हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या करने से पहले जो पत्र लिखा उसमें उन्होंने खालीपन के अहसास को आत्महत्या जैसा कदम उठाने का कारण माना है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की ब्राह्मणवादी करतूतों का विरोध करते हुए खालीपन के अहसास से भर जाना बहुत बड़ी त्रासदी है. यह हमारी सामूहिक त्रासदी है. रोहित जैसे न जाने कितने लोग व्यवस्था के खिलाफ लड़ते हुए इस खालीपन से भर जाते हैं. यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं. रोहित को याद करने और उनकी स्मृति को सम्मान देने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि हम इस खालीपन को भरने के लिए एक-दूसरे के करीब बने रहें. कमियों की अनदेखी करके संवाद बनाए रखने की कोशिश करें.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों की जनविरोधी विचारधारा और पूंजीवाद की विचारहीनता ने हमारे देश के माहौल को इतना जहरीला बना दिया है कि बदलाव की छोटी-मोटी कोशिशें अपने छोटे दायरे में ही दम तोड़ देती हैं. अगर प्रगतिशील ताकतों में एकजुटता रहे तो यह छोटा दायरा बड़ा भी हो सकता है.
रोहित के लिए अपने संघर्ष को जारी रखना कितना मुश्किल बना दिया गया था इसे समझने के लिए उस मामले को ठीक से समझना होगा जिसने अंत में रोहित की जान ले ली. पिछले साल अगस्त में दिल्ली विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों और अन्य हिंदूवादी संगठनों के सदस्यों ने हिंसा की धमकी देकर ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ नाम की डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग रोक दी थी. भारतीय लोकतंत्र के लिए यह बहुत शर्मनाक घटना थी. जब देश की राजधानी में ऐसा हो सकता है तो दूसरी जगहों पर क्या-क्या हो सकता है इसकी कल्पना करके ही दिल भय और निराशा से भर जाता है. हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में इस घटना का विरोध हुआ और बाद में इस कैंपस में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक सदस्य ने रोहित और दूसरे छात्रों पर हिंसा का आरोप लगाया. जांच-पड़ताल के बाद यह आरोप झूठा सिद्ध हुआ. लेकिन इसके बाद कुछ ऐसा हुआ जो हमारे देश की ब्राह्मणवादी व्यवस्था की मानसिक गंदगी और कुटिलता को हमारे सामने लाता है.
भयानक गरीबी का सामना करते हुए उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले इन छात्रों ने ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था जिसके लिए उन्हें इतनी बड़ी सजा दी गई? यह अपराध था अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की हिंसात्मक और अलोकतांत्रिक गतिविधियों का विरोध करना
भाजपा विधायक रामचंद्र राव ने इस मामले में ‘दोषियों’ को सजा दिलाने की मुहिम छेड़ दी. बंडारू दत्तात्रेय ने तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय को पत्र लिखकर ‘राष्ट्रविरोधी’ छात्रों को सजा दिलवाने की मांग की थी. पुराने वीसी के कार्यकाल में प्रशासन ने मेडिकल रिपोर्ट में मारपीट की बात के गलत साबित होने के बावजूद भाजपा के दबाव में रोहित और चार दूसरे दलित छात्रों को निलंबन की सजा दे दी. बाद में जब विद्यार्थियों ने इस सजा का जोरदार विरोध किया तो यह सजा वापस ले ली गई और नई जांच समिति गठित करने की घोषणा की गई. नए वीसी ने इस समिति को भंग करके नई समिति बनाई जिसने संबंधित पक्षों से पूछताछ किए बिना रोहित और उनके चार साथियों के हॉस्टल, प्रशासनिक भवन समेत मेस, लाइब्रेरी जैसी सार्वजनिक जगहों पर जाने पर पाबंदी लगा दी.
आप रोहित के रूप में एक व्यक्ति को एक तरफ रखिए और दूसरी तरफ हमारे शासन तंत्र को. हमें रोहित की आत्महत्या को सही राजनीतिक संदर्भों में देखना होगा. जब आपको इस बात का अहसास हो जाए कि पूरा तंत्र आपके खिलाफ खड़ा है तो आप क्या महसूस करेंगे? इस पाबंदी को कैंपसों में जाति प्रथा लागू करने के उदाहरण के तौर पर ही देखा जाना चाहिए. चार दलित छात्रों के पिता खेतिहर मजदूर हैं. एक के माता-पिता गुजर चुके हैं. भयानक गरीबी का सामना करते हुए उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले इन छात्रों ने ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था जिसके लिए उन्हें इतनी बड़ी सजा दी गई? यह अपराध था अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की हिंसात्मक और अलोकतांत्रिक गतिविधियों का विरोध करना. हम भारत के शिक्षा संस्थानों के भगवाकरण को रोकने में नाकामयाब हो रहे हैं. रोहित इस सामूहिक नाकामयाबी से उपजी निराशा से उबरने की कोशिश कर रहे थे.
उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण लागू होने के बाद अनुसूचित जाति-जनजाति और ओबीसी के विद्यार्थियों की मौजूदगी बढ़ी है. हालांकि जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से यह मौजूदगी संतोषप्रद नहीं है, लेकिन असमानता और शोषण को ही जीवन मूल्य मानने वाले लोग इस बदलाव से न केवल चिढ़ते हैं बल्कि इस प्रक्रिया को रोकने के लिए कोई भी कदम उठाने को तैयार रहते हैं. जब हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय कैंपस में पानी की दिक्कत चल रही थी तब इस कैंपस के सौंदर्यीकरण के नाम पर फव्वारे लगाए गए. यही हाल तमाम दूसरे कैंपसों का है. रोहित को सात महीने से फेलोशिप नहीं मिली थी. उन्होंने आत्महत्या से पहले लिखे अपने पत्र में इस पैसे को अपने घरवालों तक पहुंचाने का अनुरोध किया है. पैसे की यह दिक्कत उन लाखों विद्यार्थियों को होती है जो तमाम असुविधाओं का सामना करते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखते हैं. यूजीसी ने फेलोशिप बंद करने का जो फैसला सुनाया है उसका सबसे खराब असर दलितों और महिलाओं पर पड़ेगा.
हम अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की हिंसक गतिविधियों को तो फिर भी देख लेते हैं लेकिन उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बौद्धिक हिंसा पर उतना ध्यान नहीं दे पाते जितना देना चाहिए. जब 2011 में एके रामानुजम के प्रसिद्ध निबंध ‘300 रामायणें : पांच उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार’ को दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम से हटाया गया तब यही हिंसा काम कर रही थी. वेंडी डोनिगर की हिंदुओं पर लिखी किताब को नष्ट करवाने वाली हिंसा भी हमारी चिंता के दायरे में होनी चाहिए. यही हिंसा दीनानाथ बत्रा जैसे लोगों को बौद्धिकता का तमगा देकर रोमिला थापर के सामने खड़ा कर देती है. इस बौद्धिक हिंसा की काट ढूंढ़े बिना रोहित जैसे लोगों का संघर्ष हर दिन ज्यादा जटिल और कठिन होता जाएगा. तमाम शिक्षा संस्थानों में अयोग्य दक्षिणपंथियों को बड़े पदों पर बैठाना भी इसी हिंसा का हिस्सा है. यही लोग रोहित जैसे साथियों की जिंदगी को इतना बोझिल और कष्टप्रद बना देते हैं कि उन्हें आत्महत्या का विकल्प चुनना पड़ता है.
अभी यह खबर मिली है कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित के शव के इर्द-गिर्द खड़े प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने बेरहमी से पीटा है और आठ विद्यार्थियों को गिरफ्तार किया गया है. दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सामने विरोध-प्रदर्शन कर रहे लोगों पर वाटर कैनन से पानी डाला गया है. जनवरी की ठंड में पुलिस की लाठी-ठंडे और पानी का सामना करते हुए कैंपसों के भगवाकरण का विरोध कर रहे ये लोग ही हमारे लोकतंत्र के असली पहरेदार हैं. जो जैसा चल रहा है उसे वैसा ही चलने दो, इस मानसिकता ने हमारे देश को दलितों, स्त्रियों, मजदूरों आदि के लिए खुली जेल बना दिया है. एक तरफ इस जेल के कैदी आत्महत्या कर रहे हैं तो दूसरी तरफ वैश्विक पूंजी के बाजार में हमारे देश को विश्व की उभरती ताकत के रूप में पेश किया जा रहा है. इस बौद्धिक अश्लीलता पर जितनी जल्दी रोक लगे उतना अच्छा होगा.