उत्तर प्रदेश की जन सभाओं में जब नरेंद्र मोदी बार-बार यह कहते थे कि ‘इस बार सबका सफाया करना है– ‘सबका’ यानी सपा, बसपा और कांग्रेस इन तीनों का सफाया’ तब शायद किसी को भी बात का गुमान नहीं था कि यह बात उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों में एकदम सही साबित होने जा रही है. मगर चुनाव नतीजों ने दिखा दिया कि उत्तर प्रदेश में दो परिवारों की ‘चमत्कार पूर्ण’ विजय को छोड़ कर वाकई सबका सफाया हो गया.
कांग्रेस तो फिर भी राष्ट्रीय पार्टी है. कुछ राज्यों में उसकी सरकारें भी हैं, लेकिन असली आफत तो सपा और बसपा की है. दोनों व्यक्ति आधारित पार्टियां हैं और दोनों अपने खास जातीय-धार्मिक और वर्गीय वोट बैंक के सहारे खड़ी हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत पाने के बाद जिस तरह बसपा ने मायावती को प्रधानमंत्री बनाने का सपना देखा था ठीक वैसा ही सपना अखिलेश यादव की जीत के बाद सपा ने भी देखा था. मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सपा ने ‘मिशन 2014’ की घोषणा भी की थी. लेकिन शायद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी में ही कुछ ऐसा ऐब है कि उस पर बैठते ही सारे ‘मिशन’ गड़बड़ हो जाते हैं. मायावती की तरह अखिलेश सरकार भी गठन के बाद से ही लोगों की आकांक्षाओं से दूर होती चली गई. मुलायम के बार-बार के उलाहनों के बाद भी पार्टी के कारिंदों का डीएनए बदला नहीं और नतीजा मुलायम के प्रधानमंत्री बनने की जगह कुनबे के प्रधान बनने में ही सिमट कर रह गया. यूं तो मुलायम ने पार्टी से खुद को प्रधानमंत्री बनवाने के लिए खुद ही आग्रह भी किया था और ठीक से काम न करने वालों को कड़े शब्दों में चेताया भी था लेकिन न उनकी चेतावनी काम आई न आग्रह.
सपा सत्ता की धमक में यह भूल गई कि लोकतंत्र में जनता सबसे बड़ी होती है. उसके नेताओं-कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों का सार्वजनिक व्यवहार पार्टी को भारी पड़ गया. केंद्र सरकार की तरह ही लैपटाप, बेरोजगारी भत्ता या मुस्लिम छात्राओं के भत्ते आदि-आदि तरीकों से जनता के पैसे की बंदरबांट करके पार्टी इस दिवास्वप्न में खोई रही कि सूबे में हर ओर उसका गुणगान ही हो रहा है. सपा यह नहीं समझ पाई कि मुजफ्फरनगर दंगों और उसके आस-पास की घटनाओं ने अल्पसंख्यकों का भरोसा कमजोर किया है और जातीय रैलियों के जरिए वोट बटोरने की तरकीब भी बेकार हो रही है. नतीजा पूरे सफाए के रूप में सामने आया.
पहले सपा ने मुलायम सिंह को राष्ट्रीय राजनीति के लिए मुक्त कर दिया था मगर अब यह समझा जा रहा है कि वे खुद ही पार्टी के कामकाज पर फिर से नियंत्रण करके पार्टी को ऊपर उठाने की कोशिश करेंगे. सपा इस वक्त ऐसी स्थिति में है कि अगर वह वाकई संभलने की गंभीर कोशिश करती है तो उसके पास कुछ सभावनाएं बरकरार दिखती हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि सपा और अखिलेश सरकार जल्द ही कुछ बेहद कड़े कदम उठाएगी. इनमें मंत्रिमंडल की सफाई से लेकर पार्टी संगठन और लाल बत्तियों की छंटाई जैसे काम जल्द ही हो सकते हैं. अगर यहां से भी पार्टी ने कोई सबक नहीं लिया तो अखिलेश सरकार के कार्यकाल के बाद सपा के लिए एक काली अंधेरी सुरंग का रास्ता खुला है. वैसी ही सुरंग जिससे उसकी प्रतिदद्वंदी बसपा पहले ही गुजर रही है.
बसपा के लिए तो लोकसभा चुनाव एक भयानक स्वप्न ही बन गए हैं. मायावती के अति आत्मविश्वास को चुनाव नतीजों ने बुरी तरह झकझोर दिया है. पार्टी के लिए यह हार इसलिए भी खतरनाक संकेत है क्योंकि पार्टी की यह लगातार दूसरी बड़ी हार है. बसपा के लिए विधानसभा की पराजय का अवसाद अभी खत्म भी नहीं हो पाया था कि यह नई और भीषण पराजय सामने आ गई है. इस हार ने लगातार अकेली पड़ती जा रही मायावती को और अकेला बना दिया है. इससे मायावती की कथित सोशल इंजीनियरिंग की तो भद्द पिटी ही है. मायावती का भरोसेमंद वोट बैंक भी बिखरता हुआ दिखाई देने लगा है. हालांकि चुनाव के अंतिम दौर में मायावती को इस बात का अंदेशा हो गया था और इसीलिए उन दिनों वे लगातार लखनऊ मंे प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपने वोटरों को सचेत करने की कोशिश करने में लगी थीं. मगर न उनकी अपील से दलित मुस्लिम गठजोड़ कायम रह सका और न ही उनका खुद का अपना वोट बैंक. मायावती अब इस सबके लिए भले ही भाजपा और उनके नेताओं के ‘शैतानी भरे हथकंडों’ को दोषी ठहराएं, भले ही दलितों के हिंदू होने पर यह कह कर सवाल उठाएं कि दलितों ने तो बाबा साहब के नेतृत्व में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था और भले ही यह कह कर सफाई दें कि उनका वोट बैंक जस का तस है, लेकिन यह तय है कि मायावती के लिए आगे की राह बहुत आसान नहीं रह गई है. दलित मतदाताओं के बीच तो विश्वास का संकट कायम है. मुस्लिम मतदाताओं के लिए वे खुद कह रही हैं कि वे पहले गलती करते हैं फिर पछताते हैं और ऐसी ही कुछ धारणा अपर कास्ट के बारे में भी उनकी है कि वे भी वोट देते वक्त बहक जाते है. इसलिए अगले विधानसभा चुनाव उनके लिए अग्नि परीक्षा होने जा रहे हैं. मायावती किस तरह की तैयारी करके अपनी आगे की राह बनाती हंै, यही बात उनका भविष्य तय करेगी.
लोकसभा चुनाव में 31 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही सपा और 34 सीटों पर नंबर दो रही बहुजन समाज पार्टी दोनों के लिए ही भाजपा की एकतरफा जीत एक बड़ी आफत बनने जा रही है. यह तय है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के अगले चुनाव में सत्ता के दो नए दावेदार भी सामने आ सकते हैं. लोकसभा चुनाव के नतीजे संकेत हैं कि सपा और बसपा दोनों के लिए ही उत्तर प्रदेश की सूबेदारी के दिन अब लदने जा रहे हैं. अगर मोदी सरकार जन अपेक्षाओं के अनुरूप कार्य करती रही तो उत्तर प्रदेश में भाजपा सत्ता की दावेदार होगी और अगर मोदी सरकार असफल सरकार साबित हुई तो सत्ता विरोधी लहर के तहत कांग्रेस पुर्नजीवित होकर उत्तर प्रदेश की सत्ता की दावेदार होगी.