कब तक पैदा होते रहेंगे बच्चे
बगैर किसी देश के, बगैर बचपन के
वह सपने देखेगा अगर कोई सपना देख सके
और धरती विदीर्ण है
महमूद दरवेश, फिलस्तीनी शायर

प्रवास पर लिखी गई फिलस्तीनी शायर महमूद दरवेश की यह नज्म अक्सर उन लोगों के लिए आईना बन कर उभरती है, जो अपने मादरे वतन से बिछड़े हुए हैं और अपने वतन लौटने की तमन्ना दिल में लिए अपने लोगों से मिलना चाहते हैं, अपनी जमीं में दफन होना चाहते हैं. उनके बच्चों के पास पासपोर्ट नहीं है. उन्होंने अपने माता-पिता से सिर्फ घर की कहानियां ही सुनी हैं. शायद उन्हें ये इल्म तक नहीं कि वो अपने घर वापस कभी नहीं लौट सकेंगे. घर लौटना उनके लिए महज एक ख्वाब बन कर रह गया है.
म्यांमार के रखाइन प्रांत में बौद्ध कट्टरपंथियों के जुल्मो-सितम के बाद बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुस्लिम देश से दूर भारत में पनाह लिए हुए हैं. उधर, पाकिस्तान में इस्लामिक कट्टरपंथियों के जुल्म के बाद हिंदुओं ने भी भारत में पनाह लेना ही मुनासिब समझा. पाकिस्तान और म्यांमार सहित, फिलस्तीन, अफगानिस्तान, इराक और सीरियाई लोगों ने भी ऐसी स्थितियों का सामना किया है. उन्हें भी कट्टरपंथियों के अत्याचारों के बाद अपना देश छोड़कर भागना पड़ा. उन तमाम सताए हुए लोगों में सिर्फ एक बात समान है और वह यह कि ये सब शरणार्थी हैं.
तमाम पीड़ितों में उन बच्चों की हालात सबसे ज्यादा खराब हैं जो पैदाइश के साथ ही अपने वतन से बेदखल कर दिए गए और वैसे मासूम जिनकी पैदाइश ही दूसरे मुल्क की सरजमीं पर हुई. देश में अगर नागरिकता ही पहचान का पैमाना तो बिना नागरिकता के अब ये मासूम कहीं के नहीं रहे. ‘तहलका’ ने कुछ देशों से आए ऐसे ही कुछ शरणार्थियों और उनके बच्चों से मुलाकात की. इन शरणार्थियों के लिए इज्जत भरी जिंदगी एक सपना ही है, जब तक वो अपने वतन न लौट जाएं या उन्हें भारत की नागरिकता न मिल जाए.
[symple_box color=”blue” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज (यूएनएचसीआर) का एक शरणार्थी हुसैन, म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की का बड़ा फैन है. दूसरे रोहिंग्या मुस्लिमों की तरह हुसैन को भी ऐसा लगता है कि उनकी ये लोकतांत्रिक नेता उनके लिए खड़ी होंगी और उन पर हो रहे अत्याचारों को खत्म कर देंगी. दिलचस्प बात यह है कि हुसैन को सियासत का अच्छा खासा इल्म है. हुसैन के मुताबिक ‘आंग सान सू की हमारे लिए आवाज उठाना तो चाहती हैं पर कुछ राजनीतिक परेशानियों की वजह से उन्होंने चुप्पी साध रखी है. म्यांमार में चुनाव होने वाले हैं और चुनाव में वो मुस्लिमों को नजरअंदाज नहीं कर सकतीं. मुझे पूरा यकीन है कि जब वह प्रधानमंत्री चुन ली जाएंगी तब वो हमें वापस बुलाने की व्यवस्था जरूर करेंगी. मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूं.’
2012 में रोहिंग्या के खिलाफ हुई हिंसा के बाद हुसैन अपने माता-पिता के साथ भारत आ गया था पर अब भी उसे घर लौटने की उम्मीद है. हुसैन ने यूएनएचसीआर की मदद से पास ही के एक स्कूल में दाखिला ले लिया है और वह शिविर के दूसरे बच्चों को अपने इतिहास के बारे में बताता है ताकि वह इतिहास गुमनाम बन कर न रह जाए.
[/symple_box]
[symple_box color=”blue” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

बकरियों के इस बाड़े में खेलते ये बच्चे पाकिस्तान से हैं. पास में ही फरीदाबाद की फ्रंटियर कॉलोनी के शिविर में रहते हैं. इस शिविर में सूरज छिपने से पहले का धुंधलका मानो इनकी जिंदगी में फैली अनिश्चितता के अंधेरे को दिखा रहा है. दिनभर खेल-कूद में डूबे ये बच्चे पढ़ाई के नाम से भी बेखबर हैं.
[/symple_box]
[symple_box color=”blue” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

जसप्रीत की जिंदगी भी उस मक्के की हरी पत्तियों जैसी ही उलझी है, जिसे वो भुट्टे से खींच रही है. सात साल की जसप्रीत का भाग्य भी कुछ यूं ही भारत और पाकिस्तान के बीच लटका है जैसे पास के ही झूले में उसकी छोटी बहन. वह हर रोज अपनी मां से जिद करती है कि उसे भी अपने घर कराची जाना है, जहां वह अपने दोस्तों और भाई-बहनों के साथ खेल सके.
फरीदाबाद के फ्रंटियर कॉलोनी के शिविरों में पनाह लिए दूसरे बच्चों की मानिंद जसप्रीत के भाग्य का फैसला भी भारत और पाकिस्तान की सरकारों पर निर्भर है, साथ ही उन तालिबानयों पर भी, जिन्होंने हजारों हिंदुओं और सिखों को उनके वतन से बेदखल कर दिया. 2008 में उसका परिवार टूरिस्ट वीजा ले कर भारत आया था और वापस न लौटने की सोची थी. पर अब पराए मुल्क में उनके ऊपर वापस जाने का दबाव बनाया जा रहा है.
[/symple_box]
[symple_box color=”blue” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

अब्दुल अज़ीज़ अफगानिस्तान के एक उदारवादी परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जिसे अफगानिस्तान में बढ़ते हुए कट्टरपंथ ने परेशान कर रखा था. कट्टरपंथियों के अत्याचार से बचकर भागने की कोशिश में अब्दुल अज़ीज़ भूल ही गए हैं कि वो कहां से हैं. उन्होंने इस संवाददाता का अभिवादन तो किया पर फिर सकपका गए क्योंकि वो हमारी भाषा ही नहीं समझते. फिलहाल अब्दुल अज़ीज़ का परिवार पराए मुल्क में अमनो-चैन की तलाश कर रहा है.
[/symple_box]