देश भर के कई विश्वविद्यालयों में जो टकराव चल रहे हैं, उसमें एबीवीपी एक पक्ष के तौर पर उभरी है. हैदराबाद, जेएनयू, बीएचयू, लखनऊ, इलाहाबाद सब जगह एबीवीपी की शिकायत पर कार्रवाई की गई. सेमिनार और व्याख्यान बाधित करने और प्रोफेसराें-छात्रों पर हमले करने में भी एबीवीपी का नाम आया. एबीवीपी ऐसा क्यों कर रही है?
देखिए, आप मुझे जो घटनाएं बता रहे हैं, खासकर जेएनयू, तो दुनिया का कोई भी देश ले लीजिए, उसमें इतने पढ़े-लिखे लोग देश के खिलाफ बात करेंगे तो देश के नागरिक क्या करेंगे? वे कोई निर्दोष बच्चे नहीं हैं कि वे समझ नहीं सकते. उन्हें गंभीरता से डिजाइन किया गया है. देशविरोधी गतिविधि एक तो अनजाने में हो जाती है, लेकिन इन मामलों में हर आदमी समझ रहा है कि यह एक गंभीर संरचनात्मक मामला है. विश्वविद्यालयों में वैचारिक विमर्श हों यह अच्छी बात है, लेकिन अगर देश के खिलाफ कोई सीरियस डिजाइन है तो इसे सबको समझना पड़ेगा. देश ही नहीं रहेगा तो हम कहां डिस्कशन करेंगे?
जेएनयू का मुद्दा अलग है. अगर नारे लगे तो वह गंभीर घटना है. शुरू में हर कोई उसके विरोध में था कि देशविरोधी बातें करना अच्छा नहीं है. हमारा सवाल है कि आप कोई बात कह रहे हैं, उससे घोर असहमति के बावजूद क्या मैं आप पर शारीरिक तौर पर हमला कर सकता हूं? अब प्रो. विवेक कुमार, बद्रीनारायण या सिद्धार्थ वरदराजन वगैरह ने तो कोई ऐसी हरकत नहीं की थी कि उन पर हमले किए जाएं?
कहां की घटना बता रहे हैं आप?
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह ने अभिव्यक्ति की आजादी पर एक परिचर्चा रखी थी जिसमें वरदराजन को बुलाया था. वे वरिष्ठ पत्रकार हैं. एबीवीपी ने उनको परिसर में घुसने नहीं दिया और कहा कि वे नक्सली और देशद्रोही हैं. ऐसा उन्होंने क्या किया है?
मुझे इसकी जानकारी नहीं है.
अभी लखनऊ में यही हुआ. प्रोफेसर ने अपूर्वानंद का एक लेख शेयर कर दिया तो एबीवीपी ने उनके खिलाफ प्रदर्शन किया, क्लास नहीं चलने दी. वीसी की ओर से उन्हें नोटिस भी दिया गया.
आप अलग-अलग घटनाओं का जिक्र कर रहे हैं. इसे ऐसे समझिए कि एबीवीपी लोकतंत्र में विश्वास करती है. लोकतांत्रिक विरोध करना सही है लेकिन कोई भी नागरिक हो, कोई भी व्यक्ति अगर देश के खिलाफ कोई बात करेगा, उसके लिए आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कहेंगे कि उसे यह अधिकार है. दुनिया में कौन-सा देश है जहां का समाज ऐसा बर्दाश्त करता है? मुझे ऐसा लग रहा है कि अभिव्यक्ति के नाम पर क्या हो रहा है देश में, कहीं अपनी सुरक्षा न खतरे में आए? यह एक सीरियस डिजाइन है. जेएनयू यूनिवर्सिटी कोई ऐसी-वैसी नहीं है, वह बहुत प्रतिष्ठित है. आप इसको हल्के में मत लीजिए.
नहीं, नहीं, मैं यह कह रहा हूं कि राष्ट्र सबसे पहले है और उसके हितों से कोई समझौता नहीं किया जा सकता. लेकिन मैं कोई देशविरोधी गतिविधि को अंजाम दूं और हम बैठकर बात करें, इन दोनों बातों में अंतर है. विचार-विमर्श पर हिंसात्मक हमले तो निहायत अलोकतांत्रिक है. मारपीट से तो दहशत फैलती है!
आप इसे ऐसे समझिए कि एबीवीपी लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करती है और लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करती है. सभी लोकतांत्रिक तरीकों से हमारी सहमति है. लेकिन व्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कोई एक देश बताइए कि जहां कोई नागरिक राष्ट्र के खिलाफ बात कर सकता हो? वैचारिक विमर्श अलग बात है. किसी को कोई भी विचारधारा पसंद आ सकती है. लेकिन ठीक है. सबके अलग-अलग रास्ते हैं. लेकिन कुल मिलाकर समाज और राष्ट्र के बारे में जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं, वहां पर हम एक जिम्मेदार नागरिक भी हैं. हमारी जिम्मेदारियां भी हैं. मेरा मानना है कि मेरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता वहां खत्म हो जाती है जहां मैं दूसरे के अधिकारों का हनन करता हूं. मेरा मत है नेशन फर्स्ट…
आपकी इन बातों से मैं सहमत हूं कि आजादी की सीमा है, जवाबदेही भी होती है, लेकिन मुख्य सवाल हमलों का है. जैसे जम्मू विश्वविद्यालय में ‘कश्मीर में बहुलतावाद’ पर सेमिनार हुआ, एबीवीपी ने उसका भी विरोध किया और वीसी ने विभाग को नोटिस जारी कर दिया.
देखिए आप जितने उदाहरण दे रहे हैं, मेरी आपसे विनती है कि वहां पता करें. वह कंटेंट क्या था? मुझे आइडिया नहीं है. मैं ऐसे कोई टिप्पणी करूं तो यह नैतिक रूप से गलत होगा.
मैं यह सोचता हूं कि आप अध्यक्ष हैं तो व्यापक दृष्टि से आप अपना या अपने संगठन का स्टैंड तो बता ही सकते हैं?
मैंने पहले ही कहा कि हम डेमोक्रेटिक वैल्यू में बहुत विश्वास रखते हैं. और मान लिया कि कहीं देश के खिलाफ बात हो रही है तो हम लोकतांत्रिक तरीके से उसका विरोध करते हैं. युवाओं को जागरूक करते हैं. देश भर में जो देशविरोधी गतिविधि चल रही है, उसके खिलाफ जनसमर्थन खड़ा करते हुए समाज को आगाह करते हैं. आप जानते हैं कि देश ने विभाजन भी झेला है. हम विश्वविद्यालय या शैक्षणिक केंद्रों में लोकतांत्रिक तरीके से ऐसी गतिविधियों के खिलाफ जागरूकता फैलाते हैं ताकि ऐसा न हो. बाकी जिसकी जो विचारधारा है वो उसके आधार पर काम करे.
संदीप पांडेय का बीएचयू से निष्कासन ये कहते हुए कर दिया गया कि वे देशविरोधी और नक्सली गतिविधियों में लिप्त हैं, क्योंकि धरना-प्रदर्शन करते हैं.
नक्सल एक्टिविटीज को आप क्या मानते हैं?
अगर मैं विश्वविद्यालय में प्रदर्शन करूं, या परिचर्चा कराऊं तो यह नक्सल गतिविधि कैसे हो गई?
आप ध्यान से मेरी बात सुनिए. जो यूथ नक्सल एक्टिविटीज में भाग लेते हैं, उनको किसने ट्रैप किया, उनको किसने मेंटर किया, उनमें ऐसे विचार कैसे डाल दिए गए कि वे बंदूक उठाने को तैयार हो गए, वो कौन लोग हैं थोड़ा सोचिए. जिन्होंने बंदूक उठाई है वही दोषी हैं या उनके मेंटर दोषी हैं? उनको एजुकेट करने वाले दोषी हैं? जो लोग नक्सल एक्टिविटीज को सपोर्ट करते हैं, उनका विरोध करना मुझे लगता है कि लोकतांत्रिक अधिकार है.
लेकिन जो लोग गांधीवादी या समाजवादी हैं उनको नक्सली कहना कहां तक उचित है?
नहीं नहीं, गांधीवादी बिल्कुल नहीं, गांधीवादी तो देशभक्त होते हैं. मेरा कुल मिलाकर ये मत है कि जो अंडरग्राउंड एक्टिविस्ट हैं, जो एंटीनेशनल एक्टिविटीज में लिप्त हैं, उनको एजुकेट करने का कोई काम कर रहे हैं, उनको प्रोत्साहित करने का जो काम कर रहे हैं, उनका तो हर नागरिक को विरोध करना चाहिए. 16-18 साल के बच्चे को कहां से ये सब थ्योरीज मालूम हो गईं, कहां से उन्होंने बंदूक उठा ली, आदिवासियों के खिलाफ, सरकार के खिलाफ बंदूक उठा ली, ये सब कहां से सीखकर आए? ये एक सीरियस डिजाइन है, इसे हम सबको समझना पड़ेगा. बाकी अपनी-अपनी बात रखना अच्छा है. लेकिन जो देश तोड़ने और समाज में भेदभाव पैदा करने का काम करते हैं, उसे ठीक से समझते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए.