झारखंड की जीवनरेखा मानी जाने वाली स्वर्ण रेखा नदी के उद्गम को लेकर जितने मुंह उतने किस्से हैं. यह नदी एक हकीकत है लेकिन इस हकीकत की स्थापना पूरी तरह मिथकों के हवाले है. कोई इसे अर्जुन के बाण से फूटा महाभारतकालीन जल का सोता कहता है तो कोई इसे भीम के ससुराल से जुड़ा बताता है.
स्वर्ण रेखा और उसके आसपास के इलाके को मिथकीय इतिहास से जोड़ने की शुरुआत करते हैं राजेंद्र साधु बाबा. वह बताते हैं, ‘यहां से थोड़ी दूर पर हरही गांव है जहां भीम का ससुराल था. भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच का जन्म भी यहीं हुआ था.’ इससे पहले कि बाबा अपनी बात के पक्ष में कोई तर्क दें, बसंत चौधरी एक दूसरे किस्से के साथ अवतरित होते हैं. उनके मुताबिक महाभारत में वर्णित एकचक्रा नगरी नाम ही अपभ्रंश होकर अब नगड़ी हो गया है. तीसरे सज्जन विजय केसरी हमें चारों तरफ फैले खेतों के बीच एक कुएं के पास ले जाते हुए बताते हैं कि यह रानीचुआं है. अज्ञातवास के समय के पांडव पास के गांव में ही रुके थे, जिसका नाम अब पांडु है. एक दिन कि बात है, द्रौपदी को तेज प्यास लगी. अर्जुन ने धरती में बाण मारा तो जलस्रोत फूट पड़ा. द्रौपदी की प्यास बुझ गयी लेकिन बाण का प्रहार इतना तेज था कि उससे एक अविरल धारा ही बहने लगी, जो कालांतर में स्वर्णरेखा नदी बन गई.
ये सारे किस्से-कहानियां झारखंड की राजधानी रांची से करीब 20-25 किलोमीटर दूर नगड़ी में सुनाये जा रहे थे. स्वर्णरेखा नदी इसी इलाके से निकलती है. ये सारे मिथ क्यों गढ़े गए होंगे, यह अलग शोध का विषय है लेकिन विजय केसरी द्वारा दिखाया गया रानीचुआं कुआं मिथक नहीं प्रतीत होता. वह सच है. बहुत संभव है कि झारखंड की जीवन रेखा कही जाने वाली इस नदी को अपेक्षित पहचान न मिल पाने की कोफ्त में ही यहां के रहवासियों ने धीरे-धीरे मिथकीय किस्सों के जरिये अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी हो.
स्वर्णरेखा नदी के उस उद्गम स्रोत को देखने के बाद एकबारगी विश्वास नहीं होता कि यह विशाल नदी एक सोते से निकलती होगी, जिसे बांध कर एक कुएं का रूप दे दिया गया है. राजेंद्र साधु बाबा जैसे लोग बार-बार कहते हैं कि आप यकीन कीजिए, यह साधारण कुआं नहीं है, यहां से जो पानी निकलता हुआ आप देख रही हैं, ठीक वैसा ही जलप्रवाह आप तपती गरमी से लेकर भीषण अकाल के क्षणों में भी देख सकती हैं. कुएं से पानी की अविरल धारा तो निकलती हुई दिखती है लेकिन कुछ दूरी के बाद ही वह तालाब के रूप में दिखती है. स्वामी विवेकानंद ग्रामीण विकास संस्थान से जुड़े वार्ड पार्षद प्रदीप कहते हैं कि बहुत दुविधा में रहने की जरूरत नहीं, आप आगे चलिए तो शायद आपको यकीन होगा कि नदी ऐसे भी निकलती है. वे आगे पांडु, भौरोटोली, बंघिया, डोकाटोली आदि गांवों में ले जाते हैं और फिर पिस्का बगान नामक एक जगह पर तालाब से नदी की शक्ल में निकलती धारा को बहते हुए दिखाते हैं. प्रदीप कहते हैं कि यहीं से यह नदी बन गई है और यहां के बाद इसकी पहचान भी बदलती है. बताया जाता है कि स्वर्णरेखा का असली नाम सुवर्णरेखा है. यानी वह नदी जो अपने बहाव में सोने को लिए बहती है. स्वर्णरेखा झारखंड के इस छोटे से गांव से निकलकर ओडिशा और पश्चिम बंगाल होती हुई गंगा में मिले बिना ही सीधी समुद्र में जाकर मिल जाती है. इस नदी का सोने से संबंध है, यह नदी के किनारे बसे गावों, या कोल्हान के इलाके में जाकर देखा जा सकता है, जहां आज भी कई गांवों के लोगों का पेशा ही स्वर्णरेखा नदी के किनारे मिट्टी-बालू से सोना निकालना है. किसी जमाने में छोटानागपुर इलाके के आदिवासी समुदाय के लोगों की जिंदगी का बेहद अहम हिस्सा रही स्वर्ण रेखा नदी की कुल लंबाई 395 किलोमीटर से अधिक है. खनन क्षेत्रों से गुजरने के कारण इस नदी में प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ गया है और इस वजह से इस नदी में रहने वाले जलीय जीवों की स्थिति बेहद खराब हो चली है.
स्वर्ण रेखा नदी की कुल लंबाई 395 किलोमीटर से अधिक है. खनन क्षेत्रों से गुजरने के कारण इस नदी में प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ गया है
स्वर्णरेखा के उद्गम व नदी की धारा को आगे देखकर हम वापस नगड़ी आते हैं, जहां हमारी मुलाकात रंथू महतो से होती है. रंथू कहते हैं कि यह सिर्फ स्वर्णरेखा का इलाका नहीं है. जाइए पास में ही एक और नदी है, झारखंड की दूसरी महत्वपूर्ण नदी कोयल भी यहीं पास से ही निकलती है. तपती दुपहरी में जब हम वहां पहुंचते हैं तो हमें कोई नहीं मिलता सिवाए संजय उरांव के. हम कोयल का उद्गम स्रोत ढूंढने के लिए घंटों भटकते रहे होते अगर हमें संजय न मिलते. संजय से यह पूछने पर कि इस गांव में ही कोयल का उद्गम स्रोत है, वह कहां है? वे हंसते हुए कहते हैं- वह आपके सामने तो कटकनचुआं है, वही तो कोयल का उद्गम स्रोत रहा है. कोयल भी झारखंड की एक अहम और पलामू इलाके की जीवन रेखा मानी जाने वाली नदी है. संजय कहते हैं कि जिस पत्थर पर अभी आप बैठी थी, वह साधारण पत्थर नहीं, वहीं से तो कोयल निकलती है. मिट्टी की दरारों के बीच पड़े पत्थरों के दो पाट और सामने एक सूखे तालाब को देखकर हमें अहसास तो होता है कि यह कभी एक अहम जलस्रोत रहा होगा लेकिन तब भी यह यकीन नहीं होता कि यहां से कोयल जैसी बड़ी नदी निकलती होगी. स्वर्णरेखा के उद्गम रानीचुआं कुआं से तो पानी का प्रवाह भी दिखता है लेकिन कटकनचुआं के आसपास एक बूंद पानी भी न देखकर विश्वास नहीं होता. तभी रंथू महतो, जिन्होंने कटकनचुआं के बारे में बताया था, आते हैं और कहते हैं कि अभी बरसात का महीना नहीं है, इसलिए हम कोई यकीन तो नहीं दिला सकते. इसके लिए आपको हमारे इलाके के बुजुर्गों की बातों पर ही यकीन करना होगा, क्योंकि नदी के उद्गम स्रोत को स्थापित करने या विकसित करने का अब तक कोई काम नहीं हो सका है लेकिन यह हर कोई जानता है कि पांच दशक पहले तक इन दो पत्थरों के बीच जो स्रोत देख रही हैं, उसमें जब लंबे बासों को जोड़ कर डाला जाता था तो वह सीधे स्वर्णरेखा के उद्गम स्रोत रानीचुआं में निकलता था. यानी दोनों नदियों का एक जुड़ाव है. रानीचुआं से पूरब की ओर जो धार फूट जाती है, वह स्वर्णरेखा का रूप ले लेती है और इस कटकन चुआं से जो उत्तर की ओर धार फूटती थी, वह कोयल नदी का रूप ले लेती है.
स्वर्णरेखा नदी के उदगम स्रोत के पास एक प्रवेश द्वार और एक शिलापट्ट भी दिखता है लेकिन कोयल नदी के उद्गम स्रोत के पास तो पहचान बताने की कोई कवायद तक नहीं दिखती, जिससे यह पता चले कि झारखंड की एक अहम नदी यहीं से निकलती है. हमारे मन में यह सवाल आता है कि आखिर इतनी महत्वपूर्ण जगह की इस तरह उपेक्षा क्यों? रंथू कहते हैं कि स्वर्णरेखा नगड़ी बाजार से सटा हुआ इलाका है, इसलिए वहां के लोगों ने एक मंदिर बनाकर, हर साल संक्रांति में मेला लगाना शुरू किया. राजनीतिक दलों को इसमें एक अवसर भी नजर आया और एक गेट बनवा दिया गया लेकिन कोयल नदी तो बिलकुल एक गांव से निकलती है, जहां कोई सालाना आयोजन नहीं होता. रंथू कहते हैं कि यहां से कुछ ही किलोमीटर आगे जाने पर झारखंड की तीसरी महत्वपूर्ण नदी कारो भी निकलती है. बकौल रंथू, ‘आप स्वर्णरेखा का उद्गम देखने के बाद कोयल के उद्गम तो आ भी गईं लेकिन कारो नदी कहां से निकलती है, यह देखने भी कोई नहीं जाता, क्योंकि कई सालों से इस इलाके को नक्सलियों का गढ़ माना जाता है, जहां डर से कोई देखने भी जाना नहीं चाहता.’
कोयल झारखंड की दूसरी अहम और पलामू इलाके की जीवन रेखा मानी जाने वाली नदी है, लेकिन सरकारी और राजनीतिक उपेक्षा के चलते इसका महत्व न के बराबर है
रंथू की बात के बीच में ही संजय उरांव कहते हैं, ‘ऐसा इलाका किसी दूसरी जगह होता तो आज उसकी महत्ता देश भर में जानी जाती लेकिन अबतक तो यह इलाका झारखंड में ही पहचान नहीं बना सका है. आगे भविष्य में यह इलाका किस रूप में विकसित होगा, इसका कोई ठोस खाका तैयार नहीं हो पाया है. इस बाबत नदियों के विशेषज्ञ दिनेश मिश्र कहते हैं कि अमरकंटक (म.प्र.) से सोन, नर्मदा, और महानदी तथा मानसरोवर से गंगा, ब्रह्मपुत्र, घाघरा और सतलज जैसी नदियां निकलती हैं और उनका विशेष महत्व है पर यह सब सरकारी व राजनीतिक उपेक्षा का ही परिणाम है. हालांकि गांव के लोगों को छोटी से छोटी कवायदों में भी बड़ी उम्मीद दिखती है. स्वर्णरेखा क्षेत्र विकास मंच के प्रमख तपेश्वर केसरी कहते हैं कि अभी झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद के अध्यक्ष मणिशंकर ने कहा है कि स्वर्णरेखा उद्गम क्षेत्र का महत्व फिर से स्थापित हो, इसके लिए पहले 20 एकड़ जमीन में वृक्षारोपण का काम होगा. केसरी कहते हैं कि कुछ तो हो, वरना 2004 में ही इसे विकसित किए जाने का प्रस्ताव आया था, 2006 में घोषणा भी हुई थी, उसके बाद सौंदर्यीकरण के नाम पर एक तालाब बनवा दिया गया, एक द्वार बन गया और उसके बाद इसे भूला दिया गया. विधानसभा में पूर्व विधायक सरयू राय ने इसके विकास के संदर्भ में विधान सभा में सवाल भी उठाए लेकिन कुछ भी परिणाम नहीं निकला. जबकि यदि इस इलाके को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए तो यह झारखंड के लिए गंगोत्री के समान ही महत्वपूर्ण होगा और आमदनी के नए स्रोत भी खुलेंगे.
पिछले कुछ सालों से झारखंड की दो महत्वपूर्ण नदियों पर काम करने वाले पूर्व विधायक सरयू राय कहते हैं कि स्वर्णरेखा हो या दामोदर, दोनों नदियों का संपूर्णता में अस्तित्व ही दांव पर लगा हुआ है तो उद्गम की बात क्या की जाए. झारखंड में औद्योगिक घरानों और पढ़े-लिखे लोगों ने मिलकर किस्तों में नदियों को खत्म होने के मुहाने पर पहुंचाया है. बात जहां तक स्वर्णरेखा नदी के उद्गम स्थल रानीचुआं की है तो वहां तो हमलोगों ने वैज्ञानियों से अध्ययन भी कराया है, जिसका निष्कर्ष था कि रानीचुआं से निकलने वाला जल क्षारीय है जबकि उसके पास से ही अम्लीय जल निकलता है और पास में ही दोनों मिलते हैं और उसके बाद जो धार निकलती है, उस पानी का पीएच वैल्यू सात होता है, यानी शुद्ध पानी. उस स्थल को सरकार कभी पर्यटन स्थल बनाने की बात करती है तो कभी कुछ और, जबकि ऐसा कुछ भी करने की जरूरत नहीं है. वहां पेड़ लगाए जाएं और उसे अविरल बहने दिया जाए, तभी नदी का उद्गम स्रोत बचा रह सकता है, वरना स्रोत ही सूख जाएगा तो आगे तो नदी कचरे और गंदगी का ढेर ढोने को अभिशप्त हो ही गई है.
कभी नदी उद्गम स्थल का विकास होगा, लोगों को विश्वास है भी और नहीं भी लेकिन अपनी ओर से सबने कोशिशें जारी रखी हैं. कोयल और कारो के उद्गम का तो हाल बेहाल है लेकिन बड़ी नदी स्वर्णरेखा का उद्गम स्थल रानीचुआं अपनी पहचान बनाए रखे, उसकी महता कायम रहे, इसके लिए वहां छोटी-छोटी कई कोशिशें दिखती हैं. वहां पास में बने एक मंदिर में राजेंद्र साधु बाबा दिन-रात लगे रहते हैं ताकि वह मंदिर स्वर्णरेखा महादेव के तौर पर स्थापित हो. राजकुमार केसरी जैसे लोग रोज अहले सुबह रानीचुआं में नहाकर पूजा-पाठ करने पहुंचते हैं और फिर अपने धंधे में लग जाते हैं. यह जलस्रोत बना रहे, इसके लिए किसी ने रानीचुआं के पास छोटा-सा शिवलिंग भी रख दिया है. गांधी के अनुयायी टाना भगतों ने जनेऊ के धागों को बांधने के साथ रानीचुआं के आसपास सफेद झंडा भी लगा दिया है.
देखना है कि निजी तौर पर अंजाम दी जा रही ये छोटी-मोटी कोशिशें रंग लाती हैं या अपने उद्गम से जुड़े किस्सों की तरह ये नदियां भी मिथक में बदली जाएंगी.