अमेरिकी स्वाधीनता दिवस हर वर्ष चार जुलाई को बर्लिन में भी प्रमुखता के साथ मनाया जाता है. इस बार भी मनाया गया. लेकिन, जर्मनी में अमेरिकी राजदूत जॉन इमर्सन इस बार जब स्वाधीनता दिवस के समारोह में पहुंचे तो कुछ घबराए हुए-से थे. अपने भाषण में इस बार वे जर्मन-अमेरिकी संबंधों की मधुरता में कुछ ज्यादा ही चाशनी घोलते लगे. हुआ यह था कि कुछ ही घंटे पहले उन्हें जर्मन विदेश मंत्रालय में बुलाया गया था. मंत्रालय के राज्यसचिव स्तेफान श्टाइनलाइन ने उन्हें सूचित किया कि जर्मनी की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के एक ऐसे कर्मचारी को गिरफ्तार किया गया है, जिस पर अमेरिका के लिए जासूसी करने का शक है. उसके साथ संपर्क अमेरिकी दूतावास के माध्यम से किया गया था. मित्र देशों के बीच यह अच्छी बात नहीं है. जर्मन सरकार चाहती है कि मामले की त्वरित जांच में अमेरिकी दूतावास पूरा सहयोग प्रदान करे.
मार्कुस आर नाम के ‘बीएनडी’ के इस 31 वर्षीय गिरफ्तार कर्मचारी पर शक है कि उसने अमेरिकी जासूसों को कम से कम 218 गोपनीय दस्तावेज दिए हैं. कुछ दस्तावेज तो उस संसदीय जांच-समिति के लिए थे जो दुनियाभर के इलेक्ट्रॉनिक दूरसंचार (इंटरनेट, ईमेल, फैक्स और टेलीफोन) की आहट ले रही अमेरिकी गुप्तचर सेवा ‘राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी’ (नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी एनएसए) की जर्मनी में चल रही गतिविधियों का आयाम जानने के लिए गठित की गई हंै.
एडवर्ड स्नोडन की भूमिका
इन गतिविधियों का पता पिछले वर्ष तब चला था, जब ‘एनएसए’ का ही एक भेदिया एडवर्ड स्नोडन ढेर सारे गोपनीय दस्तावेजों की नकल (कॉपी) उतार गायब हो गया था और हंगकांग के रास्ते से मॉस्को पहुंचा था. वहां एक साल की अस्थाई शरण मिलते ही ये दस्तावेज प्रकाशन के लिए उसने अमेरिका और यूरोप के कुछ चुने हुए अखबारों एवं पत्रिकाओं को दिए थे. संसदीय जांच समिति और जर्मनी की विपक्षी पार्टियां विस्तृत पूछताछ के लिए स्नोडन को जर्मनी बुलाना चाहती हैं, लेकिन अमेरिका के तुष्टीकरण के लिए प्रयत्नशील जर्मन सरकार इसकी अनुमति नहीं दे रही.
बड़े भाई अमेरिका के किसी राजदूत को विदेश मंत्रालय में बुलाकर राजनयिक विरोध-प्रदर्शन जर्मनी के लिए बहुत ही अनहोनी बात है. जर्मनी तो वह देश है जहां के नेता अनन्य कृतज्ञताभाव से कहते नहीं थकते कि उनका देश अमेरिका का सदा ऋणी रहेगा. अमेरिकी हथियारों और सैनिकों के बिना द्वितीय विश्वयुद्ध के मित्र-राष्ट्रों की विजय और जर्मनी में हिटलर की फासिस्ट तानाशाही का अंत संभव ही नहीं हो सका होता. अमेरिकी सहायता व संरक्षण के बिना विभाजित जर्मनी के पश्चिमी भाग में लोकतंत्र की स्थापना, युद्ध से खंडहर बन गए देश का पुनर्निर्माण, 1960-70 वाले दशक में ‘आर्थिक चत्मकार’ और बर्लिन-दीवार गिरने के बाद 1990 में पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का शांतिपूर्ण एकीकरण भी संभव नहीं हो पाया होता. यही नेता आज कहने पर विवश हैं कि ‘बस, अब बहुत हो गया!’
जर्मन वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के अध्यक्ष गेरहार्ड शिंडलर ने अमेरिकी गुप्तचरी संबंधी संसदीय जांच समिति को बताया कि मार्कुस आर संभवतः दो वर्षों से अपने विभाग के गोपनीय दस्तावेज चोरी-छिपे घर ले जाकर उन्हें स्कैन करता और एक अमेरिकी गुप्तचर एजेंट को देता रहा है. क्योंकि ऐसे और भी विश्वासघाती हो सकते हैं, इसलिए उनका पता लगाने के लिए ‘बीएनडी’ के लगभग सभी छह हजार कर्मचारियों के कार्यकलापों की अब जांच की जा रही है. जर्मन गुप्तचर सेवाएं अब तक यही मान कर चल रही थीं कि केवल रूसी या चीनी जासूस ही इस तरह के दस्तावेज पाने को लालायित रहते हैं, अमेरिकी नहीं.
ऐसा भी नहीं है कि जर्मन वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ अमेरिका की ‘एनएसए’, ‘सीआईए’ या किसी अन्य गुप्तचर एजेंसी की प्रतिस्पर्धी या प्रतिद्वंद्वी है. सच तो यह है कि इन सभी सेवाओं की आपस में मिलीभगत भी है. तब भी, ‘बीएनडी’ में सेंध लगाने की इस घटना से उड़ी धूल बैठी भी नहीं थी कि सप्ताह भर के भीतर ही एक और समाचार आया–जर्मन रक्षा मंत्रालय का एक असैनिक कर्मचारी भी अमेरिका की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘सीआईए’ को गोपनीय जानकारियां देता रहा है.
अमेरिका जासूसी की हर विधा को एक ऐसा सधा हुआ अस्त्र मानता है, जिसके इस्तेमाल में उसे अपनों-परायों या शत्रु-मित्र के बीच कोई भेद स्वीकार्य नहीं
एक ही सप्ताह के भीतर जर्मन भूमि पर अमेरिकी जासूसी के दो-दो सनसनीखेज़ समाचारों से खलबली मच गई. जनता व नेताओं को लगने लगा, मानो देश के कोने-कोने में अमेरिकी जासूस बैठे हुए हैं. यह दूसरा समाचार जर्मन रक्षा मंत्रालय के एक ऐसे कर्मचारी से संबंधित था जो पहले सर्बिया का एक प्रदेश रहे और अब स्वतंत्र देश बन गए कोसोवो में तैनात ‘केफोर’ शांतिसेना का राजनीतिक परामर्शदाता रह चुका है. वहां उसे अपने ही समवर्ती एक ऐसे अमेरिकी परामर्शदाता से अक्सर मिलना-जुलना होता था जो कोसोवो में गुप्तचर सेवा सहित एक नया प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने में हाथ बंटा रहा था. 2010 से दोनों कई बार तुर्की व अन्य देशों में भी मिलते-जुलते रहे हैं. उनके बीच संपर्क बने रहने का सुराग ‘बीएनडी’ के मार्कुस आर की गिरफ्तारी से ही मिला बताया जाता है.
जर्मनी के दो सार्वजनिक रेडियो-टीवी केंद्रों ‘एनडीआर’ और ‘डब्ल्यूडीआर’ तथा म्युनिक से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘ज्युइडडोएचे त्साइटुंग’ की एक मिली-जुली खोज से पता चला कि ‘बीएनडी’ और रक्षा मंत्रालय वाले दोनों मामलों के बीच आपसी संबंध है. जर्मनी की आंतरिक गुप्तचर सेवा ‘संघीय संविधानरक्षा कार्यालय’ (बीएफवी) को काफी समय से संदेह था कि रक्षा मंत्रालय में कहीं कोई रूसी भेदिया बैठा हुआ है. इस आशय का एक गुमनाम पत्र उसके हाथ लगा था, पर कोई ठोस सुराग मिल नहीं रहा था.’बीएफवी’ ने अंततः देश की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ से पूछा कि कहीं उस के पास तो कोई जानकारी नहीं है. इस अनुरोध वाला पत्र उसी मार्कुस आर की मेज पर पहुंचा, जिसे चार जुलाई को गिरफ्तार कर लिया गया है. उसने यह पत्र चोरी-छिपे म्युनिक स्थित रूसी वाणिज्य दूतावास के पास पहुंचा दिया था. वह शायद सोच रहा था कि पत्र पाते ही रूसी अनुमान लगा लेंगे कि वह कितने काम का आदमी है. हो सकता है कि वे भी उसे अपना भेदिया बना लें! रूसियों के साथ संवाद की सुविधा के लिए मार्कुस आर ने एक अलग ईमेल-पता भी बना लिया था. महीनों लंबी छानबीन के बाद यही ईमेल पता मार्कुस आर की गिरफ्तारी का सुराग बना.
गिरफ्तारी के बाद मार्कुस आर ने जर्मनी के संघीय अभियोजकों को उस समय आश्चर्य में डाल दिया, जब उसने बताया कि वह रूस के लिए नहीं, बल्कि 2012 से अमेरिका के लिए जासूसी कर रहा था. अमेरिकी दूतावास से भी उसने अपनी ही पहल पर ईमेल द्वारा ही संपर्क साधा था. उस समय ‘क्रेग’ नाम के जिस व्यक्ति ने उससे बात की, उसका कहना था कि अमेरिका के काम की हर तरह की सूचना में उसे दिलचस्पी है. पहली दो मुलाकातों में ‘क्रेग’ ने दस-दस हजार यूरो (लगभग आठ लाख रुपये) और तीसरी मुलाकात में केवल पांच हजार यूरो (चार लाख रुपये) दिये थे. मार्कुस ‘बीएनडी’ से मिलने वाले अपने वेतन से खुश नहीं था. रूसियों से भी उसे अच्छी कमाई की आशा थी. लेकिन, तब वह सन्न रह गया, जब एक दिन किसी रूसी के बदले उसने जर्मन ‘संविधानरक्षा कार्यालय’ से आए व्यक्तियों को अपने सामने खड़ा पाया.
मार्कुस की गिरफ्तारी के पांच ही दिन बाद, नौ जुलाई को जर्मनी के संघीय अभियोजन कार्यालय ने बताया कि रक्षा मंत्रालय के एक कर्मचारी की भी अमेरिका के लिए जासूसी के संदेह में जांच चल रही है. इस जांच के आधार पर देश की गुप्तचर संस्थाओं पर नजर रखने वाली संसदीय निगरानी समिति के अध्यक्ष क्लेमेंस बिनिंगर का कहना था कि इस कर्मचारी के बारे में प्रथम संकेत अगस्त 2010 में मिले थे, पर ठोस प्रमाण अभी तक नहीं मिल पाए हैं, इसलिए वह हिरासत में नहीं है.
रक्षा मंत्रालय में भी अमेरिकी भेदिया छिपा होने की बात इतनी गंभीर समझी गई कि चांसलर अंगेला मेर्कल की अनुपस्थिति में–वे चीन की औपचारिक यात्रा पर थीं– जर्मनी के गृह एवं रक्षा मंत्रियों तथा चांसलर कार्यलय के प्रमुख ने मिल कर निर्णय लिया कि बर्लिन के अमेरिकी दूतावास में ‘सीआईए’ प्रमुख जॉन ब्रेनन को निष्कासित कर दिया जाना चाहिए. ब्रेनन को ‘चीफ ऑफ स्टेशन’ के तौर पर राजनयिक निरापदता (इम्यूनिटी) मिली हुई है. इस कारण न तो उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता था, न ही उन्हें ‘अवांछित व्यक्ति’ घोषित कर अमेरिका से पंगा मोल लिया जा सकता था.
राजनयिक भूकंप
यही सब सोच कर जल्द ही एक कदम पीछे हटाते हुए कहा गया कि जर्मनी चाहता है कि ब्रेनन स्वयं स्वदेश लौट जाएं. तब भी, यह निर्णय एक राजनयिक भूकंप के समान था. अमेरिका ने भी अपनी नाराजगी जताते हुए उसे इसी अर्थ में लिया. राष्ट्रपति भवन के प्रवक्ता ने कहा कि जर्मनी को चाहिए था कि वह बात सार्वजनिक करने के बदले ”कूटनीतिक चैनलों” का उपयोग करता.
जर्मन रक्षा मंत्रालय वाले संदिग्ध व्यक्ति के विषय में कहा जा रहा है कि अगस्त 2010 में उसके बारे में गुमनाम संकेत मिलने के बाद से जर्मनी की सैनिक गुप्तचर सेवा ‘एमआरडी’ उस पर नजर रखे हुए थी. वह 15-16 बार तुर्की की संक्षिप्त यात्राएं कर चुका है. समझा जाता है कि वहां वह अमरीकी एजेंटों से मिलता रहा है. इससे पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि वह तुर्की में शायद रूसी एजेंटों से मिलता है. उसके कंप्यूटर इत्यादि जब्त कर लिए गए हैं, पर उसे तुरंत गिरफ्तार नहीं किया गया.
एक दर्जन से अधिक भेदिये
मानो चांसलर सहित पूरे देश की वर्षों से चल रही इलेक्ट्रॉनिक जासूसी और एक ही सप्ताह में दो जीते-जागते जासूसों की धर-पकड़ पर्याप्त न हो, जर्मनी के सर्वाधिक बिक्री वाले सनसनी-पसंद अखबार ‘बिल्ड’ ने 13 जुलाई को लिखा कि जर्मनी के कम से कम चार मंत्रालयों के एक दर्जन से अधिक कर्मचारी अमेरिका की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘सीआईए’ के लिए काम कर रहे हैं. रक्षा, वित्त, गृह और विकास-सहायता मंत्रालयों में बैठे ये घर के भेदी वर्षों से ‘सीआईए’ की सेवा कर रहे बताए गए हैं. ‘बिल्ड’ के अनुसार, जर्मन अधिकारियों को जब से पता चला है कि अमेरिका बड़े पैमाने पर जर्मन भूमि पर भी जासूसी कर रहा है, तबसे इन भेदियों को निर्देश देने वाले अमरिकी एजेंट उनसे जर्मनी के बाहर वियेना, वार्सा या प्राग में मिलते हैं.
जर्मन सरकार का माथा तो पिछले साल एडवर्ड स्नोडन द्वारा उड़ाए गए दस्तावेजों के प्रकाशन के समय से ही ठनक रहा था. लेकिन, कुछ तो अमेरिका के प्रति इतिहासजन्य कृतज्ञता के बोध से और कुछ उसकी सत्ता और महत्ता के भय से– सरकार अमेरिका की ठकुरसुहाती करने और जनभावना को बरगलाने में ही लगी रही. अमेरिका से यही कहती रही कि हम तो तुम्हारे अपने ही हैं, कम से कम हमारे साथ तो वही व्यवहार मत करो, जो ईरान, सूडान या उत्तर कोरिया के साथ होता है. उसने बहुत अनुनय-विनय की कि अमेरिका उसके साथ भी वैसा ही एक ‘जासूसी-नहीं’ (नो स्पायिंग) समझौता कर ले, जैसा उसने आंग्लवंशी व अंग्रेजी-मातृभाषी कैनडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से कर रखा है. लेकिन, अमेरिका टस से मस नहीं हुआ. केवल इतना ही आश्वासन दिया कि चांसलर मेर्कल का मोबाइल अब नहीं सुना जाएगा.
अमेरिका को समझाना टेढ़ी खीर
चांसलर मेर्कल ने चीन से लौटने के बाद और फुटबॉल विश्वकप के फाइनल में जर्मन टीम का साथ देने के लिए ब्राजील जाने से ठीक पहले प्रमुख जर्मन टेलीविजन चैनल ‘जेडडीएफ’ के साथ एक भेंटवार्ता में कहा कि अमेरिका वालों को यह समझाना टेढ़ी खीर है कि ‘वे अपनी गुप्तचर सेवाओं के काम का ढर्रा बदलें…तब भी हम कहते रहेंगे कि कहां हम उन से मतभेद रखते हैं.’ मेर्कल ने कहा कि सब कुछ होने के बावजूद ”हम (अमेरिका के साथ) साझेदारीपूर्ण सहयोग करते रहेंगे.” चीन में उन के मुंह से निकल गया था कि ‘बस, अब बहुत हो गया!’ उल्लेखनीय है कि यूक्रेन-संकट पर तो चांसलर मेर्कल और राष्ट्रपति ओबामा अक्सर एक-दूसरे को फोन कर लिया करते थे. पर, जर्मनी को परेशान कर रहे जासूसी कांड पर, जुलाई के मध्य तक, दोनों के बीच कोई फोन वार्ता नहीं हुई. रविवार, 13 जुलाई को, ऑस्ट्रिया की राजधानी वियेना में अमेरिका और जर्मनी के विदेशमंत्रियों के बीच इस विषय पर पहली बार उच्चस्तरीय संवाद जरूर हुआ. परिणाम ढाक के तीन पात जैसा ही रहा.
दरअसल अमेरिका आतंकवाद से अपनी लड़ाई में जासूसी की हर विधा को एक ऐसा सधा हुआ अस्त्र मानता है, जिसके इस्तेमाल में उसे अपनों-परायों या शत्रु-मित्र के बीच कोई भेद स्वीकार्य नहीं है. पश्चिमी जगत का यह मुखिया इस बीच 100 साल पहले की रूसी समाजवादी क्रांति के प्रणेता लेनिन के इस सिद्धांत का कायल बन गया लगता है कि ‘भरोसा करना ठीक है, लेकिन निगरानी रखना उससे बेहतर है.’ उसे अब याद नहीं कि कभी वही लेनिन के इस सिद्धांत की खिल्ली उड़ाया करता था. वह भूल रहा है कि जासूसी के औचित्य के पक्ष में गढ़ा गया, अविश्वास को विश्वास पर वरीयता देने वाला यह लेनिनवादी सिद्धांत ही ढाई दशक पूर्व सोवियत संघ और उस के समूचे पूर्वी गुट को ले डूबा. सोवियत संघ भी एक महाशक्ति हुआ करता था. अमेरिका भी एक महाशक्ति है. कौन जाने, उस का भी कभी यही हाल हो!!