वर्ष 2014 भारतीय ट्रांसजेंडर (किन्नर) समुदाय के इतिहास में बहुत अहम रहा. आजादी के करीब सात दशक बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 20 लाख से अधिक की आबादीवाले इस समुदाय को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दी. देश की सबसे बड़ी अदालत का यह फैसला अप्रैल में नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (नालसा) नामक एक संस्था की ओर से दायर मामले में आया. यह संस्था समाज के वंचित वर्ग के लिए काम करती है.
फैसले में इस बात पर जोर दिया गया कि देश के हर नागरिक को अपना लिंग चयनित करने का अधिकार है. अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को यह निर्देश भी दिया कि वे किन्नर समुदाय की निजी स्वायत्तता सुनिश्चित करने और उनको भेदभाव, यौन हिंसा आदि से बचाने के लिए उपाय सुनिश्चित करे. लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद देश की सांविधिक पुस्तकों में अभी तीसरे लिंग को लेकर कोई स्पष्ट निर्देश नहीं हैं.
इस समुदाय के विरुद्घ होनेवाली यौन हिंसा को लेकर कानून लागू करानेवाले अधिकारियों और चिकित्सकों का व्यवहार भी चिंता का विषय है. कुछ मामलों में तो अधिकारियों को ऐसी हिंसा भड़काने का आपराधिक कृत्य करते पाया गया, वहीं कुछ अन्य मामलों में ऐसी घटनाओं के बाद इसी समुदाय को और अधिक प्रताडि़त किया गया.
देश का किन्नर समुदाय मोटे तौर पर हाशिए पर रहा है और उसे यौन सेवा के जरिए या फिर भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा है. हालांकि फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कोई जानकारी या ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जिससे इस समुदाय के साथ यौन हिंसा की वारदातों की पुष्टि की जा सके, लेकिन इनके बीच काम करनेवाले लोगों का कहना है कि ऐसी घटनाएं आमतौर पर होती हैं और उनकी खबर बाहर नहीं जाती.
कर्नाटक में साल 2012 में एक स्वतंत्र अध्ययन समूह ने पाया कि किन्नर समुदाय के साथ यौन हिंसा की संभावना 18 फीसदी तक होती है. इन घटनाओं में 61 फीसदी के लिए जिम्मेदार तो वे पुरुष होते हैं जो किन्नरों के यौन ग्राहक होते हैं. इसके अलावा इसमें 18 फीसदी मामलों में पुलिस, 13 फीसदी मामलों में नियमित साथी, 10 फीसदी मामलों में दलाल और 21 फीसदी मामलों में अन्य लोग जिम्मेदार होते हैं. एचआईवी अलायंस इंडिया का एक अन्य अध्ययन बताता है कि हिंसा के जो मामले सामने आते हैं उनमें से 10 फीसदी में उनके ग्राहक ही अपराधी होते हैं.
अक्टूबर में गोवा की एक सेक्स वर्कर कीर्ति (बदला हुआ नाम) के साथ तीन ट्रक चालकों ने बलात्कार किया. इन तीनों में से एक ने उसे सेक्स के बदले 500 रुपये देने की बात कही थी. उसके आश्वासन पर वह ट्रक चालक के साथ एक कथित सुरक्षित ठिकाने पर गई.
लेकिन वहां पहुंचने के बाद दो अन्य आदमी वहां आ गए़, इसके बाद तीनों ने उसके साथ बलात्कार किया. देर रात उसे एक सुनसान सड़क पर खून से लथपथ छोड़ दिया गया. उसने किन्नरों के बीच काम करने वाले एक स्वयंसेवी संगठन दर्पण को मदद के लिए फोन किया. उसने पुलिस की मदद लेना या चिकित्सकों की सेवा लेना भी मुनासिब नहीं समझा.
एचआईवी अलायंस इंडिया का एक अध्ययन बताता है कि हिंसा के जो मामले सामने आते हैं, उनमें से 10 फीसदी में उनके ग्राहक ही अपराधी होते हैं
दर्पण के प्रोग्राम मैनेजर आजाद शेख कहते हैं कि कीर्ति की तरह ही यौन हिंसा के शिकार तमाम अन्य किन्नर भी पुलिस या चिकित्सकों की मदद लेने से बचते हैं. पिछले 12 सालों में यानी जब से वह दर्पण के साथ काम कर रहे हैं, उन्होंने एक भी मामला पुलिस के पास जाते नहीं देखा.
वह कहते हैं, ‘वे डरते हैं कि पुलिस उनको और अधिक प्रताडि़त करेगी, क्योंकि वह उनके पेशे और उनकी लैंगिक पहचान के प्रति दुराग्रह रखती है.’
इमोरल ट्रैफिकिंग (प्रिवेंशन) एक्ट 1956 ट्रैफिकिंग को रोकने के बजाय इस समुदाय को प्रताडि़त करने का जरिया बनाया जा चुका है.
मुंबई-स्थित संगठन ‘आशियाना’ में प्रोग्राम मैनेजर के रूप में काम करने वाले आशीष राठौड़ कहते हैं, ‘अक्सर पुलिस सादे कपड़ों में पेट्रोलिंग करती है. कई बार वे ग्राहक बनकर पेश आते हैं. सेक्स के बाद कई बार पुलिस अधिकारी सेक्स वर्करों को धमकाते हैं और उनसे पैसे भी मांगते हैं. कई बार वे उनको यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर भी करते हैं.’ एचआईवी अलायंस इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक हिंसा के 17 फीसदी मामलों में पुलिसकर्मी दोषी होते हैं.
नालसा मामले में आया फैसला कहता है कि बंदी बनाए जाने पर भी मानवतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए. फैसले में कहा गया है कि सरकार ऐसे प्रावधान बनाए ताकि बंदी बनाए जाने के बाद लिंग के आधार पर उनको और अधिक वंचना न सहनी पड़े या उन्हें और अधिक हिंसा का जोखिम न उठाना पड़े. यह भी कहा गया है कि उनको किसी भी तरह की हिंसा, खराब व्यवहार या मानसिक या यौन दुर्व्यवहार से बचाया जाए.
हालांकि जब पिछले साल जून में नगमा नामक एक किन्नर अजमेर शरीफ की यात्रा पर थी, तो उसे पुलिस कस्टडी में ले लिया गया. हुआ यूं कि पुलिस की ओर से नगमा पर आपत्तिजनक टिप्पणी किए जाने के बाद नगमा के सहायकों और पुलिस के बीच विवाद हो गया. इस विवाद के बाद उन पर आईपीसी की धारा 143, 332, 353 के तहत लोक सेवक पर हमला करने का मामला थोप दिया गया.
उस रात तीन पुलिसकर्मियों ने नगमा का सामूहिक बलात्कार किया. हालांकि बाद में लोक सेवक द्वारा बलात्कार का मामला दर्ज किया गया, लेकिन पुलिस हिरासत में बलात्कार का मामला नहीं दर्ज किया गया.
यह मामला भी तब दर्ज किया गया जब सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जोर-शोर से यह मसला उठाया. पुलिस ने शुरू में ऐसी कोई शिकायत दर्ज करने से ही इन्कार कर दिया था.
किन्नरों और पुरुष यौनकर्मियों के बीच एचआईवी को लेकर जागरुकता फैलाने का काम करनेवाले मुंबई-स्थित संगठन ‘हमसफर ट्रस्ट’ की सलाहकार प्रबंधक सोनल गिनाई कहती हैं, ‘किन्नरों और पुरुष यौनकर्मियों के मामले में प्राथमिकी दर्ज कराने के लिए राजनीतिक दबाव, मीडिया या वकीलों का दबाव बहुत मायने रखता है. उसके बिना ऐसा कर पाना मुश्किल है. अक्सर यह कहकर टाला जाता है कि यह मामला उनके इलाके में नहीं आता या फिर वे असंज्ञेय अपराध दर्ज कर या पीडि़त को ही दोषी ठहराकर मामले को दबाने की कोशिश करते हैं.’ वह आगे कहती हैं कि उनके संगठन के कर्मचारियों को भी साथ जाकर पुलिस में एफआईआर दर्ज कराने में मुश्किल होती है.
हाल ही में संशोधित बलात्कार विरोधी कानून में भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो इस समुदाय या पुरुष यौनकर्मियों को यौन हिंसा से बचाता हो.
बैंगलुरु में अधिवक्ता के रूप में काम करनेवाले गौतमन रंगनाथन पूछते हैं, ‘नालसा फैसले में जब हर व्यक्ति को अपनी लैंगिक पहचान का अधिकार दिया गया है, तो महिला किन्नर के मामले में आईपीसी की धारा 376 का इस्तेमाल हो सकता है. लेकिन पुरुष किन्नर क्या करेंगे जो अपनी पूरी जिंदगी इसी जद्दोजहद में निकाल देते हैं कि उनको स्त्री न समझ लिया जाए. क्या यौन हिंसा के मामलों में वे खुद को स्त्री बताकर मामला दर्ज कराएंगे?’
172वें विधि आयोग ने वर्ष 2000 में बलात्कार संबंधी कानूनों की समीक्षा करते हुए कहा था कि बलात्कार कानूनों को लिंग-निरपेक्ष बनाया जाना चाहिए ताकि न केवल महिलाओं को ही यौन हिंसा से सुरक्षा मिले बल्कि किन्नरों और पुरुषों को भी इसका लाभ मिल सके. निर्भया बलात्कार कांड के बाद गठित जस्टिस वर्मा समिति ने भी आयोग की इन बातों से सहमति जताई थी. बहरहाल इसके बावजूद मौजूदा कानून केवल महिलाओं को ही संरक्षण देता है.
मौजूदा परिदृश्य में सामाजिक कार्यकर्ता और वकीलों का कहना है कि मौजूदा बलात्कार कानूनों में ही एक धारा जोड़कर किन्नरों और पुरुष यौनकर्मियों को सुरक्षा प्रदान की जा सकती है या फिर उनके लिए एक अलग धारा बनाई जा सकती है.
आईपीसी की धारा 377 के तहत स्त्रियों के अलावा अन्य सभी तरह के यौन अपराधों को अप्राकृतिक अपराध करार दिया गया है. यह धारा भी इस समुदाय के यौन हिंसा से निपटने की राह में रोड़ा बनती है क्योंकि इसके तहत उनके यौनकृत्य अपराध की श्रेणी में आते हैं. यह वजह भी कई लोगों को पुलिस या चिकित्सक के पास जाने से रोकती है.
अक्टूबर 2013 में उड़ीसा के कोरापुट की एक किन्नर सीरत जब दुर्गापूजा पंडाल से कार्यक्रम करने के बाद लौट रही थी, तो रास्ते में एक कार में बैठकर शराब पी रहे पांच लोगों ने उसे रोका और उससे सेक्स की मांग की.
हाल ही में संशोधित बलात्कार विरोधी कानून में भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो इस समुदाय या पुरुष यौनकर्मियों को यौन हिंसा से बचाता हो
जब सीरत ने उनकी बात अनसुनी करके आगे बढ़ने का प्रयास किया, तो उन्होंने उसका पीछा कर उसे कार में खींच लिया. उसके साथ बलात्कार करने के बाद उसे फेंक दिया गया. उसे अस्थमा का अटैक आया और यौन हमले के कारण वह खून से लथपथ पड़ी रही. आखिर एक दोस्त उसकी मदद के लिए पहुंचा और उसे घर ले गया.
अगले दिन अस्पताल में वह चिकित्सकों को यह बताने की हालत में नहीं थी कि उसके साथ क्या हुआ है. जब चिकित्सक ने उसे कपड़े उतारने को कहा तो उसने इनकार कर दिया और केवल अपनी पैंट नीचे सरका दी. ऐसे में चिकित्सक ने उसके कपड़े उतारते हुए कहा कि तुम शरमा क्यों रहे हो, क्या तुम लड़की हो? नहीं न, तो फिर मर्द की तरह खड़े रहो. इसके बाद चिकित्सक ने उसकी टांगें फैलाकर उसके गुदा द्वार में अपनी तीन उंगलियां डालीं और इस तरह उसका चिकित्सकीय परीक्षण किया. उसके बाद वह तीन दिनों तक अस्पताल में भर्ती रही.
वहां से बाहर निकलने के बाद उसने पुलिस से संपर्क किया, लेकिन उसका दु:स्वप्न जारी रहा. पुलिस अधिकारी ने उससे पूछा कि क्या वाकई पुरुषों ने उसका बलात्कार किया? क्या वाकई उसके बदन से खून बहा? वे उसकी शिकायत दर्ज ही नहीं करना चाहते थे. सीरत कहती है, ‘मुझे लगा कि मैं उन पर मामला दर्ज करने के लिए और दबाव बनाऊंगी तो मेरे परिवार के सामने मेरी और बेइज्जती की जाएगी.’ दरअसल उसका परिवार उसकी लैंगिक पहचान से अवगत नहीं है.
मुंबई के स्वयंसेवी संगठन ‘स्नेहा’ के नीति एवं कार्यक्रम निदेशक नयरीन दारुवाला के मुताबिक, ‘पुलिस ऐसे मामलों से निपटते वक्त लैंगिकता से जुड़े मसलों को समझ पाने में नाकाम रहती है. बतौर स्वयंसेवी संगठन हमें उनको पूरी बात समझानी पड़ती है. प्राथमिक जांच एकदम सही हो, इसके लिए जरूरी है कि पुलिस और चिकित्सक दोनों संवेदनशील हों.’
मार्च 2014 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने आपराधिक यौन हमलों को लेकर एक राष्ट्रीय दिशा-निर्देश जारी किया है. स्वास्थ्य शोध विभाग और भारतीय चिकित्सा शोध परिषद के अलावा इस दिशा-निर्देश को चिकित्सा, फॉरेंसिक और कानूनी क्षेत्र के विशेषज्ञों ने मिलकर तैयार किया है. इनको उस दिशा-निर्देश के रूप में जाना जाता है जिसमें बलात्कार के मामलों में अंगुली से किया जाने वाला परीक्षण बंद किया गया.
बहरहाल, दिशानिर्देश इससे कहीं अधिक व्यापक हैं. इनके जरिए महिलाओं, बच्चों, किन्नरों के साथ होनेवाले तथा अन्य तमाम यौन अपराधों की जांच के लिए चिकित्सकों के लिए खास दिशा-निर्देश तय किए गए हैं.
दिशा-निर्देश में किन्नरों के साथ हुई यौन हिंसा से निपटने के क्रम में स्वास्थ्य पेशेवरों के बारे में कहा गया है कि वे अक्सर जीव विज्ञान और लैंगिक पहचान को लेकर उतने जागरुक नहीं होते, जिसकी वजह से समस्या होती है. दिशा-निर्देश में यह भी कहा गया कि किन्नरों या अन्य लिंगों के मामलों में समुचित लिंग निर्धारण हो तथा अन्य यौन विविधताओं को दर्ज किया जाए. इस दौरान पूरी गोपनीयता बरती जाए.
दिशा-निर्देशों में चिकित्सकों को भी शामिल किया गया है. उदाहरण के लिए उल्लेख किया गया है कि परीक्षण के दौरान किसी व्यक्ति के किन्नर या अन्य यौन पहचानवाला होने पर अक्सर माखौल उड़ाया जाता है, आश्चर्य जताया जाता है या फिर स्तब्धता या निराशा जताई जाती है. ऐसी प्रतिक्रिया यही बताती है कि संबंधित व्यक्ति का आकलन किया जा रहा है. यह बात उसे असहज कर सकती है. इसमें यह भी कहा गया है कि हमारा कानून लैंगिकता के आधार पर घृणा जताने वाले अपराधों को मान्यता नहीं देता, लेकिन फिर भी स्वास्थ्यकर्मियों के लिए यह अहम है कि वे पीडि़त की पूरी बातों को दर्ज करें. हमले को लेकर पीडि़त जो भी संभावित वजह बताता है, उसे दर्ज करें. अगर यह हमला लिंग के आधार पर किया गया है, तो उसे भी दर्ज करें.
मार्च से अब तक चार राज्यों यानी कर्नाटक, तमिलनाडु, मेघालय और उड़ीसा ने अपने यहां स्वास्थ्य कर्मियों को इस संबंध में निर्देश दिए हैं. स्वास्थ्य एवं अन्य सेवाओं से संबंधित जांच केंद्र से ताल्लुक रखनेवाली पद्मा देवस्थली कहती हैं, ‘स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी दिशा-निर्देश बहुत अहम हैं, लेकिन उसके साथ-साथ स्वास्थ्य-सेवा पेशेवरों को पर्याप्त प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए.’