सियासी शराब

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बिहार में एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो एक जमाने में लालू यादव के काफी करीबी रहे हैं. शराबबंदी के आदेश के दिन संयोग से उनके साथ ही था. वे एक किस्सा सुनाते हैं. उन दिनों का किस्सा जब लालू यादव का बिहार में नया-नया उभार हो रहा था. उन्हें सत्ता मिल गई थी और मुख्यमंत्री बनने के कुछ माह के अंदर ही लालू सासाराम पहुंचे थे. भारी भीड़ थी. लालू मंच पर गए. तब समाज की नब्ज पकड़ने की उस्तादी सीख रहे थे लालू प्रसाद. उन्होंने अचानक ही मंच से पूछा कि यहां कौन-कौन है जो ताड़ के पेड़ पर चढ़ता है. हाथ उठाओ. भीड़ में सहमते हुए कुछ लोगों ने हाथ उठाया. लालू प्रसाद ने ललकार भरी, डरो नहीं, हाथ उठाओ. हाथों की संख्या कुछ और बढ़ी. लालू ने कहा कि सब इधर मंच पर आओ. हाथ उठाने वाले कुछ लोग मंच के पास बनी सीढ़ी के पास खड़े हो गए. लालू प्रसाद ने ललकारा, ‘ सीढ़ी से आओगे! नाम हंसाओगे! सामने से मंच पर चढ़ो.’ जो सीढ़ियों के पास थे, वे मंच के सामने गए और मंच पर चढ़ गए. लालू प्रसाद ने सबको मंच पर खड़ा किया. सबके कुरते के बटन को सामने से खोलने को कहा. फिर ताड़ के पेड़ पर चढ़ने से बने दाग को भीड़ को दिखाया. लालू ने कहा, ‘लालू जादव इसी दाग को मिटाने आया है. जाओ आज से ताड़ी टैक्स फ्री हुई.’

जिस समय की यह बात है, उस समय मीडिया का इतना विस्तार नहीं था. न तो इतने क्षेत्रीय चैनल थे, न सोशल मीडिया का जमाना. मोबाइल युग का सूत्रपात भी नहीं हुआ था. फोन भी तब इतने नहीं थे लेकिन सासाराम की यह बात शाम होते-होते तक पूरे बिहार में फैल गई और लालू प्रसाद एक बड़े तबके के लिए नायक बन गए. इस बार जब एक अप्रैल से देसी शराब पर प्रतिबंध की पूर्व घोषित योजना पर अमल शुरू हुआ और उसके चार दिन बाद ही विदेशी शराब पर भी प्रतिबंध लगा तो यह बात हवा में उड़ी कि ताड़ी को भी प्रतिबंधित कर दिया जाए जबकि ऐसा हुआ नहीं. नीतीश कुमार की कैबिनेट ने यह फैसला लिया कि ताड़ी सार्वजनिक जगहों पर नहीं बिकेगी और खुलेआम नहीं बिकेगी. शराबबंदी की बात तो सबको समझ में सीधे-सीधे आ गई कि देसी हो या विदेशी शराब, जो भी बेचेगा, पिएगा, उसे पकड़ लेना है. शराब जहां मिले, उसे जब्त कर लेना है, सड़कों पर बहा देना है. पुलिसवाले यह भी समझ गए कि अगर कोई शराब बेचते या बनाते हुए मिलता है तो उसे समझाना है कि 10 लाख रुपये तक का जुर्माना और दस साल तक की सजा हो सकती है. सार्वजनिक जगहों पर पीकर कोई बौराता है तो उसे दस साल तक की सजा दी जा सकती है. पुलिसवाले को यह भी समझ में आ गया था कि कैंपस या घर आदि में जमावड़ा लगाकर कोई पीने-पिलाने का प्रबंध करता है तो उसे भी बताना है कि दस साल की सजा और उम्रकैद तक हो सकती है. पुलिसवाले यह सब समझ गए लेकिन वे ताड़ी का पेंच समझ नहीं सके इसलिए अगले दिन से ताड़ी उतारने वाले चौधरियों को भी पकड़ने लगे, परेशान करने लगे. दो-चार दिन तक यह होता रहा और बिहार में शराबबंदी पर जितनी बात हुई, जितनी खुशी हुई, उतनी ही नाराजगी एक बड़े वर्ग में ताड़ी को लेकर हुई कार्रवाइयों से व्याप्त हो गई.

ताड़ी के धंधे में लगे लोगों ने कहा कि लालू प्रसाद ही हमारे मसीहा थे, नीतीश तो दुश्मन जैसा व्यवहार कर रहे हैं. कुछ दिनों बाद ताड़ीवालों को परेशान करना छोड़ दिया गया लेकिन यह बात चूंकि तेजी से फैल चुकी थी इसलिए शराबबंदी के कुछ दिनों बाद नीतीश कुमार को भी बोलना पड़ा. उन्होंने कहा था, ‘हम जल्द ही ताड़ और ताड़ी का नया इस्तेमाल करने जा रहे हैं. रोजगार के सृजन का नया द्वार खोलने जा रहे हैं. सूर्योदय से पहले की ताड़ी सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होती है इसलिए सुबह-सुबह की ताड़ी सभी जगहों से जमा होगी और फिर उसका प्रसंस्करण होगा, उसे बोतलबंद किया जाएगा जो ‘नीरा’ नाम से पूरे बिहार में बिकेगी.’

‘शराबबंदी के राजनीतिक निहितार्थ हैं. यह नीतीश के लिए अग्निपरीक्षा है. पुलिसवाले चाहेंगे, तभी यह सफल होगा और पुलिसवाले ऐसा आसानी से चाहेंगे, इसमें संदेह है’

शराबबंदी के प्रसंग में ताड़ी पर यह बात इसलिए कि महज पांच दिन में यह पता लग गया कि शराबबंदी का बिहारियों की सेहत और आर्थिक नफा-नुकसान से चाहे जिस किस्म का रिश्ता हो लेकिन इसका सियासत से भी उतना ही गहरा रिश्ता है लेकिन सियासी रिश्ते सतह पर नहीं हैं. बात सिर्फ ताड़ी पर नहीं हुई, पहले सिर्फ देसी शराब पर प्रतिबंध लगाने के ठीक चार दिन बाद ही जिस तरह से नीतीश कुमार ने विदेशी शराब पर भी प्रतिबंध लगाने का आदेश पारित किया, बिहार में शराबियों के मुंह से चाहे जितनी गालियां निकली हों, शराब का विरोध करने वालों ने चाहे जितनी वाहवाही दी लेकिन बिहार की सियासत को जो समझते हैं, उन्होंने प्रतिक्रिया दी थी कि जनता की नब्ज पकड़ने के मामले में नीतीश अब लालू से ज्यादा उस्ताद हो गए हैं और उन्होंने शराबबंदी के जरिए एक ऐसा तीर चलाया है जिससे एक साथ कई निशाने सधेंगे. जो यहां की सियासत को समझते हैं, वे यह भी जानते हैं कि नीतीश ने शराबबंदी का एजेंडा चुनाव के पहले क्यों सामने लाया और चुनाव होने और परिणाम आने के बाद सबसे पहले ठोस फैसले के रूप में शराबबंदी को ही क्यों लागू किया.

मीनापुर के पूर्व राजद विधायक हिंद केशरी यादव कहते हैं, ‘नीतीश जी ने ये फैसला अचानक लिया है. स्वागत है लेकिन इस शराबबंदी के राजनीतिक निहितार्थ हैं. यह उनके लिए अग्निपरीक्षा है. उनके पुलिसवाले चाहेंगे, तभी यह सफल होगा और पुलिसवाले आसानी से चाहेंगे, इसमें संदेह है. मैं तो वर्षों से शराबबंदी अभियान चलाता रहा, चार साल पहले मुझे जिला प्रशासन और पुलिस के तमाम बड़े पदाधिकारियों के बीच में ही शराबबंदी अभियान के तहत पदयात्रा निकालने के कारण शराब माफियाओं ने मारा-पीटा. मेरे साथ महिलाओं को मारा-पीटा गया था. अभियान में शामिल एक गर्भवती महिला को इतना पीटा गया कि उनका अबॉर्शन कराना पड़ा. हमने नामजद एफआईआर कराई लेकिन आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई.’

हिंद केशरी कांग्रेसी कुल के नेता रहे हैं. बाद में राजद से जुड़े और विधायक बने. अब राजद, कांग्रेस सब नीतीश कुमार के साथ हैं इसलिए वे खुलकर कुछ नहीं बोल रहे. हिंद केशरी की मजबूरी है, इसलिए वे जो कहना चाह रहे हैं वह कह नहीं पा रहे लेकिन बिहार के जानकार लोग जानते हैं कि इसके निहितार्थ क्या हैं. निहितार्थ गहरे न होते तो शराब के कारोबार पर प्रतिबंध लगाने का फैसला एक झटके में नहीं लिया गया होता. एक झटके में 500 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान उठाने को कोई भी यूं ही तैयार नहीं हो जाता. बहरहाल इस प्रतिबंध के निहितार्थ सरल हैं. नीतीश दो साल पहले जब भाजपा से अलग होकर लालू प्रसाद के साथ जा मिले थे तो यह कोई साधारण राजनीतिक फैसला नहीं था. नीतीश के राजनीतिक जीवन के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी इस नए सियासी समीकरण को साध लेना और खुद को फिर से स्थापित कर लेना. उन्होंने ऐसा साबित किया और यह सब जानते हैं कि यह सब सिर्फ लालू से जुड़ाव या भाजपा की कमजोर रणनीतियों की वजह से नहीं हुआ बल्कि इसमें सबसे बड़ी भूमिका बिहार के महिलाओं की रही जिन्होंने नीतीश कुमार को खुलकर वोट किया और नीतीश को बड़ी जीत दिलवाने में अहम भूमिका निभाई. महिलाओं का इस तरह एकमुश्त खुलकर नीतीश को वोट देने के पीछे कई कारण माने जाते हैं.

संभावना है कि साइकिल वितरण और पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने के बाद शराबबंदी का फैसला सभी वर्गों की महिलाओं को नीतीश से जोड़ेगा

बताया जाता है कि नीतीश ने महिलाओं को पंचायत चुनाव में आरक्षण दिया इसलिए महिलाएं उनकी मुरीद हुईं. एक बड़ा तबका यह मानता है कि चूंकि नीतीश कुमार ने लड़कियों को साइकिल दी इसलिए भी महिलाएं प्रभावित हुईं. पहली खेप में साइकिल पाने वाली लड़कियां भी अब वोटर हो चुकी हैं, इसलिए भी उनके महिला वोट में इजाफा हुआ है. लेकिन जानकार यह बताते हैं कि इस बार तमाम प्रतिकूल स्थितियों में भी कास्ट और कम्युनिटी के दायरे से बाहर निकलकर महिलाओं ने नीतीश को वोट दिया. एक बड़ी वजह यह भी रही कि नीतीश ने चुनाव के पहले महिलाओं से शराबबंदी का वादा किया था. यह सब जानते हैं कि इसकी बुनियाद कब रखी गई थी. चुनाव के ठीक पहले नौ जुलाई, 2015 को पटना में जीविका परियोजना से जुड़ी महिलाएं ग्रामवार्ता कार्यक्रम में भाग लेने आई थीं. कार्यक्रम में नीतीश के भाषण के बाद एक महिला ने कहा कि शराब बंद करवा दीजिए, सर. तो नीतीश को एक बार फिर माइक संभालना पड़ी. तब उन्होंने कहा था कि इस बार जीत मिली तो पक्का. नीतीश के इस एलान का असर रहा. बाद में नीतीश ने इसे अपने सात निश्चयों में भी शामिल किया और सरकार बनने के बाद पहला फैसला शराबबंदी का ही लिया.

पहला फैसला यही लेने की ठोस वजहें भी थीं. नीतीश जान चुके थे कि भाजपा से अलगाव और राजद से जुड़ने के बाद भी वे अगर भारी जीत हासिल करने में सफल हुए हैं तो उसमें महिलाओं का वोट सबसे अहम रहा है और यह सही वक्त है जब वे उस वोट के चैंपियन बन जाएं और सदा-सदा के लिए अपने पक्ष में कर लें. पहले नीतीश कुमार ने सिर्फ देसी शराबबंदी का आदेश दिया लेकिन चार दिन में ही वे यह भी जान गए कि यह उनकी राजनीतिक भूल है और इसका नुकसान उन्हें ज्यादा होगा इसलिए चार दिन के भीतर ही विदेशी पर भी प्रतिबंध लगा दिया. नीतीश कहते भी हैं कि यह फैसला उन्होंने महिलाओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए लिया है.

नीतीश यह बात सही कह रहे हैं. उन्होंने वास्तव में महिलाओं के दबाव में आकर यह फैसला लिया है क्योंकि महिलाएं न सिर्फ इसकी मांग कर रही थीं बल्कि पिछले कुछ सालों से बिहार के अलग-अलग हिस्से में आंदोलन भी चला रही थीं. अपने दम पर शराबबंदी अभियान चलाकर शराब के अड्डों को ध्वस्त भी कर रही थीं. नीतीश के पास शराबबंदी करने की घोषणा करना ही एकमात्र विकल्प बच गया था. महिलाओं ने पूरे बिहार में किस तरह से शराबबंदी की कमान संभाली थी उसकी बानगी बिहार चुनाव के दौरान ही देखने को मिली थी. रोहतास जिले में महिलाओं ने शराबबंदी के लिए नोटा का प्रचार शुरू कर दिया था. पांच सितंबर को एक बड़ी खबर छपरा के शोभेपुर गांव से आई. वहां शराबबंदी के लिए समूह में पहुंची महिलाओं ने शराब के अड्डे को ध्वस्त कर दिया था. ऐसी ही खबर पटना से सटे मनेर हल्दी छपरा, सादिकपुर, शेरपुर, छितनावां जैसे गांवों से आई थी कि वहां महिलाओं ने शराब के अड्डों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है. बरबीघा जैसे इलाके से यहां तक खबर आई कि महिलाओं ने वहां समूह बनाकर पीने और पिलाने वाले, दोनों पर जुर्माना और सार्वजनिक तौर पर डंडे से पिटाई जैसे दंड की व्यवस्था की न सिर्फ घोषणा की बल्कि उस पर अमल भी कर रही थीं. बिना किसी राजनीतिक दल के सहयोग के ये सारे अभियान महिलाओं ने खुद चलाए. इस तरह के अभियान पूरे बिहार में इतनी तेजी से फैल रहे थे कि अगर नीतीश यह फैसला नहीं लेते तो शायद जिन महिलाओं ने उनका साथ दिया था वे उनसे छिटकना शुरू कर देतीं.

Photo by - Sonu Kishan
Photo by – Sonu Kishan

इसका दूसरा मजबूत पक्ष यह है कि नीतीश अब यह जान चुके हैं कि पूरी तरह से जाति की राजनीति में फंस चुके बिहार में उन्होंने जाति से इतर अपने लिए एक वोट बैंक खुद के बूते तैयार किया है और वह वोट बैंक इतना ठोस है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी उनके कद को बनाए-बचाए रख सकता है. नीतीश ने पिछड़ों से अतिपिछड़ों और दलितों से महादलितों को अलग करके अपने लिए एक अलग वोट बैंक तैयार किया था लेकिन ये वोट बैंक मजबूती से नीतीश के साथ नहीं रह पाए. महादलितों के वोट का बंटवारा हो चुका है और अतिपिछड़ा अब अपनी सत्ता के लिए अलग राह अपना रहे हैं. ऐसे में भविष्य की राजनीति के लिए यह जरूरी था कि नीतीश महिलाओं को अपने साथ रखते. अब साइकिल वितरण योजना और पंचायत में महिलाओं को आरक्षण देने के बाद शराबबंदी का फैसला पिछड़ी से लेकर उच्च जाति की महिलाओं को नीतीश से जोड़ेगा. साथ ही पढ़ी-लिखी शहरी लड़कियों से लेकर गांव-कस्बों में रहने वाली लड़कियों को भी उनके पक्ष में खड़ा करेगा. नीतीश कह भी रहे हैं कि फैसले का असर अभी से दिख रहा है. एक सप्ताह में ही बिहार में जिस तरह से महिलाओं में खुशी की लहर है उससे पता चल रहा है कि आगे बिहार का भविष्य बेहतर होने वाला है.

वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘महिलाओं का अलग से वोट बैंक बन जाने की ऐसी घटना बिहार में पहले कभी नहीं हुई थी.’ सच्चिदानंद सिन्हा जैसे कई लोग मानते हैं कि यह एक अभूतपूर्व राजनीतिक गोलबंदी है जो नीतीश को बड़ा नेता बनाती है लेकिन नीतीश ने शराबबंदी करके भाजपा की आगे की राह मुश्किल करने के साथ ही सबसे बड़ी चुनौती लालू यादव के लिए खड़ी कर दी है. पत्रकार पुष्यमित्र कहते हैं, ‘बहुत साफ है कि नीतीश और लालू की जोड़ी के जीतने के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि लालू खुद को बड़े कद का नेता साबित करने की कोशिश करेंगे लेकिन नीतीश ने खुद को उनसे पहले ही बड़े कद का लोकप्रिय नेता बना लिया. इस प्रक्रिया में शराबबंदी एक बड़े औजार की तरह रही.’ पुष्यमित्र की बातों का विस्तार करें तो एक और बात सामने आती है. इस फैसले से नीतीश ने लालू को चुनौती भर ही नहीं दी है बल्कि इन दिनों वे लालू को दरकिनार करके खुद को एक बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने में जुटे हुए हैं. बिहार में चुनाव परिणाम आने के बाद लालू ने कहा था कि नीतीश बिहार संभालेंगे और वे अब देश घूमकर राजनीति करेंगे लेकिन लालू के इस मंसूबे पर भी नीतीश ने पानी फेर दिया है. नीतीश राष्ट्रीय लोकदल और झारखंड विकास मोर्चा जैसी पार्टियों का विलय जदयू में करवा रहे हैं, और अब वे खुद जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन केंद्रीय राजनीति में अपना कद बढ़ा चुके हैं.

बात इतनी ही नहीं हैं. वे किसी स्तर पर लालू प्रसाद को यह मौका ही नहीं दे रहे कि वे खुद का उभार कर सकें. कहा जा रहा है कि इस शराबबंदी के जरिए भी नीतीश ने लंबी सियासी चाल चली है. नीतीश भी जानते हैं कि अभी नहीं तो 2019 में लोकसभा चुनाव आते-आते तक लालू और उनके बीच का रास्ता अलग हो सकता है. लालू से अलगाव के बाद नीतीश को खुद को खड़ा करने के लिए एक मजबूत आधार चाहिए होगा. उस आधार के तौर पर ही उन्होंने हर तरह के कार्ड खेलने शुरू किए हैं. उनमें से एक कार्ड तो हालिया दिनों में लगातार नीतीश कुमार द्वारा निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग वाला कार्ड है, जिससे वे एक नए किस्म का आधार वोट बैंक नौजवानों, पिछड़ों और दलितों के बीच बनाना चाह रहे हैं. इस बार के चुनाव में नीतीश और लालू अपने वोट बैंक के आधार पर ही चुनावी मैदान में थे. उस आधार से इतर नीतीश ने एक अलग ठोस वोट बैंक का निर्माण महिलाओं के रूप में किया है. यह सब जानते हैं कि लालू इस तरह शराबबंदी के पक्ष में कभी नहीं रहे. उनका जहां-जहां भी कोर वोटर है वहां शराब उसकी जीवन का अहम हिस्सा है, इसलिए लालू पहले भी कहते रहे हैं कि गरीबों का लाल पानी (देसी शराब) कभी बंद नहीं होना चाहिए. अब नीतीश ने सबका लाल पानी बंद कर दिया है और इसे लेकर लालू का अब तक कोई ठोस बयान नहीं आया है. हालांकि उनके बेटे और राज्य के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कहते हैं कि हमने तो नया नारा ही दिया है- ‘नशा छोड़ो, समाज जोड़ो.’ तेजस्वी कहते हैं कि हमारी सरकार ने बिहार की गरीब जनता का ध्यान रखकर और महिलाओं-बच्चों की खुशी के लिए यह फैसला लिया है और ताड़ीवालों को परेशान होने की जरूरत नहीं. सरकार जल्द ही उनके लिए नया वैकल्पिक इंतजाम करने जा रही है ताकि ताड़ी के धंधे पर आश्रित लोगों का जीवनयापन होने के साथ वे कमाई भी कर सकें. तेजस्वी शराबबंदी पर अपनी बात खुलकर रखते हैं. वे इसे अपनी सरकार के श्रेय के खाते में जोड़ना चाहते हैं वहीं नीतीश इसे सरकार के बजाय अपनी उपलब्धियों के खाते में डाल चुके हैं.

शराबबंदी की सियासत तो एक बात हुई. बिहार में शराबबंदी के आदेश के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बिहार में सिर्फ सरकारी आदेश से शराबबंदी हो जाएगी. यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि यहां पहली बार शराबबंदी नहीं हुई है. इससे पहले 1977 में जब कर्पूरी ठाकुर की सरकार थी तब भी शराबबंदी का आदेश सरकार ने दिया था लेकिन यह ज्यादा दिनों तक चल नहीं सका था. तस्करी के कारण आदेश धरा का धरा रह गया था और अंत में कर्पूरी ठाकुर के बाद दूसरी सरकार आते ही शराबबंदी का आदेश वापस ले लिया गया. इस बार भी कहा जा रहा है कि तस्करी होगी. सूचना यह मिल रही है कि बिहार से लगे झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाके में शराब की दुकानें खोलने की तैयारी है और उससे तस्करी भी होगी. मुख्यमंत्री के पास भी यह सवाल रखा जाता है तो वे कहते हैं कि इस भ्रम में किसी को रहने की जरूरत नहीं है. हमने शराबबंदी की बात की है तो जो पड़ोसी राज्य हैं वहां भी यह आवाज उठेगी और कोई तस्करी नहीं होगी. हालांकि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश से तो यह आवाज अब तक नहीं उठी लेकिन झारखंड में इस बात की आवाज नीतीश द्वारा बिहार में आदेश दिए जाने के बाद से ही उठने लगी है. तस्करी तो फिर भी एक मसला है, लेकिन दूसरी बड़ी चुनौती पुलिस-प्रशासन के सहयोग से स्थानीय स्तर पर ‘चुलइया’ शराब बनाने की होगी. अपराध विशेषज्ञ ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘नीतीश के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती होगी क्योंकि बिहार की पुलिस लगातार कमजोर और शिथिल चल रही है. ऐसे में संभव है कि पुलिस शराबबंदी की आड़ में अवैध वसूली का नया कारोबार शुरू करे.’

शराबबंदी से नीतीश ने लालू को चुनौती ही नहीं दी है बल्कि इन दिनों वे उन्हें दरकिनार करके खुद को एक बड़े नेता के बतौर स्थापित करने में भी जुटे हुए हैं

खैर, यह सब तो बाद की बात है. फिलहाल बिहार में शराबबंदी का आदेश होने के बाद से हर दिन शराब को लेकर प्रशासन कार्रवाइयां कर रहा है. नीतीश भी हर आयोजन में शराबबंदी के अपने फैसले की चर्चा करते नहीं अघा रहे हैं. शराबबंदी के बाद रोजाना नए किस्से-कहानियों का भंडार भी बढ़ता जा रहा है. जैसे शराबबंदी के आदेश के दूसरे दिन ही खबर आई कि झारखंड से आने वाली ट्रेनों में दूध के ड्रम में शराब छिपाकर लाने का काम शुरू हो गया है. बेतिया से खबर आई कि वहां कई शराबी शराब न मिलने से साबुन खाने लगे हैं. उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जा रहा है. पूर्णिया से खबर आई कि वहां एंबुलेंस में मरीज को साथ रखकर उसकी आड़ में शराब लाया जा रहा था. औरंगाबाद इलाके से खबर आई कि रोजाना पीने वाले लोग 30-40 किमी तक साइकिल चलाकर झारखंड के सीमावर्ती इलाकों में जा रहे हैं. इसी तरह की खबरें राज्य के अलग-अलग हिस्सों से आ रही हैं. दूसरी ओर पुलिस भी सक्रियता दिखा रही है. राज्य के अपर पुलिस महानिदेशक सुनील कुमार कहते हैं, ‘शराबबंदी के आदेश के बाद पुलिस द्वारा अब तक 15 हजार से अधिक स्थानों पर छापेमारी हो चुकी है. शराब की भट्ठियां तोड़ी गई हैं. केस दर्ज किए जा रहे हैं.’

खैर! यह होना स्वाभाविक भी है. इतने वर्षों में बिहार की एक बड़ी आबादी को शराब पीने की आजादी मिली है. सब अचानक से बंद होने पर ये मुश्किलें आनी ही थीं लेकिन यह भी तय है कि अगर यह कुछ सालों तक लागू रहा और पुलिस ने सख्ती दिखाई तो बिहार में एक नई किस्म की मुश्किल जरूर खड़ी होगी. वजह है कि पिछले कुछ सालों से बिहार में यह कहावत बन चुकी है कि द्वारे-द्वारे शराब पहुंचाकर और शिक्षा को रसातल में पहुंचाकर सरकार ने इसे बर्बादी के मुहाने पर पहुंचा दिया है, जहां सामाजिक न्याय, समावेशी विकास और बिहारीपन जैसे नारे का कोई महत्व नहीं होता. वहीं शराबबंदी के आदेश के बाद बिहार में नई उम्मीद जगी है. नीतीश के फैसले का स्वागत विरोधी भी कर रहे हैं.