बीस महीने पहले पश्चिम बंगाल के बर्धमान की रहने वाली 24 वर्षीय सोहिनी जब सपनों के शहर मुंबई कुछ कर गुजरने के लिए पहुंची थीं तो उनकी जिंदगी में सब ठीक-ठाक चल रहा था. वे एक बीमा कंपनी में काम कर रही थीं और हॉस्टल में रहा करती थीं, लेकिन उनकी कम तनख्वाह उनकी परेशानियों का सबब बनती चली गई. मुंबई में गुजर-बसर करना मुश्किल होता चला गया. इन मुश्किलों को वे झेल नहीं पाईं और मानसिक अस्पताल जा पहुंचीं. तकरीबन डेढ़ साल इलाज चलने के बाद अब वे ठीक हैं लेकिन त्रासदी यह है कि उनकी मां उन्हें अपनाना नहीं चाहतीं और उन्हें अस्पताल में ही रखने की पैरवी करती हैं.
किसी भी तरह की मानसिक बीमारी के शिकार लोग अक्सर ऐसी त्रासदी झेलने को मजबूर होते हैं, जिसमें उनके परिवारवाले उनसे किनारा कर लेते हैं. ऐसे लोग अस्पताल में इस आस से दिन गुजारते हैं कि एक दिन परिवारवाले उन्हें अपने साथ घर ले जाएंगे. ‘तहलका’ ने मुंबई के नजदीक ठाणे स्थित प्रादेशिक मानसिक अस्पताल में छोटी-बड़ी उम्र के ऐसे कई लोगों से बातचीत की जो कई सालों से इस आस में हैं कि एक न एक दिन उनके परिवारवाले उन्हें फिर से अपना लेंगे.
70 एकड़ में फैले 115 साल पुराने इस मानसिक अस्पताल में जब हम पहुंचे तो दिन का तकरीबन एक बज रहा था. महिला वार्ड की सभी रहवासी नीली वर्दी पहने दोपहर का भोजन कर रही थीं. इसी वार्ड में रहने वाली नीता सिंघानिया (बदला हुआ नाम) बड़ी कुशलता से दूसरों को भोजन परोस रही हैं. नीता यहां तीन साल पहले आई थीं, वे अपना मानसिक संतुलन खोने के बाद सड़क पर भटकते हुए पाई गई थीं. आज नीता पूरी तरह से स्वस्थ हैं लेकिन उनके घरवाले उन्हें अपनाना नहीं चाहते. वे कहती हैं, ‘मैं अपने पिता जी के साथ उल्हासनगर में रहती थी. उनकी मृत्यु के बाद मैं अपना मानसिक संतुलन खो बैठी और सड़कों पर रहने लगी थी. इलाज के बाद मैं अब पूरी तरह से ठीक हूं लेकिन घरवालों ने नहीं अपनाया. अफसोस होता है कि पिछले तीन सालों में मेरी दोनों बहनें एक दफा भी मुझसे मिलने नहीं आईं.’ नीता को अस्पताल में पुलिस ने भर्ती करवाया था. वे कहती हैं, ‘मेरा उल्हासनगर में एक कमरा है, वहां रहकर मैं पापड़ बेचने का व्यवसाय कर अपना गुजारा कर सकती हूं. अस्पतालवालों ने मेरी बहनों को बहुत समझाया कि वे मुझे अपने साथ ले जाएं लेकिन मानसिक रोग होने के बाद दोनों में से कोई भी मुझसे संबंध नहीं रखना चाहता.’
हमारे समाज में मानसिक रोग एक कलंक के रूप में देखा जाता है और यह किसी जाति, समुदाय, मत विशेष तक सीमित नहीं है बल्कि इस रोग के प्रति नकारात्मक दृष्टि रखने में या इसे एक कलंक समझने में सभी लोग एक हो जाते हैं. पूरा समाज इस रोग से ग्रसित व्यक्ति का बहिष्कार करने एकजुट-सा नजर आता है. 34 साल की सुरैया अख्तर (बदला हुआ नाम) अपनी आधी से ज्यादा जिंदगी आश्रयों या सुधारगृहों में गुजार चुकी हैं. पैसों की कमी के चलते उनके माता-पिता उनका पालन-पोषण नहीं कर पा रहे थे और कुछ मानसिक समस्याओं के कारण महज 12 साल की उम्र में ही उन्होंने सुरैया को डोंगरी स्थित सुधार गृह में भेज दिया था. गुजरते वक्त के साथ सुरैया मुंबई, सोलापुर, हैदराबाद जैसे शहरों के सुधार गृहों में रहीं और साल 2008 में कर्जत स्थित गवर्नमेंट रिसेप्शन सेंटर द्वारा ठाणे के मानसिक अस्पताल में भर्ती कराई गई. अस्पताल के दस्तावेजों में सुरैया के परिवार का कोई अता-पता नहीं है. उनसे आज तक कोई मिलने-जुलने भी नहीं आया है. सुरैया को आज भी लगता है कि उनके माता-पिता उन्हें अपनाएंगे. वे कहती हैं, ‘मैं अपने माता-पिता के पास जाना चाहती हूं, वे मुंबई में रहते हैं. उनका पता सोलापुर के सुधार गृह के रजिस्टर में लिखा हुआ है.’
मुंबई के विक्रोली इलाके की रहने वाली 44 साल की कविता मुले (बदला हुआ नाम) मराठी में कहती हैं, ‘मला घरी जायचा आहे (मैं घर जाना चाहती हूं).’ कविता को जुलाई 2015 में एक स्थानीय गैर-सरकारी संस्था ने मानसिक अस्पताल में भर्ती कराया था. उनकी दिमागी हालत अब पूरी तरह से ठीक है, लेकिन उनके दोनों बेटे उन्हें अपने साथ घर नहीं ले जाना चाहते. उन्होंने अपना पता भी बदल लिया है ताकि कविता उनसे किसी भी तरह का संपर्क न साध पाएं. कविता कहती हैं, ‘मैं किसी गैर-सरकारी संस्था के सुधार गृह में नहीं जाना चाहती हूं, मैं सिर्फ अपने घर जाना चाहती हूं. मेरे बेटे देखने में तो अच्छेे हैं लेकिन किसी काम के नहीं हैं वे अपनी मां को घर वापस नहीं ले जाना चाहते.’
ठाणे के इस अस्पताल में चंद लोग ऐसे भी हैं जो ठीक होने के बावजूद घर नहीं जाना चाहते. उन्हीं में से एक हैं मध्य प्रदेश के खंडवा की रहने वाली भानुमति बाई (बदला हुआ नाम) जो एचआईवी संक्रमित हैं. वे कहती हैं, ‘मैं घर नहीं जाना चाहती, मुझे यहीं रहना हैं.’ हालांकि भानुमति का परिवार उनसे कभी-कभार मिलने आता है. सिर्फ गरीब परिवारों में ही नहीं, पढ़े-लिखे और अमीर परिवारों में भी मानसिक रोग से पीड़ित रहे लोगों को ठीक होने के बावजूद अपनाया नहीं जाता.
कोलकाता के श्याम बाजार इलाके की निलांबन स्ट्रीट की रहने वाली शोमा रे (बदला हुआ नाम) ठाणे मानसिक अस्पताल में पिछले एक साल से रह रही हैं. उनके दो बच्चे हैं जो तलाक के बाद उनके पति के साथ रहते हैं. एक नाकाम संबंध के चलते शोमा ने कोलकाता से मुंबई की ओर रुख किया था. वे एक समाजसेविका को मुंबई के रेड लाइट इलाके कमाठीपुरा की सड़कों पर असामान्य हालत में भटकती हुई मिली थीं, जिसके बाद उन्हें मानसिक अस्पताल में भर्ती कराया गया था. शोमा फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हैं. वे कहती हैं, ‘मैं अपने घर जाना चाहती हूं लेकिन मेरी मां मुझे वापस घर ले जाना नहीं चाहती हैं. मेरी मदद कीजिए घर जाने में.’ अस्पताल की ओर से कई बार दरख्वास्त करने पर भी शोमा की मां उनको वापस अपनाना नहीं चाहतीं. उनकी मां के अनुसार वह शोमा का खर्च नहीं उठा सकतीं और चाहती हैं कि वे मानसिक अस्पताल में ही रहें.
मानसिक रूप से ठीक हो चुके पुरुष वार्ड के मरीजों की कहानी भी महिला वार्ड से अलग नहीं है. वृद्ध पुरुषों के वार्ड में रहने वाले 62 साल के एन. प्रभाकर (बदला हुआ नाम) सिकंदराबाद के रहने वाले हैं और एक जमाने में कामयाब व्यवसायी रहे हैं. इस उम्र में भी उनकी याददाश्त तेज है और वे फर्राटे से अपने रिश्तेदारों के नाम, पते और टेलीफोन नंबर बताते हैं. 25 साल पहले प्रभाकर को उनकी पत्नी और बच्चे छोड़कर चले गए थे. उसके बाद अपने जीवन के 23 साल उन्होंने हैदराबाद के दिलसुखनगर इलाके के वेंकटाद्री सिनेमाहॉल के प्रांगण में गुजारे. दो साल पहले शिर्डी जाते समय वे मुंबई में उतर गए थे और रेलवे स्टेशन पर भटकते हुए मिले थे, जिसके बाद उन्हें मानसिक अस्पताल लाया गया था. प्रभाकर की हालत अब ठीक है लेकिन उनके रिश्तेदार उन्हें अपनाना नहीं चाहते. प्रभाकर एक रईस परिवार से आते हैं. उनकी सात बहनें और एक भाई हैं, जो अब उनसे किसी भी प्रकार का संबंध नहीं रखना चाहते. प्रभाकर बताते हैं कि वे व्यापारी थे और उनका मूंगफली और मिट्टी के तेल का कारोबार था. सिकंदराबाद में एक पेट्रोल पंप भी था.
वे हंसते हुए कहते हैं, ‘मैंने 17 साल तक व्यवसाय किया लेकिन जब मेरी मानसिक हालत बिगड़ी तो सबने मुझे छोड़ दिया, यहां तक कि मेरी बीवी-बच्चों ने भी. मैं सिनेमा हॉल के प्रांगण में और उसके आसपास भटकता रहता था और कुछ लोग-बाग जो भी खाने को दे देते थे, खा लेता था. पिछले दो सालों से में यहां रह रहा हूं. इतने सालों में आज तक मेरे परिवार से कोई भी मुझसे मिलने नहीं आया.’ ठाणे मानसिक अस्पताल में बतौर मनोचिकित्सक कार्यरत सुरेखा वाठोरे कहती हैं, ‘प्रभाकर एक अच्छे परिवार से आते हैं, लेकिन उनका कोई भी रिश्तेदार उनकी जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहता. उनकी पत्नी और बच्चों का तो हम पता नहीं लगा पाए लेकिन उनके एक भांजे से हमारा संपर्क हुआ है, लेकिन वह भी उनकी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता.’
बिहार के अररिया जिले के तीरा खर्डा गांव के रहने वाले 35 वर्षीय दलजीत कुमार (बदला हुआ नाम) पिछले डेढ़ साल से ठाणे मानसिक अस्पताल में रह रहे हैं. दलजीत मजदूरी करने के लिए अपने गांव से हरियाणा जाने का विचार कर रहे थे. उस वक्त उनकी मानसिक हालत ठीक नहीं थी लेकिन उन्होंने हरियाणा जाने की योजना नहीं बदली, जिसके बाद से उनकी जिंदगी बदल गई. उन्हें जिस ट्रेन से हरियाणा जाना था उसकी जगह कोई दूसरी ट्रेन पकड़ ली और मुंबई पहुंच गए. वे स्टेशन पर असामान्य हालत में भटकते हुए मिले थे. दलजीत कहते हैं, ‘मैं अपने बीवी-बच्चों को अपने ससुराल नेपाल छोड़ने के बाद मजदूरी करने हरियाणा के जाखल मंडी जाने वाला था. लेकिन गलत ट्रेन में चढ़ गया था. मेरे चाचा से अस्पतालवालों ने संपर्क साधा लेकिन अब तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया है.’
दलजीत का इलाज कर रहे मनोचिकित्सक गोपाल घोड़के कहते हैं, ‘दलजीत कुछ ही महीनों में ठीक हो गया था लेकिन फिर भी वह यहीं है. उसके घर से भी आज तक यहां कोई नहीं आया. उसके पिता की मृत्यु के बाद उसकी मां ने किसी और से विवाह कर लिया था और हरियाणा चली गई थीं, इसीलिए उनसे भी हमारा संपर्क नहीं हो पाया था. हालांकि उसके चाचा से हमारा संपर्क हो चुका है, जिनसे हमने कहा है कि गांव के सरपंच का एक पत्र हमें भेज दे जिसमें लिखा हो कि दलजीत उनके गांव का है. लेकिन अब तक वहां से कोई संदेश नहीं आया.’
‘मैंने 17 साल तक व्यवसाय किया लेकिन जब मेरी मानसिक दशा बिगड़ी तो सबने मुझे छोड़ दिया, यहां तक कि मेरी बीवी-बच्चों ने भी. मैं एक सिनेमा हॉल के प्रांगण के आसपास भटकता रहता था. लोग-बाग जो दे देते थे उसे खा लेता था’
‘तहलका’ ने कुछ मरीजों के परिवारों से भी संपर्क साधा और यह जानना चाहा कि आखिर क्यों वे अपने ही लोगों को नहीं अपना रहे. सोहिनी की मां कहती हैं, ‘मेरी तबीयत अब ठीक नहीं रहती, मुझे आंखों से भी कम दिखता है, मैं कैसे उसका ख्याल रखूंगी? अस्पतालवालों को उसे वहीं रखना चाहिए और वहीं-कहीं उसे नौकरी दिलवा देनी चाहिए.’ सोहिनी के चाचा की भी राय उनकी मां से मेल खाती है. वे कहते हैं, ‘उसकी मां बहुत गरीब है और बीमार रहती है. मैंने अस्पताल के लोगों से गुजारिश की है कि वे उसे मुंबई में ही कोई काम दिलवा दें. हम गरीब लोग हैं. हम उसे वापस नहीं बुला सकते, उसे वहीं काम करना चाहिए.’ एन. प्रभाकर के भांजे, जो उन्हें हैदराबाद में कुछ पैसे देकर मदद करते थे, कहते हैं, ‘उनकी मानसिक बीमारी के चलते उनकी पत्नी ने उन्हें तलाक दे दिया था और छोड़ गई थीं. उनके भाई ने उनकी पूरी जायदाद पर कब्जा कर लिया है और अब वह उनसे कोई संपर्क नहीं रखता है. मैं तो बस एक रिश्तेदार हूं. जब उनके सगे ही उनका ध्यान नहीं रख रहे, तो मैं कैसे उनका ध्यान रखूं.’
ठाणे के इस मानसिक अस्पताल में 1500 मरीज हैं जिनमें से 290 दिमागी रूप से ठीक हो चुके हैं और अपने परिवारों के पास जा सकते हैं. मनोचिकित्सक-समाजसेविका सुरेखा वाठोरे पिछले 30 साल से यहां काम कर रही हैं और अब तक तकरीबन 1000 मरीजों को सकुशल उनके घर पहुंचा चुकी हैं. वे कहती हैं, ‘मानसिक अस्पताल में लोग सबसे अंत में पीड़ित व्यक्ति को लेकर आते हैं. सबसे पहले वे उन्हें जादू-टोने से ठीक करने की कोशिश करते हैं, फिर निजी मनोचिकित्सक और अंत में हमारे पास लाते हैं. इस प्रक्रिया में कई वर्ष गुजर जाते हैं और इस देर के कारण बीमारी बहुत ज्यादा बढ़ जाती है.’ सुरेखा आगे बताती हैं, ‘हमारे समाज में पागलपन के मरीजों के प्रति एक नकारात्मक रवैया है, उन्हें एक कलंक के रूप में देखा जाता है. अगर कोई व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है या फिर मानसिक अस्पताल में है तो उसके घरवाले यह बात सबसे छिपाने की कोशिश करते हैं. उन्हें हमेशा डर बन रहता है कि अगर यह बात उजागर हो गई तो समाज में उनकी प्रतिष्ठा कम हो जाएगी, उनके परिवार से कोई रिश्ता नहीं बनाएगा. इन्हीं कारणों के चलते लोग पूरी तरह से ठीक हो जाने के बावजूद इन मरीजों को नहीं अपनाते. हमारे पुरुष-प्रधान समाज में महिलाओं के मुकाबले मानसिक रोगी रहे पुरुषों को ज्यादा अपनाया जाता है. एक बात यह भी गौर करने वाली है कि गरीब परिवार मानसिक रोग से पीड़ित सदस्यों को आसानी से अपना लेते हैं लेकिन यह बात मध्यमवर्गीय और अमीर परिवारों में देखने को नहीं मिलती.’
साल 2011 में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने ठाणे के इस मानसिक अस्पताल में रह रहे मरीजों के पुनर्वासन के लिए ‘तराशा’ नाम से एक परियोजना चलाई है. इस मुहिम के तहत 15 महिलाओं का पुनर्वासन करने की कोशिश की गई थी. इस परियोजना की संचालक अश्विनी सुरवासे कहती हैं, ‘पुनर्वासन के लिए चुनी गई 15 लड़कियों में से 11 प्रिंटिंग प्रेस और रिटेल के व्यवसाय में काम कर रही हैं, दो अपने परिवार के साथ हैं और दो को वापस अस्पताल भेज दिया गया है क्योंकि उनको अभी और इलाज की जरूरत है.’ वे आगे कहती हैं, ‘हम मानसिक अस्पताल जाकर मरीजों से समूह में और अकेले मिलते हैं. उनसे बात करते हैं, उनका आकलन करते हैं. इसके बाद मनोचिकित्सक और व्यावसायिक डॉक्टरों की राय लेते हैं और फिर लड़कियों को अस्पताल से निकाल लेते हैं. इस प्रक्रिया के बाद उन्हें संस्था से जुड़े वर्किंग वुमन हॉस्टल में रखा जाता है और चार महीनों का साइकोसोशल रिकवरी (मनोसामाजिक पुनःप्राप्ति) का कोर्स करवाया जाता है जिससे उनका आत्मविश्वास बढ़े. इसके बाद उन्हें चार महीनों की अवधि का ही एक वोकेशनल ट्रेनिंग कोर्स कराया जाता है जिसके बाद उन्हें नौकरी दी जाती है.’
ठाणे मानसिक अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट राजेंद्र शिरसाठ कहते हैं, ‘मरीजों के परिवार उनके पूर्व में किए हुए व्यवहार से घबराकर और समाज में मानसिक रोगियों के प्रति हीन दृष्टिकोण के चलते उन्हें अपनाने से कतराते हैं. मानसिक रोग और उससे जूझते लोगों के प्रति सामाजिक जागरूकता लाना बहुत जरूरी है. जब तक समाज में इनके प्रति सकारात्मक रवैया नहीं बनेगा तब तक इन्हें कोई नहीं अपनाएगा.’