दुनियाभर की सभ्यताओं के विकास में नदियों का योगदान किस कदर रहा है, यह बताने के लिए इतिहास की किताबों में अनेकों घटनाएं दस्तावेजों की भांति मौजूद हैं. सिंधु घाटी से निकले हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से लेकर नील नदी की छत्रछाया में पले-बढे़ मैसोपोटामिया के आधुनिक मिस्र बनने तक का सफरनामा भी बताता है कि सिर्फ नदियों की मदद से ही मानव ने जीवन-यापन की बुनियादी जरूरतों से लेकर विकास के तमाम पहलुओं तक को सफलतापूर्वक अर्जित किया है. इसके अलावा दुनियाभर में अनेकों और भी प्रमाण मौजूद हैं, जो बताते हैं कि कैसे नदियों ने अपने योगदान से तमाम सभ्यताओं और संस्कृतियों को आबाद किया है. लेकिन समृद्धि की वाहक रहने वाली नदियों से यदि विनाश की आशंकाओं का जन्म होने लगे तो इसे क्या कहा जाए! हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड राज्य के श्रीनगर इलाके में पिछले लंबे अर्से से उलटबांसियों भरी ऐसी ही एक इबारत लिखी जा रही है. इस इलाके के बीचों-बीच बहने वाली अलकनंदा नदी पर बिजली बनाने के उद्देश्य से चल रही एक परियोजना आज ऐसी अवस्था में पहुंच चुकी है कि, अगर सबकुछ ठीक-ठाक नहीं रहा तो इस नदी का पानी काल बनकर कभी भी इस पूरे इलाके को हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास के अंधेरे कोने में धकेल सकता है. वैसे बीते जुलाई की 26 तारीख ने इस परियोजना में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं होने का संकेत भी दे दिया है. इस पूरी कहानी को समझने के लिए 26 जुलाई की उस घटना के कुछ समय पहले से शुरुआत करते हैं.
बात इसी साल तीन जून की है. श्रीनगर में निर्माणाधीन 330 मेगावाट की अलकनंदा जल विद्युत परियोजना का काम अंतिम चरण में था. इस दिन परियोजना के अधिकारियों ने बिजली उत्पादन की संभावनाएं जांचने के मकसद से परियोजना के पावर हाउस में लगी चार टरबाइनों में से एक की टेस्टिंग की. 82.5 मेगावाट की टरबाइन में की गई यह टेस्टिंग पूरी तरह सफल रही और परियोजना का पावर हाउस अपनी खुद की बिजली से जगमगा उठा. इसके साथ ही उत्साहित परियोजना अधिकारियों ने ऐलान कर दिया कि तीन महीने के अंदर इस पावरहाउस से 330 मेगावाट बिजली का उत्पादन शुरू हो जाएगा. लेकिन इस बीच 26 जुलाई की सुबह एक ऐसी घटना घट गई, जो बिजली उत्पादन के लिए पूरी तरह तैयार बताई जा रही इस परियोजना पर ही बिजली बन कर गिरी. उस दिन परियोजना के डि-सिल्टेशन बेसिन टैंक यानी डीएसबी टैंक की एक ऐसी महत्वपूर्ण दीवार टूट गई जिस पर इस टैंक में जमा पानी को थामने का अहम जिम्मा था. डीएसबी टैंक, बिजली परियोजना का वह हिस्सा होता है जिसमें नदी के पानी को पावर हाउस तक पहुंचाने से पहले इसलिए जमा किया जाता है, ताकि उसमें मौजूद गाद, पत्थर और अन्य कचरा इसकी सतह में बैठ जाए और टरबाइनों तक साफ पानी पहुंचे. एशिया का सबसे बड़ा बताया जाने वाला यह डीएसबी टैंक लगभग 200 मीटर लंबा, 158 मीटर चौड़ा तथा 19 मीटर ऊंचा था. पानी से लबालब भरे इतने विशालकाय टैंक की दीवार के टूटते ही समूचे श्रीनगर में सनसनी फैल गई और अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया. स्थानीय लोग हड़बड़ी में अपने घरों से भागने लगे और निचले इलाके के लोगों को भी इसके बारे में बताने लगे. डीएसबी टैंक वाली जगह से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर रहने वाले चौरास निवासी नागेंद्र सिंह बताते हैं, ‘अफरा-तफरी का माहौल ऐसा था कि हमें लगा शायद परियोजना का मुख्य बांध टूट गया है.’ इस टैंक के टूट जाने के बाद क्षतिग्रस्त दीवार की तरफ से निचले इलाकों में पानी के रिसाव का खतरा बढ़ने लगा तो प्रशासन ने आनन-फानन में परियोजना के मुख्य बांध के गेट खुलवा दिए. इस कवायद के बाद टैंक का पानी धीरे-धीरे अलकनंदा की मुख्यधारा में समाहित हो गया और फौरी तौर पर ही सही मगर एक बड़ा खतरा टल गया. लेकिन यह घटना तब तक समूचे श्रीनगर शहर को सकते में डाल चुकी थी.
सुरक्षा की दृष्टि से बेहद मजबूत माने जाने वाले डीएसबी टैंक के टूट जाने की इस घटना ने परियोजना का संचालन कर रही कंपनी की कार्यप्रणाली को कटघरे में लाने के साथ ही समूचे बांध प्रभावित क्षेत्र के सामने सुरक्षा का संकट पैदा कर दिया है. ऐसे में एक अहम सवाल खड़ा हो गया है कि, अगर कंपनी की कार्यप्रणाली आगे भी ऐसी ही चलती रही तो श्रीनगर से देवप्रयाग और यहां तक कि ऋषिकेश से लेकर हरिद्वार तक में रह रहे लाखों लोगों के जीवन को सुरक्षित कैसे माना जा सकता है ? वह भी तब जबकि इस परियोजना का संचालन करने वाली कंपनी की कार्यप्रणाली कई बार पहले भी सवालों के घेरे में आ चुकी हो.
परियोजना के डीएसबी टैंक की दीवार क्षतिग्रस्त होने से कई दिन पहले से इस टैंक से पावर हाउस तक पानी पहुंचाने वाली नहर से भी पानी का रिसाव हो रहा था
2006 से इस परियोजना का संचालन जीवीके हाइड्रोलैक्ट्रिक कंपनी कर रही है. जीवीके को यह परियोजना उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग से लेकर टाटा और डक्कन गोयनका जैसी कंपनियों के हाथ खड़े करने के बाद हासिल हुई. हस्तांतरण की यह कथा भी बेहद अनूठी है. दरअसल गढ़वाल क्षेत्र में बिजली की कमी को देखते हुए 1985 में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने उत्तरप्रदेश सरकार को यह जल विद्युत परियोजना लगाने की अनुमति दी थी. मंजूरी देते समय मंत्रालय ने साफ तौर पर कहा था कि इस क्षेत्र में बिजली की समस्या को दूर करने के लिए ही इस परियोजना को मंजूरी दी जा रही है. पर्यावरण मंत्रालय से ग्रीन सिग्नल मिल जाने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग ने यहां काम शुरू कर दिया था, लेकिन कुछ रिहाइशी कालोनियां बनाने के बाद ही उसने यह प्रोजेक्ट टाटा कंपनी को बेच दिया. इसके बाद टाटा ने इस परियोजना को डक्कन गोयनका नामक कंपनी के हवाले कर दिया. इस कंपनी ने कुछ साल काम करने के बाद इस प्रोजेक्ट का निर्माण रोक दिया. इसके बाद साल 2006 में यह परियोजना जीवीके कंपनी के जिम्मे आ गई. इस तरह देखा जाए तो जिस जल विद्युत परियोजना को लगाने के लिए इस इलाके में बिजली की कमी का तर्क दिया गया था, उस परियोजना के शुरू होने के पहले 21 सालों तक सिर्फ कंपनियों की अदला-बदली ही चलती रही. 1985 में 200 मेगावाट की अनुमति वाली यह परियोजना 2006 तक आते आते 330 मेगावाट की हो गई थी. बहरहाल इस परियोजना को अपने हाथों में लेने के बाद से अब तक जीवीके कंपनी के कामकाज का बहीखाता खंगाला जाय तो इसके द्वारा बरते गए लापरवाह रवैये और घटिया निर्माण कार्यों की एक लंबी श्रंखला बन चुकी है. लापरवाही और उदासीनता की सबसे ताजा मिसाल तो यही है कि परियोजना की दृष्टि से बेहद अहम माने जाने वाले डीएसबी टैंक के टूटने के पखवाड़े भर बाद तक भी कंपनी के कर्ता-धर्ता इसके कारणों का पता तो दूर अंदाजा तक नहीं लगा पाए हैं. इस दीवार के टूटने के बाद कंपनी अधिकारियों ने कारणों का पता लगाने के लिए एक टीम बनाने की बात कही थी, लेकिन यह टीम कब तक अपना काम पूरा कर लेगी इसको लेकर वे कुछ नहीं बोल पाए थे. तहलका ने भी इस बाबत जीवीके कंपनी से सवाल पूछे थे, लेकिन इन सवालों पर भी उसने कोई जवाब नहीं दिया. अहम सवालों पर कंपनी की यह चुप्पी साफ बताती है कि दीवार टूटने के कारणों का पता लगाने में उसके हाथ अभी तक खाली हैं.
प्रख्यात अर्थशास्त्री और इस परियोजना का मुखर विरोध करने वाले डॉ भरत झुनझुनवाला कहते हैं, ‘जीवीके कंपनी द्वारा नियमों को ताक पर रखते हुए इतना बड़ा टैंक बना दिया गया था जिसकी उसे अनुमति ही नहीं थी. यह टैंक इस परियोजना को स्वीकृति मिलने के वक्त तैयार की गई डीपीआर के मुकाबले कहीं अधिक बड़ा था.’ दरअसल इस परियोजना को 1985 में स्वीकृति मिली थी. तबसे लेकर अब तक कंपनी ने दुबारा कभी भी इस परियोजना के लिए पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति लेने की जहमत नहीं उठाई. झुनझुनवाला कहते हैं, ‘नियमों के मुताबिक इस तरह की किसी भी परियोजना को प्रत्येक पांच साल में पर्यावरणीय स्वीकृति लेनी जरूरी होती है. लेकिन जीवीके कंपनी इस परियोजना को जारी परियोजना (कंटीन्यूइंग प्रोजक्ट) बता कर हर बार इस प्रक्रिया से बचती रही.’
डीएसबी टैंक के टूटने की घटना को लेकर पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक और जानेमाने पर्यावरणविद रवि चोपड़ा एक और चौंकाने वाली बात बताते हैं. वे कहते हैं, ‘पिछले साल उत्तराखंड में आई आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आपदा में हुए नुकसान में बांधों की भूमिका की पड़ताल करने के लिए एक कमेटी बनाई थी, जिसमें मैं भी शामिल था. इसी क्रम में इस साल जनवरी में हमने श्रीनगर परियोजना की साइट का दौरा किया. उस वक्त इस टैंक की दीवार पर कोटिंग का काम चल रहा था. इस दौरान हमने देखा कि टैंक की दीवारों के अलग-अलग जोड़ों को भरने के लिए कंपनी के कर्मचारी एपाक्सी यानी एक खास तरह की गोंद का प्रयोग कर रहे थे. इसके बाद हमारी टीम में शामिल एक इंजीनियर ने इस टैंक के असुरक्षित होने की आशंका जाहिर कर दी थी. अब इस टैंक के टूट जाने के बाद वह आशंका सही साबित हो गई है.’
अलकनंदा नदी पर निर्माणाधीन इस बिजली परियोजना के डीएसबी टैंक की दीवार क्षतिग्रस्त होने से कई दिन पहले से इस टैंक से पावर हाउस तक पानी पहुंचाने वाली नहर में भी पानी का रिसाव हो रहा था. इसको लेकर चौरास स्थित मंगसूं गांव के ग्रामीण पिछले महीने भर से धरना भी दे रहे थे. क्योंकि नहर से रिसने वाला पानी मंगसू गांव के कई घरों में घुस रहा था. इसके अलावा पावरहाउस के पास स्थित किल्किलेश्वर इलाके के नौर गांव के कई घरों को भी इस नहर का पानी तालाब बनाने पर आमादा था. इसको लेकर स्थानीय लोगों ने प्रशासन के साथ ही कंपनी के अधिकारियों से कई बार शिकायत कर चुके थे. नौर गांव के प्रधान आशीष गैरोला बताते हैं, ‘हमारी शिकायत पर कंपनी के लोगों के साथ ही प्रशासन ने भी पहले तो यह मानने से ही इंकार कर दिया कि रिसने वाला पानी परियोजना की नहर का है, बाद में जब हमने उन्हें इसके सबूत दिखाए, तब भी कंपनी ने इसे मामूली बात बता कर खारिज कर दिया.’ नहर से होने वाले रिसाव के विरोध में धरना दे रहे मंगसू गांव के प्रधान राजेश बहुगुणा बताते हैं, ‘इस रिसाव को रोकने की मांग को लेकर हम लोगों ने महीने भर पहले ही धरना शुरू कर दिया था, मगर कंपनी इसकी अनदेखी करती रही. अब डीएसबी टेंक के टूट जाने के बाद हमारा डर और भी बढ़ गया है क्योंकि इस टैंक के ठीक सामने हमारा गांव ही पड़ता है.’ धरने पर बैठे मंगसू गांव के ग्रामीणों को समर्थन देने पहुंचे इस इलाके के पूर्व ब्लॉक प्रमुख विजयंत सिंह कहते हैं, ‘नहर में होने वाले रिसाव के चलते निचले इलाकों की जमीन कई जगहों पर बुरी तरह धंस चुकी है, जिससे भविष्य में कोई भी बड़ी अनहोनी हो सकती है.’
तहलका ने जब इस पूरे इलाके का दौरा किया तो इस परियोजना के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक उसे ऐसे कई प्रमाण मिले जो इस परियोजना में हुए घटिया निर्माण कार्यों के बारे में खुद ही बता रहे थे. डीएसबी टैंक से पावर हाउस तक जाने वाली नहर की ही बात करें तो, इस नहर के बाहरी हिस्से में कई जगहों पर दरारें दिख रही थीं. इन दरारों को ढंकने के लिए कंपनी ने इन पर सीमेंट स्प्रे पोत दिया था. इसके अलावा नहर के अंदरूनी हिस्से भी कई जगहों पर उखड़े हुए थे. इस परियोजना में काम करने वाले एक इंजीनियर नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि, ‘इस नहर को जिस तरीके से बनाया गया है उसमें सीमेंट स्प्रे के टिकने की कोई संभावना नहीं रहती है. यह तो कंपनी द्वारा अपनी लापरवाही छुपाने के लिए अपनाया गया एक पैंतरा मात्र है.’
इन सभी तथ्यों, आरोपों तथा आशंकाओं को देखते हुए एक और अहम सवाल उठता है कि, क्या ऐसा कोई भी आधार है जिसके दम पर यह कहा जा सके कि यह परियोजना महफूज है?
हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय में कार्यरत भूगर्भ शास्त्री प्रोफेसर वाईपी सुंदरियाल कहते हैं, ‘परियोजना शुरू होने के पहले दिन से ही जिस तरह की कार्यप्रणाली इसको लेकर अपनाई जा रही थी, तब से ही इसके पूरी तरह सुरक्षित होने पर संशय के बादल मंडरा रहे थे. लेकिन अब डीएसबी टैंक जैसे अहम हिस्से के टूट जाने की घटना के बाद तो कोहरा पूरी तरह छंट गया है.’ विश्व विद्यालय में कार्यरत एक और भूगर्भशास्त्री डॉ. एसपी सती भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं. वे कहते हैं, ‘2007 में ही एक रिपोर्ट के जरिए हमने बता दिया था कि श्रीनगर में बन रही बिजली परियोजना के निर्माण कार्य में कई तरह की लापरवाहियां बरती जा रही हैं जो भविष्य में इस पूरे प्रोजेक्ट के साथ ही श्रीनगर के सामने भी मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर सकती हंै. दरअसल डीएसबी टैंक से पावर हाउस तक पानी पहुंचाने के लिए जिस चौरास इलाके में नहर बनाई गई है. उस जमीन के निचले हिस्से की मिट्टी बेहद दलदली है. इसमें इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह इतनी बड़ी और ऐसी नहर का वजन संभाल सके जिसमें चौबीसों घंटे पानी का प्रवाह जारी हो. इस सबके बादजूद न तो कंपनी और न ही सरकारों ने इन बातों को गंभीरता से लिया, जिसका परिणाम सबके सामने हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘पिछले साल जून महीने में आई आपदा से श्रीनगर शहर को हुए नुकसान में इस परियोजना की भूमिका जगजाहिर है. उस वक्त इस परियोजना का तकरीबन पांच लाख घन मीटर मलवा अलकनंदा नदी में बहा था, जिसने समूचे श्रीनगर को पाट दिया था. ऐसे में अब नहर से होने वाले रिसाव के साथ ही डीएसबी टेंक के पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाने की घटनाओं को देखते हुए सुरक्षा की दृष्टि से इस परियोजना को खतरनाक बताने के लिए और क्या प्रमाण दिया जाए?’
प्रोफेसर सुंदरियाल तथा प्रोफेसर एसपी सती द्वारा जाहिर की गई इन आशंकाओं की पड़ताल करने के क्रम में कुछ प्रमुख घटनाओं की तरफ एक सरसरी निगाह डालना जरूरी हो जाता है जो इस परियोजना की लचर कार्यप्रणाली का प्रमाण तो प्रस्तुत करती ही हैं, साथ ही यह भी बताती हैं कि इस परियोजना के चलते श्रीनगर और उसके आसपास के इलाकों को किस तरह का नुकसान अब तक उठाना पड़ा है.
आपदा के बाद जांच में पता चला कि बांध के नजदीक वाले इलाकों में 47 प्रतिशत और बांध से दूर वाले इलाकों में 20 प्रतिशत मलबा इसी परियोजना का था
पिछले साल जून महीने की आपदा के बाद तथा इसी साल केदारनाथ यात्रा शुरू होने से ठीक पहले तहलका ने दो समाचार रिपोर्टों में इस परियोजना से श्रीनगर शहर में मची तबाही का पूरा ब्यौरा सामने रखा था. उन दोनों ही रिपोर्टों में साफ तौर पर इस बात का जिक्र था कि इस परियोजना के मलबे ने श्रीनगर के शक्तिविहार इलाके के कई घरों को रहने लायक नहीं छोड़ा था. इसके अलावा तब से लेकर अब तक कई दूसरी रिपोर्टों में भी इस बात की तस्दीक हो चुकी है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई रवि चोपड़ा कमेटी ने भी इसी साल अप्रैल में प्रस्तुत की गई अपनी रिपोर्ट में उत्तराखंड में हुई आपदा के नुकसान को बढ़ाने में बांधों की भूमिका को स्वीकार किया है. इस बारे में रवि चोपड़ा कहते हैं, ‘2013 की आपदा के बाद हमारी टीम ने श्रीनगर के अलग-अलग इलाकों से मलबे के सेंपलों की जांच की थी. इस जांच में पता चला कि बांध के नजदीक वाले इलाकों में 47 प्रतिशत और बांध से दूर वाले इलाकों में 20 प्रतिशत मलबा इसी परियोजना का था. खुद जीवीके कंपनी ने भी तब इस बात को स्वीकार किया था कि श्रीनगर और उसके आसपास के इलाकों में घुसे मलबे का बीस प्रतिशत तक हिस्सा इसी परियोजना के मलवे का था. ऐसे में कंपनी की यह स्वीकारोक्ति साफ तौर पर बताती है कि स्थितियां कितनी चिंताजनक हैं.’
अब इस परियोजना के काफर डैम के क्षतिग्रस्त होने की घटनाओं का जिक्र करते हैं. 330 मेगावाट बिजली की उत्पादन क्षमता वाले इस पावर प्रोजेक्ट के लिए श्रीनगर शहर से ठीक पहले कोटेश्वर नामक जगह पर परियोजना का मुख्य बांध बनाया गया है. 90 मीटर ऊंचे इस बांध का निर्माण करने के लिए कंपनी ने इसके ठीक आगे काफर बांध बनाया था. दरअसल इस तरह की बिजली परियोजनाओं के लिए मुख्य बांध की दीवार का निर्माण करने से पहले काफर बांध बनाया जाता है. इस काफर बांध की मदद से नदी के पानी को एक तरफ से रोका जाता है जिसके बाद उस जगह पर मुख्य बांध का निर्माण किया जाता है. इसके बाद इसी तर्ज पर पानी को दूसरी तरफ से रोक कर पूरा बांध तैयार किया जाता है. इस तरह देखा जाए तो मुख्य बांध की निर्माण प्रक्रिया में काफर डैम की बेहद अहम भूमिका होती है. लेकिन 2008 में श्रीनगर परियोजना का काफर बांध अचानक टूट गया. उस वक्त मुख्य बांध का निर्माण कार्य प्रगति पर था. इसके बाद अगले ही साल 27 जुलाई को एक बार फिर से इस घटना की पुनरावृत्ति हो गई. 27 जून, 2010 को इसके तीसरी बार ढह जाने से परियोजना की घटिया कार्यप्रणाली खुल कर सतह पर आ गई. तीनों ही मौकों पर काफर डैम के टूटने से नदी किनारे स्थित बस्तियों को काफी नुकसान पहुंचा था. 2009 में दूसरी बार काफर बांध टूटने के बाद पौड़ी जिले के तत्कालीन अपर जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी बनाई गई, जिसका काम काफर डैम के टूटने के कारणों का पता लगाने के साथ ही, बांध के निर्माण कार्यों की गुणवत्ता जांचने तथा नदी किनारे की बस्तियों को हुए नुकसान का आकलन करना था. इस कमेटी ने जांच के दौरान परियोजना की कार्यप्रणाली में बहुत सारी अनियमितताएं पाई. बावजूद इस सबके कंपनी के खिलाफ कोई भी कड़ा कदम नहीं उठाया गया. भाकपा (माले) के गढ़वाल संयोजक इंद्रेश मैखुरी इसे सीधे तौर पर प्रशासन और कंपनी की मिलीभगत बताते हैं. वे कहते हैं, इस परियोजना का संचालन करने वाली जीवीके कंपनी की कारगुजारियों के खिलाफ जितनी भी बार स्थानीय स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए, इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दिया जाए तो प्रशासनिक पैंडुलम हमेशा कंपनी की तरफ ही झुका रहा.
कंपनी के पक्ष में प्रशासनिक तरफदारी की जिन बातों को इंद्रेश मैखुरी कह रह हैं उन बातों के सहारे थोड़ा आगे बढ़ा जाए तो मालूम पड़ाता है कि प्रशासन की दरियादिली के साथ ही स्थानीय जनप्रतिनिधियों का मन भी जीवीके कंपनी के प्रति हमेशा मेहरबान रहा है. 2011 में इस परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा पाबंदी लगाई जाने के बाद गढ़वाल के तत्कालीन सांसद सतपाल महाराज तथा उत्तराखंड सरकार में कैबिनेट मंत्री, मंत्री प्रसाद नैथानी परियोजना के समर्थन में भारी दलबल के साथ नई दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पहुंच गए थे. उस वक्त इस परियोजना का समर्थन करने वालों में मंगसूं गांव के वे ग्रामीण भी शामिल थे जिनका जिक्र इस रिपोर्ट की ऊपरी पंक्तियों में किया जा चुका है. इस बारे में पूछे जाने पर मंगसू के निवासी राजेंद्र मुयाल कहते हैं, ‘उस वक्त कंपनी ने हमें तमाम तरह की सुविधाएं देने की बात कही थी. इसके अलावा मंत्री प्रसाद नैथानी तथा सतपाल महाराज ने भी तब स्थानीय हितों का खयाल रखने की बात कही थी. लेकिन जैसे ही इस परियोजना पर लगी रोक हटी, कंपनी और जनप्रतिनिधियों, दोनों ने हमसे मुंह मोड़ लिया.’ वे आगे कहते हैं, ‘हालांकि 26 जुलाई को मंत्री प्रसाद नैथानी ने इस इलाके का दौरा किया था, लेकिन कंपनी के खिलाफ कार्रवाई करने का कोरा आश्वासन देने के बाद से उनका कोई अता-पता नहीं है.’ धरना स्थल पर बैठे ग्रामीणों में से जितनों से भी तहलका ने बात की वे सभी खुद को ठगा महसूस कर रहे थे.
आपदा के बाद जांच में पता चला कि बांध के नजदीक वाले इलाकों में 47 प्रतिशत और बांध से दूर वाले इलाकों में 20 प्रतिशत मलबा इसी परियोजना का था
2011 में इस परियोजना का समर्थन करने दिल्ली पहुंचे सतपाल महाराज तथा मंत्री प्रसाद नैथानी ने तब इस परियोजना को राज्यहित में बताया था. उस वक्त इन दोनों नेताओं का तर्क था कि श्रीनगर परियोजना से मिलने वाली बिजली राज्य को समृद्धि की ओर ले जाएगी. इसके अलावा राज्य के दो पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूरी तथा विजय बहुगुणा भी बिजली की कमी का तर्क देकर श्रीनगर परियोजना की पैरवी कर चुके हैं. लेकिन श्रीनगर परियोजना राज्य की बिजली जरूरतों को पूरा करने में कितनी भूमिका निभा सकती है, जरा इस पर भी एक नजर दौड़ा लेते हैं.
2002 में बनी राज्य की ऊर्जा नीति के मुताबिक इस परियोजना की निर्माता कंपनी को उत्तराखंड राज्य को 12.5 प्रतिशत बिजली मुफ्त देने की बाध्यता के साथ ही अगले 45 सालों तक कुल बिजली का 87.5 प्रतिशत हिस्सा बेचने का अधिकार मिला हुआ है. ऐसे में यदि यह बांध महफूज भी रहता है और बेरोकटोक बिजली का उत्पादन भी करता है तब भी 330 मेगावाट क्षमता वाली इस परियोजना से केवल 39.60 मेगावाट बिजली ही उत्तराखंड के हिस्से में आना निश्चित है. बाकी बिजली को यह कंपनी किसी अन्य राज्य को भी बेच सकती है. इसी के तहत उसने उत्तर प्रदेश सरकार के साथ बाकी पूरी बिजली बेचने का करार कर लिया है. जबकि 1985 में इसको मंजूरी देते समय पर्यावरण मंत्रालय का साफ कहना था कि यह मंजूरी क्षेत्र में बिजली की समस्या को दूर करने के लिए ही दी जा रही है. इंद्रेश मैखुरी कहते हैं, ‘चालीस मेगावाट बिजली के लिए इतनी बड़ी आबादी को दांव पर लगा कर नीति नियंताओं ने एक ऐसी कंपनी का हित साधने का काम किया है जिसने श्रीनगर क्षेत्र के सिर पर बांध के रूप में एक ऐसा टाइम बम रख दिया है जिसका ट्रिगर अपने आप कभी भी दब सकता है.’ झुनझुनवाला कहते हैं, ‘अगर जीवीके कंपनी की कार्यप्रणाली ऐसी ही रही तो बहुत संभव है कि इस परियोजना का मुख्य बांध भी किसी दिन जवाब दे दे. अगर ऐसा हुआ तो यह घटना इस इलाके के लिए ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर देगी.
अलकनंदा नदी पर बन रही इस परियोजना को खतरनाक बताने वाले कारणों मंे एक बड़ा कारण इस बांध की ऊंचाई को भी बताया जा रहा है. परियोजना के शुरुआती प्रस्ताव में मुख्य बांध की ऊंचाई 63 मीटर तय की गई थी, लेकिन जीवीके के जिम्मा संभालने के बाद इसकी ऊंचाई को बढ़ाकर 90 मीटर कर दिया गया. बढ़ी हुई ऊंचाई की वजह से बांध से बनने वाली झील का दायरा 15 किलोमीटर तक फैल गया है. ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि इतनी बड़ी झील में जमा पानी अप्रिय स्थितियों में किस कदर खतरनाक हो सकता है. वह भी तब जब यह झील एक ऐसे इलाके में बनी हो जो भूस्खलन की दृष्टि से बेहद खतरनाक है. तकरीबन डेढ़ दशक पहले सीमा सड़क संगठन ने ऋषिकेश से बद्रीनाथ के बीच तकरीबन नब्बे छोटे-बड़े भूस्खलन क्षेत्र चिह्नित किए थे. श्रीनगर परियोजना इसी मार्ग के बीच में बन रही है. इसरो रिमोट सेंसिंग और भूगर्भ सर्वेत्रण विभाग द्वारा तैयार भूस्खलन हैजार्ड मैपिंग के अनुसार भी इस मार्ग का 441.57 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित होनेवाला है.
बहरहाल काफर डैम टूटने से लेकर डीएसबी टैंक के क्षतिग्रस्त हो जाने तक की अब तक की तमाम परिस्थितियां ऐसी हैं जिनके आधार पर इस परियोजना को सुरक्षा के नजरिए से खतरनाक करार दिया जा सकता है. तहलका ने इस सबको लेकर जीवीके कंपनी से दस सवाल पूछे थे. इन दस सवालों में एक सवाल यह भी था कि, क्या कंपनी ऐसा कोई आश्वासन दे सकती है जिससे इस इलाके के लोग इस परियोजना के चलते भविष्य में खुद को पूरी तरह महफूज समझ सकें ? बाकी नौ सवालों के साथ ही यह सवाल भी अब तक जवाब की प्रतीक्षा में है.