कोई भी धर्म अपने मूल स्वरूप में कभी कट्टर नहीं होता है. हां, धर्म को माननेवाले जरूर कट्टर अथवा उदार हो सकते हैं. लिहाजा यह बात जाहिर है कि समस्या धर्म नहीं बल्कि लोगों का वह मानस है जो हर चीज को अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए इस्तेमाल करना चाहता है. कुरान में कहा गया है- ‘हर एक अपनी रुचि के अनुसार काम करता है, कौन सही रास्ते पर है यह केवल तुम्हारा परमेश्वर ही जानता है.’ (17.84)
गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है, ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’.
इस्लाम का मूल शब्द सलम है जिसका अर्थ ही समर्पण और शांति है. अगर हम ऐतिहासिक संदर्भ लें तो यह समझने में कठिनाई नहीं होगी कि अरब लोगों में इस्लाम के पहले से हिंसा और अतिवाद को सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त थी और इस्लाम इन बुराइयों को समाप्त करने का आंदोलन था, जिसके कारण अरब समाज में बड़ा बदलाव आया भी.
लेकिन यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि अरबों में जो प्रतिक्रियावादी ताकतें थीं, उन्होंने पैगंबर साहब के अवसान के 30 साल बाद ही पूरी व्यवस्था पर फिर से कब्जा कर लिया और इस्लाम से पहले की जाहिली परंपराओं को फिर से जिंदा कर दिया. इसके नतीजे में हिंसा और अतिवाद की संस्कृति पुनर्जीवित होने लगी और अगले 20 साल के अंदर स्वयं पैगंबर साहब के परिवार के हर पुरुष सदस्य की करबला के मैदान में निर्मम हत्या कर दी गई. यही नहीं, उनके परिवार की महिलाओं के सर से चादरें छीनकर उन्हें कूफे से दमिश्क का सफर ऊंटों की नंगी पीठ पर कराया गया.
इस्लाम में सुधारवादी आंदोलन से ज्यादा जरूरी है आगे बढ़ने की सोच. आगे बढ़ना किसी भी व्यक्ति और समूह के जीवंत बने रहने के लिए सबसे जरूरी है
जहां तक बात पेरिस से लेकर पेशावर तक एक के बाद एक हो रहे टकरावों की है तो इस बारे में मैं यही कह सकता हूं कि इस्लाम का नाम लेकर कुछ लोग क्या करते हैं, यह वह जानें या अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए उनको प्रोत्साहन देनेवाले जाने. इस तरह के मामलों में इस्लामी विचारधारा का रेखांकन करने का अधिकार केवल कुरान का है जो स्पष्ट शब्दों में कहता है-
‘और आखरित का घर उनके लिए है जो न तो धरती पर अपनी बड़ाई चाहते हैं और न ही फसाद पैदा करते हैं. अच्छा परिणाम तो अंतत: उनके लिये है, जिनको प्रभु का बोध है.’ (28.83)
कुरान की इस आयत से यह एकदम स्पष्ट है कि जमीन पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के प्रयास और अपने स्वार्थ के लिए हिंसा और मारकाट या टकराव, यह सब कार्य धर्म की मूल आत्मा पर आघात हैं.
इस्लाम से पहले अरब समाज में कबायली व्यवस्था थी, पैगंबर साहब ने उसकी जगह जो व्यवस्था बनाई उसमें हुकूमत बनाने के लिए नागरिकों की सहमति (बैयत) तथा हुकूमत चलाने के लिए परामर्श (शीरा) का प्रावधान किया. सहमति तथा परामर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनिवार्य अंग हैं. इसके साथ-साथ कुरान मानवीय प्रतिष्ठा तथा समता का हुक्म भी देता है. यही बात आज के लोकतंत्र के आधारभूत सिद्धांत हैं. इसलिए समस्या तालमेल की नहीं बल्कि यह है कि मुस्लिम देशों में जो बादशाहतें या तानाशाही की व्यवस्थाएं चला रही हैं, वो गैर इस्लामी हैं, सवाल उन्हें वापस लोकतंत्र पर लाने का है.
एक वजह ये भी है कि अलग-अलग विचारधाराओं में राजनीति के चलते टकराव की संभावना पैदा हो जाती है. लेकिन धर्म और धार्मिक जीवन में इसके लिए कोई स्थान नहीं है. हमारी परम्पराओं में कहा गया है कि, ‘दया धर्मस्य जन्मभूमि’ अर्थात दया से धर्म पैदा होता है, कुरान का हर अध्याय दयानिधि और करुणानिधि अल्लाह के नाम से शुरू होता है. इसके बावजूद अगर टकराव होता है, तो इसके लिए धर्म को दोष नहीं दिया जा सकता. अपने वर्चस्व के लिए झगड़ा अधर्म है, यह जिहाद नहीं बल्कि फसाद है और कानून इससे निपटे यही बेहतर तरीका है.
अगर टकराव हो रहा है तो इसके लिए धर्म दोषी नहीं है. अपने वर्चस्व के लिए झगड़ा अधर्म है, यह जेहाद नहीं बल्कि फसाद है और कानून इससे निपटे यही बेहतर तरीका है
अक्सर इस्लाम में सुधारवादी आंदोलनों की कमी की बात भी उठती रहती है पर मेरे ख्याल से मामला सुधार का नहीं, बल्कि आगे बढ़ने का है. आगे बढ़ना किसी भी व्यक्ति और समूह के जीवंत बने रहने के लिए सबसे जरूरी है. इसी में परिवर्तन निहित है. लेकिन जो बदलना नहीं चाहते यह उनकी अपनी पसंद का मामला है. जीवंतता अनिवार्य है- इस विषय पर भी कुरान का फैसला स्पष्ट है-
‘अगर तुम आगे नहीं बढ़ोगे तो खुदा तुम को तकलीफ भरा अजाब देगा और तुम्हारी जगह दूसरे लोगों को ले आयेगा.’ (9.39)
अगर बात खतरे की हो तो चाहे वह मुसलिम हो या गैर मुसलिम किसी को भी खतरा बाहर से नहीं होता खतरा हमेशा खुद से या अंदर से आता है. कुरान में कहा गया है-
‘ए आस्था रखनेवालों स्वयं अपनी चिंता करो, अगर तुम खुद सही रास्ते पर हो तो जो भटक गया है वह तुम्हें नुकसान पहुंचा ही नहीं सकता.’ (5.105)