फड़फड़ाती उम्मीद की लौ

swaraj
फोटो: विकास कुमार

कुल डेढ़ साल पहले बना कोई राजनीतिक दल 433 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहे तो राजनीतिक पंडित इसे दुस्साहस की संज्ञा तो देंगे ही. 2014 के लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल ने यही दुस्साहस किया था. चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि उन्हें ऐसा करना महंगा पड़ा है.

वैसे आम आदमी पार्टी का अपनी स्थापना से पहले और बाद का इतिहास ऐसा ही रहा है. अपनी स्थापना के महज साल भर के भीतर ही यह पार्टी दिल्ली राज्य की सत्ता तक पहुंच गई थी. जनलोकपाल आंदोलन के रूप में शुरू हुआ कुछ गैर सरकारी संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आंदोलन जल्द ही एक ऐसे मास मूवमेंट में तब्दील हो गया जिसने अपने दो साल के अल्पकालिक जीवन में तीन-तीन बार शक्तिशाली भारतीय गणराज्य को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया. दिल्ली के विधानसभा चुनाव के बाद तो यह धारणा बन गई थी कि अरविंद केजरीवाल और आप कोई गलत कदम उठा ही नहीं सकते. किस्मत पूरी तरह से उनके साथ थी. बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, फिल्म कलाकार, उद्योगपति और दूसरी पार्टियों के लोग आप से जुड़ रहे थे. आम आदमी पार्टी के लिए सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो रहा था.

फिर अचानक ही कुछ अलग हुआ. 16 मई को वाराणसी में लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने मीडिया से कहा, ‘हम काफी अच्छा कर सकते थे. हमसे कुछ गलतियां हुई हैं. हमें निराशा है.’ वह पार्टी जिसका हर कदम पारस पत्थर सिद्ध हो रहा था, उसके मुखिया को ऐसा क्यों लगा कि उससे कुछ गलतियां हुई हैं.

इसकी वजह है 16 मई को आए लोकसभा चुनाव के नतीजे. इन नतीजों में आम आदमी पार्टी ने उसके नेताओं के अनुमानों से बहुत नीचे प्रदर्शन किया है. पार्टी के अपने गढ़ दिल्ली में उसका सूपड़ा साफ हो गया. खुद अरविंद बनारस से लोकसभा चुनाव हार गए. उनके नजदीकी सहयोगी कुमार विश्वास को अमेठी में कुल जमा पच्चीस हजार वोट हासिल हुए हैं. पार्टी के बाकी दो जाने-पहचाने नेता शाजिया इल्मी और योगेंद्र यादव की जमानत तक जब्त हो गई है. पार्टी का पूरा शीर्ष नेतृत्व ही हार गया है.

इस विपरीत माहौल में पंजाब से अनपेक्षित रूप से मिली चार सीटों ने आप की थोड़ी सी इज्जत बचा ली है. पूरे देश में वैकल्पिक और बदलाव की राजनीति की उम्मीद जगाने वाली एक पार्टी के साथ ऐसा क्या गलत हुआ? क्या आप के साथ जो हुआ है वह राजनीति की सामान्य प्रक्रिया है या फिर पार्टी राजनीतिक यथार्थ को नजरअंदाज कर अपनी क्षमताओं से परे सपने देख रही थी. महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि इस झटके के बाद उस नई राजनीतिक उम्मीद और आप का भविष्य क्या होगा? वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, ‘आप का भविष्य उज्ज्वल है. आप देखिए कि बसपा साफ हो गई, सपा साफ हो गई, लेफ्ट का सफाया हो गया उसमें भी आप का उभरना महत्वपूर्ण है.’

पंजाब में मिली जीत के अलावा थानवी जी का इशारा दिल्ली में आप को मिले कुल वोट प्रतिशत की तरफ भी है. दिल्ली के विधानसभा चुनाव में आप को कुल 30 फीसदी वोट मिले थे जबकि दिल्ली के लोकसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 33.1 फीसदी हो गया. दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर आप दूसरे स्थान पर रही है. लेकिन इतने भर से क्या आप देश भर के लोगों में किसी नई वैकल्पिक राजनीति का भरोसा जगा सकती है? आम जनता को फिलहाल छोड़ भी दें तो क्या आप के अपने कार्यकर्ताओं में इन नतीजों से कोई भरोसा बढ़ेगा?

ये ऐसे सवाल है जिनका फिलहाल सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है. एक बात तो बेहद साफ थी कि जितने संसाधन आप के पास थे उनके दम पर 433 सीटों पर लड़ने का फैसला समझदारी भरा नहीं था. जिस समय लोकसभा चुनावों की घोषणा हुई उस समय तक आप के कोषागार में महज 37 करोड़ रूपए थे. खुद पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रशांत भूषण ने नतीजे आने के बाद कहा, ‘हमारे पास भाजपा के मुकाबले दशमलव एक (0.1) प्रतिशत संसाधन थे.’ थानवी आप की इस चूक को एक राजस्थानी कहावत के जरिए रखते हैं, ‘ठंडा कर-कर के खाना चाहिए, हड़बड़ी में मुंह जल जाता है. लेकिन इस नतीजे से कुछ जरूरी सबक मिलेंगे जो आने वाले समय में आप को पहले से ज्यादा जरूरी सिद्ध करेंगे.’

notaआप के अंदरूनी लोगों से बातचीत में जो बात सामने आती है उसके मुताबिक आज भले ही लोग इतनी सीटों पर चुनाव लड़ने को गलत बता रहे हों लेकिन जब यह फैसला लिया गया था उस समय इतने ही लोग इसके पक्ष में भी थे. एक आकलन यह था कि जनता में आप को लेकर एक सकारात्मक माहौल है, अगले लोकसभा चुनाव पांच साल बाद होंगे तो क्यों न इस सकारात्मक माहौल का फायदा उठा लिया जाए. एक राजनीतिक दल के लिहाज से ऐसा सोचना गलत भी नहीं था.

लेकिन ऐसा करने में कुछ गलतियां हुईं जिनका अहसास पार्टी को भी है. मसलन लोकसभा की हड़बड़ी में दिल्ली की सरकार से इस्तीफा देने का फैसला. खुद अरविंद केजरीवाल इसे एक बड़ी भूल स्वीकार कर चुके हैं. अकेले इस कदम ने उनकी लोकसभा की लड़ाई को पटरी से उतार दिया. एक राजनेता के रूप में उनकी विश्वसनीयता को जबर्दस्त धक्का पहुंचाया. पूरे लोकसभा कैंपेन के दौरान उनका सामना ‘दिल्ली का भगोड़ा’ जैसें नारों से होता रहा. खुद को शहीद साबित करने की केजरीवाल की सारी कोशिशें व्यर्थ रहीं. ऊपर से उनके सामने जो प्रतिद्वंद्वी था उसके संसाधनों और प्रचार तंत्र ने इस माहौल को जमकर फैलाने का काम किया. पार्टी के भीतर शीर्ष स्तर पर इसे लेकर चाहे जो विचार चल रहे हों पर पार्टी के एक वरिष्ठ सदस्य और सबसे विश्वसनीय चेहरा योगेंद्र यादव को इस बात का अहसास है, ‘मेरे साथियों का आकलन था कि दिल्ली का चमत्कार पूरे देश में दोहराया जा सकता है. लेकिन इसमें काफी समय लगता है.’

दूसरी गलती यह कि फायदा उठाने का लालच भी कुछ ज्यादा ही हो गया. पार्टी के पास न तो किसी भी तरह के संसाधन थे और न ही जरूरी समय. ऐसे में ज्यादा से ज्यादा 50 ऐसी सीटें जीतने की कोशिश करना ही व्यावहारिक था जहां आप का प्रभाव होने की उम्मीद थी. लेकिन पार्टी ने 433 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया.

इसी तरह का एक फैसला था अरविंद के बनारस से चुनाव लड़ने का. बनारस के एक वोटर ने मोदी के समर्थन और केजरीवाल के विरोध के सवाल पर एक न्यूज चैनल से एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही, ‘मोदी ने बनारस को, बनारस के कारण चुना है जबकि केजरीवाल ने बनारस को मोदी के कारण चुना है. वैसे केजरीवाल का बनारस से कोई लेना-देना नहीं है.’

चुनाव के आखिरी पूरे महीने अरविंद सिर्फ मोदी को हराने की राजनीति करते दिखे जबकि राष्ट्रीय चुनाव में मोदी के रूप में जनता ने उस नेता को देखा-पाया जो विकास की उम्मीद जगा रहा था. उधर केजरीवाल का पूरा अभियान एक सूत्रीय और लगभग एकसुरा हो गया था. उनके हर भाषण के केंद्र में मोदी-अंबानी-अडानी ही थे. बनारस जैसे घनघोर राजनीतिक डीएनए वाले समाज को ऐसे मुद्दों से प्रभावित कर सकना आसान नहीं है जिसका उनसे सीधा कोई जुड़ाव नहीं हो. यहां अरविंद ने एक राष्ट्रीय नेता के सामने एक छोटे-मोटे नेता जैसी छवि बना ली. इस छवि ने जितना नुकसान उनका किया उससे कहीं ज्यादा नुकसान उनकी पूरी पार्टी का हुआ. आप के नेता बंगलोर-चेन्नई से लेकर सुदूर पूर्वोत्तर के राज्यों में खम ठोंक रहे थे. और उनका राष्ट्रीय नेता सिर्फ अपनी सीट पर धूनी रमाकर बैठ गया था. अरविंद केजरीवाल बिहार, झारखंड आदि राज्यों का दौरा तक करने नहीं गए. एक समय चुनाव के बीच ऐसा भी आया जब अमेठी से राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे आप नेता कुमार विश्वास ही उनसे नाराज होकर बैठ गए. नाराजगी का यही आलम लगभग सारे उम्मीदवारों में देखा गया. बंगलोर से चुनाव लड़ रहे वी बालाकृष्णन की भी यही शिकायत रही.

जाहिर है ऐसे में चुनावी नतीजों के आने के बाद पार्टी के भीतर असंतोष के सुर उभरने ही थे. पार्टी की राजनीतिक सलाहकार कमेटी के सदस्य इलियास आजमी ने अरविंद केजरीवाल पर एकतरफा फैसले करने का आरोप लगाया है. पार्टी के छोटे-बड़े कार्यकर्ता दबे-छिपे अब यह सवाल उठाने लगे हैं कि जब केजरीवाल को अमेठी और बनारस से ही चुनाव लड़ना था तो इतने बड़े तामझाम की जरूरत क्या थी. आने वाले कुछ दिनों में पार्टी के भीतर उखाड़-पछाड़ की घटनाएं तेज होंगी. इलियास आजमी उसकी बानगी हैं. संभव है कि इस झटके के बाद पार्टी से जुड़े कई लोग उसे छोड़कर अपने-अपने रास्ते चले जाएं. उस स्थिति से निपटना आप के लिए चुनौतीपूर्ण होगा. फिर जो लोग रह जाएंगे वही शायद असली आप के लोग होंगे.

हालांकि बनारस से चुनाव लड़ने के अपने फायदे थे. इसकी वजह से केजरीवाल हर वक्त मीडिया में एक बेहद महत्वपूर्ण नेता के तौर पर छाए रहे लेकिन कुछ लोगों को यह भी लगता है ऐसा करके उन्होंने संसद में जाने का मौका खो दिया जिससे पार्टी को कई फायदे मिल सकते थे. हालांकि ओम थानवी इससे इत्तफाक नहीं रखते, ‘सांसद बनना इतना महत्वपूर्ण नहीं है. संसद से बाहर रहकर ही अरविंद ने वाड्रा और गडकरी के खिलाफ मोर्चा खोला था. बनारस की लड़ाई का प्रतीकात्मक महत्व है. कॉरपोरेट, धनबल से सक्षम एक आदमी के सामने संसाधनविहीन आदमी की लड़ाई का प्रतीक है बनारस का चुनाव.’

जहां तक प्रतीकों की राजनीति का सवाल है तो उसकी भी एक लिहाज से अरविंद केजरीवाल ने हद कर दी थी. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि मुख्यमंत्री रहते हुए सड़क पर सोने से लेकर बनारस के चुनाव के जरिए मीडिया कवरेज पाने की कोशिशों ने भी आम आदमी के मन में आप के लिए कुछ नकारात्मक भावना पैदा कर दी थी. ऊपर से 49  दिन के दिल्ली शासन का हर दिन विवादित रहा और आप के हिस्से में कई अनावश्यक सुर्खियां आईं.

सवाल है कि इतने सीमित संसाधनों और सीमित अपील वाली पार्टी का भविष्य क्या होगा. मनीष सिसोदिया कहते हैं, ‘नतीजों से हमें निराशा हुई है लेकिन हमारे लिए उम्मीद बाकी है. दिल्ली में हमारे वोट प्रतिशत में साढ़े तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. हम फिर से दिल्ली में मेहनत करेंगे.’ यह बात तय है कि दिल्ली में जल्द ही अब विधानसभा के चुनाव फिर से होंगे. पर आम आदमी पार्टी को यह मुगालता नहीं पालना चाहिए कि वह फिर से यहां वही चमत्कार कर देगी. इतिहास इतनी जल्दी और बार-बार मौका दे ऐसा कम ही होता है. ले दे कर पार्टी के पास उस मूल विचार पर लौटने के सिवा कोई चारा नहीं है जिसका जिक्र गाहे-बगाहे योगेंद्र यादव करते रहते हैं- ‘राजनीति लंबी प्रक्रिया है. यहां पहला चुनाव हारने के लिए दूसरा चुनाव हराने के लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए लड़ा जाता है.’

आप को लेकर सवाल और भी कई हैं. मसलन क्या आप वास्तव में देशव्यापी, पंथ निरपेक्ष, सर्व समावेशी विकल्प के रूप में खड़ी हो सकेगी या फिर वह दिल्ली जैसे राज्य की एक क्षेत्रीय पार्टी बनकर रह जाएगी. या फिर धूमकेतु की तरह क्षणिक चमक बिखेर कर लुप्त हो जाएगी. इन सवालों के जवाब आने वाले दिनों में पार्टी के क्रिया-कलापों से खुद ब खुद मिलने लगेंगे. उम्मीद की एक लौ आप उस भाजपा से भी उधार ले सकती है जिसने आज उसे इस दुर्गति तक पहुंचाया है.