बिहार की राजधानी पटना में मशहूर डाकबंगला चौराहे के पास ही है होटल गली. गली में आड़े-तिरछे, ऊपर-नीचे, दायें-बायें बिखरे बहुतेरे होटल हैं. सस्ते भी और इस वजह से लंबे समय तक टिकने लायक भी. इन होटलों में सबसे ज्यादा बसेरा राजनीतिक कार्यकर्ताओं और जिलास्तरीय नेताओं का होता है. इलाके में सुबह से शाम तक राजनीति की अखाड़ेबाजी होती है.
इसी होटल गली में चाय की एक दुकान के पास मजमा लगा है. सभी दलों के नेता गप्प में मशगूल हैं. बातचीत चलती है तो कोई जदयू के एक नेताजी से कहता है कि उनकी पार्टी का राजद, सीपीआई और कांग्रेस के साथ 100-100-39-04 वाला फॉर्मूला तय हो गया है, ऐसी बात हवा में उड़ रही है. यानी अगले विधानसभा चुनाव में 100 सीटों पर जदयू, 100 पर राजद, 39 पर कांग्रेस और चार सीटों पर सीपीआई. नेताजी गुस्से में आ जाते हैं. कहते हैं, ‘हवा की बात पर फालतू की हवाबाजी न कीजिए! जिस जदयू के पास अभी ही 117 सीटें हैं वह भला 100 पर क्यों लड़ने को तैयार होगी?’
एक दूसरे नेता बात काटते हैं. कहते हैं, ‘अरे महाराज, यही तो मूल बात है कि 117 विधायक मिल के 10 सीट भी नहीं दिलवा सके लोकसभा में. एक-एक दर्जन विधायक भी ऊर्जा लगाते एक सीट पर तो 10 का हिसाब-किताब तो होना ही चाहिए था.’ बात जारी रहती है. एक और नेता हंसते हुए कहते हैं, ‘खाली गाल बजाइएगा कि 117 विधायक हैं इसलिए ज्यादा सीट चाहिए तो लालू जी भी तो कहेंगे कि अभी जो लोकसभा चुनाव निपटा है उसमें अधिकांश सीटों पर उनकी पार्टी भाजपा के मुकाबले में थी इसलिए उन्हें ज्यादा सीट चाहिए.’ तीसरे नेताजी का हस्तक्षेप होता है, ‘बेकार बात कर रहे हैं आप लोग. लालू जी से अगर नीतीश कुमार मिले और दो दशक में बनाई हुई पार्टी को मटियामेट करने के रास्ते पर चले तो सबसे पहले आदमी हम होंगे जो 2010 के चुनाव से लेकर पिछले लोकसभा चुनाव तक सारे बयान और इंटरव्यू मिलाकर पोस्टर- किताब तैयार करेंगे और पूरे बिहार में बंटवाएंगे.’
वरिष्ठ से दिखने वाले जदयू के एक नेताजी कहते हैं, ‘ऐसा आप ही नहीं कीजिएगा बल्कि बहुत लोग करेंगे. लेकिन अब रास्ता क्या है? कोई विकल्प हो तो बताइए. लोकसभा में पार्टी दो सीटों पर सिमटी है, विधानसभा में कोई रिस्क नहीं लिया जा सकता. अगर फिर कहीं वैसा ही हो गया और बिहार भी हाथ से निकल गया तो फिर निकट भविष्य में पकड़ में आना मुश्किल हो जाएगा.’ यह नेताजी आगे जो कहते हैं कि उसका सार यह है कि न चाहते हुए भी जदूय को राजद के साथ जाना होगा तभी 14 प्रतिशत यादव, 16.5 मुस्लिम, दो-तीन प्रतिशत कुरमी आदि को मिलाकर एक ठोस वोट बैंक रहेगा, जिसमें अतिपिछड़ों-महादलितों आदि को जोड़कर एक पारी और का सपना देखा जा सकता है.
लोकसभा चुनाव में जिस तरह बिहार में भाजपा ने जदयू को समेट दिया उससे हैरान-परेशान नीतीश कुमार अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए सियासी समीकरण में कोई भी हेरफेर सह लेने को तैयार हैं
बात गरमागरम बहस में बदलती है और फिर अगर-मगर के रास्ते जातियों के प्रतिशत वाले गुणा-गणित में. बीच में ही भाजपाई नेता चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘जाति का गुणा-गणित ही खाली लगेगा कि एजेंडा विकास का भी होगा. लालू जी तो कहते हैं सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता. नीतीश जी भी अब कहते हैं सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता. तो न्याय के साथ विकास वाला नारा अब नीतीश जी चलाएंगे कि नहीं. अगर नहीं चलाएंगे तो लगता है कि बिहार में जिस नारे के जरिए 1990 में लालू प्रसाद सत्ता में आए थे और नीतीश कुमार खेवनहार बने थे, उसी नारे के जरिए फिर 2015 में भी नैया पार लगेगी.’ उनकी बात जारी रहती है, ’25 साल तक लालू जी और नीतीश जी की ही सत्ता रही. तो क्या इतने सालों में नारा बदलने भर भी काम नहीं कर सके?’
जदयू वाले नेताजी हमलावर होते हैं, ‘विकास न हुआ तो अईसने था बिहार.’ भाजपाई नेता कहते हैं, ‘ई विकास में तो हम भी साथ रहे हैं. और ई भी तो बताइये कि कैसा था बिहार. ई तो बताना पड़ेगा न कि कैसा था बिहार. तो जिसने ऐसा-वैसा-जैसा-तैसा बिहार कर के दिया था, उसके साथ रहिएगा भी और उसके बारे में बोलिएगा भी. कैसे बोलिएगा विकास की बात, बताइये खुल के.’
जदयू और भाजपा वालों में कालर पकड़ा-पकड़ी की स्थिति आ जाती है. राजदवाले कुछ नहीं बोलते. बात इसके बाद भी देर तक चलती रहती है. भाजपावालों पर सवालों का प्रहार न तो जदयू वाले करते हैं, न राजद वाले. आखिर में जब चाय की दुकान वाला उकता जाता है और दुकान बंद कर देता है तो बात खत्म होती है.
होटल गली की यह बातचीत इसका एक उदाहरण है कि लोकसभा चुनाव के परिणाम ने बिहार की राजनीति को किस तरह सिर के बल खड़ा कर दिया है. नहीं तो आज से दो महीने पहले तक कौन सोच सकता था कि भाजपा बिहार में इतना अविश्सनीय प्रदर्शन करेगी और जदयू व राजद की इतनी बुरी गत हो जाएगी. न ही किसी ने यह सोचा होगा कि 18 साल पहले लालू प्रसाद यादव के विरोध के नाम पर भाजपा से हाथ मिलाने वाले नीतीश कुमार भाजपा को रोकने के नाम पर उन्हीं लालू का समर्थन मांगने को मजबूर होंगे.
पड़ोसी उत्तर प्रदेश की तरह बिहार ने भी हर तरह की राजनीति देखी है. धर्म की, जाति की, जाति के भीतर जाति की और विकास की भी. हाल के लोकसभा चुनाव परिणाम से उपजी स्थितियों के चलते जिस तेजी से बिहार में सियासी समीकरण बदल रहे हैं उन पर होटल गली जैसी चर्चा आजकल राज्य के हर छोटे-बड़े चौक-चौराहे पर सुनने को मिल रही है. लेकिन आगे क्या होगा, उस पर धुंध की परछाई जैसी है. हां एक बात जरूर साफ-साफ कही जा रही है कि लोकसभा चुनाव में जिस तरह बिहार में भाजपा ने जदयू को समेट दिया उससे हैरान-परेशान नीतीश कुमार अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए सियासी समीकरण में कोई भी हेरफेर सह लेने को तैयार हैं. उनके सामने सिर्फ दो ही मकसद बच गए हैं–बिहार में अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाना, अगली बार यानी नवंबर 2015 में होनेवाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को आने से रोकना और उसी चुनाव में भाजपा से लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार का बदला चुकाना. नीतीश कुमार कहते भी हैं कि अब उनका सबसे बड़ा मकसद भाजपा का थउआ-थउआ यानी छक्के छुड़ाना रह गया है. इसके लिए ही उन्होंने राज्यसभा की तीन सीटों पर हुए उपचुनाव के दौरान उन लालू प्रसाद के साथ एलानिया नजदीकी बढ़ाई जिनका विरोध ही उनकी राजनीतिक बढ़त की बुनियाद जैसा रहा है. लालू-राबड़ी के शासनकाल को आतंकराज और विकास से कोसों दूर रहनेवाली सरकार बताकर ही नीतीश कुमार 2005 में बिहार की सत्ता संभालने में कामयाब हुए थे. उसके बाद से हाल तक वे लालू प्रसाद को खलनायक के तौर पर जिंदा रखकर ही राजनीतिक लाभ की फसल काट रहे थे. एक महीने पहले तक नीतीश के मन में लालू प्रसाद के प्रति दुश्मनी का कैसा भाव था वह उस प्रतिक्रिया से भी समझा जा सकता है जो उन्होंने महादलित नेता जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने के बाद राजद से समर्थन मिलने पर दी थी. मांझी की सरकार बनी तो कांग्रेस-सीपीआई के साथ मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर राजद ने भी समर्थन पत्र सौंपा था और नीतीश ने तब सार्वजनिक रूप से लालू पर निशाना साधते हुए कहा था कि लोग खुद ही समर्थन की चिट्ठी लिए चले आ रहे हैं, जबकि हम पूछ तक नहीं रहे.
लेकिन वक्त के फेर ने राज्यसभा उपचुनाव में नीतीश कुमार को उन्हीं लालू प्रसाद की शरण में जाने को मजबूर कर दिया है. दूसरी ओर लालू हैं, जो लगातार दो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी की दुर्गति से और भी हताशा की गर्त में समानेवाले थे, लेकिन अब नीतीश की हताशा ने उन्हें ऊर्जा से भर दिया है. राजनीति की नब्ज को समझने में माहिर लालू हालात से उपजी स्थितियों को पूरी तरह भुनाने के मूड में हैं. वे भाजपा से लड़ने-भिड़ने को तो तैयार हैं ही, लगे हाथ जदयू से भी वर्षों पुराना हिसाब-किताब अपने तरीके से चुकता कर लेने के मूड में हैं. इसका एक बड़ा उदाहरण तब दिखा जब राज्यसभा उपचुनाव में नीतीश कुमार सार्वजनिक तौर पर लालू प्रसाद से समर्थन मांगते रहे, खुद लालू को फोन करने के अलावा मीडिया के जरिये गिड़गिड़ाते से रहे, लेकिन लालू ने दो-चार दिनों तक सस्पेंस बनाकर रखा. यह तय होते हुए भी कि उनके पास भी समर्थन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं, लालू ने जदयू को तड़पाया. नीतीश को बार-बार गिड़गिड़ाने को मजबूर कर पुराना हिसाब-किताब बराबर करने की छोटी ही सही पर कोशिश की. जो लालू को जानते हैं वे बता रहे हैं कि नीतीश कुमार से गठबंधन के बाद भी लालू मौके-बेमौके यह हिसाब-किताब बराबर करते रहेंगे क्योंकि उनके मन में नीतीश के प्रति गहरे घाव का भाव है जो जल्दी जाएगा नहीं. आखिर नीतीश ने ही तो उनके तमाम राजनीतिक अरमानों का गला घोंटा है और भाजपा के साथ मिलकर उन्हें बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा खलनायक बनाया है.
राजनीति की नब्ज को समझने में माहिर लालू प्रसाद भाजपा से लड़ने-भिड़ने को तो तैयार हैं ही, लगे हाथ जदयू से भी वर्षों का पुराना हिसाब-किताब अपने तरीके से चुकता कर लेने के मूड में हैं
हालांकि फिलहाल ये सारे सवाल पीछे जा रहे हैं और दूसरे किस्म के सवाल तेजी से उभर रहे हैं. मसलन लोकसभा चुनाव में हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए नीतीश कुमार एक-एक कर जिस तरह के फैसले ले रहे हैं उनसे क्या वे फिर से खड़े हो पाएंगे? क्या मुख्यमंत्री पद छोड़ने, महादलित समुदाय से जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने और अब लालू प्रसाद के साथ गठबंधन की तैयारी के बावजूद नीतीश और उनकी पार्टी तुरंत उस स्थिति में पहुंच सकते हैं जिसमें सत्ता का नियंत्रण उनके पास बना रहे. क्या नीतीश कुमार एक ऐसी राह के राही बनने को तैयार हैं जिसमें झाड़-झंखाड़ तो बहुत हैं लेकिन मंजिल तक पहुंचने के लिए आखिरी संभावनाएं भी उसी में हैं?
इन सवालों का जवाब बहुत साफ भी है और बहुत उलझा हुआ भी. दोनों ही दलों यानी राजद और जदयू में नेताओं का एक छोटा समूह नीतीश के भाजपा से अलगाव के बाद से ही मानता रहा है कि अब दोनों के एक हो जाने से ही भाजपा को परास्त करना संभव होगा. लेकिन दोनों दलों में ऐसे नेताओं की भी खासी संख्या है जिनकी राय इसके उलट है. यानी जो यह मानते हैं कि दोनों दलों में गठबंधन होने का मतलब है यह स्वीकार कर लेना कि अब बिहार में मुख्य ताकत भाजपा ही बन गई है और उससे लड़कर अपना अस्तित्व बचाने के लिए भानुमति का कुनबा बन रहा है, जिससे भाजपा और मजबूत भी हो सकती है. राजद में दूसरे-तीसरे नंबर के एक नेता ओशो का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘ओशो कहा करते थे कि गंगाजल और गाय के दूध को एक साथ नहीं मिलाना चाहिए. दोनों स्वतंत्र रूप से शुद्ध होते हैं, लेकिन आपस में मिलाते ही दोनों का अस्तित्व नहीं रह जाता. गाय का दूध भी अशुद्ध हो जाता है और गंगाजल का तो पता ही नहीं चलता.’
राजद के नेता छायावाद में बात करते हैं, लेकिन दूसरे कई नेता सीधे-सीधे अपनी बात रखते हैं. राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के प्रमुख व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा कहते हैं कि जदयू और राजद साथ मिलकर लड़ें या अलग-अलग, दोनों ही स्थितियों में उन्हें कोई फायदा नहीं होगा. उनका कहना है कि शून्य और शून्य कैसे भी मिले उसका जोड़ शून्य ही होता है. पूर्व में जदयू और राजद दोनों के संगी-साथी रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव परिणाम ने दोनों ही दलों के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है और लगता है कि दोनों इसे समझ भी रहे हैं, इसीलिए दोनों दलों के बीच कुछ पक रहा है.’ तिवारी हालांकि लगे हाथ यह भी कहते हैं कि दोनों दलों के बीच गठबंधन के पहले यह भी देखना होगा कि दोनों दलों का जो सामाजिक और जातीय आधार है, वह एक-दूसरे को कितना स्वीकार कर पाता है. उस पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा.
शिवानंद तिवारी यह बात सही कहते हैं. वक्त की जरूरत के हिसाब से जदयू और राजद ने राज्यसभा चुनाव में एक दूसरे से नजदीकी तो बढ़ा ली, लेकिन आगे इसे जारी रखना इतना आसान नहीं होगा. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच सामंजस्य के बिंदु सीमित हैं. इतने ही कि दोनों समाजवादी राजनीति की उपज हैं और दोनों सामाजिक न्याय की राजनीति की बात करते रहे हैं. लेकिन दोनों के रास्ते हमेशा अलग रहे हैं. लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के 15 साल के राज में बिहार में यादव विरोधी पिछड़ों की गोलबंदी भी हुई थी जिसके चलते नीतीश कुमार बतौर बड़े नेता उभर सके थे. नीतीश के उभरने के बाद पिछड़ी जातियों में यादव बनाम यादव विरोधी पिछड़ों का बंटवारा साफ-साफ हुआ और उसे साधकर नीतीश अपनी राजनीति आगे बढ़ाते रहे. अब जबकि नीतीश कुमार भी लगभग आठ सालों तक खुद सत्ता में रह चुके हैं तो पिछड़ी जातियों में कुरमी विरोधी गोलबंदी भी सुगबुगाहट के दौर में है. इसका एक नमूना लोकसभा चुनाव में देखने को मिला जब भाजपा ने थोड़ा हवा-पानी देते हुए उपेंद्र कुशवाहा को आगे बढ़ाया तो नीतीश का एक मजबूत और पुराना समीकरण कुशवाहा-कुरमी टूट गया और राज्य के अलग-अलग हिस्से में रहनेवाले कुशवाहा नीतीश से छिटक गए. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह इसलिए संभव हुआ कि इस टूट के लिए पर्याप्त संभावनाएं पहले से मौजूद थीं जिन्हें भाजपा ने सिर्फ हवा-पानी देकर भुना लिया. ऐसी ही संभावनाएं और दूसरी पिछड़ी जातियों में भी हैं.
भाजपा की पूरी कोशिश किसी तरह अतिपिछड़ा समूह और महादलित वर्ग में सेंधमारी करने की है. इसके लिए पार्टी की संगठन में अतिपिछड़ों को अधिक से अधिक जगह देने की योजना है
अब सवाल यह है कि लोकसभा चुनाव के बाद जब भाजपा की भारी जीत ने राज्य के सारे समीकरण उलट दिए हैं तो किस पार्टी को कौन सी राह अपनाने से फायदा हो सकता है. नीतीश कुमार और लालू प्रसाद अगर साथ मिलते हैं तो यह साफ कहा जा रहा है कि फिर बिहार की राजनीति जाति की परिधि में ही होगी. इसलिए कि लालू को साथ रखकर नीतीश विकास के एजेंडे को सामने रखते हुए खुलकर बात नहीं कर पाएंगे. और अगर वे आठ सालों में अपने किए काम की दुहाई देंगे तो भाजपा उसमें साझीदार के तौर पर खुद को पेश करेगी. लालू-नीतीश गठजोड़ के बाद उसके लिए यादव, मुस्लिम, कुरमी का वोट पक्का होगा, ऐसा जानकार बता रहे हैं. लेकिन बीते लोकसभा चुनाव को देखते हुए यह भी मुश्किल ही दिखता है. लोकसभा चुनाव में यादव वोट भी लालू प्रसाद से तेजी से छिटका. नीतीश कुमार को कुरमी जाति का वोट भी शत प्रतिशत वाले ट्रेंड की तरह नहीं मिला, वरना कोई वजह नहीं थी कि नीतीश की पार्टी को अपने मूल इलाके नालंदा में जीत इतनी मशक्कत के बाद मिलती. पिछड़ी जातियों में चार प्रमुख जातियां आती हैं. इनमें दो यानी यादव और कुरमी अगर लालू-नीतीश गठजोड़ की ओर हो भी जाते हैं तो वैश्य और बहुतायत में कुशवाहा दूसरे छोर पर होंगे यानी भाजपा के संग होंगे. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का गठजोड़ अगर मुस्लिम मतों पर एकाधिकार के साथ दावा करेगा तो दूसरी ओर ऐसा ही दावा भाजपा सवर्णों के मतों पर करेगी. इसके बाद सारा खेल अतिपिछड़ों और महादलितों के वोट पर निर्भर करेगा. इन दोनों जाति समूहों के जन्मदाता नीतीश हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से इनके वोट पर उनकी सबसे बड़ी दावेदारी बनती है और है भी. जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश ने महादलित समूह को अपने पाले में बनाए रखने की कोशिश भी की है. दूसरी ओर अतिपिछड़ी जातियों के बारे में यह माना जा रहा है कि वे अब तक एक ठोस समूह के तौर पर विकसित नहीं हो सकी हैं. यानी ये जातियां चुनाव में एकमुश्त, एक ओर ही मतदान करें, इसका दावा नहीं किया जा सकता. यह पिछले साल हुए महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव में भी देखा गया था. फिर भी नीतीश कुमार को ही इन दोनों समूहों का चैंपियन नेता माना जाता है. अब तक भी.
नरेंद्र मोदी के नाम पर लोकसभा चुनाव में उफान मारनेवाली भाजपा के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है. पार्टी सवर्णों, वैश्यों, कुशवाहाओं और पासवानों को अपने पाले में मानते हुए एक बड़े समूह का निर्माण करते हुए तो दिखती है, लेकिन यह समूह इतना बड़ा नहीं होता जो नीतीश-लालू का गठजोड़ हो जाने के बाद बने समूह से पार पा सके. भाजपा के एक नेता बताते हैं कि पार्टी की पूरी कोशिश किसी तरह अतिपिछड़ा समूह और महादलित वर्ग में सेंधमारी करने की है. इसके लिए पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ होने का फायदा उठाना चाहती है और साथ ही संगठन में अतिपिछड़ों को अधिक से अधिक जगह देकर सेंधमारी करना चाहती है. भाजपा चाहती है कि केंद्र की मोदी सरकार अतिपिछड़ों और महादलितों को साधने में मदद करे और कुछ खास योजनाओं की सहमति दे.
और आखिर में भाजपा की बड़ी उम्मीदें अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर टिकी हुई हैं जिसने बीते लोकसभा चुनाव में जमीनी स्तर पर काम कर सारे समीकरण पलट दिए. भाजपा भले ही संघ की भूमिका पर खुलकर न बोले, लेकिन लालू प्रसाद यादव जैसे नेता खुलकर इसे स्वीकारते हैं. लालू कहते हैं, ‘हमारी सभाओं में ज्यादा भीड़ हो रही थी, लेकिन संघ वालों ने आखिरी वक्त में खेल बदल दिया.’ लालू प्रसाद आगे कहते हैं, ‘ऐसा नहीं कि हमें वोट नहीं मिला. हमारा यानी राजद, जदयू, कांग्रेस आदि को मिलाकर वोट बढ़ा है, लेकिन तीनों को मिलाकर सीटें सिर्फ सात आ सकीं. भाजपा ने गरीबों, पिछड़ों आदि को सांप्रदायिक रूप से चार्ज करके मतों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर दिया जिसका नुकसान हमें हुआ.’
लोकसभा चुनाव के बाद उल्टी दिशा का रास्ता पकड़ चुकी बिहार की राजनीति का अगला रास्ता क्या होगा, यह कुछ दिनों बाद ही स्पष्ट हो जाएगा जब बिहार में 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होंगे
लालू की बात गलत नहीं, लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा ऐसा खेल नहीं करेगी, इसकी गारंटी भी देने की स्थिति में कोई नहीं. और दूसरी बात यह कि सत्ता में 23 साल रहने वाली दो जातियों के दो प्रमुख नेताओं लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का अगर गठजोड़ होगा तो फिर दूसरे किस्म के ध्रुवीकरण की गुंजाइश भी बनेगी. भाजपा ऐसी तमाम कोशिशें करेगी, लेकिन उसे भी पता है कि लोकसभा की तरह विधानसभा में नैया पार लगाना इतना आसान नहीं होगा. एक तो पार्टी में कोई एक ऐसा नेता नहीं जिसकी अपील पूरे राज्य में हो. दूसरी बात यह कि दल में किसी एक नेता के नाम पर सहमति बनने की राह में भी बहुतेरे रोडे़ हैं. तीसरी बात यह कि भाजपा पर तेजी से सवर्णों की पार्टी का ठप्पा लगा है जिसकी कीमत राजनीतिक जानकारों के मुताबिक उसे विधानसभा चुनाव में चुकानी होगी.
लोकसभा चुनाव के बाद उल्टी दिशा का रास्ता पकड़ चुकी बिहार की राजनीति का अगला रास्ता क्या होगा, यह कुछ दिनों बाद ही स्पष्ट हो जाएगा जब बिहार में 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होंगे. अगर नीतीश कुमार ने अपने बागियों को बर्खास्त कर दिया तो 15 सीटों पर चुनाव होंगे. इस चुनाव में लालू और नीतीश के बीच गठजोड़ बन पाता है या नहीं, यह भी देखा जाएगा. अगर बनता है तो संयुक्त रूप से भाजपा से लड़ने के लिए उनके पास औजार क्या होंगे, इसका खुलासा भी होगा जिससे भविष्य की लड़ाई का अंदाजा हो जाएगा. सबसे खास बात यह कि इस लड़ाई में कौन किस पर भारी पड़ता है, उससे भी बहुत कुछ साफ होगा. लेकिन यह तय है कि भाजपा की जीत-हार या राजद के पुनर्जीवन से बड़ा सवाल नीतीश कुमार का होगा जो दो दशक के दौरान वाम से लेकर दक्षिण तक का साथ लेकर राजनीतिक यात्रा करने के बाद आखिर में फिर अपने मूल स्थान पर लौटने की तैयारी में दिख रहे हैं.
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मांझी और नैया
बिहार की राजनीति में जीतन राम मांझी पाला और पासा, दोनों पलट सकते हैं.
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद छोड़ते हुए जब इस कुर्सी के लिए एक अदद नेता की तलाश शुरू की तो अनुमान पर अनुमान लगाए जाते रहे. कभी किसी का नाम सामने आता, कभी किसी का. एक बड़ा वर्ग यह भी मानता रहा कि नीतीश फिर से खुद ही मुख्यमंत्री बन जाएंगे. लेकिन उन्होंने जीतन राम मांझी को सीएम बनवाकर सारे अनुमान ध्वस्त कर दिए. महादलित समुदाय से आनेवाले मांझी के मुखिया बनते ही पूरी राजनीति बदल गई. नीतीश ने महादलित नाम के जिस नए समूह का गठन किया था, उसे एक बड़ा अवसर देकर उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को हुए नुकसान को काफी हद तक पीछे धकेल दिया.
अब मांझी नेता हैं. वे सिर्फ बिहार के मुख्यमंत्री भर नहीं हैं, बल्कि बिहार की राजनीति किस करवट बैठेगी इसके भी मुख्य सूत्रधार हैं. सीएम बनने के बाद मांझी सक्रिय हैं. रोजाना सभाओं में जा रहे हैं. उदघाटन कर रहे हैं. उनके पोस्टर लग रहे हैं और नीतीश लगभग मौन की राजनीतिक मुद्रा में आ गए हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक यह जानबूझकर साधा गया मौन है जो अभी जारी रहेगा. वे कई बार मौन की राजनीति कर ही बहुत सारी मुश्किलों से पार पाते रहे हैं.
लेकिन इस बार की मुश्किल थोड़ी बड़ी है. नीतीश ने बहुत ठोक-ठाककर मांझी को सीएम बनाया है. आंख मूंदकर सब यह मान रहे हैं कि मांझी भविष्य में भरत जैसा काम करेंगे. यानी वक्त आने पर राम के लिए गद्दी छोड़ देंगे. लेकिन व्यावहारिक तौर पर ऐसा होगा, यह कहना इतना आसान नहीं. मांझी के मुख्यमंत्री बनाए जाने का श्रेय भाजपावाले भी लेना चाहते हैं. वे कह रहे हैं कि उनकी पार्टी ने अगर जदयू को बुरी तरह नहीं हराया होता तो नीतीश कभी ऐसा नहीं करते. उनकी वजह से राजनीति में यह बदलाव आया है. भाजपा वाले दूसरा दांव भी खेल रहे हैं. लगातार कह रहे हैं कि अगर जदयू ने एक महादलित को सीएम बनाया है तो अगला चुनाव भी उसके ही नेतृत्व में लड़ा जाए. अगले मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में उन्हें ही पेश किया जाए. दरअसल मांझी के नाम पर नीतीश ने दांव खेला है तो भाजपा भी खेलना चाहती है. माना जा रहा है कि अगर जदयू ने मांझी के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ा तो वह महादलितों को यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि सिर्फ मजबूरी में मुसहर जाति के एक नेता का इस्तेमाल भर किया गया.
जदयू के लिए आशंकाएं दूसरी भी हैं. इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो मांझी की नैया हमेशा सत्ता की धारा के साथ चली है. 80 के दशक में जब बिहार में कांग्रेस का बोलबाला था तो मांझी कांग्रेस के सिपाही हुआ करते थे. उसके बाद लालू प्रसाद का उदय हुआ तो मांझी लालू के हो गए. जब लालू के दिन लदने लगे तो मांझी नीतीश के साथी हो गए. मांझी को जाननेवाले जानते हैं कि काबिल नेता होने के बावजूद वे रामविलास पासवान की तरह सत्ता की संभावना देखनेवाले नेता भी रहे हैं और शिवानंद तिवारी की तरह पाला बदलनेवाले भी. इसलिए जदयू के भी कुछ नेताओं को यह संदेह है कि आखिरी वक्त में मांझी पूरा खेल बदल भी सकते हैं. अगर उन पर दांव नहीं लगा यानी अगर उन्हें ही अगले संभावित सीएम के तौर पर पेश नहीं किया गया तो फिर वे पाला भी पलट सकते हैं और पासा भी. जदयू और राजद के बीच रिश्ते बन भी गए तो भी खेल का अहम हिस्सा मांझी के पाले में होगा. मांझी को सीएम बना देने के बाद उसका लाभ चुनावी राजनीति में उठाना नीतीश का अहम दांव है जिसका फल क्या रहता है, यह देखने वाली बात होगी. मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश ने भाजपा को करारा झटका दिया है. जानकारों के मुताबिक भाजपा जब तक नीतीश से बड़ा दांव नहीं खेलती तब तक महादलितों में उसकी सेंधमारी संभव नहीं.
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद छोड़ते हुए जब इस कुर्सी के लिए एक अदद नेता की तलाश शुरू की तो अनुमान पर अनुमान लगाए जाते रहे. कभी किसी का नाम सामने आता, कभी किसी का. एक बड़ा वर्ग यह भी मानता रहा कि नीतीश फिर से खुद ही मुख्यमंत्री बन जाएंगे. लेकिन उन्होंने जीतन राम मांझी को सीएम बनवाकर सारे अनुमान ध्वस्त कर दिए. महादलित समुदाय से आनेवाले मांझी के मुखिया बनते ही पूरी राजनीति बदल गई. नीतीश ने महादलित नाम के जिस नए समूह का गठन किया था, उसे एक बड़ा अवसर देकर उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को हुए नुकसान को काफी हद तक पीछे धकेल दिया.
अब मांझी नेता हैं. वे सिर्फ बिहार के मुख्यमंत्री भर नहीं हैं, बल्कि बिहार की राजनीति किस करवट बैठेगी इसके भी मुख्य सूत्रधार हैं. सीएम बनने के बाद मांझी सक्रिय हैं. रोजाना सभाओं में जा रहे हैं. उदघाटन कर रहे हैं. उनके पोस्टर लग रहे हैं और नीतीश लगभग मौन की राजनीतिक मुद्रा में आ गए हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक यह जानबूझकर साधा गया मौन है जो अभी जारी रहेगा. वे कई बार मौन की राजनीति कर ही बहुत सारी मुश्किलों से पार पाते रहे हैं.
लेकिन इस बार की मुश्किल थोड़ी बड़ी है. नीतीश ने बहुत ठोक-ठाककर मांझी को सीएम बनाया है. आंख मूंदकर सब यह मान रहे हैं कि मांझी भविष्य में भरत जैसा काम करेंगे. यानी वक्त आने पर राम के लिए गद्दी छोड़ देंगे. लेकिन व्यावहारिक तौर पर ऐसा होगा, यह कहना इतना आसान नहीं. मांझी के मुख्यमंत्री बनाए जाने का श्रेय भाजपावाले भी लेना चाहते हैं. वे कह रहे हैं कि उनकी पार्टी ने अगर जदयू को बुरी तरह नहीं हराया होता तो नीतीश कभी ऐसा नहीं करते. उनकी वजह से राजनीति में यह बदलाव आया है. भाजपा वाले दूसरा दांव भी खेल रहे हैं. लगातार कह रहे हैं कि अगर जदयू ने एक महादलित को सीएम बनाया है तो अगला चुनाव भी उसके ही नेतृत्व में लड़ा जाए. अगले मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में उन्हें ही पेश किया जाए. दरअसल मांझी के नाम पर नीतीश ने दांव खेला है तो भाजपा भी खेलना चाहती है. माना जा रहा है कि अगर जदयू ने मांझी के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ा तो वह महादलितों को यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि सिर्फ मजबूरी में मुसहर जाति के एक नेता का इस्तेमाल भर किया गया.
जदयू के लिए आशंकाएं दूसरी भी हैं. इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो मांझी की नैया हमेशा सत्ता की धारा के साथ चली है. 80 के दशक में जब बिहार में कांग्रेस का बोलबाला था तो मांझी कांग्रेस के सिपाही हुआ करते थे. उसके बाद लालू प्रसाद का उदय हुआ तो मांझी लालू के हो गए. जब लालू के दिन लदने लगे तो मांझी नीतीश के साथी हो गए. मांझी को जाननेवाले जानते हैं कि काबिल नेता होने के बावजूद वे रामविलास पासवान की तरह सत्ता की संभावना देखनेवाले नेता भी रहे हैं और शिवानंद तिवारी की तरह पाला बदलनेवाले भी. इसलिए जदयू के भी कुछ नेताओं को यह संदेह है कि आखिरी वक्त में मांझी पूरा खेल बदल भी सकते हैं. अगर उन पर दांव नहीं लगा यानी अगर उन्हें ही अगले संभावित सीएम के तौर पर पेश नहीं किया गया तो फिर वे पाला भी पलट सकते हैं और पासा भी. जदयू और राजद के बीच रिश्ते बन भी गए तो भी खेल का अहम हिस्सा मांझी के पाले में होगा. मांझी को सीएम बना देने के बाद उसका लाभ चुनावी राजनीति में उठाना नीतीश का अहम दांव है जिसका फल क्या रहता है, यह देखने वाली बात होगी. मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश ने भाजपा को करारा झटका दिया है. जानकारों के मुताबिक भाजपा जब तक नीतीश से बड़ा दांव नहीं खेलती तब तक महादलितों में उसकी सेंधमारी संभव नहीं.
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