सवाल: रहस्य व रोमांच के धागे, कलम रूपी सुई में पिरोकर रोचक व तेज रफ्तार वाले कथानक का ‘ताना-बाना’ बुनने वाले केशव पंडित के थ्रिलर, सस्पेंस और रोमांस से फुल हाहाकारी उपन्यास सबसे ज्यादा क्यों पढ़े जाते हैं?
जवाव: ये उस दूल्हे से पूछिए, जो ‘सुहाग-सेज’ पर बैठी दुल्हन को भुलाकर पहले केशव पंडित के उपन्यास को पढ़ता है तथा फिर उसी उपन्यास को ‘मुंह दिखाई’ में अपनी दुल्हन को भेंट कर देता है!
माफ कीजिएगा यह मेरा सवाल-जवाब नहीं है. यह तो प्रोमो है… प्रोमो है केशव पंडित के आने वाले हाहाकारी उपन्यास का. ऐसा हाहाकारी उपन्यास जो आपके तन, बदन और मन तीनों को सुलगा कर रख देगा. अब जरा इस तरह के अन्य प्रलयंकारी उपन्यासों के नामों पर एक नजर डालिए – जूता करेगा राज, खून से सनी वर्दी, कानून किसी का बाप नहीं, सोलह साल का हिटलर, धमाका करेगी रोटी, लाश पर सजा तिरंगा, खून बहा दे लाल मेरे, शेर के औलाद, तबाही मचाएगी विधवा, नागिन मांगे दूध, चींटी लड़ेगी हाथी से, पगली माई बोले जयहिंद, लड़ेगा भाई भगवान से, अंधा वकील गूंगा गवाह, गंगा बहेगी अदालत में, जूता ऊंचा रहे हमारा, तू पंडित मैं कसाई, बालम का चक्रव्यूह, झटका 440 वोल्ट का, बारात जाएगी पाकिस्तान, कातिल मिलेगा माचिस में, दहेज में रिवाल्वर… और भी कई अगड़म-बगड़म नाम इसमें शुमार हैं.
जवान हो रहा था. स्कूलिया साहित्य से मन ऊब सा गया था. सुभद्रा कुमारी चौहान के वीर रस की कविताओं का रस भी सूख सा गया था. सिलेबस की किताबें काटने को दौड़ती थीं. तब इन्हीं लुगदी कागज पर लिखे जाने वाले साहित्यों ने मुझे बचाया था. कहने का मतलब पढ़ने में मेरी रुचि को बचाए रखा था. ये अगड़म-बगड़म नहीं होते तो आज मैं भी वो नहीं होता जो आज हूं. और भी अच्छा हो सकता था या और भी बुरा. बाद वाले की संभावना ज्यादा थी. उस वक्त दिल को दो ही लोग सुकून देते थे. मिथुन चक्रवर्ती और वेदप्रकाश शर्मा. इन घासलेटी साहित्य से अपना दिल कुछ ऐसा लगा कि परिवार और समाज ने ‘आवारा’ का तगमा तक दे दिया. पिताजी विद्यापति, प्रेमचंद और नागार्जुन से जितना प्यार करते थे उससे कई गुना ज्यादा मेरे आदर्श वेदप्रकाश शर्मा, रानू, कुशवाहा कांत या फिर गुलशन नंदा से नफरत. देश में जिस वक्त रामायण, महाभारत जैसे सीरियल सड़कों को वीरान बना रहे थे, ठीक उसी समय ‘वो साला खद्दरवाला’ मेरे अंदर बैठे विद्रोही को सुलगा रहा था. टेलीविजन पर रामायण शुरू होते ही लोग उससे चिपक जाते थे और मैं अपने घासलेटी साहित्य से. शायद यही कारण रहा हो कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम या फिर धर्म राज के जगह मेरा आदर्श कर्नल रंजीत बना. कर्नल रंजीत जिसके पास दुनिया के हर समस्या का समाधान था. जो साइंटिफिक तरीके से सोचता था. कमाल तो भगवान राम भी करते थे. लेकिन उनके चमत्कार में मेरे ‘कैसे?’ का जवाब नहीं होता था. वहीं रंजीत के हर कमाल का साइंटिफिक एक्सप्लेनेशन होता था. फिर चाहे वो सिगरेट के राख से कातिल को पकड़ना हो या डीएनए टेस्ट से मरने वाले के बारे में पता लगा लेना. उन अगड़म-बगड़म कहानियों के खलनायकों के नाम भी मुझे खासे आकर्षित करते थे. मसलन ‘चक्रम’, ‘अल्फांजो’, ‘जम्बो’, ‘गोगा’, ‘टिंबकटू’, ‘कोबरा’ आदि आदि. कहानियों को लिखने का अंदाज इतना निराला होता था कि पाठक उसे पढ़ते वक्त सिर्फ और सिर्फ उसी के होकर रह जाते थे. कुछ-कुछ वैसा ही कंसंट्रेशन (एकाग्रता) जैसे वाल्मिकी या दुर्वाशा का तपस्या करते वक्त रहा होगा. संवाद ऐसे जीवंत और फिसलते हुए कि सिनेमा या सीरियल के बड़े-बड़े उस्ताद स्क्रिप्ट राइटर, कथाकार के शागिर्द बनने को मचल उठते थे. लेखन कौशल की कुछ बानगी आप भी देखिए-
‘एक सिगरेट होठों के बीच दबाने पर उसने माचिस से एक तिली निकाल कर मसाले पर उसके सिर को रगड़ा. चट… की आवाज के साथ तिली जली- लेकिन बारिश की आवाज, बादलों की गरज और बिजली की कड़क में दबकर रह गई.’
‘उसने सिगरेट में कश लगाकर कसैले धुएं की बौछार नैना के चेहरे पर छोड़ी तथा पान का पीक जमीन पर थूका. नैना चीख पड़ी. उसने नैना की दोनों कलाइयों को आपस में मिलाकर दाहिने हाथ से पकड़ ली और बायीं हथेली को उसके होंठ पर प्रेशर कुकर के ढक्कन की मानिन्द ही चिपका दिया.’
सौंदर्य बोध की भी इन लेखकों में कोई कमी नहीं होती है. और उपमा-अलंकार में तो कोई कंजूसी करते ही नहीं-
‘मैं डिटेक्टिव एजेंसी खोलना चाहती हूं केशव… ओनली फॉर लेडीज… चारमीनार की सिगरेट गुलाबी होंठों के करीब पहुंची ही थी कि झील-सी नीली आंखों वाले केशव ने हाथ को नीचे करके सिगरेट को ऐश-ट्रे में डाल दिया और मुस्कुराते हुए सोफिया को देखने लगा. कोई उन्तीस वर्षीय सोफिया. बला की खूबसूरत अप्सरा सी. रंग ऐसा कि मानो चांदी के कटोरे में भरे दूध में गुलाब की पंखुड़ियों को घोल दिया गया हो. आंखें ऐसी की मानो कांच की बड़ी प्यालियों में शराब डालकर उनमें हरे रंग के जगमगाते हीरे डाल दिए गए हों. मोतियों से सफेद व दमकते दांत तथा पतले-पतले, नाजुक, गुलाबी व रसीले होंठ. सुनहरे रंग के घने व लंबे केश. लंबे कद वाला जिस्म- मानो ऊपर वाले ने मोम को अपने हाथों में सजा-संवारकर उसमें प्राण फूंक दिए हों…’ बाप रे बाप….
इन उपन्यासों को लिखने वाले प्रमुख लेखकों में वेदप्रकाश शर्मा, रानू, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, केशव पंडित आदि हैं. लेकिन इनमें भी वेदप्रकाश शर्मा ने सबसे ज्यादा नामवरी और धन दोनों कमाया. वेदप्रकाश शर्मा जिसे हिंदी साहित्यकारों की बिरादरी लेखक भी शायद ही माने कि उनकी रचनाओं ने निर्मल वर्मा, कमलेश्वर या राजेंद्र यादव जैसे दिग्गजों को काफी पीछे छोड़ दिया है. मेरठ के वेदप्रकाश 2005 में अपनी उम्र के पचास साल पूरे होने के मौके पर एक विशेषांक ‘काला अंग्रेज’ लिखा, जो उनका 150वां उपन्यास था. शर्मा पिछले बीस साल से सबसे बिकाऊ लेखक हैं. उनका सबसे ज्यादा बिकने वाला उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ था जिसकी करीब 8 करोड़ प्रतियां बिकीं. उनके दूसरे उपन्यास भी औसतन 4 लाख बिक जाते हैं. शर्मा के उपन्यास पर फिल्म- ‘बहू मांगे इंसाफ’ बनी जिसमें दहेज की समस्या को नए कोण से उठाया था. इसके अलावा उनके उपन्यास ‘लल्लू’ पर ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ और ‘सुहाग से बड़ा’ पर ‘इंटरनेशनल खिलाड़ी’ बन चुकी हैं. अब हैरी बावेजा ‘कारीगर’ बना रहे हैं, वहीं ‘कानून का बेटा’ पर भी एक फिल्म बनाई जा रही है. इनकी पटकथाएं भी शर्मा लिख रहे हैं. इन उपन्यासों के लेखकों के हिसाब से उनका पात्र भी यूनिक होता है और उनकी पसंद भी. मसलन सुरेंद्र मोहन पाठक के हीरो सुनील और विमल महंगे ‘डनहिल’ या ‘लकी स्ट्राइक’ सिगरेट का ही कश लेगा. वहीं केशव पंडित के कहानियों का हीरो केशव मुफलिसी में जीता है और सस्ते ‘चारमीनार’ को धूककर ही संतुष्ट दिखता है. इसी प्रकार सुरेंद्र मोहन पाठक के ‘ब्लास्ट’ अखबार का रिपोर्टर सुनील जिस होटल या रेस्तरां में जाता था घटना या दुर्घटना भी वहीं होती थी.
लगभग हरेक उपन्यास के पीछे लेखक के आगामी उपन्यास का टीजर जरूर छपता है. इन टीजरों को इतने आकर्षक ढंग से लिखा जाता है कि पाठक अगले उपन्यास को खरीदने को मजबूर सा हो जाता है. इसकी भी एक बानगी पढ़िए…
‘इस बार दिमाग के जादूगर इंस्पेक्टर विजय की टक्कर अपनी ही बीवी सोफिया से हो रही है.’,
‘मुजरिमों को तिगनी का नाच नचाने वोले केशव पंडित का दिमाग अपना चमत्कार दिखला पाएगा या सिर्फ घूमकर ही रह जाएगा?’, ‘बिल्कुल नई थीम’ नए ‘आइडिया’ पर लिखा गया बेहद रोचक, तेज रफ्तार और सस्पेंस से भरपूर उपन्यास, जो आपके धैर्य की भरपूर परीक्षा लेगा!’
इन उपन्यासों को गौर से पढ़ने पर एक दिलचस्प बात यह सामने आई कि लगभग सभी प्रकाशक मेरठ के ही हैं. यह भी एक शोध का विषय हो सकता है. उपन्यास के पीछे या बीच में छपे विज्ञापन भी काफी मनोरंजक होते है और प्राय: एक ही तरह के होते हैं. मसलन-
‘जोरो शाॅट रिवाल्वर- जानवरों को डराने के लिए, आत्मरक्षा और नाटकों के लिए. रिवाल्वर के साथ बारह कारतूस मुफ्त में प्राप्त करें.’ या ‘मात्र 30 दिनों में अंग्रेज़ी सीखें’ यह भी देखने में आता है कि इस तरह के उपन्यास बस स्टैंड या रेलवे स्टेशनों पर ही ज्यादा बिकते हैं. इसका भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होना चाहिए.
हिंदी की ऐसी हल्की-फुल्की, मनोरंजक किताबें हाथों हाथ बिकती हैं जिन्हें साहित्य की श्रेणी में रखने में भी शायद आलोचकों को झिझक हो. अब आलोचकों को यह तथ्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि मनोरंजक पुस्तक लोकप्रिय होते हैं. अब यह समय आ गया है कि गंभीर साहित्य लिखने का तरीका भी बदले ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को आकर्षित किया जा सके. अगर गंभीर साहित्य लिखने वाले लोग वेद प्रकाश शर्मा या सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास पढ़ लें, तो वे भी सोचने को मजबूर हो जाएंगे कि वे क्यों पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. निजी तौर पर कहूं तो मैंने सभी तरह की किताबें पढ़ी हैं. उन लेखकों में मुंशी प्रेमचंद भी हैं और वेदप्रकाश शर्मा भी. अपने-अपने क्षेत्र में दोनों ही महान हैं. दोनों का अपना अलग मुकाम है. आप उनकी तुलना कैसे कर सकते हैं, क्या केएल सहगल भांगड़ा या रॉक संगीत गा सकते हैं? वही बात इन दोनों लेखकों की भी है. आप क्या सोचते हैं..?