2014 के आम चुनावों में नरेंद्र मोदी और भाजपा/एनडीए कई रिकॉर्ड बनाते हुए जीत गए हैं. हालांकि मोदी की इस जीत के पीछे कई कारक और कारण हैं. लेकिन इस जीत में मोदी की सुनियोजित तरीके से गढ़ी हुई ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि और उसकी जबरदस्त मार्केटिंग की बड़ी भूमिका है. इसे अनदेखा करना मुश्किल है कि गुजरात दंगों और फर्जी मुठभेड़ों से लेकर एक महिला की जासूसी करवाने और चहेते कॉरपोरेट समूहों को लाभ पहुंचाने जैसे विवादों और आरोपों से घिरे रहने के बावजूद कॉरपोरेट मीडिया-पीआर-विज्ञापन कॉम्प्लेक्स ने मोदी की एक ‘सख्त, प्रभावी और सफल प्रशासक और विकासपुरुष’ की छवि निर्मित करने और फिर उसे मतदाताओं को सफलतापूर्वक बेचने में कामयाबी हासिल की है.
इस अर्थ में, यह निस्संदेह हजारों करोड़ रुपये के विशाल प्रचारतंत्र की भी जीत है. कॉरपोरेट मीडिया-पीआर/विज्ञापन उद्योग के इस विशाल प्रचारतंत्र ने जिस तरह से मोदी के पक्ष में खुलकर अभियान चलाया और चुनाव का एजेंडा सेट किया, उसकी हालिया भारतीय राजनीति में कोई मिसाल नहीं है. हर चैनल पर मोदी, हर अखबार में मोदी, रेडियो पर मोदी, हर सोशल मीडिया में मोदी, होलोग्राम/3-डी में मोदी और इस तरह हर घर में मोदी थे.
इस ‘मोदी महिमा’ का असर न्यूज चैनलों पर साफ तौर पर देखा जा सकता है. मीडिया शोध एजेंसी सीएमएस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम (रात 8-10 बजे) पर कवरेज/चर्चाओं में मोदी को 33 फीसदी जगह मिली जबकि राहुल गांधी को सिर्फ चार फीसदी. इस असंतुलित कवरेज का ही एक और नमूना है कि ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल को 10 फीसदी कवरेज मिली. प्रचार के आखिरी दौर में मोदी की कवरेज बढ़कर 40 फीसदी तक पहुंच गई. वाम और क्षेत्रीय पार्टियां, उनके नेता और मुद्दे चैनलों के प्राइम टाइम से न सिर्फ गायब थे बल्कि उन्हें गठबंधन की राजनीति में राजनीतिक अस्थिरता और ब्लैकमेल के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए ‘खलनायक’ की तरह पेश किया गया.
यही नहीं, कॉरपोरेट मीडिया-पीआर-विज्ञापन उद्योग के गठजोड़ ने नेताओं, पार्टियों और मुद्दों की फ्रेमिंग इस तरह की कि उसका सबसे सीधा फायदा मोदी के प्रधानमंत्री अभियान को मिला. सच पूछिए तो यह देश का पहला टेलीविजन पर राष्ट्रपति शैली में लड़ा गया चुनाव था जिसमें छवि, मुद्दा और एजेंडा गढ़ने में चैनलों ने सीधी और सक्रिय भूमिका निभाई. इसके लिए हवा बनानेवाले चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों से लेकर प्रायोजित साक्षात्कारों और चुनावी रैलियों की लाइव कवरेज तक क्या नहीं किया गया?
इस लिहाज से इन चुनावों में कॉरपोरेट मीडिया वह करने में कामयाब रहा जो वह 2004 में नहीं कर पाया था. उस समय इंडिया शाइनिंग अभियान मुंह के बल गिर गया था. हालांकि 2009 में यूपीए की कामयाबी में भी काफी हद तक कॉरपोरेट मीडिया की बड़ी भूमिका थी. उस चुनाव में कॉरपोरेट मीडिया ने जिस तरह से न्यूक्लीयर डील के पक्ष में माहौल बनाया और वामपंथी पार्टियों समेत तीसरे मोर्चे की क्षेत्रीय पार्टियों को विकास विरोधी और सत्तालोलुप साबित करने में कोई कसर नहीं उठी रखी, उससे राष्ट्रीय राजनीति का एजेंडा बनाने, छवि निर्मित करने, जनमत गढ़ने और धारणाएं बनाने में उसकी बढ़ती भूमिका दिखने लगी थी.
लेकिन 2014 के चुनावों में एक अहम फैसलाकुन फैक्टर के रूप में बड़े कॉरपोरेट मीडिया की निर्णायक भूमिका साबित हो गई है. वह अब राजनीतिक घटनाक्रम और बदलावों का वस्तुनिष्ठ और तथ्यपरक वर्णनकर्ता भर नहीं बल्कि सक्रिय खिलाड़ी बन चुका है. वह ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ है और जनमत को तोड़ने-मरोड़ने और गढ़ने के मामले में उसकी बढ़ती ताकत भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है.
क्या देश यह घंटी सुन रहा है?