लहर के बाद

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फोटो: प्रमोद अधिकारी

लोकसभा चुनाव के नतीजों का सबसे चौंकाने वाला पक्ष उत्तर प्रदेश और बिहार के नतीजे हैं. उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 भाजपा ने जीती हैं. सहयोगियों की दो सीटें भी इसमें जोड़ दी जाएं तो आंकड़ा 73 तक पहुंच जाता है. 91.25 फीसदी सफलता की यह कहानी उत्तर प्रदेश की राजनीति में अनदेखी और अनसुनी है जिसने सूबे के सारे सियासी समीकरण हिला दिए हैं. दरअसल प्रदेश का हालिया राजनीतिक इतिहास एक बड़ी हद तक बिखरे हुए जनादेश, अवसरवादी राजनीति और राजनीति के अपराधीकरण का रहा है. इस दौर में दो राजनीतिक दल प्रदेश की राजनीति का चेहरा बने हुए थे-मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी. दोनों ही पार्टियां करीब ढाई दशक पहले के मंडल और कमंडल के दौर की उपज हैं. सामाजिक न्याय के रथ पर सवार होकर ये दोनों दल तेजी से उत्तर प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज पर छा गए थे. इसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय पार्टियों का कद यहां लगातार बौना होता गया. कांग्रेस तो खैर यहां दो दशक पहले ही हाशिए पर चली गई थी, लेकिन कमंडल की ऑक्सीजन से चल रही भारतीय जनता पार्टी भी यहां पिछले एक दशक से तीसरे नंबर की पार्टी बनी हुई थी. पहले दो स्थान सपा या बसपा ने कब्जा लिए थे. लेकिन अब अचानक से सबकुछ बदल गया है. इसका एक संकेत तो इसी बात से मिल जाता है कि जिस भाजपा ने पिछले एक दशक में उत्तर प्रदेश की विधानसभा के सामने कुल दर्जनभर विरोध प्रदर्शन भी नहीं किए होंगे, उसने केंद्र में अपनी सरकार बनने के बाद पिछले एक महीने के दौरान प्रदेश की विधानसभा को घेरने और पुतला जलाने के दर्जनों उपक्रम कर डाले हैं. एक दशक के दौरान यह उत्तर प्रदेश की राजनीति में आया 360 डिग्री का परिवर्तन है. बदले दौर का जोश प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी की बातों में झलकता है, ‘हम एक-एक बूथ तक जाएंगे, हम पूरी तरह विनम्र बने रहेंगे पर अगर कोई हमें चुनौती देगा तो हम चुप नहीं बैठेंगे. मोदीजी के नेतृत्व में जो लहर पैदा हुई है वह उत्तर प्रदेश से जात-पांत को खत्म करने का काम करेगी.’

केंद्र की राजनीति के लिए सबसे ज्यादा अपरिहार्य कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश पिछले कुछ समय से हर तरह की राजनीति की प्रयोगशाला रहा है. धर्म, जाति, क्षेत्र और अवसरवाद जैसे तमाम समीकरणों के सहारे यहां राजनीति होती रही है. कभी प्रदेश ने सपा-बसपा की सरकार देखी, कभी भाजपा-बसपा की. दूसरे दलों को तोड़कर अपनी सरकारें बनाने का उपक्रम भी यहां खूब हुआ. ऐसा भी हुआ कि सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करने में नाकाम रहीं और सूबा बार-बार चुनाव के चंगुल में फंसता रहा. 2007 तक यही स्थिति बनी रही. फिर उस साल जो हुआ उससे संकेत मिला कि प्रदेश की जनता लगभग डेढ़ दशक तक चली अवसरवादी राजनीति के दुष्परिणामों को समझ भी गई है और उससे उकता भी गई है. 2007 में प्रदेश में बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी. 2012 के जनादेश ने लोगों को एक बार फिर से चौंकाया. इस बार यहां सपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी. अब महज दो साल बाद उसी जनता ने भाजपा को लोकसभा में प्रचंड जनादेश दिया है. जाहिर है प्रदेश के लोग मौजूदा राजनीतिक विकल्पों से बुरी तरह नाराज हैं और बेसब्री से एक कारगर विकल्प की तलाश में हैं. सपा-बसपा की दुर्गति का एक संदेश भाजपा के लिए भी है कि उसके लिए यह सुकून का पल नहीं है. जिस तरह से सपा-बसपा ने खुद को मिले जनादेश को समझने की बजाय अपनी घिसी-पिटी अवसरवादी और जातिवादी राजनीति की राह पर चलना जारी रखा, भाजपा को वैसा कुछ करने से बचना होगा. एक चीज इस चुनाव में जरूर हुई है. भले ही यह परिघटना अल्पकालिक हो, लेकिन जाति का बांध मोदी लहर में टूट गया है.

अब सवाल उठता है कि सपा-बसपा और भाजपा के लिए इन नतीजों के क्या मायने हैं.

बहुजन समाज पार्टी
उत्तर प्रदेश के नतीजों में भाजपा को छोड़ बाकी सभी राजनीतिक दलों की दुर्दशा हो गई है, लेकिन बहुजन समाज पार्टी के लिए तो ये नतीजे उसके अस्तित्व का ही संकट बन गए हैं. लोकसभा में बसपा शून्य पर पहुंच गई है. गौरतलब है कि बसपा वह पार्टी है जिसके बारे में धारणा है कि इस पार्टी के पास अपना सबसे समर्पित काडर और वोटबैंक है. चुनावी आंकड़े भी बताते हैं कि वोट पाने के मामले में बसपा देश की तीसरी बड़ी पार्टी है. उत्तर प्रदेश में बसपा को 19.6 फीसदी वोट मिले हैं जबकि राष्ट्रीय स्तर पर उसके वोटों की हिस्सेदारी 4.1 है. बावजूद इसके उसकी सीटों की संख्या शून्य है. शून्य का आंकड़ा बसपा ने अपने पहले चुनाव 1985 में देखा था. उसके बाद से उसकी सीटों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ था. अपने चतुर राजनीतिक गठजोड़ों और सोशल इंजीनियरिंग के जरिए बसपा ने बहुत कम समय में उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना स्थान बनाया था. इसके पीछे एक सरकारी कर्मचारी कांशीराम की दूरगामी सोच काम कर रही थी. 1971 में कांशीराम ने बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटी एंप्लॉयी फेडरेशन (बामसेफ) का गठन किया था. 1983 में उन्होंने इसे राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी का रूप दे दिया. बसपा के चमत्कारिक उभार के पीछे तत्कालीन परिस्थितियों का बड़ा हाथ था.

बसपा के पास न तो केंद्र में करने के लिए कुछ है न ही राज्य में. ऐसे में जब वह 2017 के विधानसभा चुनाव में जाएगी तो सपा या भाजपा की तरह उसके ऊपर जवाबदेही का कोई बोझ नहीं होगा

उत्तर प्रदेश का दलित (जिनमें चमार और जाटवों की बहुलता है) देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले राजनीतिक रूप से अधिक संगठित और पर्याप्त रूप से जागरूक था. 1957 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के गठन के बाद महाराष्ट्र के बाहर उत्तर प्रदेश ही ऐसा राज्य था जहां यह पार्टी सबसे मजबूत थी. लेकिन आरपीआई के टूटने और इसके नेताओं की कारगुजारियों ने उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति को हाशिए पर पहुंचा दिया. 70 का दशक आते-आते आरपीआई के दो दिग्गज नेता बुद्ध प्रिय मौर्य और संघप्रिय गौतम क्रमश: कांग्रेस और भाजपा के साथ हो लिए. इस तरह जब कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में अपना दायरा फैलाना शुरू किया तो लगभग एक दशक से यहां का राजनीतिक परिदृश्य दलित नेतृत्व से रिक्त था. कांशीराम की प्रतिभा और दूरदर्शी सोच ने उत्तर प्रदेश में व्याप्त दलित राजनीति की संभावनाओं को ताड़ लिया. उन्होंने अपने सहयोगी मायावती, आरके चौधरी आदि के साथ मिलकर दलितों और पिछड़ों को एकजुट करने का जबर्दस्त अभियान चलाया. अपने राजनीतिक अभियान को दलितों में पहुंचाने के लिए ‘तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’ जैसे लोकप्रिय जुमले चलाए. कड़ी मेहनत और परिस्थियों के साथ तालमेल ने उन्हें पहले से स्थापित दलों के बीच न सिर्फ स्थापित किया बल्कि दूसरों को हाशिए पर भी पहुंचा दिया. मायावती ने गुरु से मिली सीख को और समझदारी से खेलते हुए उसे आगे बढ़ाया. इस दौरान उन्होंने भाजपा का साथ भी लिया और उन ब्राह्मणों को भी अपने साथ जोड़ने की पहल की जिनके साथ बसपा का बुनियादी मतभेद रहा था. मायावती ने सर्वजन का फार्मूला ईजाद किया. कह सकते हैं कि उनकी महत्वाकांक्षा उन्हें बहुजन से सर्वजन तक ले गई. वरिष्ठ बसपा नेता आरके चौधरी के शब्दों में, ‘यह अवसरवाद नहीं है. जब आप मजबूत होते हैं तो हर आदमी आपके साथ जुड़ना चाहता है. यही ब्राह्मणों के साथ हुआ.’

कांशीराम ने जो सपना देखा था उसे सच होता देखने के लिए वे मौजूद नहीं थे. 2007 में जब बसपा ने अपना शिखर छुआ उसके कुछ महीने पहले ही कांशीराम का देहावसान हो चुका था. पार्टी को विधानसभा में कुल 206 सीटें मिलीं. यहीं से बसपा की कहानी में उतार का दौर भी शुरू हो गया. 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी 19 सीटों पर सिमट गई. 2012 में विधानसभा चुनाव हुए तो उत्तर प्रदेश की सत्ता भी मायावती के हाथ से निकल गई. 2014 में मामला उस मोड़ तक आ पहुंचा है जहां पार्टी शून्य हो गई है.

बसपा की इस दुर्गति की वजह क्या रही? आरके चौधरी के शब्दों में, ‘यह संघ के प्रोपगैंडा और कॉर्पोरेट के पैसे का कमाल है. पर आप एक बात मान लीजिए इस तरह की बनावटी लहर हमेशा नहीं रहती. जल्द ही यह लहर दम तोड़ेगी. बसपा में वापसी करने की पूरी ताकत है.’ जानकारों के मुताबिक बसपा की संभावनाएं बिखरने की एक वजह सत्ता में आने के बाद से मायावती के आचार-विचार में आए बदलाव हैं. पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद मायावती ने दलितों के उत्थान का कोई गंभीर प्रयत्न नहीं किया. दलित नायकों के नाम पर बड़े-बड़े स्मारकों का निर्माण तो वे करवाती रहीं, लेकिन दलितों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में बदलाव का एक भी काम देखने को नहीं मिला. इस लिहाज से देखा जाए तो मायावती सत्ता की उसी बीमारी से ग्रस्त हो गईं जिनसे बाकी विचारधाराएं होती आईं हैं. यानी जनता की असुरक्षा और अज्ञानता को बनाए रखना और उसके ऊपर अपनी महत्वाकांक्षा के महल तैयार करना. जबकि मायावती के पास एक शानदार बहुमत था और वे ऐसा कर सकतीं थी. लेकिन उन्होंने न केवल अवसर गंवाया बल्कि लोगों के भरोसे का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए किया.

2014 के उम्मीदवारों की लिस्ट देखें तो हम पाते हैं कि बसपा ने सिर्फ 17 दलितों को टिकट दिया था. ये 17 टिकट भी प्रदेश की 17 सुरक्षित सीटों पर दिए गए थे जबकि दूसरी तरफ 21 ब्राह्मणों को टिकट दिया गया. यानी दलित पहचान की राजनीति करने वाली मायावती अपने काम में कहीं से यह नहीं दिखा रही थी कि वे दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं. जाहिर सी बात है इसका खामियाजा उन्हें चुनाव के नतीजों में भुगतना पड़ा है. आंकड़े दिखाते हैं कि दूसरी जातियों और अल्पसंख्यकों के साथ-साथ दलितों ने भी इस बार बसपा का साथ छोड़ दिया है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत बताते हैं, ‘मायावती का अतिआत्मविश्वास उन्हें ले डूबा. इतनी बुरी हालत के बाद भी वे कोई बड़ा बदलाव कर पाने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि पूरी पार्टी ही वन वूमन शो है. लिहाजा वे किसी और को जिम्मेदार भी नहीं ठहरा सकतीं.’ इस बार उत्तर प्रदेश के दलित वोटों में 1.61 करोड़ के कुल इजाफे के बावजूद इसमें से सिर्फ नौ लाख ने ही बसपा को वोट दिया. मायावती की आंखें इन नतीजों के बाद खुल जानी चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर उनका वोट प्रतिशत 2009 के 6.17 से गिर कर 4.1 फीसदी रह गया है.

तो क्या इन नतीजों की बिना पर मायावती को खारिज किया जा सकता है? इलाहाबाद स्थित जीबी पंत सामाजिक संस्थान के प्रोफेसर और कांशीराम की जीवनी लिखने वाले प्रो. बदरी नारायण कहते हैं, ‘बसपा में वापसी करने की पूरी ताकत है. जैसे-जैसे भाजपा के प्रति उसके कामकाज को लेकर असंतोष बढ़ेगा, मायावती के लिए स्थितियां बेहतर होती जाएंगी. आने वाले समय में मोदी की लहर गिरेगी. जिस तरह से मायावती ने अपनी पहली समीक्षा बैठक में ठाकुरों और ब्राह्मणों को जिम्मेदार ठहराया है उससे एक बात तो साफ है कि बसपा अब पुराने आधार की तरफ लौट रही है. उनका सारा ध्यान अपना कोर वोट एकजुट बनाए रखने पर केंद्रित है. अगर भाजपा इन जातियों के लिए कुछ बेहतर नहीं करती है तो मायावती की वापसी हो जाएगी.’

मायावती और बसपा का भविष्य काफी हद तक 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजों से तय होगा. बसपा फिलहाल दिलचस्प स्थिति में खड़ी है. न तो उसके पास केंद्र में करने के लिए कुछ है न ही राज्य में. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो ऐसे में जब वह 2017 के विधानसभा चुनाव में जाएगी तो उसके ऊपर जवाबदेही का कोई बोझ नहीं होगा, जबकि राज्य की सत्ताधारी सपा, जिसकी स्थिति अभी से डांवाडोल है तीन साल और काम कर चुकी होगी और तब उसके खिलाफ कहीं ज्यादा बड़ी सत्ता विरोधी लहर होगी. यही हालत फिलहाल यूफोरिया में जी रही भाजपा की भी होगी. भाजपा के जबर्दस्त चुनावी अभियान से पैदा हुई अतिशय उम्मीदों का गुबार तब तक काफी हद तक छंट चुका होगा. उस हालत में बसपा के प्रदर्शन पर सबकी उम्मीदें टिकी रहेंगी. मायावती की पहचान प्रदेश की कानून व्यवस्था की स्थिति रही है जिस पर मौजूदा सरकार बुरी तरह से असफल सिद्ध हो रही है. उस हालत में बसपा उत्तर प्रदेश की जनता के सामने एक स्वाभाविक विकल्प के रूप में खड़ी हो सकती है.  वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी बताते हैं, ‘मायावती ने अपनी समीक्षा बैठक में प्रमुख नेताओं सतीश मिश्रा, मुनकाद अली और नसीमुद्दीन सिद्दीकी को खुलेआम खरी-खोटी सुनाई है. उनके प्रभार छीन लिए हैं. अब नई टीम के साथ वे अगले चुनाव की रणनीति तैयार कर रही हैं. जाहिर है सपा और भाजपा दोनों के खिलाफ आने वाले दिनों में एंटी इंकबेंसी पैदा होगी. जबकि बसपा इससे मुक्त होगी.’

समाजवादी पार्टी
जितनी बड़ी दुर्गति बसपा की हुई लगभग उतनी ही बड़ी हार का मुंह सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को भी देखना पड़ा है. पार्टी के सिर्फ पांच सांसद जीते हैं और उनमें भी सब मुलायम सिंह के अपने परिवार के लोग हैं. पिछले दो सालों में जिस तरह से सपा की सरकार चली है उसने जनता के प्रचंड जनादेश को ठेंगा दिखाने का काम किया है. आज हालत यह है कि प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था चरमरायी हुई लग रही है और राज्य का राजनीतिक नेतृत्व खुद को भ्रम की हालत में पा रहा है. भ्रम की दशा में पार्टी जो कदम उठा रही है जानकारों की मानें तो वे आने वाले समय में पार्टी को उलटे पड़ने वाले हैं. मंत्रिमंडल में फेरबदल करते हुए पार्टी ने कई मंत्रियों के विभाग बदले हैं. कइयों का कद छोटा हुआ है और एक मंत्री को पद से बर्खास्त किया गया है. भ्रम का वातावरण नीतिगत स्तर पर भी देखने को मिल रहा है. मसलन पूरे चुनाव में पार्टी जिन नीतियों और उलब्धियों का ढिंढोरा पीट रही थी हाल ही में पेश किए गए बजट में उन सभी योजनाओं को एक झटके में बंद कर दिया गया है. मुफ्त लैपटॉप, बेरोजगारी भत्ता और हमारी बेटी उसका कल जैसी योजनाएं इस दायरे में आती हैं. हालांकि इसका दूसरा और उजला पहलू यह है कि इस बार के बजट में पहली बार उत्तर प्रदेश सरकार ने किसी भी लोकलुभावन योजना से खुद को दूर रखते हुए बजट का अस्सी फीसदी हिस्सा ढांचागत विकास के लिए रखा है. लेकिन इसके परिणामों के बारे में फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता. सारा दारोमदार इन योजनाओं के लागू होने पर है.

‘सपा सरकार को पांच साल में एक दूरी तय करनी थी. आधी दूरी दौड़ने के बाद  वह नए सिरे से चलने की बात कर रही है. लिहाजा अब उसे आधे समय में वह दूरी तय करनी होगी. यह असंभव लक्ष्य है’

पांच की संख्या ने सपा को ऊपर से नीचे तक झकझोर कर रख दिया है. पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव इससे बुरी तरह खीजे हुए हैं. तीन दिनों तक लगातार हुई समीक्षा बैठक के बाद पार्टी ने एक के बाद एक कई कार्रवाइयां की हैं. रेवड़ियों की तरह बांटे गए दर्जा प्राप्त राज्यमंत्रियों में से 36 को बर्खास्त कर दिया गया. लेकिन अब खबर है कि इनमें से कुछ की बहाली कर दी गई है. पार्टी ने एक और बड़ा कदम उठाया. मंत्रिमंडल में सबसे कम उम्र के मंत्री का दर्जा रखने वाले तेज नरायण पांडे उर्फ पवन पांडे को बर्खास्त कर दिया गया. इसके अलावा विजय मिश्रा, ब्रह्मा शंकर त्रिपाठी, मनोज पांडे के विभागों को बदल कर उन्हें कम महत्व के विभागों में भेजा गया है. इस बदलाव पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि पार्टी ब्राह्मणों को इस हार के लिए जिम्मेदार मान रही है. जानकारों के मुताबिक इस कार्रवाई के नतीजे सपा के लिए सुखद नहीं होंगे. पार्टी की सोच चाहे जो हो लेकिन एक सच यह भी है कि सपा का मूल आधार यादव भी इस बार बड़ी संख्या में पार्टी से छिटक कर भाजपा के साथ जुड़ गया है.

सपा की दुविधा कई स्तरों पर दिख रही है. दो साल तक पार्टी ने जिन नीतियों और कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया था अब अचानक से उन सभी को बंद कर दिया गया है. हेमंत तिवारी के शब्दों में, ‘पहले ये भ्रमित थे, अब महाभ्रमित हैं. सरकार को पांच साल में एक दूरी तय करनी थी. आधी दूरी दौड़ने के बाद सरकार ने अपने ही कामकाज से खुद को अलग कर लिया है. अब वह नए सिरे से चलने की बात कर रही है. लिहाजा अब उसे आधे समय में वह दूरी तय करनी होगी. यह असंभव लक्ष्य है.’ तिवारी के मुताबिक सपा शुरुआत में ही फिसल गई. उसने मायावती के कुशासन और एंटी इंकंबेंसी के खिलाफ मिले जनादेश को अपने चुनावी घोषणापत्र के वादों को मिली सफलता मान लिया. पार्टी दो साल तक लगातार लोकलुभावन वादों को आधा-अधूरा पूरा करने में लगी रही. नतीजा यह रहा कि प्रशासन के जरूरी कामकाज पर उसकी न तो कोई पकड़ बन पाई न ही कोई दूरगामी कामकाज इस दौरान देखने को मिला. बची-खुची लुटिया एक से अधिक सत्ता केंद्रों ने मिलकर डुबा दी.

स्थिति यह है कि अकेले मुख्यमंत्री के पास दर्जन भर से ज्यादा मंत्रालय हैं. वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू कहते हैं, ‘अखिलेश यादव को अपने सभी विभागों के सचिवों के नाम भी नहीं पता होंगे. ऐसी हालत में वे उन अधिकारियों से काम कैसे करवा पाएंगे?’ इन सब चीजों ने मिलकर दो साल के अंदर यह स्थिति पैदा कर दी कि आज प्रदेश का पूरा प्रशासनिक ढांचा ही चरमराया हुआ दिख रहा है. बलात्कार, हत्या और राहजनी की खबरें मीडिया में छाई हुई हंै. भाजपा के नेताओं पर जानलेवा हमले हो रहे हैं. जाहिर है हालात अचानक से इतने बेकाबू नहीं हुए हैं. पिछले दो सालों से कमोबेश ऐसी ही स्थितियां बनी हुई थीं. जाहिर है उकताई हुई जनता ने पहला मौका मिलते ही अपना गुस्सा जाहिर कर दिया है. इस दुर्दशा के पीछे प्रशासनिक अक्षमता बड़ी वजह है. हेमंत तिवारी कहते हैं, ‘प्रदेश के थानों में 60 फीसदी यादव थानेदार तैनात हैं. ज्यादातर को सपा का वरदहस्त प्राप्त है. आलम यह है कि जिले के कप्तान में भी इन पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं है. तो कानून व्यवस्था की स्थिति पर काबू कौन करेगा?’

लोकसभा के नतीजे कह रहे हैं कि पिछले कुछ सालों के दौरान जतन से खड़ा किया गया मुलायम सिंह का यादव-ठाकुर-मुसलिम गठजोड़ छिन्न भिन्न हो गया है. जिस दौर में बसपा ब्राह्मणों के साथ सर्वजन का फार्मूला तैयार कर रही थी उसी दौर में राज्य की एक दूसरी प्रभावशाली सवर्ण बिरादरी राजपूतों ने सपा के झंडे तले राजनीतिक शरण ढूंढ़ ली. मई, 2002 में भाजपा और बसपा की मिली-जुली सरकार बनी. यह छह-छह महीने का प्रयोग था जिसमें पहले मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं. उस सरकार को राजा भैया भी समर्थन दे रहे थे क्योंकि वे भाजपा के सहयोग से विधानसभा में थे. जल्द ही राजा भैया का मायावती सरकार से मोहभंग होने लगा. वे अमर सिंह के साथ रिश्ते बढ़ाने लगे. उनका यह कदम सरकार विरोधी गतिविधि के दायरे में आता था. यह बात मायावती को नागवार गुजरी क्योंकि उनकी सरकार के लिए यह खतरे की घंटी थी. 2003 में राजा भैया को धमकी के एक मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. कुंडा स्थित उनके पैतृक महल में पुलिस ने छापा मारकर तमाम हथियारों के साथ दो एके-47 रायफलों की बरामदगी दिखाई. राजा भैया, उनके पिता उदय प्रताप सिंह और चचेरे भाई अक्षय प्रताप सिंह को पोटा के तहत गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया. राजा भैया के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होने से पहले ही मायावती सरकार गिर गई थी. इस घटना ने राजा भैया को ठाकुरों के बड़े नेता के तौर पर स्थापित कर दिया. इसी दौरान भाजपा का राजनीतिक आधार सिकुड़ने लगा था. सपा ने अमर सिंह के माध्यम से राजा भैया को अपने साथ जोड़ लिया. इन दोनों पार्टियों की लड़ाई में 10-15 साल के दौरान ठाकुर सपा की ओर झुकते गए. लेकिन 2014 में स्थितियां बिल्कुल अलग हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में ठाकुरों के पास राजनाथ सिंह के रूप एक बड़ा और राष्ट्रीय कद का नेता था, मोदी के रूप में एक जबर्दस्त चुनावी अभियान चलाने वाला रणनीतिकार था. लिहाजा ठाकुरों का भी सपा से मोहभंग होना स्वाभाविक ही था.

मुसलमानों का मामला और भी असहज करने वाला है. यह बात जाहिर है कि इस बार सपा को मुसलमानों का वैसा समर्थन नहीं मिला है जैसा अतीत में उसे मिलता रहा है. इसकी बड़ी वजह एक से ज्यादा सेक्युलर विकल्पों को बताया जा रहा है. उस पर सपा की जो छवि बनी वह थी हद से ज्यादा मुसलमानों को रिझाने में लगी पार्टी. जाहिर है इसने बाकी हिस्सों को भाजपा के पक्ष में गोलबंद करने में बड़ी भूमिका निभाई.

दरअसल इस बार मुस्लिम मतदाता बुरी तरह से भ्रम की हालत में था. मुसलमानों की दूरी से पार्टी के भीतर के सत्ता समीकरण भी बदल गए हैं. जिस दिन मंत्रियों के विभागों में फेरबदल किया गया उस दिन सुबह हुई बैठक की एक घटना पार्टी की अंदरूनी स्थितियों पर कुछ रोशनी डाल सकती है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक बैठक में शामिल होने के लिए मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, शिवपाल यादव और राम गोपाल यादव समेत प्रदेश मंत्रिमंडल के तमाम मंत्री पार्टी कार्यालय में इकट्ठा हुए थे. लेकिन सबसे पहले मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव शिवपाल यादव और राम गोपाल यादव ने आपस में अकेले एक घंटे तक मंत्रणा की. इस दौरान तमाम मंत्रियों के साथ आजम खान भी बाहर इंतजार करते रहे. परिवार के सदस्यों की मीटिंग समाप्त होने के बाद जब सभी मंत्रियों को मीटिंग में बुलाया गया तभी आजम खान भी मीटिंग में शामिल हुए. सपा के एक नेता बताते हैं, ‘फिलहाल आजम खान प्रशासन में अड़ंगा डालने वाली आदत से बाज आ गए हैं.’ यह घटना चुनाव के बाद उत्पन्न स्थितियों के चलते सपा में आजम खान की हैसियत और मुसलिम राजनीति को लेकर पैदा हुई उहापोह पर रोशनी डालती है.

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लखनऊ में सपा सरकार के खिलाफ भाजपाइयों का विरोध प्रदर्शन. फोटो: प्रमोद अधिकारी

भारतीय जनता पार्टी
लोकसभा के नतीजों ने एक दशक से मरणसन्न पड़ी उत्तर प्रदेश भाजपा में नई जान फूंक दी है. इस चमत्कारिक जीत का थोड़ा बारीकी से मुआयना करें तो हम पाते हैं कि पार्टी ने तीन स्तरों पर बेहद सुनियोजित रणनीति के साथ उत्तर प्रदेश और बिहार के किलों को फतह किया है. पहला, मोदी की विकास पुरुष की छवि. दूसरा, मोदी की हिंदुत्ववादी नेता की छवि. तीसरा, मोदी की ओबीसी नेता की छवि. यह तीनों रणनीतियां मिलकर भाजपा के लिए चुनाव जिताऊ फार्मूला बन गईं. अलग-अलग स्थानों पर हालात के हिसाब से भाजपा ने इन तीनों ही छवियों का इस्तेमाल किया. तीसरी वाली छवि उत्तर प्रदेश के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. भाजपा ने इस चुनाव में कुल 27 पिछड़े उम्मीदवारों को टिकट दिया था. ये सभी इस समय लोकसभा मंे विराजमान हैं. यह समाजवादी पार्टी के लिए खतरे की घंटी है. पहली बार प्रदेश की जनता ने मुलायम सिंह के पिछड़ों को नकार कर मोदी के पिछड़ों में विश्वास दिखाया है. भाजपा की रणनीति आने वाले तीन सालों में मोदी की इस पिछड़ा छवि को और मजबूत करने और उसे जमकर भुनाने की है. जानकारों के मुताबिक उत्तर प्रदेश और बिहार के विधानसभा चुनाव में इसका जबर्दस्त विस्तार देखने को मिलेगा. इन दोनों ही राज्यों में मोदी के मुख्य विरोधी पिछड़े नेता (मुलायम सिंह, लालू यादव, नीतीश कुमार) हैं. हालांकि इसका दूसरा पहलू यह भी है कि इस दौरान भाजपा के भीतर के टकराव भी सतह पर आएंगे. सुरेंद्र राजपूत कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में नेतृत्व का मसला भाजपा के गले की हड्डी बन सकता है. इसके अलावा संघ जिस नीयत से पिछले 66 सालों से भाजपा को पोस रहा था उसे पूरा करने का अवसर उसे पहली बार मिला है. इन स्थितियों से निपटना भाजपा के लिए बड़ा मुश्किल होगा.’

इसके अलावा जिस पैमाने पर विकास पुरुष के रूप में मोदी का अभियान चुनावों के दौरान चला उसका असर यूपी-बिहार जैसे बीमारू, पिछड़े किंतु महत्वाकांक्षी सूबे के ऊपर पड़ना ही था क्योंकि यहां का पुराना नेतृत्व लोगों के भीतर किसी भी तरह की उम्मीद या भरोसा पैदा कर पाने में पूरी तरह से असफल  हो चुका था. इसके अलावा अपनी सुनियोजित प्रचार रणनीति के जरिए भाजपा ने सपा-बपसा की अवसरवादी और जातिवादी राजनीति को भी पूरी सफलता के साथ उजागर किया. विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सबसे स्पष्ट दिशा में भाजपा ही आगे बढ़ रही है. लोकसभा की जिन सात सीटों पर प्रदेश में भाजपा हारी है उन सभी पर एक मंत्री और एक सांसद को प्रभारी बनाकर समीक्षा रिपोर्ट मांगी गई है. यह रिपोर्ट अमित शाह को भेजी जाएगी.

भाजपा की रणनीति आने वाले तीन सालों में मोदी की पिछड़ा छवि को और मजबूत करने और उसे भुनाने की है. हालांकि उत्तर प्रदेश में नेतृत्व का मसला उसके गले की हड्डी बन सकता है

भाजपा के विपरीत सपा और बसपा के नजरिए से देखें तो हम पाते हैं कि जातिगत राजनीति की सफलता ने इन दलों को इस हद तक अंधा कर दिया था कि वे लोगों के भीतर चल रही उथल-पुथल और बदलाव को  भांप ही नहीं सके. हाल के सालों में यहां बेरोजगारी भयंकर रूप से बढ़ी है. उदारवादी व्यवस्था के प्रभाव में आने के बाद पूरे देश की तरह यहां भी जो बदलाव या विकास हो रहा है वह उस मात्रा में रोजगार पैदा नहीं कर रहा है. सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्र लगातार सिकुड़ता जा रहा है लिहाजा आरक्षण भी अप्रासंगिक होता जा रहा है. दूसरी तरफ सूचना की गति बहुत तेज हो गई है जिसने लोगों में उम्मीदों को जबर्दस्त तरीके से बढ़ाया है. आज जातिगत भेदभाव की वैसी आग शेष नहीं है जैसी दो या तीन पीढ़ी पहले तक हुआ करती थी. ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां लोग बिना किसी दिक्कत के ऊंची जातियों के साथ दोस्ताना और सामाजिक रिश्ते कायम कर रहे हैं. जाहिर है कि मूल समस्याओं से उबर चुकी पीढ़ी से जब कोई विकास की बात करेगा तो यह उन्हें अपनी तरफ जरूर खींचेगा. उदारवादी संस्कृति में आई भौतिक समृद्धि से दलित या पिछड़े बचे नहीं हैं. अपने निरंतर और आक्रामक अभियानों के जरिए भाजपा ने इन परिस्थितियों का पूरी कुशलता से इस्तेमाल किया जबकि बसपा और सपा अपनी पुरानी जातिगत और अवसरवादी उलझनों में उलझे रहे.

हालांकि ये नतीजे भाजपा के लिए भी दोधारी तलवार पर चलने जैसे हैं. जिस तेजी से यहां लोगों ने विकल्प की तलाश में पुराने विकल्पों को ठेंगा दिखाया है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि फिलहाल भले ही ऐसा लगता हो कि उत्तर प्रदेश जातिवाद के चंगुल से मुक्त होता दिख रहा है, लेकिन इस लड़ाई का अंतिम राउंड 2017 के विधानसभा चुनाव होंगे. तभी फैसला होगा कि भाजपा को 2014 में मिली सफलता स्थायी थी या लहर थी.