साल 2005 में जब महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) कानून बनकर जमीन पर उतरी, तो इसके बारे में सुनकर दिल्ली, गुड़गांव और नोएडा जैसे कई छोटे बड़े शहरों में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले बहुत से लोग वापस अपने गांव लौटने लगेे. इसकी वजह यह थी कि इस कानून के जरिए उन्हें गांव में ही रोजगार मिलना शुरू हो गया था. हालांकि इस रोजगार से प्राप्त आमदनी शहर में होनेवाली कमाई से काफी कम थी, लेकिन दर-दर भटकानेवाले हालात से निजात मिलने और अपने लोगों के बीच मिलनेवाले सुकून की बदौलत इस कमी की भरपाई हो जाती थी. पिछले सात-आठ सालों से मनरेगा के सहारे अपने हालात बेहतर बनाने में जुटे इन लोगों की जिंदगी में मौजूद यह हल्की-फुल्की राहत फिलहाल जारी है. लेकिन सबकुछ ठीक-ठाक नहीं रहा, तो बहुत जल्द इस राहत को बुरी नजर लग सकती है. सूचना के अधिकार (आरटीआई) के जरिए हाल ही में जानकारी मिली है कि केंद्र सरकार मनरेगा कानून के प्रावधानों में बदलाव करना चाहती है. इन बदलावों को लेकर जानकारों के एक बड़े वर्ग का मानना है कि यदि ये लागू हो गए तो शहरों में दर-दर भटकनेवाले बुरे दौर को पीछे छोड़ चुके कई लोग वापस उन्हीं शहरों का रुख करने को मजबूर हो सकते हैं. इस कहानी को पूरी तरह समझने के लिए मनरेगा कानून को लेकर सामने आई सरकार की मंशा और उसकी पृष्ठभूमि से शुरुआत करते हैं.
कुछ दिन पहले आरटीआई के जरिए पता चला कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने मनरेगा के प्रावधानों में बदलाव करने का आदेश दिया है. इसमें प्रमुख तौर पर तीन अहम बातें थी. पहली यह कि दैनिक मजदूरी और निर्माण सामग्री पर होनेवाले खर्च के वर्तमान अनुपात 60:40 को घटाकर 51:49 कर दिया जाए. इसके अलावा मनरेगा को सिर्फ सबसे पिछड़े ढाई सौ जिलों तक सीमित करने की बात भी इस आदेश में कही गई (वर्तमान में यह योजना देश के लगभग साढे़ चार सौ जिलों में लागू है). इस आदेश में तीसरी अहम बात यह थी कि केंद्र द्वारा राज्यों को मनरेगा के तहत अब एक नियत राशि दी जाएगी और राज्य अपने विवेक के आधार पर कामों का चयन कर सकेंगे. लेकिन सरकार की इस मंशा के सार्वजनिक होने के बाद मनरेगा से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं और अर्थजगत के जानकारों ने इसे गलत करार दिया है. इन लोगों का मानना है कि यदि ये बदलाव लागू हो जाते हैं तो मनरेगा के तहत मिलनेवाले रोजगार में 40 प्रतिशत तक कमी आ जाएगी. इसका सबसे अधिक नुकसान उस गरीब तबके को उठाना पड़ेगा जो पिछले पांच-छह सालों से इस योजना के जरिए रोजगार पा रहा है. इसके अलावा जानकारों का यह भी मानना है कि मजदूरी का हिस्सा कम करके निर्माण सामग्री के लिए खर्च की सीमा बढ़ा देने से भ्रष्टाचार की संभावना और भी ज्यादा बढ़ जाएगी. मनरेगा को कानून बनाने में अहम भूमिका निभानेवाली प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने तो सरकार पर मनरेगा को खत्म करने का आरोप ही लगा दिया है. उनका कहना है, ‘यह एक ऐसा महत्वपूर्ण कानून है, जिसे संसद ने सर्वसम्मति से ग्रामीण गरीबों की बेहतरी और उन्हें रोजगार देने के लिए बनाया था, लेकिन अब सरकार की तरफ से इसमें फेरबदल किए जाने से सबसे बुरा असर उन्हीं पर होगा’.
अरुणा के साथ एक और जानेमाने सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे ने भी सरकार की मंशा पर सवाल उठाया है. वे कहते हैं, ‘मनरेगा के तहत लोगों को मिल रहे रोजगार को किसी भी स्थिति में कम नहीं किया जाना चाहिए.’
इन दोनों के अलावा दूसरे कई जानकारों की राय भी काफी हद तक मनरेगा के मौजूदा स्वरूप को बरकरार रखने के पक्ष में खड़ी है. जाने-माने अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक कहते हैं, ‘मनरेगा के जरिये न सिर्फ लोगों को गरीबी से बाहर निकलने में मदद मिली है, बल्कि इसी की बदौलत भारत कुछ साल पहले सामने आए वैश्विक आर्थिक संकट के कुप्रभावों की चपेट में आने से बच सका था’. वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘लोगों को रोजगार दिलाना इस कानून की मुख्य अवधारणा है जिसे किसी भी स्थिति में कमजोर नहीं किया जाना चाहिए’. मनरेगा में बदलाव को लेकर सरकार की मंशा से देश के कई अर्थशास्त्री भी नाराज हैं. इन अर्थशास्त्रियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर इसके मूल स्वरूप को बरकरार रखने की मांग भी की है. प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी पर दस्तखत करनेवालों में योजना आयोग के पूर्व सदस्य अभिजीत सेन तथा बोस्टन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक दिलीप मुखर्जी समेत प्रणब वर्धन, वी भास्कर, ऋतिका खेरा, अभिजीत सेन, जयंती घोस, अश्विनी देशपांडे तथा ज्यां द्रेज जैसी हस्तियां भी शामिल हैं. इस पत्र के माध्यम से उन्होंने यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में लागू हुए मनरेगा की वजह से देश के लाखों लोगों की जिंदगी पर पड़नेवाले सकारात्मक असर का जिक्र किया है. पत्र में लिखा गया है, ‘सभी राजनीतिक दलों के सहयोग से साकार हो सके इस कानून ने अनेक बाधाओं के बावजूद अच्छे परिणाम दिए हैं. इस योजना से हर साल करीब पांच करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है, जबकि इस योजना पर जीडीपी का मात्र 0.3 प्रतिशत ही खर्च होता है. इस लिए सरकार को इस योजना में ऐसे किसी बदलाव से बचना चाहिए जिससे लोगों की आमदनी पर बुरा प्रभाव पड़े’. इस पत्र में अर्थशास्त्रियों ने मनरेगा को लोगों की आर्थिक सुरक्षा और मानवाधिकार से जुड़ा मामला बताया है. इन अर्थशास्त्रियों के अलावा देशभर के सौ से अधिक बुद्धिजीवियों ने भी पीपुल एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी के बैनर तले जुटकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मनरेगा में हो रहे बदलाव को रोकने की मांग की है. मगर इस सबके बावजूद बताया जा रहा है कि सरकार इन बदलावों को लागू करने को लेकर गंभीर है. इसकी संभावना को बल इस बात से भी मिलता है कि नितिन गडकरी द्वारा मनरेगा में बदलाव करने संबंधी आदेश मिलने के बाद मंत्रालय के उच्च अधिकारियों ने उन्हें तभी बता दिया था कि ऐसा करने से मनरेगा के तहत रोजगार पानेवाले लोगों की संख्या में भारी कमी आ सकती है, लेकिन तब भी गडकरी ने अधिकारियों की इस राय को दरकिनार कर दिया था.
26 मई को नई सरकार बनने के बाद सबसे पहले राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने मनरेगा कानून में बदलाव की मांग की थी. उन्होंने छह जून को प्रधानमंत्री को एक पत्रलिख कर मनरेगा के कानूनी वजूद को खत्मकर इसे सरकारी योजना-भर बना देने की वकालत की थी. उनके बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी प्रधानमंत्री से मुलाकात करके मनरेगा में बदलाव करने की मांग की. सात जुलाई को मोदी से मिलकर शिवराज ने मजदूरी और निर्माण सामग्री के अनुपात को 50-50 करने तथा राज्य सरकार को अपने विवेक से मनरेगा के लिए कामों का चयन करने का अधिकार भी मांगा. अपनी मांग के पीछे शिवराज ने दलील दी कि ऐसा करने से ज्यादा से ज्यादा स्थाई निर्माण कार्य किए जा सकेंगे. माना जा रहा है कि शिवराज और राजे की मांगों के बाद ही सरकार ने मनरेगा में बदलाव करने फैसला किया है.
हालांकि ऐसा नहीं है कि अब तक मनरेगा में सब कुछ दूध का धुला हो और इसमंे बदलाव की कोई जरूरत न हो. 2006 में यूपीए सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में इस योजना को कानून बनाकर लागू किया था. ग्रामीण लोगों को साल-भर में 100 दिन का रोजगार देने के वादे के साथ शुरू हुई इस स्कीम को उस वक्त काफी सराहना भी मिली.2009 में यूपीए को दोबारा सत्ता दिलाने में इस योजना की अहम भूमिका भी मानी जाती है. लेकिन साल 2011 के बाद इस योजना को लेकर तमाम तरह की गड़बड़ियां सामने आने लगीं. देश के तमाम गांवों में इस योजना को लेकर भ्रष्टाचार के हजारों मामले तब से लेकर अब तक सामने आ चुके हैं. इनमें काम की गुणवत्ता में कमी, भुगतान में अनियमितता, अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से लाखों रुपयों का वारा-न्यारा करने जैसे कई गंभीर मामले शामिल हैं. यहां तक कि भारत के नियंत्रक एवं महालेखाकार (कैग) की रिपोर्ट में भी मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार की बातें सामने आ चुकी हैं. 100 दिन के न्यूनतम रोजगार दिलाने के लक्ष्य को यह योजना कई राज्यों में 2012 और 2013 में पलीता भी लगा चुकी है. यही वजह है कि पिछले एक-दो सालों से मनरेगा में बदलाव को लेकर तरह-तरह के सुर उठ रहे थे. पिछली सरकार के दौर में भाजपा समेत अन्य विपक्षी दलों ने मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर केंद्र सरकार की खूब आलोचना भी की थी. खुद नरेंद्र मोदी भी प्रधानमंत्री बनने से पहले कई बार इस योजना की आलोचना करके इसमें व्याप्त खामियों को दूर करने की बात कर चुके हैं. लेकिन अब जबकि इस योजना को लेकर उनकी अगुआईवाली सरकार द्वारा किए जानेवाले बदलावों का पता चल चुका है, तो सवाल उठता है, कि क्या यही वे बदलाव हैं जिनके जरिए मनरेगा की खामियां दूर की जा सकती हैं.
मनरेगा में जिन बदलावों की बात की जा रही है उनसे भ्रष्टाचार कम होने के बजाय बढ़ने की संभावना ज्यादा दिखाई दे रही है
इस सवाल का जवाब जानने से पहले उन वजहों की बात करना जरूरी है जिनके चलते मनरेगा में बदलावों की मांग की जाती रही है. मनरेगा में बदलाव की मांग को लेकर तमाम दलीलों के बीच सबसे बड़ा कारण इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को बताया जाता रहा है. जानकारों की मानें तो मनरेगा में भ्रष्टाचार इस कदर बढ़ चुका है जिसके चलते इसकी विश्वसनीयता ही संकट में आ गई है. देखा जाए तो यह बात काफी हद तक सही भी मालूम पड़ती है. देश-भर में शायद ही ऐसा कोई इलाका होगा जहां मनरेगा के पाक-साफ होने का दावा किया जा सके. हर गांव में इससे जुड़े भ्रष्टाचार के कई तरह के किस्से सुने जा सकते हैं. कैग की रिपोर्ट से लेकर तमाम विभागीय जांचों में भी मनरेगा में फैली गड़बड़ियां कई बार उजागर हो चुकी हैं. 2012 में मनरेगा-2 की लॉन्चिंग के वक्त तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भी मनरेगा में बदलाव की जरूरत पर बल दिया था. उनका कहना था कि इस कानून को भ्रष्टाचार मिटाने और उत्पादकता बढ़ाने के उपकरण में बदले जाने की जरूरत है. ऐसे में इसके स्वरूप को लेकर बदलाव की जोरदार मांगों के बीच सरकार द्वारा कदम उठाया जाना अपरिहार्य हो गया था. लेकिन जिस तरीके का बदलाव सरकार के एजेंडे में अभी दिख रहा है, उसको लेकर तमाम लोगों की राय यही है कि इन कदमों के जरिए भ्रष्टाचार दूर नहीं किया जा सकता है.
मनरेगा में प्रस्तावित एक महत्वपूर्ण बदलाव मजदूरी के हिस्से को कम करने और निर्माण सामग्री के हिस्से को बढ़ाने को लेकर है . आरटीआई आंदोलन से जुड़े निखिल डे के मुताबिक यह कदम भ्रष्टाचार को कम करने की बजाय और भी ज्यादा बढ़ा सकता है. वे कहते हैं, ‘इस बदलाव से सीधे तौर पर लोगों की आमदनी तो कम होगी ही साथ ही बेनामी ठेकेदारों को अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षण भी मिलने लगेगा. क्योंकि निर्माण सामग्री के लिए मिलनेवाले पैसे में होनेवाली हेराफेरी को रोकने के लिए कोई सटीक मैकेनिज्म नहीं है.’ हालांकि निर्माण सामग्री के लिए खर्च राशि का हिस्सा बढ़ाए जाने को लेकर सरकार का तर्क यह है कि ऐसा करने से मनरेगा के तहत स्थाई निर्माण कार्यों को तवज्जो मिलेगी. लेकिन जानकार इस राय को भ्रामक करार देते हैं. उनकी मानें तो यदि निर्माण कार्यों में लगनेवाली सामग्री के लिए धन बढ़ाने की ही बात है तो फिर उसका संपूर्ण खर्च मनरेगा की आवंटित राशि से ही निकालना क्यों जरूरी है ? क्या सरकार कोई ऐसा तरीका नहीं निकाल सकती जिससे कि मजदूरी का प्रतिशत वही रहे और निर्माण कार्य के लिए अतिरिक्त धन की व्यवस्था दूसरे विभागों को मिलनेवाले अनुदान से की जाए.
मनरेगा के प्रावधानों में किए जानेवाले बदलावों की कड़ी में एक बदलाव यह भी है कि अब मनरेगा के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियत अनुदान ही दिया जाएगा जबकि पहले इस योजना में मांग के अनुसार निवेश राशि कम या अधिक होती रहती थी. सरकार के इस कदम को लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ही आम लोगों में भी नाराजगी है. हरियाणा के रोहतक जिले के एक ग्रामीण रामपाल सिंह कहते हैं, ‘हम लोगों ने भी सुना है नरेगा में कुछ हो रहा है. कहा जा रहा है कि पहले जितने लोगों को मनरेगा के आधार पर काम चाहिए होता था उसके हिसाब से ही बजट का जोड़-घटाना किया जाता था, लेकिन अब तो बजट के आधार पर काम में जोड़-घटाना किया जाएगा. इससे सबसे ज्यादा नुकसान हमारा ही है.’ अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे गए जिस पत्र का जिक्र इस रिपोर्ट में पहले किया गया है उस पत्र में भी इस बदलाव को लेकर कड़ी आपत्ति जताई गई है. अर्थशास्त्रियों ने सरकार की मंशा पर हैरत जताते हुए लिखा है, ‘पहली बार केंद्र सरकार राज्य सरकारों के लिए मनरेगा खर्च की सीमा तय कर रही है. यह पूरी तरह से मांग पर काम के सिद्धान्त की अनदेखी है.’
राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने सबसे पहले यह मांग उठाई थी कि मनरेगा कानून को खत्म कर इसे सरकारी योजना बना दिया जाए
अब सरकार द्वारा किए जा रहे तीसरे सबसे बड़े बदलाव की बात करते हैं. सरकार की मंशा के मुताबिक मनरेगा के तहत जिलों की संख्या अभी के साढ़े चार सौ से कम कर के ढाई सौ तक सीमित कर दी जानी चाहिए. लेकिन इसको लेकर भी तमाम तरह के विरोध के स्वर अभी से उठने शुरू हो गए हैं. मनरेगा में बदलाव संबंधी विषय पर आयोजित एक परिचर्चा के दौरान ऋतिका खेड़ा कहती हैं, ‘इस योजना को ढाई सौ जिलों तक सीमित कर दिए जाने से बाकी इलाकों के बेरोजगार लोग खुद ब खुद इस योजना से बाहर हो जाएंगे. इन लोगों के लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था किए बिना ऐसा करना किसी भी नजरिए से सही नहीं होगा.’ सरकारी सूत्रों की मानें तो इस योजना के आकार को सीमित करके सरकार का एक इरादा वित्तीय घाटे की भरपाई करना भी है. लेकिन तब यह सवाल तो उठता ही है कि जरूरतमंद लोगों से रोजगार का एक अदद माध्यम छीनकर सरकार किस वित्तीय घाटे को कम करना चाहती है? प्रख्यात समाजशास्त्री और आम आदमी पार्टी के नेता प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, ‘जो सरकार लोगों को रोजगार देने के वादे पर सत्ता में आई है, उसके इस कदम से कम से कम पांच करोड़ लोगों का रोजगार छिन सकता है.’ वित्तीय मजबूरियों के चलते मनरेगा को खत्म करने की सरकार की मंशा को लेकर वामपंथी पार्टियां भी सरकार से नाराजगी जाहिर कर चुकी हैं. इसी क्रम में सीपीएम की नेता वृंदा कारत ने कुछ दिन पहले तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी को चिट्ठी लिखकर चेताया था कि वित्तीय घाटा कम करने के लिए सरकार के कदमों से मनरेगा पर आंच नहीं आनी चाहिए. उनकी राय है, ‘इस कानून का सीधा संबंध जरूरतमंद लोगों की आर्थिक जरूरतों से है, लिहाजा इस कानून को और मजबूत किया जाना चाहिए.’ वृंदा का यह भी कहना था, ‘वित्तीय घाटे की कीमत पर इस योजना के पर कतरना आम लोगों को रोजगार देने के उस वादे के साथ बड़ा मजाक होगा जिसके दम पर पिछली सरकार ने जनादेश हासिल किया था.’ गडकरी को लिखी चिट्ठी के जरिए उन्होंने सरकार से मनरेगा पर नीति साफ करने की मांग भी की.
इस योजना को कम विकसित इलाकों तक ही सीमित करने को लेकर सरकार की एक दलील यह भी है कि विकसित क्षेत्रों में इसकी कोई जरूरत नहीं है. मनरेगा को लेकर काम कर रहे लोग इस दलील को बेकार मानते हैं. निखिल डे कहते हैं, ‘विकसित इलाकों में भी गरीब पृष्ठभूमि के लोग रहते हैं. ऐसे में यदि इन क्षेत्रों से मनरेगा को खत्म कर दिया जाएगा तो ये लोग फिर से बेरोजगार हो जाएंगे. ‘
एक ध्यान देनेवाली महत्वपूर्ण बात यह भी है कि मनरेगा में काम करनेवाले अधिकांश लोग असंगठित और अकुशल श्रमिक होते हैं. ऐसे में एक सवाल यह भी है कि इस योजना के स्वरूप को सीमित कर देने से ऐसे लेगों के सामने आनेवाले संकट को लेकर सरकार के पास क्या समाधान है. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि इस योजना के सीमित हो जाने से ऐसे लोगों के सामने रोजगार का संकट किस कदर भयावह रूप में सामने आ सकता है.’
‘मनरेगा के तहत होनेवाले कामों की गुणवत्ता पर कैग सवाल उठा चुुका है, ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इस कानून में बदलाव हों’
हालांकि इस सबके बावजूद कई लोग मनरेगा के प्रावधानों मंे बदलाव को बेहद जरूरी बताते है. मनरेगा कानून की अच्छी समझ रखनेवाले राजकुमार कुंभज की मानें तो भले ही इस योजना को समाप्त कर देने या कुछ इलाकों तक ही सीमित कर देने की बात ठीक नहीं है, लेकिन तब भी इसके प्रावधानों मंे व्यापक संशोधन किए जाने चाहिए.’ एक लेख के जरिए वे तर्क देते हैं, ‘जब मनरेगा के अंतर्गत किए गए कामों की गुणवत्ता पर कैग तक सवाल उठा चुका है, तो ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इस कानून में कुछ ऐसे बदलाव किए जाएं, जिससे कि यह योजना अधिक व्यावहारिक और पारदर्शी बन सके.’ मनरेगा में बदलाव की जरूरत पर बल देनेवाली जमात में शामिल एक और सामाजिक कार्यकर्ता राकेश कपूर भी मनरेगा के नकारात्मक बिंदुओं को चिह्नत करके उन्हें दूर करने की दिशा में प्रयास करने की जरूरत पर जोर देते हैं.
बहरहाल इस बारे में अभी तक भारतीय जनता पार्टी ने पूरी तरह से अपना पक्ष साफ नहीं किया है. उसके नेताओं द्वारा अलग-अलग मौकों पर जो भी बातें कही गई हैं उनका लब्बोलुआब यही है कि मनरेगा में बदलाव को लेकर उसकी मंशा अभी भी जस की तस है. कुछ दिन पहले पार्टी प्रवक्ता और अब केंद्रीय राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का कहना था, ‘मनरेगा को पूरी तरह से खत्म करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन इस योजना के प्रावधानों की समीक्षा में कोई हर्ज नहीं है.’
बहरहाल मनरेगा को लेकर होनेवाले प्रस्तावित बदलावों के पक्ष और विपक्ष में उठ रही तमाम दलीलों के बीच एक बात तो साफ है कि तमाम तरह की बुराइयों, कमियों और सुधार की गुंजाइशों के बाद भी मनरेगा ने देश के बहुत सारे गरीब लोगों को थोड़ा-बहुत रोजगार तो दिया ही है, ऐसे में यदि सरकार इस योजना के आकार को सीमित करके गुणवत्तापरक कार्यों, स्थाई निर्माण और वित्तीय खामियों को दूर करने में सफल भी हो जाती है तब भी उन लाखों लोगों के रोजगार का सवाल बना रहेगा, जो इन बदलावों के चलते सीधे-सीधे प्रभावित होनेवाले हैं.