपा को 91 सीटें और 16.49 प्रतिशत वोट मिला. राजद को 22 सीटें और 18.84 प्रतिशत वोट मिला. कांग्रेस को 4 सीटें और 8.37 प्रतिशत वोट मिला. भाजपा और जदयू साथ मिलकर लड़े, उन्हें 38.99 प्रतिशत वोट मिला. जदयू, राजद और कांग्रेस को मिलाकर वोट प्रतिशत 49.71 होता है. इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू की जिगरी यारी जानी दुश्मनी में बदल चुकी थी. लोजपा और भाजपा की जानी दुश्मनी, जिगरी यारी में बदल चुकी थी.
उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता नीतीश की परछाईं से निकलकर संभावना तलाशने में लगे हुए थे. नीतीश कुमार एक साथ भाजपा और लालू, दोनों से लड़ने में ऊर्जा लगाए हुए थे. 2014 के लोकसभा चुनाव को देखें तो भाजपा, लोजपा और रालोसपा तीनों साथ मिलकर लड़े तो 38.82 प्रतिशत वोट मिला. जदयू, राजद, कांग्रेस का वोट प्रतिशत मिलाकर देखें तो यह 44.30 होता है. अतीत के चुनाव के आंकड़े को वोटों की प्रतिशतता में बदलकर देखें तो भाजपा के लिए भयावह भविष्य के संकेत मिल रहे हैं. इस मुश्किल घड़ी में भाजपा के लिए उम्मीदों की आखिरी किरण नरेंद्र मोदी हैं. और उससे भी बड़ी उम्मीद ओवैसी के खेल और पप्पू यादव के पेंच फंसाने की कला पर है.