बीते 16 जुलाई की बात है. नई दिल्ली में अंतरराज्यीय परिषद की बैठक थी. सभी राज्यों के मुख्यमंत्री इसमें शामिल हुए थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में तमाम मुद्दों को उठाते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फरक्का बैराज परियोजना पर भी सवाल उठा दिया. उन्होंने कहा, ‘अब गंगा नदी पर बने फरक्का बैराज को हटा देना चाहिए. इससे राज्य को कई तरह का नुकसान हो रहा है. इस बांध के बनने की सजा हम भुगत रहे हैं. यह बांध बिहार के लिए हितकर साबित नहीं हुआ. इसे तोड़ देना चाहिए. इसके अलावा केंद्र सरकार नदियों से गाद निकालने के लिए कोई नई नीति बनाए. इसके बिना काम चलने वाला नहीं है.’
नीतीश ने कहा, ‘गंगा जितने बड़े इलाके में बहती है, उसके कैचमेंट एरिया का 16 प्रतिशत हिस्सा ही बिहार में है, लेकिन सूखे के दिनों में भी गंगा में जो तीन चौथाई जल होता है, वह बिहार की नदियों से ही मिलता है. गंगा जहां से बिहार में प्रवेश करती है, वहां 400 क्यूसेक पानी मिलता है लेकिन फरक्का बैराज पर पानी की जो जरूरत है, वह 1500 क्यूसेक है. जाहिर-सी बात है कि बिहार की नदियों से ही इसकी पूर्ति होती है.’ केंद्र सरकार से अपील करते हुए नीतीश ने कहा, ‘अब हस्तक्षेप कीजिए, क्योंकि उत्तर प्रदेश की ओर से गंगा के सीमावर्ती इलाके में, जहां से गंगा बिहार में प्रवेश करती है, वहां 400 क्यूसेक पानी भी नहीं मिलता.’
नीतीश कुमार ने बिहार में बहने वाली गंगा के बहाने बात की शुरुआत की और गंगा के नाम पर होने वाले पूरे खेल को ही परत-दर-परत खोलना शुरू कर दिया. और आखिर में प्रधानमंत्री से कहा, ‘गंगा के पानी पर सबसे ज्यादा हक बिहार का बनता है लेकिन बिहार उदार मन से गंगा को बचाने-बढ़ाने में अपनी भूमिका निभा रहा है. दूसरे जो खेल कर रहे हैं, उनको देखिए, नियंत्रित कीजिए.’ उस दिन नीतीश ने और भी ढेरों बातें कहीं. नीतीश इसके पहले भी गंगा पर बोलते रहे हैं और फरक्का को लेकर चिंता जताते रहे हैं लेकिन इस बार उन्होंने अंतरराज्यीय परिषद में पूरी तैयारी से गंगा के बहाने फरक्का को केंद्रीय विषय बनाते हुए बोला, तर्क आैैर तथ्य सामने रखे. हालांकि नीतीश जिस फरक्का बैराज को खत्म करने की बात कर रहे हैं, उसे अचानक और एकबारगी से खत्म करना तो संभव नहीं लेकिन यह सच है कि आने वाले दिनों में फरक्का गंगा के लिए और गंगा के जरिए देश के दूसरे हिस्से के लिए परेशानियों का पहाड़ खड़ा करने वाला है.
परेशानियों के इन पहाड़ों के नमूने अभी से ही दिखने लगे हैं. नदी विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, ‘पटना से मोकामा तक फरक्का इफेक्ट साफ दिखने लगा है.’ नदी विज्ञानी और आईटी बीएचयू के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. यूके चौधरी कहते हैं, ‘मोकामा तक ही नहीं, उत्तर प्रदेश में बनारस से आगे इलाहाबाद तक फरक्का फैक्टर असर दिखाने लगा है और वह दिन दूर नहीं जब गंगा रेत और मिट्टी का पहाड़ बनाने वाली नदी हो जाएगी.’
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…तो कब का फरक्का को हटा दिया गया होता
अव्वल तो यह बात कि फरक्का का निर्माण ही क्यों हुआ था, यह तब भी वैज्ञानिकों को समझ नहीं आया था. यह तो सामान्य समझ की बात है कि गंगा एक ऐसी नदी है जिसमें दर्जनों बड़ी नदियां मिलती हैं. सभी नदियां अपने साथ मिट्टी और गाद वगैरह लेकर आती हैं. वह मिट्टी-गाद फरक्का जाते-जाते रुक जाता है, क्योंकि नदी का स्वाभाविक प्रवाह वहां रुक जाता है. गाद और मिट्टी कचरा फरक्का में रुकता है. फिर वह बैराज के पास जमा होता है. नदी पानी पीछे की ओर धकेलती है. गाद जहां का तहां जमा होता है. इसके बाद नदी किनारे के इलाकों का तेजी से कटाव होता है. इसका असर गंगा में मिलने वाली नदियाें पर भी पड़ता है, क्योंकि गंगा नीचे होकर बहती है और उसमें मिलने वाली नदियां थोड़ा ऊपर से आती हैं. जब गंगा फरक्का के पास से पानी पीछे की ओर ठेलती है तो दूसरी नदियों में भी रिवर्स डायरेक्शन होता है. भीमगोड़ा और नरोरा बैराज में जब गंगा के प्रवाह को रोका जाता है तो वह भी गंगा के लिए खतरनाक है. दिक्कत यह है कि हमारे देश में रिवर इंजीनियरिंग का अलग से कोई ठोस रूप विकसित नहीं हो सका है. जो नदियां हैं और उन पर जो निर्माण हैं, उनका असेसमेंट होता नहीं. अगर फरक्का बैैराज का असेसमेंट हुआ होता तो कब का इसे हटा दिए जाने की अनुशंसा की गई होती.
यूके चौधरी, नदी विज्ञानी[/symple_box]
‘फरक्का फैक्टर’ या ‘इफेक्ट’ क्या है, उसकी जमीनी हकीकत को आसानी से देखा और समझा जा सकता है. दरअसल गंगा में गाद की समस्या दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है. बिहार के जिन इलाकों से होकर गंगा गुजरती है उनमें गाद की वजह से जगह-जगह टीले या टापू बन गए हैं. इसकी वजह से गंगा की धारा में रुकावट पैदा होने के साथ ही उसका स्वाभाविक बहाव प्रभावित होने लगा है. इसकी वजह से नदी का जल दोनों किनारों पर कटाव पैदा करने लगता है और नदी के किनारों पर बसे गांव खतरे में आ जाते हैं.
गाद और कटाव की समस्या हर नदी के साथ होती है, लेकिन जब यह मामला गंगा के साथ जुड़ता है तो समस्या भयावह हो जाती है. भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदी होने की वजह से इसके तट पर एक बड़ी आबादी निवास करती है. पिछले दिनों जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवीकरण मंत्रालय की ओर से विभिन्न नदियों में गाद और कटाव की समस्या के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बनाई गई. यह समिति गाद जमा होने और कटाव के कारणों का अध्ययन करने के साथ ही इनसे जुड़ी समस्याओं के निदान के सुझाव देगी. समिति गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी का विशेष रूप से अध्ययन करेगी.
‘नदी का जीवन उसका प्रवाह ही होता है. अगर इसका प्रवाह रुक गया तो वह नदी मृतप्राय हो जाती है. गाद जमा होने के कारण इसकी आशंका हमेशा प्रबल बनी रहती है. गंगा को देखा जाए तो चौसा, पटना या फरक्का या कहीं भी इसे जहां सबसे गहरी होना चाहिए, वहीं यह उथली हो चुकी है’
गंगा की पूरी राजनीति की कहानी गंगोत्री से ही शुरू हो जाती है. हरिद्वार में भीमगोड़ा बैराज, बुलंदशहर के पास बने नरोरा बैराज, कानपुर के चमड़ा उद्योग, इलाहाबाद के कुंभ से होते हुए बनारस में आकर गंगा रुक-सी जाती है. उसके बाद गंगा बहती भी है और बहती है तो क्यों बहती है, किस हाल में बहती है, इस पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस नहीं होती. गंगा महासभा के प्रमुख स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती कहते हैं, ‘गंगा के नाम पर खेल करने वालों के लिए फरक्का का मामला हमेशा आखिरी छोर का मामला रहा है लेकिन अब फरक्का का मामला आखिरी छोर का नहीं रह गया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फरक्का पर मजबूती से बात उठाकर इसे केंद्रीय विषय बना दिया है जो बहुत पहले से होना चाहिए था.’
एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र में हाल में लिखे अपने लेख में बिहार विधानसभा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ‘गाद की समस्या लगातार गंभीर होती जा रही है. वैसे तो यह समस्या पूरे विश्व की है, पर भारत में और विशेषकर बिहार में यह समस्या अब सुरसा रूप लेती जा रही है. बिहार का लगभग 73 प्रतिशत भूभाग बाढ़ के खतरे वाला इलाका है. पूरे उत्तर बिहार में हर साल बाढ़ के प्रकोप की आशंका बनी रहती है. उत्तर बिहार में बहने वाली लगभग सभी नदियां, जैसे- घाघरा, गंडक, बागमती, कमला, कोसी, महानंदा आदि नेपाल के विभिन्न भागों से आती हैं और खड़ी ढाल होने के कारण अपने बहाव के साथ वे अत्यधिक मात्रा में गाद लाती हैं. बहाव की गति में परिवर्तन के कारण विभिन्न स्थानों पर गाद जमा होती जा रही है. कभी-कभी अत्यधिक गाद के एक स्थान पर जमा होने पर वहां गाद का टीला बन जाता है. नदी के बहाव के बीच में टीले बन जाने से उसकी धारा विचलित होती है, जो तिरछे रूप में अधिक वेग से पहुंचने के कारण बांध और किनारों पर कटाव का दबाव बनाती है. अगर गाद प्रबंधन की व्यवस्था सही हो जाए, तो यह नहीं होगा.’ लेख में गंगा में गाद की समस्या की बात करते हुए विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ‘नदी का जीवन उसका प्रवाह ही होता है और अगर इसका प्रवाह रुक गया या टूट गया, तो वह नदी मृतप्राय हो जाती है. नदी तल में अनियंत्रित गाद जमा होने के कारण इस स्थिति की आशंका हमेशा प्रबल बनी रहती है. अगर गंगा को देखा जाए तो चौसा, पटना या फरक्का या कहीं भी इसे जहां सबसे गहरी होना चाहिए, वहीं यह उथली हो चुकी है. धीरे-धीरे अगर उस उथलेपन का विस्तार नदी की चौड़ाई में फैलता है, तो नदी का स्वाभाविक प्रवाह ही अवरुद्ध हो जाता है. तब नदी टुकड़े-टुकड़े में पोखर या तालाब जैसी दिखने लगती है. गंगा नदी के मामले में तो स्वाभाविक गाद जमा होने की क्रिया पुराने समय से चल ही रही थी. फरक्का बैराज के निर्माण के बाद से इसमें गाद जमा होने की दर कई गुना बढ़ गई. धीरे-धीरे नदी का पाट समतल दिखने लगा है, इससे नदी में जल भंडारण की क्षमता का ह्रास होता है और यह प्रक्रिया निरंतर जारी रही, तो नदी का रूप सपाट हो जाएगा और इसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा.’
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इलाके के मछुआरों पर भी संकट बढ़ा
गंगा नदी में गाद से टीले बनने के साथ-साथ फरक्का बैराज के कारण मछुआरों के सामने संकट बढ़ता जा रहा है. मछुआरा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले फुच्चीलाल सहनी कहते हैं, ‘मछुआरों के सपने में भी अब हिलसा-झींगा जैसी मछलियां नहीं आतीं. टीलों का निर्माण होने से नदी में अब उतनी मछलियां नहीं रह गई है जितनी पहले होती थीं.’ गंगा मुक्ति आंदोलन से जुड़े रहे अनिल प्रकाश के अनुसार, ‘बिहार के मछुआरे 47 किस्म की मछलियां गंगा से पकड़कर पूरे देश में कारोबार करते थे, लेकिन अब लगभग 75 प्रतिशत मछलियां खत्म हो चुकी हैं.’ मछलियों की इस समस्या के पीछे प्रदूषण तो वजह है ही लेकिन फरक्का बैराज ने इस पर आखिरी कील ठोक दी है. फरक्का ने हिलसा और झींगा जैसी मछलियों की संभावना को तेजी से खत्म किया है. झींगा मीठे पानी में रहती है और ब्रीडिंग के लिए खारे पानी में जाती हैं. हिलसा खारे में रहती है लेकिन ब्रीडिंग के लिए मीठे पानी की ओर आती है. फरक्का मीठे और खारे पानी के बीच खड़ा है. मछलियों की आवाजाही के लिए रास्ते छोड़े गए थे लेकिन वे सब अब बेकार पड़ गए. स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती कहते हैं, ‘गंगा पर पहले चार लाख मछुआरे निर्भर रहते थे. उनका पूरा परिवार इसी पर चलता था, लेकिन अब इन परिवारों की संख्या घटकर 40 हजार तक सिमट गई है.’[/symple_box]
हैैरानी की बात यह है कि आज तक अपने देश में गाद प्रबंधन की कोई स्पष्ट नीति नहीं बन सकी है, जबकि कई देशों में गाद प्रबंधन, नदी प्रबंधन का हिस्सा होता है. वर्ष 2011-12 से ही बिहार सरकार लगातार इस मुद्दे को केंद्र सरकार के सामने उठाती रही है कि अगर गाद प्रबंधन की कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई गई तो स्थिति अत्यंत भयंकर हो सकती है, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया गया है.
नीतीश कुमार ने फरक्का के बहाने क्यों एक ऐसे विषय को उठाया है जिसे राष्ट्रीय विषय होना चाहिए या जो गंगा से जुड़ा हुआ एक अहम सवाल है और कैसे फरक्का के कारण ऊपरी हिस्से में गंगा के इलाके में कहानी बदलने वाली है, उसे बिहार के बाद फरक्का तक की गंगा यात्रा करके समझा और जाना जा सकता है. झारखंड के राजमहल, साहेबगंज से लेकर बिहार के और भी कई हिस्सों में, जहां गंगा की वजह से दूसरी नदियों में गाद के ढेर की वजह से टापुओं का निर्माण शुरू हो चुका है. इसे देखा जाए तो सब साफ-साफ समझ में आ जाएगा. जलजमाव के इलाके बढ़ रहे हैं. फरक्का बैराज जहां है वहां गंगा अबूझ पहेली जैसी बनती है. कई धाराओं में बंटी हुई नजर आती है. गंगा के कई धाराओं में बंटने के पहले वहां बड़े-बड़े टापू दिखते हैं, जो पिछले कुछ वर्षों में बने हैं. इन टापुओं की वजह से गंगा बाढ़ के दिनों में आसपास के इलाके का कटाव करती है और गांव के गांव साफ हो जाते हैं.
मालदा का पंचाननपुर जैसा विशाल गांव तो इसका एक उदाहरण रहा है, जिसका अस्तित्व ही खत्म हो गया. फरक्का बैराज से लगभग छह किलोमीटर दूरी पर बसा गांव सिमलतल्ला भी गंगा में समा गया. कभी यह हजार घरों वाला आबाद गांव हुआ करता था. बांग्लादेश सीमा के नजदीक पश्चिम बंगाल में 1975 में जब फरक्का बैराज बना था तो मार्च के महीने में भी वहां 72 फुट तक पानी रहता था. अब बालू-मिट्टी से नदी के भरते जाने की वजह से नदी की गहराई 12-13 फुट तक रह गई है. बैराज के कारण पांच लाख से अधिक लोग अब तक अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं और बंगाल के मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों की 600 वर्ग किलोमीटर से अधिक उपजाऊ जमीन गंगा में विलीन हो चुकी है. फरक्का के पास गंगा 27 किलोमीटर तक रेतीले मैदान बना चुकी है. फरक्का बैराज की वजह से बालू और मिट्टी रुक जाते हैं. गंगा में टीले बनने का सिलसिला झारखंड के राजमहल तक पहुंच चुका है. गांव के गांव, शहर के शहर खत्म होने की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन टिहरी, नरोरा, भीमगोड़ा बांध और कुंभ जैसे आयोजनों के बीच गंगा के आखिरी छोर पर बसे लोगों की पीड़ा अनसुनी रह जाती है. मछुआरे मछली बिना मर रहे हैं और नदी में आ रहे कचरे से आखिरी छोर पर रहने वाले लोग बीमारियों की चपेट में आ रहे है. उम्मीद है कि अब गंगा पर नीचे से भी बात होगी, फरक्का के इलाके से भी.