राम तेरी अयोध्या मैली

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जन्मेजय शरण पर अपने ही गुरु और जानकी घाट, बड़ा स्थान के महंत मैथिली रामशरण दास की हत्या का आरोप है. फोटो साभार: हिंदुस्तान टाइम्स

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फरवरी, 1992. अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर के महंत लालदास की हत्या के बाद नए महंत की खोज हो रही थी. वह राम मंदिर आंदोलन और उससे उठे राजनीतिक बवंडर का दौर था इसलिए प्रशासन के माथे पर बल पड़े हुए थे. उसे एक ऐसा महंत ढूंढ़ना था जिसकी छवि साफ-सुथरी हो. दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा संत जो किसी भी तरह के आपराधिक आरोप और राजनीतिक झुकाव से मुक्त हो. यही सबसे बड़ी समस्या थी. पूरी अयोध्या में ऐसा एक भी संत खोजे नहीं मिल रहा था. जो भी मिलता उस पर या तो कोई मामला दर्ज होता या फिर वह किसी राजनीतिक दल से जुड़ा होता. बहुत ढूंढ़ने के बाद प्रशासन को सत्येंद्र दास मिले. वे आज भी रामजन्मभूमि स्थान के महंत हैं.

वर्तमान में लौटते हैं. इसी साल 21 जुलाई, 2013 को अयोध्या में दो महंत जमीन के एक छोटे-से टुकड़े को लेकर भिड़ गए. भावनाथ दास और हरिशंकर दास नाम के इन दो महंतों ने एक-दूसरे पर अपने समर्थकों के साथ फायरिंग शुरू कर दी. इस हिंसा में एक व्यक्ति की जान चली गई और दर्जन भर घायल हो गए.

करीब दो दशक के ओर-छोर पर खड़ी ये घटनाएं रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की गवाह रही अयोध्या की एक अनकही और स्याह कहानी कहती हैं. दरअसल राम की यह नगरी रामनाम जपने वाले साधु-संतों के शैतान बनने की गवाह बन गई है. जिस संत के हाथों में कंठी-माला होनी चाहिए, उसके हाथों में शराब और बंदूक है. जिसे मोह माया से ऊपर माना जाता है, वह दूसरे मंदिर की संपत्ति हड़पने की फिराक में है. जो बाबा इंद्रियों पर काबू करने का दम भरते हैं, उन पर नाबालिग बच्चों के साथ बलात्कार के मामले दर्ज हैं. गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहने वाले साधुओं पर अपने ही गुरुओं की हत्या के आरोप हैं.

अयोध्या के एसएसपी रहे और इन दिनों बरेली रेंज के डीआईजी आरके एस राठौड़ कहते हैं, ‘ अयोध्या के साधुओं का एक बड़ा वर्ग विभिन्न तरह के अपराधों में शामिल है.’ फैजाबाद में लंबे समय तक तैनात रहे धर्मेंद्र सिंह का कहना है, ‘मैं जब वहां एसएसपी था तो शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता होगा जब अयोध्या का कोई बाबा संपत्ति या किसी अन्य चीज से जुड़ा विवाद लेकर मेरे पास नहीं आता हो. मुझे यह देखकर दुख होता था. मैं सोचता था कि जब यही सब करना था तो साधु क्यों बने.  अयोध्या के क्षेत्राधिकारी (सीओ) अयोध्या तारकेश्वर पांडे कहते हैं, ‘रावण सीता जी का अपहरण करने के लिए 500 दूसरे रूप धर सकता था, लेकिन उसने साधुवेश ही धारण किया. अयोध्या के कई साधु अपने आप को दुनियावी चीजों से दूर नहीं कर पाए हैं. इनमें से 50 फीसदी अपराधी हैं जिनका मांस, मदिरा और महिला से अभिन्न रिश्ता है.’

सरयू कुंज राम जानकी मंदिर के महंत युगल किशोर शरण शास्त्री कहते हैं, ‘भगत जगत को ठगत है, भगत को ठगत है संत, संतों को जो ठगत है, तो को कहो महंत.’ एक दूसरे संत दूसरी दिलचस्प पंक्ति सुनाते हैं,’ चरण दबा कर संत बने हैं, गला दबा कर महंत,  परंपरा सब भूल गए हैं, भूल गए हैं ग्रंथ’. ऐसी कई लाइनें अयोध्या में सुनने को मिल जाती हैं क्योंकि स्थानीय साधु समाज के एक बड़े वर्ग पर ये पूरी तरह से लागू होती हैं.

कुछ समय पहले ही शहर के चर्चित मंदिर हनुमानगढ़ी के महंत हरिशंकर दास पर हमला हुआ. उन्हें छह गोलियां लगीं. हमला कराने का आरोप हरिशंकर के ही एक शिष्य पर लगा. बीते साल  हनुमानगढ़ी के गद्दीनशीन महंत रमेश दास ने अपनी हत्या की आशंका जताई थी. उनका कहना था कि साधु बिरादरी के ही कुछ लोग हनुमानगढ़ी पर अपनी मनमानी करना चाह रहे हैं और इसके लिए वे उनकी हत्या की योजना बना रहे हैं. इसके चंद दिनों बाद ही अखिल भारतीय निर्वाणी अनी अखाड़ा के महामंत्री व हनुमानगढ़ी के पुजारी गौरीशंकर दास ने भी अपनी हत्या होने की आशंका जताई. उनका आरोप था कि उनके गुरु रामाज्ञा दास की हत्या कराने वाले महंत त्रिभुवन दास अब उनकी हत्या कराना चाहते हैं. 2012 में ही हनुमानगढ़ी के संत हरिनारायण दास को पुलिस ने गोंडा के पास मुठभेड़ में मार गिराया था. उन पर हत्या सहित कई मामले दर्ज थे.

ऐसी घटनाओं की सूची बहुत लंबी है. सार यह है कि सात हजार से ज्यादा मंदिरों वाली अयोध्या के अधिकांश मठ और मंदिर आज गंभीर अपराधों के केंद्र बन गए हैं. कहीं शिष्यों पर महंतों की हत्या के आरोप हैं तो कहीं महंतों को उनके शिष्यों ने जबरन मंदिर से बाहर निकाल दिया है. यही नहीं, पिछले कुछ सालों में अयोध्या के कई साधु पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए हैं. यहां 250 से अधिक साधुओं और महंतों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. कइयों के खिलाफ तो एक से अधिक हत्या के मामले दर्ज हैं. कई बाबा हैं जो विभिन्न आपराधिक मामलों में जेल जा चुके हैं तो कई ऐसे भी हैं जो जेल से वापस आकर महंत की कुर्सी पर बने हुए हैं. किसी साधु पर अपराधियों की मदद से दूसरे मठ या मंदिर पर अवैध कब्जा करने का आरोप है तो अपराधियों द्वारा महंत की हत्या करके या उसे बाहर निकालकर अपने किसी आदमी को महंत बनवा देने के किस्से भी हैं. (देखें बॉक्स 1) कहते हैं कि मोह-माया और भय से मुक्ति संत की पहचान होती है, लेकिन यहां साधुओं में जमीन-जायदाद से जुड़ी मुकदमेबाजी और असलहे या बॉडीगार्ड रखने की होड़ आम है.

जानकार बताते हैं कि अयोध्या में अपराधीकरण की शुरुआत वैसे तो 1960 में ही हो गई थी, लेकिन आज यह अपने चरम पर है. वैरागी साधु रामानंद कहते हैं, ‘अपराधियों को अयोध्या में प्रवेश कराने का काम हनुमानगढ़ी के उज्जैनिया पट्टी के महंत त्रिभुवन दास ने किया. उसने ही अयोध्या में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपराधियों का सहारा लिया.’ रामानंद बताते हैं कि जटा में पिस्तौल खोंसकर घूमने वाले त्रिभुवन दास के आपराधिक चरित्र को देखते हुए ही उसे हनुमानगढ़ी से बाहर निकाल दिया गया था. इसके बाद त्रिभुवन ने अपना एक अलग मठ स्थापित किया और वहीं से अपनी आपराधिक गतिविधियां चलाईं. हनुमानगढ़ी के महंत गौरीशंकर दास कहते हैं, ‘अयोध्या में होने वाली अधिकांश हत्याओं में त्रिभुवन दास की ही भूमिका रही है. इसने अयोध्या में अब तक 100 से अधिक साधुओं की हत्या कराई है. इसी आदमी ने अयोध्या में अपराध की नर्सरी स्थापित की.’

हालांकि त्रिभुवन दास के बारे में कहा जाता है कि उसने कभी कोई हत्या खुद नहीं की बल्कि इस काम के लिए अपने शिष्यों का सहारा लिया. गौरीशंकर कहते हैं, ‘त्रिभुवन के जितने भी शिष्य हुए, सभी एक से बढ़ कर एक अपराधी हुए. साधु दीक्षा देते हैं तो आदमी संत बनता है लेकिन जितने लोग त्रिभुवन से जुड़े वे एक से बढ़ कर एक शैतान हुए. ये आदमी अधिकांश समय जेल में ही रहा. जेल में ही इसने अपने अधिकतर शिष्य बनाए. जेल से छूटने के बाद वे अपराधी सीधे अयोध्या में इसके पास चले आते थे.’ रामचरितमानस भवन के महंत अर्जुन दास कहते हैं, ‘त्रिभुवन ने बड़ी संख्या में अपराधियों को लाकर अपने मठ पर रखा. बिहार से आने वाले अपराधियों के लिए उसका मठ शरणस्थली रहा है.’ त्रिभुवन दास आज भी जिंदा है और अयोध्या में ही है. उस पर आज भी दर्जनों गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं.

रामजन्मभूमि न्यास के प्रमुख एवं रामचंद्र परमहंस के उत्तराधिकारी महंत नृत्य गोपाल दास भी कई गंभीर आरोपों के घेरे में रहे हैं. जान का डर बताकर नाम न छापने की शर्त पर अयोध्या के एक बड़े महंत कहते हैं, ‘यह आदमी संत नहीं है बल्कि गुंडा और भूमाफिया है. आज अयोध्या में जो भी अपराध और अराजकता है उसका स्रोत यही है. स्थिति यह है कि अगर इन्हें आपकी जमीन या मंदिर पसंद आ गया तो आपके पास उसे इन्हें सौंपने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. या तो आप अपनी जमीन दें या फिर जान देने के लिए तैयार रहें.’

अपनी किताब ‘पोट्रेट्स फ्रॉम अयोध्या’ में नृत्य गोपाल दास से जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए शारदा दुबे लिखती हैं, ‘अयोध्या के प्रमोद वन इलाके में एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी का घर नृत्य गोपाल दास को पसंद आ गया. उन्होंने घर खरीदने के लिए घर के मालिक, जो एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी था, के पास कई बार संदेश भिजवाया. लेकिन वह घर नहीं बेचना चाहता था. कुछ दिन बाद ही खबर आई कि कुछ अनजान लोगों ने उस पर जानलेवा हमला कर दिया है. इस घटना के चंद दिनों बाद वह आदमी परिवार सहित दूसरे राज्य में शिफ्ट हो गया.’

एक और घटना मणिराम दास की छावनी से सटे बिंदु सरोवर मंदिर से जुड़ी है. उसके महंत त्रिवेणी दास थे. बताते हैं कि मंदिर के कुछ मामलों को लेकर उनकी नृत्य गोपाल दास से कुछ कहासुनी हो गई. घटना के कुछ दिन बाद रोज की तरह त्रिवेणी दास सुबह चार बजे सरयू में स्नान करने जा रहे थे. रास्ते में एक ट्रक ने उन्हें कुचल दिया और वहीं उनकी मौत हो गई. अयोध्या में कई ऐसे लोग हैं जो दबी जुबान में इस घटना के पीछे नृत्य गोपाल दास का हाथ बताते हैं.

वैसे तो नृत्य गोपाल दास पर अयोध्या में दूसरों की जमीन-जायदाद हड़पने के कई गंभीर आरोप हैं लेकिन उनमें से सबसे बड़ा मामला मारवाड़ी धर्मशाला पर कब्जे से जुड़ा है. इस घटना के गवाह रहे साधु प्रेमशंकर दास बताते हैं, ‘1990 की बात है. धर्मशाला में अयोध्या के आस-पास के गांवों से आए 70-80 लड़के रहा करते थे. एक दिन दोपहर में जब बच्चे अपने कॉलेज गए हुए थे तब हथियारों से लैस साधुओं ने धर्मशाला पर अपना कब्जा जमा लिया. छात्रों की किताबों, दस्तावेजों, कपड़ों एवं अन्य चीजों को एक जगह रखकर उसे आग लगा दी गई.’ प्रेमशंकर के मुताबिक उस घटना में शामिल होने के आरोप में नृत्य गोपाल दास और अन्य कई लोगों के खिलाफ आईपीसी की धारा 347,348 और 436 के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी. ऐसे ही और भी मामले हैं.

हालांकि अयोध्या में फैले अपराध का शिकार नृत्य गोपाल दास भी हुए. मई, 2001 की बात है. सुबह पांच बजे वे अपने शिष्यों के साथ सरयू नदी में स्नान के लिए जा रहे थे जब उन पर देसी बमों से हमला किया गया. हमले में वे बुरी तरह से घायल हुए. इस हमले के पीछे उन्होंने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई का हाथ बताया. लेकिन कुछ समय बाद पता चला कि इसमें उनकी ही बिरादरी अर्थात साधु समाज के ही एक महंत देवराम दास वेदांती का हाथ था. हमले से कुछ समय पहले ही नृत्य गोपाल दास ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए वेदांती को राम वल्लभ मंदिर के महंत पद से बर्खास्त करवा दिया था. कहा गया कि इसी का बदला लेने के लिए वेदांती ने नृत्य गोपाल पर हमला करवाया.

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‘मेरे ही मंदिर में मुझे घुसने नहीं दे रहे’

जून, 2002 की बात है. अयोध्या के रंग निवास मंदिर के 80 वर्षीय महंत रामरूप दास ने अपनी जगह अपने सबसे योग्य शिष्य रघुनाथ दास को महंत बना दिया. रंग निवास मंदिर के बिहार के समस्तीपुर में भी कई मंदिर हैं. शिष्य रघुनाथ को अयोध्या का जिम्मा सौंपने के बाद रामरूप दास समस्तीपुर जाकर वहां के मंदिर की देखरेख करने के उद्देश्य से वहां चले गए. पांच महीने ही हुए थे कि उन्हें रघुनाथ की मौत की खबर मिली. खबर सुनकर भागे-भागे रामरूप दास अयोध्या पहुंचे. उन्होंने देखा कि हथियारबंद नागा साधुओं ने मंदिर को चारों तरफ से घेर रखा है.

तब से आज तक वे अपने मंदिर में नहीं घुस सके. अब वे पास के एक मंदिर में अपने एक परिचित के यहां शरण लिए हुए हैं. बातचीत करने की कोशिश में वे बिलख कर रो पड़ते हैं. पास खड़े अन्य साधुओं के ढाढ़स बंधाने के बाद वे कुछ देर बाद सामान्य हो पाते हैं. कहते हैं, ‘मेरे शिष्य की मृत्यु के बाद स्थानीय भाजपा नेता मनमोहन दास ने मेरे मंदिर पर कब्जा कर लिया. मेरे अपने मंदिर में वे मुझे घुसने नहीं दे रहे हैं. वह कहता है कि मेरे शिष्य के मरने के बाद इस मंदिर के महंत पद पर उसका हक है.’

उधर, मनमोहन दास का दावा है कि रघुनाथ के बाद मंदिर की महंती पर उनका हक है. मनमोहन के मुताबिक रंग निवास मंदिर आने के पहले रघुनाथ दास हनुमानगढ़ी में उसके गुरु सत्यनारायण दास का शिष्य था. इस तरह वे दोनों गुरुभाई हुए और गुरुभाई की मृत्यु के बाद महंती पर उनका अधिकार है.

उधर, रामरूप कहते हैं, ‘मैं दशकों इस मंदिर का महंत रहा हूं. मैंने अपना उत्तराधिकार अपने शिष्य को दिया था. अब वह नहीं रहा. मैं जीवित हूं तो फिर महंती स्वाभाविक रुप से मेरे पास वापस आ जाती है.’ रामरूप अपने शिष्य की मृत्यु को स्वाभाविक नहीं मानते. वे कहते हैं, ‘मेरे शिष्य की उम्र 45 साल से भी कम थी. मुझे तो आज तक पता नहीं चला कि उसकी मौत कैसे हुई. वह मेरे साथ सालों से था. स्वस्थ और तंदुरुस्त था. मुझे शक है कि कहीं उसकी हत्या तो नहीं की गई है.’

कहानी यहीं खत्म नहीं होती. जब अपने मंदिर से निकाले गए रामरूप दास पागलों की तरह तमाम साधु-महंतों के यहां अपने साथ हुई त्रासदी की पीड़ा बयान कर रहे थे तो उसी समय उनसे अयोध्या के युवा संत अर्जुन दास ने संपर्क किया और कहा कि वह उनकी मदद कर सकता है. लेकिन इसके लिए पैसे खर्च करने होंगे. वे तैयार हो गए. कुछ दिन बाद ही अर्जुन दास को रामरूप दास ने अपना उत्तराधिकारी बना दिया. रामरूप दास कहते हैं, ‘वे बहुत शक्तिशाली लोग हैं. मैं उनसे नहीं लड़ पाता. न मेरे जीवन में इतना समय बचा है कि लड़ाई कर सकूं और न मैं दांव- पेंच जानता हूं. अर्जुन ने मेरी मदद करने के लिए कहा तो मैंने स्वीकार कर लिया. अब वही मेरा उत्तराधिकारी है.’

इधर मनमोहन ने मंदिर को अपने कब्जे में लेने के बाद उसे विश्व हिंदू परिषद से जुड़े साधु राजकुमार दास को दे दिया, जिसके खिलाफ हत्या के कई मामले चल रहे हैं. रंग निवास मंदिर का मामला कोर्ट में है और फिलहाल पूरे परिसर को पुलिस ने अपने कब्जे में ले रखा है.

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महंत देवराम दास वेदांती का खुद का किस्सा भी कालिखमय है. वेदांती को 1995 में पुलिस ने एक नाबालिग लड़की के साथ बिहार में भागलपुर के एक होटल से गिरफ्तार किया था. वेदांती पर उस लड़की को अगवा करने का आरोप था. उस समय पुलिस ने वेदांती के पास से एक स्पैनिश पिस्तौल भी बरामद की थी.

हनुमानगढ़ी अयोध्या का सबसे बड़ा मंदिर है. यहां करीब 700 नागा वैरागी साधु रहते हैं. हनुमानगढ़ी के हिस्से भी अयोध्या में हुए अपराधों का एक बड़ा हिस्सा दर्ज है. 1984 में यहां के महंत हरिभजन दास को उन्हीं के शिष्यों ने गोली मार दी थी. 1992 में यहां गद्दीनशीन महंत दीनबंधु दास पर कई बार जानलेवा हमले हुए. लगातार हो रहे हमलों से वे इतने परेशान हुए कि गद्दी छोड़ कर अयोध्या में गुमनामी का जीवन बिताने लगे. सितंबर, 1995 में मंदिर परिसर में ही एक साधु नवीन दास ने अपने चार साथियों के साथ मिलकर गढ़ी के ही महंत रामज्ञा दास की हत्या कर दी थी. 2005 में दो नागा साधुओं ने किसी बात को लेकर एक-दूसरे पर बमों से हमला कर दिया था जिसमें दोनों को गंभीर चोटें आईं. 2010 में गढ़ी के एक साधु बजरंग दास और हरभजन दास की किसी ने गोली मारकर हत्या कर दी थी.

हनुमानगढ़ी के महंत प्रहलाद दास जब तक जीवित रहे तब तक उनकी पहचान लंबे समय तक ‘गुंडा बाबा’ के रूप में बनी रही. कारण यह था कि प्रहलाद पर फैजाबाद स्थानीय प्रशासन ने गुंडा एक्ट लगाया था. प्रहलाद पर हत्या समेत दर्जनों गंभीर अपराध दर्ज थे. 2011 में प्रहलाद दास की साधुओं के एक गैंग ने गोली मारकर हत्या कर दी.

यह तो हुई साधुओं के आपसी झगड़ों की बात. अयोध्या में पुलिस मुठभेड़ में मारे गए साधुओं की भी एक लंबी सूची है. पिछले साल ही हनुमानगढ़ी के संत हरिनारायण दास को पुलिस ने गोंडा के पास मुठभेड़ में मार गिराया था. हरिनारायण पर हत्या समेत कई अपराधों में शामिल होने का आरोप था. महंत रामप्रकाश दास 1995 में अयोध्या के बरहटा माझा इलाके में पुलिस की गोली से मरे थे. कई आरोपों से घिरे साधु रामशंकर दास भी पुलिस की गोली से मारे गए. पुलिस के सूत्र बताते हैं कि पिछले एक दशक में ही अयोध्या में 200 से अधिक संत-महंत मारे गए हैं.

क्यों चलते हैं संत अपराध की राह
संतों द्वारा अपराध करने के कई कारण हैं. जानकारों के मुताबिक सबसे बड़ा कारण है महंत बनने का लालच. वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह कहते हैं,‘आज अयोध्या के बुजुर्ग महंत डरे हुए हैं, उन्हें भय है कि पता नहीं किस दिन गद्दी हथियाने के लिए उनका चेला ही उनकी हत्या ना कर दे.’ साधु रामनारायण दास कहते हैं, ‘शिष्यों को आज इतनी जल्दी है कि महंत जी की सांस से पहले उनके सब्र का बांध टूट रहा है. वे खुद ही उन्हें परलोक पहुंचा दे रहे हैं. सभी को जल्द से जल्द महंत बनना है.’ अयोध्या में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें शिष्यों ने अपने गुरुओं को वास्तव में रास्ते से हटा दिया. ऐसे भी मामले हैं कि शिष्य ने गुरु को मृत दिखाकर धोखे से उनकी गद्दी हथिया ली. कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जहां शिष्यों ने महंत की गद्दी हथियाने के लिए गुरु को जबरन मंदिर से बाहर कर दिया.

जानकी घाट, बड़ा स्थान के महंत मैथिली रामशरण दास की सड़ी हुई लाश उनके कमरे में पाई गई थी. उनकी हत्या का आरोप उनके ही शिष्य जन्मेजय शरण पर है जो अब महंत बन गए हैं. रामखिलौना मंदिर की कथा भी कुछ ऐसी ही है. श्री बिदेहजा दुल्हा कुंज के साधु बिमला बिहारी शरण कहते हैं, ‘इस मंदिर के महंत पर उनके शिष्य शंकर दास ने दबाव डालकर मंदिर की महंती अपने नाम करा ली. उसके बाद उसने धक्का मारकर अपने गुरु को मंदिर के बाहर निकाल दिया. बेचारे गुरूजी अगले 10 साल तक सरयू के किनारे भीख मांगकर अपना गुजारा करते रहे.’

ऐसे भी उदाहरण हैं जहां गुरु कुछ समय के लिए अयोध्या से बाहर क्या गया, चेले ने गुरु के मरने की अफवाह फैलाकर मंदिर और महंतई पर कब्जा कर लिया. यही नहीं, उसने गुरूजी की याद में मृत्युभोज तक दे दिया. गुरु जब वापस आए तो कोई यह मानने को तैयार ही न था कि वे जिंदा हैं. (देखें बॉक्स)

दैनिक अखबार जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह बताते हैं कि अयोध्या में ऐसे महंत बड़ी संख्या में हैं जिन्होंने अपने गुरु की हत्या करके वह पद पाया है. अयोध्या के साधुओं में बढ़ती इस आपराधिक प्रवृत्ति पर वे कहते हैं,‘ जिस तरह से समाज में मान-सम्मान का आधार पैसा और सत्ता हो गया है, उससे ये साधु भी अछूते नहीं हैं. उन्हें भी सत्ता चाहिए, पैसा चाहिए और वह भी जल्द से जल्द. इन साधुओं ने भगवा चोला पहन रखा है, दाढ़ी बढ़ा ली है, टीका लगा लिया है लेकिन इससे ही कोई संन्यासी नहीं हो जाता. मन तो उनका मैला ही है.’

महंत बनने को लेकर कहीं शिष्यों की अपने गुरु से लड़ाई है तो कहीं महंत और मंदिर पर अपना एकाधिकार स्थापित करने को लेकर गुरुभाइयों (गुरु के शिष्य) में भी संघर्ष हो रहा है. ऐसी ही एक घटना ने कुछ साल पूर्व  पूरी अयोध्या को दहला दिया था. महंत स्वामी सुदर्शनाचार्य मुमुक्षु भवन के महंत हुआ करते थे. एक दिन अचानक वे मंदिर से गायब हो गए. काफी खोजबीन हुई लेकिन सब बेकार. गुरु की अनुपस्थिति में उनके एक शिष्य जीतेंद्र पाण्डेय मंदिर के महंत बने. अभी जीतेंद्र को महंत बने महीना भर भी नहीं बीता था कि एक दिन सुबह जीतेंद्र भी मंदिर से गायब पाए गए. लेकिन वे स्वामी सुदर्शनाचार्य की तरह अकेले गायब नहीं हुए थे बल्कि अपने साथ मंदिर का पूरा सोना-चांदी और पैसा लेकर चंपत हो गए थे.

खैर, महंत स्वामी सुदर्शनाचार्य के भाई हरिद्वार से अपने भाई के गायब होने की खबर सुनकर मंदिर आए. यहां आकर उन्होंने मंदिर में कुछ निर्माण कार्य कराना शुरू किया. एक दिन उन्होंने सीवर टैंक की साफ-सफाई करने के लिए मजदूरों को बुलाया. टैंक खोला गया तो उसमें ताजी सूखी मिट्टी भरी थी. उन्हें संदेह हुआ कि मिट्टी के नीचे कुछ है. उन्होंने तत्काल पुलिस को सूचना दी. पुलिस ने मिट्टी हटवाई तो उसमें से दो लोगों की लाशें मिलीं. लाशों को कई टुकड़ों में काटकर ठिकाने लगाया गया था. उनमें से एक दो महीने से गायब चल रहे महंत सुदर्शनाचार्य की लाश थी तो दूसरी उनकी शिष्या की. वर्तमान में मंदिर के महंत रामचंद्र आचार्य जो जीतेंद्र पाण्डेय के गुरुभाई थे, कहते हैं, ‘पुलिस ने जीतेंद्र को कुछ समय बाद गिरफ्तार कर लिया. पूछताछ में उसने स्वीकारा कि उसने ही भाड़े के गुंडों से महंत जी की हत्या करवाई थी. शिष्या की हत्या उसने इसलिए की क्योंकि वह गुरु जी की हत्या की गवाह थी. जीतेंद्र महंत बनने के लिए बेचैन था. उसे यह भी डर था कि कहीं महंत जी मुझे अपना उत्तराधिकारी न बना दें. महंत बनने के लालच ने उसे पागल बना दिया.’ राम जन्मभूमि मंदिर के सहायक पुजारी रहे रामचंद्र बताते हैं कि अयोध्या में महंती के लिए हत्या आम बात हो चुकी है.

लेकिन महंत बनने की लालसा साधुओं के अपराध करने का अकेला कारण नहीं है. अयोध्या में ऐसे मामलों की भी भरमार है, जहां दूसरे के मंदिर पर कब्जा करने और अपने आदमी को महंत बनाने के लिए तरह-तरह के आपराधिक षड़यंत्र रचे जा रहे हैं. ऐसा ही एक मामला रंग निवास मंदिर का है, जहां साधुओं के एक समूह ने एक महंत को उसके अपने मंदिर में ही घुसने से रोक दिया. दशकों तक उस मंदिर का महंत रहा यह व्यक्ति आज अयोध्या में दर-दर की ठोकरें खा रहा है. (देखें बॉक्स-3)

ऐसा नहीं है कि संत समाज  द्वारा अयोध्या में महंतों के चयन का कोई तरीका नहीं निकाला गया है. महंतों के चयन को लेकर पहले से ही परंपरा मौजूद है. सामान्य प्रक्रिया तो यह है कि महंत अपने जीते जी किसी शिष्य को महंत बना दे या यह कह दे कि उसके बाद अमुक शिष्य ही उसका उत्तराधिकारी होगा. अगर ऐसा नहीं होता तो अयोध्या के संतों की एक समिति उस मंदिर के लिए अगले महंत का चुनाव करती है. इसमें अयोध्या के अलग-अलग मठ-मंदिर के संत-महंत होते हैं.

यहीं से तो लॉबीइंग या लामबंदी की शुरुआत होती है. एक तरफ तमाम संत महंत बनने के लिए समिति के महंतों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं तो दुसरी तरफ समिति के सदस्य अर्थात महंत अपने किसी विश्वासपात्र को उस मंदिर का महंत बनाने के लिए जोड़-तोड़ शुरू कर देते हैं, ताकि अयोध्या में उनके प्रभाव का और विस्तार हो सके. इस प्रक्रिया में साम दाम दंड भेद, हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं.

अयोध्या निवासी एक ठेकेदार अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, ‘मेरे एक मित्र हैं जो अयोध्या के एक मंदिर में संत थे. उनके गुरु जी का देहांत हो गया. गुरु जी ने अपने मरने से पहले किसी भी शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था. सो अब मामला संतों की कमिटी के पास चला गया. महंत नियुक्त करने के लिए समिति बनी जिसमें चार सदस्य थे. मेरे साधु मित्र ने मुझसे संपर्क किया और महंत बनने की अपनी इच्छा प्रकट की. हालांकि उस समय मंदिर में उनसे वरिष्ठ और कई संत थे. खैर, जो समिति महंतों की नियुक्ति के लिए बनी थी. उसके दो सदस्य मेरे साधु मित्र के पक्ष में थे. बाकी दो विरोध में. ऐसे में उन दोनों में से किसी एक को भी तोड़ लिया जाता तो उनका काम हो जाता.’

वे आगे बताते हैं, ‘मैंने उस दिशा में काम करना शुरू किया. उस समय नोकिया का नया-नया मोबाइल फोन आया था. उन दिनों अयोध्या के किसी साधु के पास मोबाइल नहीं था. मैं एक मोबाइल खरीदकर कमिटी के सदस्य और विरोध में चल रहे महंत के पास गया और कहा, ‘महाराज जी, इस मोबाइल के सिर्फ पांच सेट भारत आए हैं. छठा मैंने विदेश से खास आपके लिए मंगाया है. आप भारत में छठे आदमी होंगे जिसके पास ये मोबाइल है.’  महाराज जी ने पहले तो थोड़ा संदेह से देखा फिर अपने हाथों में लेकर सेट को उलटने-पलटने लगे. फिर अपने सिरहाने रख लिया. थोड़ी देर बाद गंभीर होकर कहा, ‘काम बताओ?’ मैंने उनसे कहा, ‘महाराज जी, ‘शंभुदास (बदला हुआ नाम) वहां के महंत बनना चाहते हैं, आपका आशीर्वाद चाहिए. बाबा मोबाइल को एक नजर देखने के बाद उठे और बोले इससे भी बढ़िया वाला आए तो लेते आना. इतना कहकर वे संतों की मीटिंग में चले गए जहां महंत का चुनाव होना था. मीटिंग में तीन-एक से मेरे साधु मित्र के पक्ष में प्रस्ताव पास हो गया. वे महंत बन गए.’

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‘उन साधुओं ने बहन को मार दिया, हमारी आंख फोड़ दी’

12 नवंबर, 1998. सुबह के छह बजे का वक्त था. फैजाबाद शहर से पांच किमी दूर गुप्तार घाट के पास रहने वाले मोहन निषाद की नींद गोलियों की आवाज और लोगों की चीख-पुकार से खुली. बाहर जाकर देखा तो उन्हें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हुआ. मल्लाहों के इस गांव में चार साधु हाथों में बंदूक लिए हुए घूम रहे थे. उनके सामने जो भी पड़ता वे उसे गोली मारते हुए आगे बढ़ जाते. मोहन कहते हैं, ‘एक साधु ने ढोडे निषाद को गोली मारी और वह जमीन पर गिर गया तो उसने अपनी तलवार से उसके हाथ काट दिए.’ रामजी निषाद और लालजी निषाद नाम के दो भाई भी इन साधुओं के सामने पड़े. वे भी गोली का शिकार हुए. गोली लालजी की आंख में लगी. उनकी आंख फूट गई. रामजी को लगी गोली उनकी बाईं आंख छूकर निकल गई और उनकी भी उस आंख की रोशनी चली गई. राम जी और लालजी की 15 वर्षीया बहन को भी बाबाओं ने गोली मारी. उसकी मौके पर ही मौत हो गई. उसी हमले में सुग्रीव निषाद को भी हाथ में गोली लगी. साधुओं द्वारा मचाए गए उस कत्लेआम में चार लोग मारे गए. दर्जन भर से अधिक लोग बेहद बुरी तरह घायल हुए थे.

गांव के ही झिंगुर निषाद कहते हैं, ‘वे पांचों हत्यारे गुप्तार घाट स्थित यज्ञशाला पंचमुखी हनुमान मंदिर के साधु थे. मौनीबाबा मंदिर का महंत था. घटना होने के कुछ समय पहले से उसने मछुवारों की इस बस्ती के लोगों को कहना शुरू कर दिया था कि तुम लोग जिस जमीन पर बसे हो वह मंदिर की है, इसे खाली कर दो.’ मोहन कहते हैं, ‘वे साधु लगभग रोज बंदूक और हथियारों के साथ बस्ती में आते और लोगों को बस्ती खाली नहीं करने पर अंजाम भुगतने की धमकी देकर जाते.’

खैर, बाबाओं की धमकियों से लोग परेशान तो थे लेकिन किसी को आशंका नहीं थी कि ये लोग ऐसा करेंगे. बाबाओं के दुस्साहस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांववालों को मारने-काटने के बाद जब पांचों मोटरसाइकिल से भागकर फैजाबाद से करीब 10 किलोमीटर दूर पहुंच चुके थे तो इन्हें पुराकलंदर थाने के पास पुलिस ने घेरा. उस पुलिस टीम पर भी उन्होंने फायरिंग की. लेकिन अंततः वे पकड़े गए. जेल गए. मामला कोर्ट में चलने लगा. उस दौरान उन पांचों को जमानत मिल गई. निचली अदालत में सुनवाई चलती रही. कुछ समय बाद कोर्ट का फैसला आया. कोर्ट ने अपने फैसले में पांचों साधुओं को आजीवन कारावास की सजा सुनाई. उस समय ये पांचों जमानत पर थे. सजा के बारे में पता चलने के बाद वे फरार हो गए. आज तक न वे खुद लौटे न पुलिस उनमें से किसी को गिरफ्तार कर पाई. सभी पर पचास-पचास हजार रुपये का इनाम है.

आज भी इन मल्लाहों को धमकियां मिलती रहती हैं. मोहन कहते हैं, ‘अलग-अलग लोग आकर कहते रहते हैं कि सुलह कर लो तुम लोग. केस वापस ले लो नहीं तो उनका क्या है, वे फिर तुम्हें मार सकते हैं. इसके अलावा याज्ञवल्क्य मंदिर के नए महंत चंदा महाराज जो मोहन दास के स्थान पर महंत बने हैं, अब वे भी उसी अंदाज में धमकाते हैं जिस तरह मोहन दास धमकाते थे कि जिस जमीन पर तुम लोग बसे हो वह मंदिर की जमीन है. उसे खाली कर दो नहीं तो अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहना.’

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मोबाइल से महंती मिलने की यह कहानी अपवाद नहीं है. स्थानीय साधु और लोग बताते हैं कि कोई भी साधु पैसा खर्च करके यहां किसी भी मंदिर या मठ का महंत बन सकता है. महंत युगल किशोर शरण शास्त्री कहते हैं,  ‘ऐसे साधुओं का एक बड़ा गिरोह अयोध्या में काम कर रहा है जो किसी को भी पैसा और बाहुबल के दम पर महंत बनवा सकते हैं. जो जितनी अधिक बोली लगा रहा है, वह महंती पा रहा है.’

अयोध्या में कई अपराधों की वजह विभिन्न आश्रमों के बीच होने वाली प्रतिद्वंद्विता भी रही है. संत रघुवर शरण कहते हैं, ‘मेरा भगवान और मेरा स्थान तेरे भगवान और तेरे स्थान से ज्यादा सिद्ध और प्रभावशाली है, इस मानसिकता के साथ लोग अपने मठ और मंदिर चला रहे हैं. पंडों के माध्यम से अपने मंदिर-मठ को सिद्ध ठहराने का चलन जोरों पर है.’ विभिन्न मंदिरों से जुड़े पंडों की एक बहुत बड़ी तादाद है. ये पंडे एक निश्चित कमीशन पर काम करते हैं. रघुवर शरण बताते हैं, ‘मंदिरों ने पंडों को ठेका दे रखा है कि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों को उनके मंदिर ले आएं. इसमें भी महंतों के बीच प्रतिद्वंद्विता है. एक महंत अगर एक श्रद्धालु लाने के एवज में पंडे को 100 टके पर 30 टके देता है तो दूसरा कहेगा हम 35 देंगे हमारे यहां लाओ. जब इस तरह की मंडी सजी हो तो आप अध्यात्म और धर्म की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं.’

अपराधी, साहूकार और….
अयोध्या में हो रहे अपराधों की एक अहम वजह यह भी है कि अपराधी भी भगवा चोले की आड़ लेने लगे हैं. हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञान दास कहते हैं, ‘साधु-संतों के नाम पर अपराधी लोग अयोध्या में आकर बस गए हैं. ये साधु का भेष बनाकर लोगों को ठगते हैं. अब जो साधु के रूप में अपराधी हैं वे आज नहीं तो कल अपना रंग दिखाएंगे ही.’

अयोध्या में अपराधियों के साधु का वेश बनाकर शरण लेने का भी एक लंबा इतिहास रहा है. इसकी शुरुआत बिहार में बेगूसराय के कुख्यात गैंगेस्टर रहे कामदेव सिंह से हुई. उस पर अपने क्षेत्र के तमाम वामपंथियों की हत्या का आरोप था. कामदेव ने लंबे समय तक साधु का भेष बनाकर अयोध्या में ही शरण ली थी. बिहार में अपराध करके वह अयोध्या आ जाता था और साधु बन जाता था. 1983 में उसकी पुलिस से मुठभेड़ में मौत हुई थी. हत्या करने के बाद साधु का भेष धारण करके अयोध्या में छिपने का कामदेव का आइडिया तमाम अपराधियों को पसंद आया. पुलिस के एक अधिकारी कहते हैं, ‘कामदेव से शुरू हुई यह परंपरा बहुत तेज गति से आगे बढ़ती गई. आगे और अपराधियों ने अयोध्या को अपनी शरणस्थली बनाया. उन्हें पता था कि पुलिस कभी किसी मठ पर छापा नहीं मारेगी. और उनसे उनके पिछले जीवन के बारे में कोई नहीं पूछेगा क्योंकि ऐसा करना साधु का अपमान माना जाता है. और वे बिना अपना नाम-पता और इतिहास बताए आराम से किसी मंदिर में शरण ले सकते हैं.’ ‘मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा’  कबीर की इस कहावत को सही ठहराते हुए बड़ी संख्या में अपराधियों ने अपने काले कर्मों पर भगवा रंग चढ़ा लिया. वरिष्ठ अधिवक्ता रंजीत लाल वर्मा कहते हैं, ‘आज अयोध्या के अधिकांश मंदिर उन अपराधियों के लिए शरणस्थली बने हुए हैं जो देश के किसी भी हिस्से में अपराध करके आने के बाद यहां आकर साधु का वेश बनाकर छिप जाते हैं. अगले 10 से 15 सालों में या तो वो अपने राजनीतिक आकाओं की मदद से महंत बन जाते हैं या फिर वापस अपने शहर चले जाते हैं जहां उन पर दर्ज मामले ठंडे बस्ते में चले गए होते हैं.’

जानकार बताते हैं कि कामदेव की मौत के बाद उसके गिरोह के कई सदस्यों ने साधु का वेश धारण किया और हमेशा के लिए अयोध्या चले आए. उन लोगों में राम कृपाल दास नामक अपराधी भी शामिल था जिसे बम बनाने में महारत हासिल थी. राम कृपाल दास ने अयोध्या में आकर अपराध का अपना साम्राज्य स्थापित किया. यहां वह हनुमानगढ़ी में बसंतिया पट्टी के महंत लक्ष्मण दास का शिष्य बना. संत रामसुभग दास कहते हैं, ‘वह तो अपराध का व्यापारी था. रामकृपाल ने अयोध्या में अपराध को न सिर्फ स्थापित किया बल्कि उसे एक सफल व्यापार बना डाला. उसको देखकर कई लोग अपराध की तरफ आकर्षित हुए.’ रामकृपाल अयोध्या में हत्या, जमीन और मंदिर पर कब्जा, साधु-संतों से फिरौती वसूलने समेत तमाम आपराधिक मामलों में शामिल था. स्थानीय लोग बताते हैं कि उसकी दहशत इतनी थी कि उसे अपने मंदिर की तरफ आते देख साधु-संत भाग खड़े होते थे. रामकृपाल की 1996 में हत्या हो गई.

पिछले कुछ सालों में अयोध्या के साधुओं पर अपराधियों को पनाह देने के भी आरोप लगे हैं. लंबे समय तक फैजाबाद जिले में पदस्थ रहे पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘कुख्यात अपराधी श्रीप्रकाश शुक्ला जिस पर दो लाख का इनाम था उसने बीएसपी नेता बीरेंद्र प्रताप शाही की हत्या करने के बाद लंबे समय तक यहीं के एक मठ में एक बड़े महंत के पास शरण ली थी. यह कोई पहली बार नहीं था. इसके बाद जब उसने लखनऊ में एक पुलिस अधिकारी की हत्या की उसके बाद फिर वह यहीं आकर छिपा था. यह उसका सुरक्षित ठिकाना था.’ सूत्र बताते हैं कि यहीं के एक बड़े महंत के कहने पर ही शुक्ला ने 1996 में महंत रामकृपाल दास की हत्या की थी. रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर मुखिया के बारे में भी स्थानीय लोग बताते हैं कि कैसे उसका बिहार के एक महंत के आश्रम पर आना-जाना था जहां वह महीनों रुका करता था.

महंत गौरीशंकर दास कहते हैं, ‘बहुत-से बाबा अयोध्या में ऐसे हैं जिन्हें भले अपराधियों से कोई काम नहीं कराना है, लेकिन उन्हें अपराधियों को भोजन कराने में ही मजा आता है.’ स्थानीय लोग बताते हैं कि कैसे बाबाओं में इस बात को लेकर होड़ रहती है कि किसके पास कितना बड़ा अपराधी शरण लिए हुए है. इससे अयोध्या के बाकी साधुओं में उनकी धाक जमती है. वे रोब गांठते हैं कि इतने बड़े अपराधी हैं, लेकिन हमारे यहां शरण लेने आए हैं. पुलिस के एक अधिकारी कहते हैं, ‘जिस तरह से नेता अपराधियों की मदद से अपना काम कराते हैं, उसी तर्ज पर अयोध्या के साधुओं ने भी अपराधियों की सहायता लेनी शुरू कर दी है.’ अयोध्या के साकेत कॉलेज में हिंदी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर और सामाजिक कार्यकर्ता अनिल सिंह कहते हैं, ‘अयोध्या की स्थिति दिनों-दिन और खराब होती जा रही है. साधुवेश में अधिकांश अपराधी यहां घूम रहे हैं. अयोध्या के कई बाबा विभिन्न अपराधों के साथ ही काले धन को सफेद बनाने के धंधे में भी लगे हैं.’ अनिल की बात को आगे बढ़ाते हुए महंत बिमला बिहारी शरण कहते हैं, ‘आज अयोध्या संतों से नहीं बल्कि भगवाधारी गुंडों से पटी पड़ी है.’ खुफिया विभाग के एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि अयोध्या में रहने वाले 90 फीसदी के करीब संत फर्जी हैं. इनमें से अधिकांश अपराधी हैं, जिनकी पृष्ठभूमि के बारे में किसी को कुछ नहीं पता. रामजन्मभूमि स्थान के महंत आचार्य सत्येंद्र दास कहते हैं, ‘पहले जब कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए आता था तो उसकी परीक्षा होती थी कि वह शिष्य बनने लायक है या नहीं. उसकी ट्रेनिंग होती थी. उसे पढ़ाया जाता था. जब तय हो जाता था कि सामने वाला शिष्य बनने की काबिलियत रखता है तब उसे लोग शिष्य बनाते थे. अब तो यह हो गया है कि आप आज आए और कल साधु बन गए. आपके चरित्र का किसी को पता नहीं.’

सूद पर दिया जाने वाला पैसा भी संतों की दुनिया में फैले अपराध का एक पहलू है. ब्याज पर पैसे देने का काम अयोध्या में बहुत लंबे समय से चल रहा है जिसमें हनुमानगढ़ी के संत-महंतों की एक प्रमुख भूमिका रही है. रंजीत वर्मा कहते हैं, ‘मठों -मंदिरों की कमाई लाखों-करोड़ों में है. खर्च कोई है नहीं, इसलिए साधुओं ने पैसे सूद पर चलाने की परंपरा की शुरुआत की. जैसे-जैसे मंदिरों में चढ़ावा बढ़ा उसी अनुपात में वहां अपराध भी बढ़ा.’ वे आगे कहते हैं, ‘एक समय था जब यहां के साधुओं के पांवों में चप्पल तक नहीं हुआ करती थी लेकिन आज इन्हीं संतों के पास कैश में 2-4 करोड़ रुपये सड़ते हुए आपको मिल जाएंगे.’ सूद पर पैसे देने की यह परंपरा भी धीरे-धीरे यहां अपराध का एक बड़ा कारण बन गई. मनमाना ब्याज लगाने से लेकर कई ऐसी भी घटनाएं हुईं जहां नागा साधु आधी रात को बकायेदार के घर पर पहुंच जाते, पैसा न देने पर उसे मारते-पीटते और उसके घर का सामान उठा कर ले आते.  रंजीत वर्मा बताते हैं कि पैसा वापस न लौटा पाने के कारण कई लोगों की हत्याएं भी हुईं. साधुओं की गुंडागर्दी और कर्जदारों की हत्याओं के चलते बाद में प्रशासन थोड़ा सख्त हुआ और उसने कर्ज बांटने वाले बाबाओं को लाइसेंस बांट दिया.

संतों की दुनिया में अपराध आया तो उसकी पूंछ पकड़कर राजनीति भी पहुंचनी ही थी.  हाल ही में हनुमानगढ़ी में दो गुटों के बीच जो फायरिंग हुई थी उसमें से एक गुट के मुखिया भावनाथ दास यूपी में सत्तारुढ़ समाजवादी पार्टी की संत शाखा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे तो दूसरी तरफ के महंत हरिशंकर दास पहलवान विश्व हिंदू परिषद यानी वीएचपी के माध्यम से भाजपा समर्थित. इस तरह अयोध्या के अधिकांश संत-महंत विभिन्न राजनीतिक दलों में बंटे हुए हैं.

जानकार बताते हैं कि अयोध्या में अपराध का प्रवेश तो बहुत पहले ही हो चुका था लेकिन उसको गति बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मिली. 80 वर्षीय साधु हरिनारायण दास कहते हैं, ‘बाबरी टूटने के बाद यहां पैसा और अपराधी दोनों आए. पहले किसी को अयोध्या से मतलब नहीं था लेकिन बाबरी के बाद ये जगह गिद्धों की नजर में आ गई और वे बाबा का भेष बनाकर अयोध्या आ गए.’

अयोध्या में ऐसे साधुओं की बड़ी तादाद है जो अयोध्या के अपराधीकरण के लिए विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) को जिम्मेदार ठहराते हैं. उन्हीं में से एक हैं अखाड़ा परिषद के महंत ज्ञान दास. वे कहते हैं, ‘अयोध्या के साधुओं को शैतान बनाने में वीएचपी की प्रमुख भूमिका रही है.’ जानकार बताते हैं कि अयोध्या में वीएचपी ने साधु समुदाय को अपनी मुट्ठी में करने का भरपूर प्रयास किया. बड़ी संख्या में संत और महंत वीएचपी खेमे में गए भी. विभिन्न मंदिरों में जब-जब उत्तराधिकार, संपत्ति आदि को लेकर लड़ाई हुई तो वीएचपी ने किसी एक धड़े को अपना समर्थन दे दिया. कई ऐसे मामले आए जहां वीएचपी ने मंदिरों में या तो अपने लोगों को महंत बनवाया या फिर जिसे अपने बाहुबल और धनबल का प्रयोग करके बनवाया वह फिर वीएचपी के खेमे में चला आया. जानकारों का एक वर्ग अयोध्या के अपराधीकरण को मंदिर आंदोलन से जोड़ कर देखने की बात करता है. रंजीत वर्मा कहते हैं, ‘मंदिर आंदोलन का पूरे देश पर क्या-क्या प्रभाव पड़ा, इसको लेकर तो काफी काम हुआ. लेकिन उस आंदोलन ने अयोध्या के साधु समाज पर क्या असर डाला इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ.’

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गुरू गायब, चेला नायब

बृजमोहन दास अयोध्या के रामकोट स्थित चौभुर्जी मंदिर के महंत हैं. कुछ साल पहले तक इस मंदिर के महंत रामआसरे दास हुआ करते थे. सात साल पहले वे बिहार चले गए और फिर कभी नहीं लौटे. वे अपनी खुशी से नहीं गए थे. उन्होंने अपने शिष्य बृजमोहन पर जानलेवा हमला करने का आरोप लगाया था. अयोध्या के संत रामजानकी दास बताते हैं, ‘रामआसरे दास का आरोप था कि बृजमोहन ने मंदिर की संपत्ति और महंती से जुड़े कागजात पर धोखे से उनके हस्ताक्षर ले लिए. इन पर लिखा था कि वे चौभुर्जी मंदिर के महंत का पद छोड़ रहे हैं और उनके बाद बृजमोहन महंत होंगे.’

एक साल तक सबकुछ शांति से चला लेकिन उसके बाद बृजमोहन ने अपने गुरु रामआसरे से यह कहना शुरू किया कि वे अब यहां से निकल जाएं क्योंकि मंदिर और महंती दोनों उनके हाथ से जा चुके हैं. महंत सुधाकर दास (बदला हुआ नाम) कहते हैं, ‘पहले तो रामआसरे जी समझ नहीं पाए लेकिन जब समझे तो आपे से बाहर हो गए. उन्होंने कहा कि वे कहीं भी जाने वाले नहीं हंै. उसके कुछ दिन बाद ही उन पर जानलेवा हमला किया गया.’ यह 2011 की बात है.

रामआसरे हमले के बाद बिहार चले गए. एक स्थानीय पत्रकार सुनील यादव (बदला हुआ नाम) कहते हैं, ‘बीच में एक बार रामआसरे जी आए थे लेकिन बृजमोहन ने उन्हें मंदिर में घुसने नहीं दिया. मामला पुलिस के पास गया. लेकिन धन-बल की मदद से वीएचपी के अयोध्या प्रभारी बृजमोहन उन पर भारी पड़े.’

हालांकि बृजमोहन अपने ऊपर लगे आरोपों को न सिर्फ सिरे से खारिज करते हैं बल्कि वे तो कहते हैं कि उनके गुरु ने भूमाफियाओं के साथ मिलकर मंदिर की पूरी संपत्ति बेचने की तैयारी कर ली थी. वे कहते हैं, ‘मैंने इसका विरोध किया तो उन्होंने मुझ पर अपनी हत्या की कोशिश का आरोप लगा दिया.’ हालांकि बृजमोहन इस बात का जवाब नहीं दे पाते कि जब उनके गुरु जिंदा हैं और वे इस बात से इनकार करते हैं कि उन्होंने बृजमोहन को अपनी महंती सौंपी है तो वे महंत कैसे हो गए.

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हथियार, अपराध और नातेदारी
जब संत और महंत हत्या और अन्य तरह के विभिन्न अपराधों में शामिल हैं तो हथियारों से उनका जुड़ाव होना स्वाभाविक है. पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘अयोध्या के बाबाओं के बीच हथियार और गनर रखने की होड़ मची है. हथियारों को लेकर प्रेम ऐसा है कि अधिकांश बाबाओं और उनके चेलों के पास लाइसेंसी बंदूकें हैं. यहां वैध हथियारों से कई गुना ज्यादा अवैध असलहों की खपत है.’ खुफिया विभाग के एक अधिकारी बताते हैं, ‘चूंकि मठे-मंदिरों में पुलिस तलाशी लेती नहीं है, इसलिए ये हथियारों के सबसे सुरक्षित अड्डे बने हुए हैं. अगर कोई सरकार मठ-मंदिरों की तलाशी करा दे तो मंदिरों से ट्रक भरकर हथियार और असलहे मिलेंगे लेकिन किसी में हिम्मत है नहीं कि वह इन बाबाओं के मंदिरों और मठों पर छापा मार सके. यहां कई बाबा हैं जो अवैध हथियारों के धंधे में हैं, जो बिहार के मुंगेर से हथियार मंगाकर यहां साधुओं को बेच रहे हैं, जिनके पास हर तरह का हथियार आपको आसानी से मिल सकता है.’ कुछ समय पहले ही स्थानीय पुलिस ने लंबे समय से हथियारों की तस्करी में शामिल रहे तीन साधुओं सुदामा दास, बजरंग दास और लक्ष्मण दास को अमेरीकी रिवॉल्वर समेत कई अत्याधुनिक अवैध हथियारों के साथ गिरफ्तार किया था. हाल ही में हनुमानबाग के महंत जगदीश दास को फर्जी पते पर हथियार का लाइसेंस लेने के आरोप में जेल की हवा खानी पड़ी.

साधुओं में गनर रखने को लेकर भी होड़ मची है. कृष्ण प्रताप कहते हैं, ‘एक समय था जब यहां के बाबाओं के बीच इस बात को लेकर होड़ थी कि किसको प्रधानमंत्री प्लेन से दिल्ली बुलाते हैं. आज इनके बीच इस बात को लेकर प्रतियोगिता चल रही है कि किसके पास कितने अधिक गनर हैं.’  हनुमानगढ़ी की उज्जैनिया पट्टी के महंत संत रामदास कहते हैं, ‘सब ड्रामा है. जिसको कुत्ता भी रोड पर नहीं पूछ रहा है, वह गनर लेने को बेताब है. अजोध्या में किसी को गनर की जरूरत नहीं है. अरे साधु को किससे खतरा?  अब किसी को सौख है तो क्या किया जाए.’

कुछ ऐसे बाबा भी हथियार लेने की लाइन में लगे हैं जिनकी पहचान संत से ज्यादा एक दुर्दांत अपराधी के रूप में है. कुछ समय पहले ही जानकी घाट, बड़ा स्थान के रसिक पीठाधीश्वर महंत जन्मेजय शरण ने केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय को पत्र लिखा. कहा कि उनकी जान को खतरा है इसलिए मंत्रालय उन्हें जल्द से जल्द गनर उपलब्ध कराए. उनकी इस मांग के समर्थन में फैजाबाद से कांग्रेस सांसद निर्मल खत्री ने भी गृह मंत्री को पत्र लिखा. जन्मेजय शरण पर अपने 75 वर्षीय गुरु मैथिली रमन शरण की निर्मम तरीके से हत्या करके गद्दी हथियाने का आरोप है. कई लाइसेंसी हथियारों के मालिक जन्मेजय शरण पर हत्या, हत्या के प्रयास, डकैती, चोरी, लूट, डकैती, धोखाधड़ी समेत कई गंभीर मामले भी दर्ज हैं. एक मामला 19 फरवरी 2004 का है जब जन्मेजयशरण ने अयोध्या के एक रहवासी परमानंद मिश्र के घर पर हमला कर दिया था. परमानंद कहते हैं, ‘जन्मेजय कहते थे कि ये जमीन उनके गुरु की है. इसलिये मैं उसे खाली कर दूं जबकि मेरे पास इस जमीन से जुडे सारे कागजात हैं.’ 19 फरवरी को अपने घर पर हुए हमले के बारे में बताते हुए परमानंद कहते हैं, ‘मैं कहीं बाहर गया था. घर पर मेरी पत्नी और दो बच्चे थे. 12 बजे दोपहर को अपने एक दर्जन से अधिक लोगों के साथ जन्मेजय शरण ने मेरे घर पर हमला कर दिया. मेरी पत्नी को मारा-पीटा. घर का सारा सामान निकाल कर बाहर फेंक दिया. घर का गेट तोड़ दिया और मेरे चार साल के बच्चे को कुएं में फेंक दिया.’ हालांकि जन्मेजय शरण अपने ऊपर लगे सभी आरोपों को नकारते हुए कहते हैं, ‘देखिए, परिस्थिति महत्वपूर्ण होती है. खास परिस्थिति में कोई कुछ भी कर सकता है. आत्म रक्षा के लिए गोली मारना कहां गलत है?’

अयोध्या में शराब प्रतिबंधित है. लेकिन शायद सिर्फ कागजों पर. यहां उसकी कमी किसी को महसूस नहीं होती. न आम लोगों को और न ही साधु समाज को. संत प्रेमनारायण दास कहते हैं, ‘साधु समाज के लोगों को सरयू किनारे शराब का सेवन करते देखना अयोध्या के लोगों के लिए कोई अचरज भरी बात नहीं रही. स्थानीय लोग बताते हैं कि कैसे अयोध्या में शराब के इस कारोबार में साधु समाज की महत्वपूर्ण भूमिका है. प्रेमनारायण दास कहते हैं,  ‘अयोध्या में शराब और अन्य नशीले पदार्थों की खपत और रामनगरी में इसकी आवक तेजी से बढ़ी है. इसे खरीदने और बेचनेवाले दोनों भगवाधारी लोग ही हैं.’ फैजाबाद में एसएसपी रहे और वर्तमान में बरेली के डीआईजी आरके एस राठौड़ अपना एक अनुभव बताते हुए कहते हैं, ‘हमें एक बार खबर मिली कि अयोध्या में कोई आदमी शराब बेच रहा है. जब हमने उसे पकड़ा तो वह एक मंदिर का साधु निकला.’

अयोध्या में ऐसे बाबाओं की भी एक बड़ी संख्या है जो दुनिया के सामने अविवाहित बने हुए हैं, लेकिन वे न सिर्फ शादीशुदा हैं बल्कि बाल-बच्चे वाले भी हैं. एक साधु नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘यहां बहुत कम बाबा हैं जो लंगोट के पक्के हैं. नहीं तो यहां अधिकांश ऐसे बाबा हैं जिन्होंने शादी कर ली है. और बाल बच्चेदार हैं. कई तो ऐसे हैं जिनकी प्रेमिकाएं हैं. उनकी तादाद भी कम नहीं है जो शरीर की चाह में तमाम तरह के लोगों को अपने आश्रम में ठिकाना दे रहे हैं.’ युगल किशोर कहते हैं, ‘अयोध्या में पिछले कुछ सालों में वेश्यावृत्ति बेहद तेजी से बढ़ी है. ठीक उसी अनुपात में जिस अनुपात में बाबाओं के यहां पैसा बढ़ा.’  रंजीत वर्मा कहते हैं, ‘अगर यह तय हो जाए कि शादीशुदा साधुओं को बाहर निकाला जाएगा तो 90 फीसदी बाबा अयोध्या से बाहर हो जाएंगे.’ बाबाओं के दोहरेपन का एक उदाहरण देते हुए वे बताते हैं, ‘बड़ा स्थान के साधु रघुवर प्रसाद की दो-दो पत्नियां थीं लेकिन साधुओं के अविवाहित रहने के महत्व पर सबसे ज्यादा वही बोलते थे.’  प्रेमिका से मिलने के चक्कर में हनुमानगढ़ी के रामशरण दास, जिन पर हत्या समेत कई गंभीर मामले दर्ज थे, पुलिस मुठभेड़ में मारे गए. उनको पुलिस ने 1991 में तब मार गिराया था जब वे फैजाबाद में अस्पताल में भर्ती अपनी प्रेमिका को देखने जा रहे थे.

संत-महंतों का शादी करना और उनके बच्चे होना भी अहम बात बताई जाती है जिसके चलते शिष्य अपने गुरुओं की हत्या या उनके खिलाफ षडयंत्र रच रहे हैं. साधु हरिप्रसाद कहते हैं, ‘पहले ऐसा होता था कि संत अविवाहित रहते थे. उनका शिष्य ही उनका उत्तराधिकारी होता था. अब स्थिति ऐसी हो गई है कि तमाम संत-महंत शादी कर रहे हैं. उनके बच्चे हैं. उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्य की जगह उनकी संतान उत्तराधिकारी बन रही है. इस कारण तमाम शिष्य अपने गुरुओं से नाराज हैं. ऐसे कई महंतों के खिलाफ उनके शिष्य पूर्व में मोर्चा खोल चुके हैं.’ सिर्फ यही नहीं कुछ साधुओं के ऊपर बाल यौनशोषण के भी आरोप यहां नए नहीं हैं. दिसंबर 2008 में पुलिस ने सीता भवन मंदिर के महंत गंगाराम शरण को एक रिक्शा चालक के आठ वर्षीय बेटे के साथ दुष्कर्म करने के मामले में गिरफ्तार किया. रिक्शा चालक का कहना था कि महंत पिछले कई महीनों से उसके बच्चे को प्रसाद देने के बहाने अपने कमरे में ले जाकर दुष्कर्म करता था.

वरिष्ठ साधुओं में एक और खास चलन भी देखा गया है जिसने गुरु-शिष्य के बीच तनाव पैदा करने का काम किया है. महंत अपने परिवार के लोगों को अपना उत्तराधिकार सौंप रहे हैं. तमाम महंतों ने अपने भतीजे या अन्य रिश्तेदारों को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया है. कई संत इसके पीछे एक दिलचस्प कारण बताते हैं. उनके मुताबिक जब महंती के लिए गुरुओं की हत्याएं होने लगीं तो संतों ने सोचा कि अगर मंदिर की कमान परिवारवालों के हाथ में होगी तो कम से कम वे उनकी हत्या तो नहीं करेंगे.

मंदिरों और मठों से जुड़ी संपत्तियों पर कब्जा करने तथा उनकी खरीद-फरोख्त से जुड़ा एक बड़ा गिरोह अयोध्या में सक्रिय है. इसे चलाने वाले अधिकांश लोग साधु बिरादरी से ही हैं. बिमला शरण कहते हैं, ‘जिस मंदिर को शंकर दास ने अपने गुरु से छीना था उसे उसने कुछ समय बाद बेच दिया.’ जानकार बताते हैं कि ऐसे  शंकर दासों से अयोध्या भरी पड़ी है. भूमाफिया भी बहुत तेजी से अयोध्या में सक्रिय हुए हैं. ऐसे लोगों की नजर मंदिरों और मठों की हजारों करोड़ की जमीन और संपत्ति पर होती है जो देश के कई हिस्सों में फैली हुई है. अयोध्या के अधिकांश मंदिरों की संपत्ति किसी व्यक्ति के नाम नहीं वरन उस मंदिर में विराजमान भगवान के नाम पर है. इस कारण से जो आदमी उस मंदिर का महंत बनता है वह स्वाभाविक रूप से उस मंदिर की जमीन-जायदाद का मालिक बन जाता है. कृष्ण प्रताप कहते हैं, ‘पूरी अयोध्या में मंदिरों को बेचने-खरीदने का काम बहुत धड़ल्ले से चल रहा है.’

अधिवक्ता रंजीत वर्मा बताते हैं कि फैजाबाद कोर्ट में दीवानी के मामलों में से लगभग 90 फीसदी मामले अयोध्या के हैं और इन 90 फीसदी में से 99 फीसदी बाबाओं से जुड़े हैं. ज्यादातर मामले महंती और संपत्ति को लेकर ही हंै. यहां का लगभग हर मठ मंदिर और साधु किसी न किसी कानूनी विवाद में फंसा हुआ है.

साधुओं की लड़ाई में जाति की भी अहम भूमिका है. साधुओं में कोई भूमिहार जाति से है, कोई ठाकुर है, कोई ब्राह्मण तो कोई यादव. एक जाति से आने वाले बाबा दुसरी जाति के बाबा को नीचा दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते. अयोध्या में जाति ने अपनी किस तरह से पैठ बनाई है उसका प्रमाण आपको वहां के जातियों के मंदिर के रूप में भी मिलेगा. नाऊ मंदिर, बढ़ई मंदिर, विश्वकर्मा मंदिर, संत रविदास मंदिर, हलवाई मंदिर, धोबी मंदिर, चित्रगुप्त मंदिर समेत तमाम जातियों के वहां मंदिर हैं. तहलका से बातचीत में एक दूसरे संत पर अपनी हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाने वाले एक बाबा उस संत के बारे में कहते हैं, ‘हम तो उससे कहे कि बेटा अगर तुम बिहार के भूमिहार हो तो हम भी यूपी के बाभन हैं. तुम्हें तुम्हारी औकात में लाने में हमें बस दो मिनट का समय लगेगा. उतने में ही तुम थिरा जाओगे.’

अयोध्या में पुलिस और प्रशासन की भूमिका भी बेदह दिलचस्प है. प्रशासनिक अधिकारियों का एक तबका ऐसा है जो यहां पोस्टिंग होने पर सोचता है कि यहां बाबाओं ने गंदगी बहुत फैलाई है और उसे साफ करने में उसका अपना कार्यकाल बहुत छोटा पड़ जाएगा. साथ में गंदगी साफ करने उतरे तो राजनीतिक दबाव समेत अन्य तरह के तमाम दबावों का सामना करना पड़ेगा. तो फिर ये अधिकारी क्या करते हैं? तहलका ने फैजाबाद में तैनात रहे एक पुलिस अधिकारी से सवाल किया तो उनका कहना था, ‘कुछ नहीं, छोड़ दो *** को. खुद ही कट-मर के शांत हो जाएंगे.’

उधर, कुछ अधिकारी ऐसे भी हैं जो अयोध्या में होने वाले अपराध में कमाई करने का मौका तलाश लेते हैं. अधिकारियों का यह तबका बाबाओं को गुंडागर्दी की छूट देने के एवज में उनसे सुविधा शुल्क वसूलता है. पुलिस के एक अधिकारी कहते हैं, ‘सबको पता है कि इन लोगों के पास बहुत पैसा है, यही कारण है कि पुलिस के भी लोग इनके अपराधों से अपनी नजर फेरने के बदले राहत शुल्क की मांग करते हैं. ऐसे ही एक अधिकारी के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ‘साहब तो यहां से करोड़ों कमा के गए. वे साधुओं से ऐसे हफ्ता वसूलते थे जैसे कोई पुलिसवाला अपराधियों से वसूलता है. यहां से साहब बहुत भारी मन से विदा हुए.’

मुमुक्षु भवन के महंत रामआचार्य दास कहते हैं, ‘जब मुझे महंत बनाने को लेकर  मंदिर में विवाद हुआ था तो पुलिस ने मेरा सपोर्ट करने के लिए मुझसे पैसे की मांग की थी. मेरा अनुभव कोई अपवाद नहीं है. यहां स्थिति ये है कि जो पैसा देता है प्रशासन का हाथ उसके साथ रहता है.’

एक तरफ जहां अयोध्या संत-महंतों के रूप में बढ़ते अपराधियों से त्रस्त है वहीं दूसरी तरफ प्रशासन या साधु समाज की तरफ से ऐसा कोई प्रयास दिखाई नहीं देता जिससे अयोध्या में बढ़ते अपराध को रोका जा सके. या दाढ़ी वाले सभी बाबाओं के बीच से उन तिनके वाले बाबाओं को बाहर निकाला जा सके जिनकी हरकतों की वजह से पूरा साधु समाज बदनाम हो रहा है.

खतरा यह भी है कि संतों की दुनिया में अपराध की इस भयानक आवक के परिणाम बहुत खतरनाक  हो सकते हैं. रामजन्मभूमि-बाबरी विवाद के बाद अयोध्या बहुत संवेदनशील जगह बन गई है. इसकी सुरक्षा को लेकर हर तीन महीने बाद स्टैंडिंग कमेटी की बैठक होती है. इसमें रामजन्मभूमि परिसर की सुरक्षा से जुड़े केंद्र तथा राज्य के तमाम बड़े अधिकारी शामिल होते हैं. उस कमेटी के कई बैठकों में शामिल रहे एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘रामजन्मभूमि के पास 2005 में आतंकी हमले के बाद मैंने कमेटी के समक्ष यह सुझाव रखा कि हमें जल्द से जल्द अयोध्या में रहने वाले सभी साधु-संतों की पहचान और सत्यापन का काम शुरू करना चाहिए कि वह कौन है, कहां से आया है, उसका बैकग्राउंड क्या है आदि. क्योंकि कल को कोई आतंकी साधु के भेष में यहां रहने लगे तो आप क्या करेंगे. लेकिन उस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं हुई.’ ये अधिकारी आगे कहते हैं, ‘यह लापरवाही तब है जब 2005 के आतंकी हमले से चार साल पहले 2001 में लश्कर का आतंकी इमरान यहीं अयोध्या के कल्लू के पुरवा में मारा गया था. वह अयोध्या में ठेला लगाता था और लोगों को उधार पर पैसे देता था.’

फैजाबाद के एसएसपी केबी सिंह कहते हैं, ‘ राजू श्रीवास्तव अपनी कॉमेडी में जिस तरह के अपराधियों की बात करते हैं, जो भाईगीरी छोड़कर बाबा बनने की सोचते हैं क्योंकि इसमें ज्यादा कमाई है, खतरा नहीं है, लेकिन अंततः वे अपराधी ही बने रहते हैं, वही स्थिति अयोध्या के अधिकांश बाबाओं की है. यहां असल संत बहुत कम बचे हैं. हम संतों का बैकग्राउंड चेक करने और उनका सत्यापन करने की दिशा में गंभीरता से सोच रहे हैं. ‘हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञान दास का भी सुझाव है कि हर साधु का पंजीकरण हो. हालांकि भविष्य को लेकर वे बहुत आशान्वित नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘यहां अपराधी संतों से ज्यादा मजबूत हो गए हैं तो बेचारा संत कैसे उन्हें निकालेगा. उनके पास पैसा है. सत्ता है. राजनेताओं से उनके संबंध हैं. उनसे कोई क्या मुकाबला करेगा.’

हालांकि अयोध्या में ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जिन्हें उम्मीद है कि अयोध्या की स्थिति एक न एक दिन जरूर ठीक होगी, यहां के अपराध और अपराधियों का खात्मा होगा और राम राज्य एक न एक दिन राम के अपने घर में जरूर आएगा.

हम सरयू के तट पर हैं. साधुओं में बढ़ते अपराध पर हम यहां बैठे एक साधु से भी बात करने की कोशिश करते हैं. वे इतना कहकर उठ जाते हैं:

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊइ।।

उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू।।

(यानी जो ठग हैं, उन्हें भी अच्छा भेष बनाए देखकर उसके प्रताप से जगत उन्हें पूजता है, परंतु एक न एक दिन उनकी असलियत सामने आ जाती है. अंत तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का सच सामने आ गया.)