लहर के बाद
लोकसभा चुनाव के नतीजों का सबसे चौंकाने वाला पक्ष उत्तर प्रदेश और बिहार के नतीजे हैं. उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 भाजपा ने जीती हैं. सहयोगियों की दो सीटें भी इसमें जोड़ दी जाएं तो आंकड़ा 73 तक पहुंच जाता है. 91.25 फीसदी सफलता की यह कहानी उत्तर प्रदेश की राजनीति में अनदेखी और अनसुनी है जिसने सूबे के सारे सियासी समीकरण हिला दिए हैं. दरअसल प्रदेश का हालिया राजनीतिक इतिहास एक बड़ी हद तक बिखरे हुए जनादेश, अवसरवादी राजनीति और राजनीति के अपराधीकरण का रहा है. इस दौर में दो राजनीतिक दल प्रदेश की राजनीति का चेहरा बने हुए थे-मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी. दोनों ही पार्टियां करीब ढाई दशक पहले के मंडल और कमंडल के दौर की उपज हैं. सामाजिक न्याय के रथ पर सवार होकर ये दोनों दल तेजी से उत्तर प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज पर छा गए थे. इसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय पार्टियों का कद यहां लगातार बौना होता गया. कांग्रेस तो खैर यहां दो दशक पहले ही हाशिए पर चली गई थी, लेकिन कमंडल की ऑक्सीजन से चल रही भारतीय जनता पार्टी भी यहां पिछले एक दशक से तीसरे नंबर की पार्टी बनी हुई थी. पहले दो स्थान सपा या बसपा ने कब्जा लिए थे. लेकिन अब अचानक से सबकुछ बदल गया है. इसका एक संकेत तो इसी बात से मिल जाता है कि जिस भाजपा ने पिछले एक दशक में उत्तर प्रदेश की विधानसभा के सामने कुल दर्जनभर विरोध प्रदर्शन भी नहीं किए होंगे, उसने केंद्र में अपनी सरकार बनने के बाद पिछले एक महीने के दौरान प्रदेश की विधानसभा को घेरने और पुतला जलाने के दर्जनों उपक्रम कर डाले हैं. एक दशक के दौरान यह उत्तर प्रदेश की राजनीति में आया 360 डिग्री का परिवर्तन है. बदले दौर का जोश प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी की बातों में झलकता है, ‘हम एक-एक बूथ तक जाएंगे, हम पूरी तरह विनम्र बने रहेंगे पर अगर कोई हमें चुनौती देगा तो हम चुप नहीं बैठेंगे. मोदीजी के नेतृत्व में जो लहर पैदा हुई है वह उत्तर प्रदेश से जात-पांत को खत्म करने का काम करेगी.’
केंद्र की राजनीति के लिए सबसे ज्यादा अपरिहार्य कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश पिछले कुछ समय से हर तरह की राजनीति की प्रयोगशाला रहा है. धर्म, जाति, क्षेत्र और अवसरवाद जैसे तमाम समीकरणों के सहारे यहां राजनीति होती रही है. कभी प्रदेश ने सपा-बसपा की सरकार देखी, कभी भाजपा-बसपा की. दूसरे दलों को तोड़कर अपनी सरकारें बनाने का उपक्रम भी यहां खूब हुआ. ऐसा भी हुआ कि सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करने में नाकाम रहीं और सूबा बार-बार चुनाव के चंगुल में फंसता रहा. 2007 तक यही स्थिति बनी रही. फिर उस साल जो हुआ उससे संकेत मिला कि प्रदेश की जनता लगभग डेढ़ दशक तक चली अवसरवादी राजनीति के दुष्परिणामों को समझ भी गई है और उससे उकता भी गई है. 2007 में प्रदेश में बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी. 2012 के जनादेश ने लोगों को एक बार फिर से चौंकाया. इस बार यहां सपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी. अब महज दो साल बाद उसी जनता ने भाजपा को लोकसभा में प्रचंड जनादेश दिया है. जाहिर है प्रदेश के लोग मौजूदा राजनीतिक विकल्पों से बुरी तरह नाराज हैं और बेसब्री से एक कारगर विकल्प की तलाश में हैं. सपा-बसपा की दुर्गति का एक संदेश भाजपा के लिए भी है कि उसके लिए यह सुकून का पल नहीं है. जिस तरह से सपा-बसपा ने खुद को मिले जनादेश को समझने की बजाय अपनी घिसी-पिटी अवसरवादी और जातिवादी राजनीति की राह पर चलना जारी रखा, भाजपा को वैसा कुछ करने से बचना होगा. एक चीज इस चुनाव में जरूर हुई है. भले ही यह परिघटना अल्पकालिक हो, लेकिन जाति का बांध मोदी लहर में टूट गया है. Read More>>
एक कदम आगे, दो कदम पीछे
बिहार की राजधानी पटना में मशहूर डाकबंगला चौराहे के पास ही है होटल गली. गली में आड़े-तिरछे, ऊपर-नीचे, दायें-बायें बिखरे बहुतेरे होटल हैं. सस्ते भी और इस वजह से लंबे समय तक टिकने लायक भी. इन होटलों में सबसे ज्यादा बसेरा राजनीतिक कार्यकर्ताओं और जिलास्तरीय नेताओं का होता है. इलाके में सुबह से शाम तक राजनीति की अखाड़ेबाजी होती है.
इसी होटल गली में चाय की एक दुकान के पास मजमा लगा है. सभी दलों के नेता गप्प में मशगूल हैं. बातचीत चलती है तो कोई जदयू के एक नेताजी से कहता है कि उनकी पार्टी का राजद, सीपीआई और कांग्रेस के साथ 100-100-39-04 वाला फॉर्मूला तय हो गया है, ऐसी बात हवा में उड़ रही है. यानी अगले विधानसभा चुनाव में 100 सीटों पर जदयू, 100 पर राजद, 39 पर कांग्रेस और चार सीटों पर सीपीआई. नेताजी गुस्से में आ जाते हैं. कहते हैं, ‘हवा की बात पर फालतू की हवाबाजी न कीजिए! जिस जदयू के पास अभी ही 117 सीटें हैं वह भला 100 पर क्यों लड़ने को तैयार होगी?’
एक दूसरे नेता बात काटते हैं. कहते हैं, ‘अरे महाराज, यही तो मूल बात है कि 117 विधायक मिल के 10 सीट भी नहीं दिलवा सके लोकसभा में. एक-एक दर्जन विधायक भी ऊर्जा लगाते एक सीट पर तो 10 का हिसाब-किताब तो होना ही चाहिए था.’ बात जारी रहती है. एक और नेता हंसते हुए कहते हैं, ‘खाली गाल बजाइएगा कि 117 विधायक हैं इसलिए ज्यादा सीट चाहिए तो लालू जी भी तो कहेंगे कि अभी जो लोकसभा चुनाव निपटा है उसमें अधिकांश सीटों पर उनकी पार्टी भाजपा के मुकाबले में थी इसलिए उन्हें ज्यादा सीट चाहिए.’ तीसरे नेताजी का हस्तक्षेप होता है, ‘बेकार बात कर रहे हैं आप लोग. लालू जी से अगर नीतीश कुमार मिले और दो दशक में बनाई हुई पार्टी को मटियामेट करने के रास्ते पर चले तो सबसे पहले आदमी हम होंगे जो 2010 के चुनाव से लेकर पिछले लोकसभा चुनाव तक सारे बयान और इंटरव्यू मिलाकर पोस्टर- किताब तैयार करेंगे और पूरे बिहार में बंटवाएंगे.’ Read More>>