12 जुलाई, 1991 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश स्थित नानकमत्था गुरुद्वारे (अब उत्तराखंड के उधमसिंह नगर में) से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र स्थित सिख धर्मस्थलों के दर्शन के लिए चली तीर्थयात्रियों से भरी एक बस अपनी यात्रा पूरी करके वापस लौट रही थी. बस में उस समय 25 लोग सवार थे. इनमें दो बुजुर्गों सहित 13 पुरुष, नौ महिलाएं और तीन बच्चे शामिल थे. सभी पंजाब के गुरदासपुर और उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर के रहने वाले थे. यह बस 29 जून, 1991 को नानकमत्था गुरुद्वारे से चली थी. बस में नवविवाहिता बलविंदर कौर भी अपने पति, देवर और सास के साथ सवार थीं. वे बताती हैं, ‘दो हफ्ते लंबी यात्रा थी जिसे पूरी कर हम वापस नानकमत्था गुरुद्वारा लौट रहे थे. बस में खुशी का माहौल था और जल्द से जल्द घर पहुंचने की उत्सुकता. हम यात्रा के आखिरी पड़ाव पर थे.’
हालांकि इन यात्रियों को यह नहीं पता था कि उत्साह का यह माहौल जल्द ही दहशत में बदलने वाला था. उसी सुबह पीलीभीत से 125 किलोमीटर पहले स्थित बदायूं के कछला घाट पर पहुंचते ही उत्तर प्रदेश पुलिस की एक वैन ने बस को रोका और पास के चेकपोस्ट पर ले गए. वहां पुलिस के जवान बस के अंदर दाखिल हुए और सभी पुरुष यात्रियों को जबरन बाहर निकाल दिया. उनकी पगड़ी उतारकर उससे उनके हाथ बांध दिए. बस में चीख-पुकार में मच गई थी. किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या चल रहा है. बाद में दो बुजुर्गों को वापस बस में चढ़ा दिया गया और बाकी को एक पुलिस वैन में बैठाया गया. बस में मौजूद महिलाएं और बच्चे रोते रहे, बुजुर्ग अपने बच्चों को छोड़ देने की विनती करते रहे लेकिन बस में घुसे जवानों ने सबको चुप रहने की हिदायत दी. जिन्होंने उनके हुक्म की नाफरमानी की, उनके साथ हाथापाई भी की गई.
पंजाब के गुरदासपुर की निवासी बलविंदर कौर की जिंदगी का वह सबसे खौफनाक दिन था. उस दिन की कहानी बताते हुए वे कहती हैं, ‘हमारी बस और जिस गाड़ी में नौजवानों को बैठाया था, दोनों को पुलिस की गाड़ियों ने घेर लिया. पुलिस की गाड़ियां आगे चल रही थीं, उनके पीछे हमारी बस. बस में भी कुछ पुलिसवाले सवार थे. जिन्होंने हमें यहां-वहां देखने तक से मना कर रखा था. हमें बोलने की भी इजाजत नहीं थी. हम जब भी उनसे कुछ जानने की कोशिश करते तो हमें चुप करा देते, धक्के मारते और डराते. किसी को न तो बाथरूम जाने दिया जा रहा था, न खाना-पानी दिया जा रहा था. मैं तब सात माह की गर्भवती थी. हमारी बस में मेरे अलावा एक और गर्भवती महिला थी. इसी तरह रात दस बजे तक वो हमें जंगलों में घुमाते रहे. इसके बाद हमारी बस और पुलिस वैन जिसमें हमारे सगे-संबंधियों बैठे हुए थे, को अलग कर दिया गया. हमें पीलीभीत ले जाकर एक गली के पास बस रोक दी औैर बोला गया कि इस गली के उस पार गुरुद्वारा है. वहां रात गुजार लो और किसी से कुछ मत कहना. आपके पति और बच्चों की छानबीन करने के बाद उन्हें छोड़ दिया जाएगा.’ लेकिन उस दिन के बाद बलविंदर कभी अपनी पति और देवर को वापस नहीं देख सकीं.
यह घटना उस दौर की है जब उत्तर प्रदेश के सिख बहुल तराई क्षेत्र में आतंकवाद ने अपने पैर पसार लिए थे. दिन ढलते ही थानों तक के दरवाजे बंद हो जाते थे. मिनी पंजाब कहे जाने वाले पीलीभीत में दहशत का ऐसा माहौल था कि दिन ढलते ही वहां सन्नाटा पसर जाता था
यह घटना उस दौर की है जब उत्तर प्रदेश के सिख बहुल तराई क्षेत्र में आतंकवाद ने अपने पैर पसार लिए थे. दिन ढलते ही पुलिस थानों तक के दरवाजे बंद हो जाते थे. हथियारबंद जवान ड्यूटी देने से कतराते थे. मिनी पंजाब कहे जाने वाले पीलीभीत में दहशत का ऐसा माहौल था कि दिन ढलते ही बाजार में सन्नाटा पसर जाता था. लोग अपने-अपने घरों में कैद हो जाते थे. आम जनता ही नहीं, खुद पुलिस पर भी हमले हो रहे थे. उन्हीं दिनों एसपी पीलीभीत आवास के पास गोलियां बरसाई गई थीं. पुलिस पर दबाव पड़ रहा था कि आतंक के इस साये से क्षेत्र को बाहर निकाला जाए. इसी बीच कथित तौर पर कुछ पुलिस अफसर समस्या की जड़ तक पहुंचने के बजाय पूरा माहौल अपने पक्ष में भुनाकर वाहवाही लूटने में प्रयासरत थे. क्षेत्र के निवासी बताते हैं कि एक ओर आतंकवाद था तो दूसरी ओर हमें पुलिसिया जुल्म का भी सामना करना पड़ता था. आतंकवाद के नाम पर जिले के निर्दोष सिख युवकों को टाडा के तहत जेल में ठूंस दिया जाता था. पुलिस के गश्ती दल के हत्थे अगर कोई आम आदमी भी चढ़ जाता था तो उसे भी वैसी ही यातनाएं भोगनी पड़ती थीं जैसी किसी दहशतगर्द को. पुलिसवाले अपने कंधे पर तरक्की का तमगा लगवाने के लिए ऐसा करते थे.
इसी कड़ी में 13 जुलाई, 1991 को पीलीभीत के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक आरडी त्रिपाठी ने मीडिया को बताया कि पुलिस ने तीन अलग-अलग मुठभेड़ों में खालिस्तान लिबरेशन आर्मी के कमांडर बलजीत सिंह समेत 10 खूंखार आतंकियों को मार गिराया है. अगले दिन जब यह खबर अखबारों की सुर्खियां बनी तो पुलिस के दावे पर सवाल उठने लगे. मुठभेड़ में मारे गए जिन लोगों को पुलिस आतंकी बता रही थी उनके परिजन सामने आए. उनके दावे के अनुसार पुलिस जिन्हें आतंकी बता रही थी वे सिख तीर्थस्थलों के दर्शन करके लौट रहे लोगों से भरी बस में सवार तीर्थयात्री थे जिन्हें पुलिस ने जबरन बस से उतारकर अपनी वैन में बैठा लिया था. बलजीत सिंह जिन्हें पुलिस ने खालिस्तान लिबरेशन आर्मी का कमांडर बताकर मुठभेड़ में मारा था, वे कोई और नहीं बल्कि बलविंदर कौर के ही पति थे.
इस मामले ने जब तूल पकड़ा तो अधिवक्ता आरएस सोढ़ी ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका लगाकर इस मामले की सीबीआई से जांच कराए जाने की मांग की. 12 मई, 1992 से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने जांच शुरू की और उत्तर प्रदेश पुलिस के 57 पुलिसकर्मियों पर आरोप तय किए. 12 जून, 1995 को सीबीआई ने 55 पुलिसकर्मियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की क्योंकि दो आरोपियों की मौत हो चुकी थी. इस घटना के 25 साल बाद बीते दिनों लखनऊ की सीबीआई कोर्ट का इस मामले पर फैसला आया है. सीबीआई के विशेष न्यायाधीश लल्लू सिंह ने इस मुठभेड़ को फर्जी करार देते हुए सभी 47 आरोपियों को दोषी ठहराया है. अपने फैसले में उन्होंने कहा कि ‘आउट ऑफ टर्न’ प्रमोशन की चाह में पुलिसवालों ने 11 निर्दोषों का कत्ल कर दिया. फैसले पर नजर डालते हुए मामले की पैरवी करने वाले सीबीआई के अधिवक्ता सतीश जायसवाल बताते हैं, ‘25 साल के लंबे संघर्ष के बाद पीड़ितों को न्याय देते हुए कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है और उनसे वसूली जाने वाली जुर्माना राशि से हर पीड़ित परिवार को 14 लाख रुपये दिए जाने के आदेश दिए हैं.’
फर्जी मुठभेड़ के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार 2010 से 2015 के दरमियान उत्तर प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ की 782 शिकायतें दर्ज कराई गई हैं. जबकि सूची में दूसरे नंबर पर रहे आंध्र प्रदेश में इस अवधि में महज 87 शिकायतें दर्ज हुई हैं
इस पूरे मामले में 57 पुलिसकर्मी जांच के दायरे में आए थे. इनमें से दो की मौत मामले पर सुनवाई शुरू होने से पहले ही हो गई थी. 20 साल चली सुनवाई के दौरान आठ और पुलिसकर्मियों की मौत हो गई. बाकी बचे 47 दोषियों में से 38 को फैसले वाले दिन ही जेल भेज दिया गया और अदालत में पेश नहीं हुए नौ दोषियों के खिलाफ वारंट जारी कर दिए गए. लेकिन पीड़ितों के परिजनों को जो बात खल रही है वह यह कि जो पुलिसकर्मी सीबीआई जांच के दायरे में थे और जिन पर 11 हत्याओं का मुकदमा चल रहा था वे इस पूरी अवधि में न सिर्फ अपनी नौकरी पर बने रहे बल्कि प्रमोशन भी पाते रहे. अदालत ने भी अपने फैसले में इस ओर ध्यान आकर्षित किया और पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए. बलविंदर कौर पूरी व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए पूछती हैं, ‘जो हत्यारे थे उन्हें अपने पापों की सजा के बजाय इनाम और सम्मान मिला. सरकारी पगार पर मौज करते रहे. वहीं दूसरी ओर हम दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे थे. सजा जिन्हें मिलनी थी वो तो ऐशोआराम की जिंदगी जीते रहे और हम 25 सालों तक बिना किसी गुनाह की सजा भुगतते रहे. ये कैसी व्यवस्था है?’ दोषी 47 पुलिसवालों में से 13 अब भी पुलिस विभाग में विभिन्न पदों पर तैनात हैं.
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व्यथा कथा : 1
पूरा परिवार तबाह हो गया, उसके सामने मुआवजा कुछ भी नहीं
1991 में पीलीभीत के पस्तौर इलाके में रहने वाले नरिंदर सिंह अपनी मां जोगिंदर के साथ तीर्थयात्रा पर निकले तो फिर कभी वापस न आए. वे अपने पीछे चार बच्चे छोड़ गए थे. दो लड़के और दो लड़कियां. उनके बड़े लड़के सतनाम सिंह की उम्र उस समय 16-17 वर्ष थी और उनकी सबसे छोटी संतान 3 वर्ष की थी. आज 25 साल बाद भी उनका परिवार उसी खौफ में जी रहा है. इसकी बानगी तब मिली जब सतनाम से ‘तहलका’ ने संपर्क साधा. सतनाम से कई बार बात करने की कोशिश की गई लेकिन वे बार-बार किसी न किसी बहाने से फोन काट देते थे. फिर उन्होंने फोन ही उठाना बंद कर दिया जिससे साफ था कि वे उस बारे में किसी से कोई बात नहीं करना चाहते.
कारण जानने के लिए उनके चचेरे भाई शैली सिंह से संपर्क किया गया. तब पुलिसिया जुल्म की उस दास्तान से पर्दा हटा जिसने सतनाम के मन में भय के बीज बो दिए थे. सतनाम ने पुलिसिया जुल्म के चलते केवल अपने पिता को नहीं खोया बल्कि अपने चाचा लखविंदर सिंह को भी इसका शिकार बनते देखा था. लखविंदर को पुलिस ने टाडा लगाकर जेल में ठूंस दिया था. जब नरिंदर की हत्या की गई तब उनके छोटे भाई लखविंदर जेल में थे. लखविंदर को 1997 में जमानत मिली. शैली बताते हैं, ‘जमानत के बाद भी उन्हें तंग किया जाता था तो हमारे फूफा जी जो पंजाब में रहते हैं वे उन्हें पंजाब ले गए. मामला कोर्ट में चलता रहा और आखिरकार हमारे ताऊ लखविंदर बरी हो गए. वे आजकल पंजाब में ही हैं.’ नरिंदर की मां जो उनके साथ उस घटना के समय बस में थीं, अपने बेटे के न्याय की लड़ाई लड़ते हुए दशक भर पहले चल बसीं. शैली बताते हैं, ‘इन हालात में घर-परिवार में किसी की पढ़ाई तक नहीं हो सकी. इस दौरान सतनाम ने अपनी एक बहन को भी खो दिया. हम लोगों की जमीन-जायदाद पुलिसिया ज्यादतियों की भेंट चढ़ गई. हालात ऐसे थे कि कुछ कर नहीं पा रहे थे, उस समय पुलिस पर किसी का जोर नहीं था.’
नरिंदर के न्याय की लड़ाई लड़ रहे उनके करीबी हरजिंदर सिंह कहलो बताते हैं, ‘पुलिसिया सितमों के कारण मैंने नरिंदर का पूरा परिवार ही तबाह होते देखा है. आज उस परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी भी नहीं दिखती कि वह दो वक्त की रोटी सुकून से खा सके. इस परिवार ने जितना खोया है, उसके सामने 14 लाख रुपये की मुआवजा राशि कुछ नहीं.’ [/symple_box]
मामले में पैरोकार हरजिंदर सिंह कहलो कहते हैं, ‘इतनी बड़ी वारदात को अंजाम देना इंस्पेक्टर स्तर के पुलिसवालों के लिए संभव नहीं था. वह सब कुछ बड़े अधिकारियों के निर्देशों पर ही हुआ था लेकिन सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में उन्हें बचाया है. फैसला हमारे पक्ष में आया है इसलिए अब मुझे अगर उन बड़े अफसरों को सलाखों के पीछे भिजवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट भी जाना पड़ा तो जाऊंगा.’ विशेष न्यायाधीश लल्लू सिंह भी यह मानते हैं. फैसला सुनाते वक्त उन्होंने कहा भी, ‘सीबीआई ने ऊपर से मिले निर्देशों के चलते ऐसे महत्वपूर्ण लोगों को बचाया जो अभियुक्त थे. जिन लोगों पर आरोप तय हुए हैं, उन्होंने सभी निर्णय अपनी मर्जी से नहीं लिए. जिस तरह पुलिस ने 11 लोगों को तीन हिस्सों में बांटकर अलग-अलग क्षेत्रों में उनकी हत्या करने के बाद पूरे घटनाक्रम को मुठभेड़ की शक्ल दी, इससे साफ है कि उन्हें जिला स्तर के वे महत्वपूर्ण अधिकारी निर्देश दे रहे थे जिनके पास काफी शक्तियां थीं.’
मृतकों के परिजनों को जो बात खल रही है वह यह कि जो पुलिसकर्मी सीबीआई जांच के दायरे में थे और जिन पर 11 हत्याओं का मुकदमा चल रहा था वे मामले की सुनवाई के दौरान न सिर्फ अपनी नौकरी पर बने रहे बल्कि प्रमोशन भी पाते रहे
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व्यथा कथा :2
‘तब तक लड़ेंगे जब तक दोषियों के गले में फांसी का फंदा न पहुंच जाए’
‘23 साल का था वो. बढ़ई का काम करता था. एक दिन मेरे पास आया और बोला कि मुझे किसी कोठी में काम करने का मौका मिला है. उस दिन वो बहुत ही खुश नजर आ रहा था. फिर बोला कि काम शुरू करने से पहले मैं गुरुद्वारों की यात्रा पर जाना चाहता हूं. उसके मन में यह बहुत दिनों से था. वो धार्मिक किस्म का था इसलिए मैंने भी उसे नहीं रोका.’
पीलीभीत में हुई उस फर्जी मुठभेड़ कांड में पुलिस की गोली का शिकार बने पंजाब के गुरदासपुर स्थित राउरखेड़ा गांव के रहने वाले मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह जब उस 25 साल पुराने दिन को याद करते हैं तो उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं. वे आगे बताते हैं, ‘15 दिन की यात्रा थी. जिस दिन उसे वापस आना था, उसी दिन उसकी मौत की खबर आई.’ संतोख सिंह के मुताबिक, उन्हें अपने बेटे के मुठभेड़ में मारे जाने की खबर अखबार के जरिए मिली. पहली बार तो उन्हें पढ़कर यकीन नहीं हुआ लेकिन जब दोबारा पढ़ा और गौर से अपने बेटे का चेहरा देखा तो पैरों तले जमीन खिसक गई. वे बताते हैं, ‘उस दिन को याद कर आज भी रूह कांप उठती है. जब बेटे की फोटो देखी तो दिल दहल गया, जमीन पर लाइन से लाशें पड़ी हुई थीं, जिनमें से एक मेरा बेटा मुखविंदर भी था. पुलिस मेरे निर्दोष बेटे को मारकर वाहवाही लूट रही थी. हम खेती-किसानी करने वाले लोग थे. उत्तर प्रदेश पहुंचे तो किसी को नहीं जानते थे. हमने पुलिस को बताया कि वो काम करके आता था, हमें रोटी खिलाता था. मेहनत की कमाई से घर का खर्च चलाता था. उसे क्यों मार दिया? पर यहां हमारी सुनने वाला कोई नहीं था. पुलिस और प्रशासन तो हमें आतंकवादी का पिता मान ही चुका था तो किससे न्याय की आस लगाते?’
मुखविंदर काम करके जो भी कमाते थे वह सब लाकर अपने पिता के हाथ में रख देते थे. लेकिन मुखविंदर के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के बाद संतोख के परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई. एक तरफ घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था तो दूसरी तरफ बेटे के न्याय की लड़ाई भी लड़नी थी, जिसमें भी पैसा लगाना था. वहीं जब संतोख सिंह की उम्र बिस्तर पर आराम करने की थी वे अदालतों के चक्कर काट रहे थे. वे बताते हैं, ‘हमारे पास तो इतना पैसा नहीं था कि हम इतनी लंबी लड़ाई लड़ पाते. वो तो उत्तर प्रदेश सिख प्रतिनिधि बोर्ड था जिसने हमारे लिए न्याय की लड़ाई लड़ी.’ उनके मुताबिक एक वक्त ऐसा भी आया कि उन्हें लगने लगा था कि उनके बेटे के हत्यारों को सजा नहीं मिलेगी.
वे कहते हैं, ‘न्याय मिला है पर खुशी नहीं मिली. 25 साल लगा दिए. पूरी उम्र ढल गई न्याय के इंतजार में. हमने तो एक तरह से हथियार ही डाल दिए थे. मेरा बेटा निर्दोष था यह तो तभी तय था जब पुलिस उसके खिलाफ एक आपराधिक मामला तक नहीं खोज पाई थी. इस न्याय से बस सांत्वना मिली है कि इतनी भाग-दौड़ के बाद कुछ तो हासिल हुआ. पर अभी हमारा हक पूरा नहीं हुआ है. जिन्होंने हमारे बच्चों को मारा, उन्होंने तो तरक्की पा ली. गुनहगार वो रहे और संघर्ष हमने किया. उनके गुनाहों की सजा हमें मिली. वे घर-बंगला बनाकर बैठे हैं. किसी का परिवार डुबो दिया और अपने परिवार को खुशहाल बना लिया. वे हाई कोर्ट जाएंगे तो हम भी तब तक लड़ेंगे जब तक उन हत्यारों के गले में फांसी का फंदा न पहुंच जाए.’ संतोख सिंह आज अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में हैं, उनसे ठीक से चला भी नहीं जाता लेकिन देश में न्याय की धीमी रफ्तार के चलते वे इस उम्र में भी न्याय के लिए अदालतों के चक्कर काटने को मजबूर हैं.[/symple_box]
न्याय की यह पूरी कवायद इतनी आसान भी नहीं रही. न्याय के लिए ताल ठोकने वालों और गवाहों पर पुलिस लगातार दबाव बनाती रही कि वे अपना नाम वापस ले लें. मारे गए गुरदासपुर के रहने वाले सुरजन सिंह के पिता करनैल सिंह पर भी लगातार ऐसा ही दबाव रहा. करनैल सिंह की दिमागी हालत आज ठीक नहीं है. उनकी बहू बताती हैं, ‘कभी उन्होंने मुझे सीधे तौर पर नहीं बताया कि उन्हें धमकियां मिल रही हैं लेकिन उनसे मिलने-जुलने वाले और पड़ोसी बताया करते थे कि उन पर बहुत दबाव है कि वे मामले से अपने हाथ पीछे खींच लें.’ ऐसा ही दबाव गुरदासपुर के ही रहने वाले अजीत सिंह पर बनाया गया. अजीत सिंह के बेटे हरमिंदर सिंह मिंटा भी उस दिन पत्नी स्वर्णजीत के साथ उसी बस में सवार थे जिन्हें मार दिया गया. स्वर्णजीत मामले की एक प्रमुख गवाह थीं. अजीत सिंह बताते हैं, ‘पंजाब पुलिस लगातार मुझे इस मामले से हटने की नसीहत देती रही लेकिन मैंने कह दिया कि मर जाऊंगा पर गुनहगारों को सजा दिलाकर ही रहूंगा.’ वहीं हरजिंदर सिंह कहलो को तो उत्तर प्रदेश पुलिस ने आतंकवादी तक घोषित करने का प्रयास किया. वे बताते हैं, ‘मुझे आईपीसी की धारा 216 के तहत नोटिस थमा दिया गया था जिसके खिलाफ मैं सुप्रीम कोर्ट चला गया और पुलिस के मंसूबों पर पानी फिर गया. यही नहीं, पुलिस ने तो मेरे ऊपर धारा 302 तक का एक झूठा मुकदमा कायम कर दिया था और मेरे ऊपर इनाम भी घोषित कर दिया.’ कहलो के मुताबिक, उनके ऊपर जानलेवा हमला भी करवाया गया. पुलिस ने उस दिन बस से उतारा तो 11 लोगों को था लेकिन मुठभेड़ में 10 लोगों का मारा जाना दर्शाया. उन लोगों में शामिल शाहजहांपुर के रहने वाले तलविंदर का आज तक कुछ पता नहीं चल सका कि उनके साथ क्या हुआ. उनके पिता मलकैत सिंह उस घटना के थोड़े ही समय बाद भारत छोड़कर कनाडा जा बसे थे. कहलो कहते हैं, ‘संभव है कि वे तराई में बढ़ रही आतंकी घटना और पुलिस के जुल्म या फिर पुलिस के डराए-धमकाए जाने के कारण भाग गए हों.’
इस घटना के दौरान पीलीभीत के एसएसपी रहे आरडी त्रिपाठी से ‘तहलका’ ने बात की. वे अपने ऊपर लग रहे आरोपों को निराधार बताते हैं. इस पर यूपी सिख प्रतिनिधि बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. गुरमीत सिंह जो इस पूरे मामले में शुरू से अंत तक पीड़ित परिवारों के साथ खड़े रहे, कहते हैं, ‘वे लोग आतंकवादी थे या नहीं, हमने कभी इस पर बहस नहीं की. हमने सिर्फ ये सवाल उठाया कि क्या आपको किसी को भी बस से उतारकर मारने का अधिकार संविधान देता है? अगर वे आतंकी थे तो आपने उन्हें पकड़ लिया था. कोर्ट में पेश करते, फांसी दिलाते.’ वे आगे कहते हैं, ‘राज्य सरकार ने आरडी त्रिपाठी को वहां आतंकवाद से निपटने के लिए भेजा था. पर उन्हीं के नेतृत्व में इस नरसंहार को अंजाम दिया गया. बाद में वही आरडी त्रिपाठी एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में दावा करते है कि उन्होंने तराई में सब ठीक कर दिया. वे इस नरसंहार को अपनी उपलब्धि बताते हैं. अब इसे क्या कहा जाएगा? जब लोग निर्दोषों की हत्या करने को अपनी उपलब्धि मानते हैं और इसके लिए पुरस्कारों से नवाजे जाते हैं तो देश के इस सिस्टम पर अफसोस जताने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता.’ मृतकों में से एक मुखविंदर सिंह के पिता संतोख सिंह कहते हैं, ‘मेरा बेटा आतंकी था तो क्यों पुलिस उसके खिलाफ एक भी आपराधिक मामला साबित नहीं कर सकी?’ बस में लखविंदर सिंह नाम का एक किशोर भी था. उसकी उम्र तकरीबन 15 वर्ष थी. पीलीभीत के अमरिया में रहने वाले उनके भाई हरदीप बताते हैं, ‘हम तीन भाइयों में वे सबसे बड़े थे. स्कूल जाया करते थे और उसके बाद मेडिकल स्टोर पर बैठा करते थे. उन्हें उस वारदात को अंजाम देने वाले कई पुलिसकर्मी पहचानते थे. उस वारदात के प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया था कि जब पुलिसवाले उन्हें बस से उतारकर ले जा रहे थे तो उन्होंने उनसे पूछा भी था कि हमें तो आप पहचानते हो फिर भी क्यों ले जा रहे हो.’
इस मामले की पैरवी से जुड़े वकील परविंदर सिंह ढिल्लो बताते हैं, ‘उन लोगों का कोई आपराधिक रिकॉर्ड पुलिस के पास नहीं मिला था और न ही उनसे कोई हथियार बरामद हुआ था.’
वहीं गुनहगारों को मिली सजा और मुआवजे की राशि से मृतकों के परिजन संतुष्ट नहीं हैं. वे चाहते हैं कि उन्हें फांसी की सजा हो और मुआवजे की राशि बढ़ाकर कम से कम 50 लाख रुपये की जाए. बलविंदर कहती हैं, ‘जिन्होंने मेरे पति और देवर की हत्या की, उन पर सीबीआई जांच चल रही थी. तब भी वे नौकरी में बने रहे और तनख्वाह पाते रहे. मेरा घर उजाड़कर उन्होंने अपना आबाद कर लिया. अगर मेरे पति और देवर जिंदा होते तो हमें दो वक्त की रोटी जुटाने में परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. सरकार की ओर से 14 लाख रुपये का जो मुआवजा मिल रहा है उससे ज्यादा तो सुनवाई के दौरान हमारा खर्च हो चुका है.’ वह यह भी मांग करती हैं कि इन 25 सालों के दौरान सरकारी नौकरी में रहकर दोषी पुलिसवालोंको सरकार ने अब तक जितनी तनख्वाह दी है उसे वापस लिया जाए. मुआवजे की राशि को बढ़ाने के संबंध में कहलो कहते हैं, ‘मृतकों के परिजन बहुत ही दयनीय जीवन जी रहे हैं. फर्जी मुठभेड़ का शिकार पीलीभीत निवासी नरिंदर के परिरजनों को तो दो वक्त की रोटी के भी लाले हैं. 25 साल तक लड़ते-लड़ते वो सब गंवा चुके हैं और फर्जी मुठभेड़ में नरिंदर की मौत ने उन्हें तोड़कर रख दिया है. पीडि़तों की हालत देखते हुए उन्हें कम से कम 50 लाख रुपये तक का मुआवजा तो दिया ही जाना चाहिए.’ जहां तक फांसी की सजा का सवाल है तो सीबीआई के विशेष न्यायाधीश लल्लू सिंह अपने फैसले में साफ कर चुके हैं, ‘फांसी से अधिक दर्दनाक सजा उम्रकैद होती है जिसमें व्यक्ति एक बार नहीं बल्कि सलाखों के अंदर रहकर खुद को बार-बार मरा पाता है. उसकी दुनिया ही वहां सिमटकर रह जाती है.’
बहरहाल उत्तर प्रदेश के फर्जी मुठभेड़ों के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार 2010 से 2015 केे दरमियान राज्य में फर्जी मुठभेड़ की 782 शिकायतें दर्ज कराई गई हैं. जबकि सूची में दूसरे नंबर पर रहे आंध्र प्रदेश में इस अवधि में महज 87 शिकायतें दर्ज हुई हैं. इससे यूपी पुलिस के काम करने का तरीका समझा जा सकता है. यह फैसला अपने आप में ऐतिहासिक है जहां इतनी बड़ी संख्या में फर्जी मुठभेड़ में शामिल पुलिसवालों को सजा सुनाई गई है. इस फैसले के आने के बाद संभावना है कि पुलिस की मानसिकता में बदलाव आए.
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व्यथा कथा : 3
‘असि मर जावांगे पर केस वापस न लांगे’
हरमिंदर सिंह उर्फ मिंटा और स्वर्णजीत की शादी को अभी सात महीने ही हुए थे. स्वर्णजीत को पांच महीने का गर्भ भी था. विदेश जाने के लिए हरमिंदर ने पासपोर्ट बनवाया था. स्वर्णजीत ने उनसे गुजारिश की कि आपके विदेश जाने से पहले क्यों न हम हुजूर साहिब जाकर मत्था टेक आएं. हरमिंदर राजी हो गए. पिता अजीत सिंह ने भी जाने की अनुमति दे दी. 15 दिन लंबी यह यात्रा उन दोनों की साथ की गई अंतिम यात्रा साबित हो जाएगी, यह किसी को नहीं पता था.
स्वर्णजीत अपनी जिंदगी के उस सबसे खौफनाक मंजर को याद करते हुए बताती हैं, ‘यात्रा पूरी कर वापस लौटते समय पीलीभीत के पास हमारी बस पुलिस ने रोक ली. फिर वो बस को अपने साथ ले जाने लगे. बाद में एक नहर के पास बस को रोक दिया गया. कई पुलिसवाले अंदर घुसे और सभी युवकों को नीचे उतारकर ले गए. सब कुछ इतनी जल्दबाजी में हुआ कि कुछ समझ नहीं आ रहा था. बुजुर्ग पुरुषों को उन्होंने बांध दिया था, उनके साथ मारपीट की. बस से उतारे गए युवकों को उन्होंने एक पुलिस वैन में चढ़ा दिया. हमारी चीख-पुकारों का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था.’ स्वर्णजीत के अनुसार, उनकी बस को बंधक बना लिया गया था. पूरा दिन पुलिस की कई गाड़ियों के साथ बस सड़क पर दौड़ती रही. वे बताती हैं, ‘पता नहीं चल रहा था कि हम कहां घूम रहे हैं. रात को हमें एक गली के पास छोड़कर कहा गया कि पास में ही एक गुरुद्वारा है, वहां चले जाओ. मैंने हिम्मत करके उनसे अपने पति के बारे में पूछा तो वे बोले कि जल्द ही छोड़ देंगे. बस जैसा कहा है वैसा करते रहो. यहां से जाकर किसी को कुछ मत बताना.’ वे रूआंसे स्वर में कहती हैं, ‘उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था तो मुझे भी लगा कि छोड़ देंगे. जैसा वे कह रहे थे, मैं उनका इंतजार करती रही. पुलिस बेगुनाह युवकों को भी मार सकती है ऐसा तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था. सुना था पुलिस तो रक्षा करती है पर वो लालच के लिए बेगुनाहों की हत्या भी करती है ऐसा कभी न देखा था, न सुना. वो पुलिस के हवाले थे तो उम्मीद तो यही थी कि वो सुरक्षित हैं.’
स्वर्णजीत ने दो दिन उसी गुरुद्वारे में बिताए. अगले दिन उनके ससुर उन्हें लेने आए. जब स्वर्णजीत ने उनसे हरमिंदर के बारे में पूछा तो वे बोले कि पहले तुम्हें घर छोड़ दें. वे बताती हैं, ‘उन्होंने मुझे कुछ नहीं बताया क्योंकि मेरी हालत ठीक नहीं थी, उन्हें पहली चिंता मुझे घर वापस पहुंचाने की थी. जब मैं घर पहुंच गई तो वे बोले तुम अपना ख्याल रखो, उन्होंने मिंटा को गिरफ्तार कर लिया है, जैसे तुमको ले आए हैं, उसको भी लेकर वापस आते हैं. उसके बाद वापस आने पर वे रोने लगे और मेरे हाथ में एक अखबार थमा दिया.’
गन्ना मिल में काम करने वाले 21 वर्षीय मिंटा को पुलिस की फर्जी मुठभेड़ में आतंकी ठहराकर मारा जा चुका था. उनकी मौत के बाद अजीत सिंह के घर के आर्थिक हालात बिगड़ने लगे. चार महीने बाद स्वर्णजीत ने एक लड़की को जन्म दिया लेकिन जिसके जन्म पर खुशी होनी थी वहां स्वर्णजीत के सामने सवाल खड़ा था कि वे अपनी बच्ची की परवरिश कैसे करेंगी. 20 साल की उम्र में स्वर्णजीत विधवा हो गई थीं और एक बच्चे को पालने का भार भी उनके कंधे पर था. वे सिलाई करके घर चलाने लगीं. बाद में अजीत सिंह ने अपने छोटे बेटे से उनकी शादी करा दी. आज हरमिंदर और स्वर्णजीत की बेटी पच्चीस साल की हो गई हैं. उसने नर्सिंग की पढ़ाई की है.
अजीत सिंह बताते हैं, ‘केस शुरू हुआ तो यूपी पुलिस ने पंजाब पुलिस से हम पर दबाव बनवाना शुरू कर दिया कि हम केस वापस लें. गवाही न दें. यहां का थानेदार मक्खन सिंह बार-बार हम पर दबाव बनाता था. आए दिन तंग करता था. हम बोले कि ‘असि मर जावांगे पर केस वापस न लांगे.’ वे मायूसी से कहते हैं, ‘फैसले में 25 साल लगे, इन 25 सालों में कितना पैसा लगता है? आज हरमिंदर की बेटी की शादी करनी है. हमारे पास तो अब इतना पैसा रहा नहीं है. उसकी बच्ची को अच्छी जिंदगी मिले बस यह तमन्ना है.’ [/symple_box]
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व्यथा कथा : 4
परिवार का एक सदस्य अगर बेमौत मारा जाए तो पूरे परिवार की मौत हो जाती है
कहते हैं कि न्याय के इंतजार में पीढ़ियां गुजर जाती हैं. गुरदासपुर जिले के मानेपुर गांव निवासी करनैल सिंह के परिवार के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. उनके दो बेटे थे. बड़े बेटे सुरजन की उम्र 21 साल थी और छोटा 10 साल का था. सुरजन सिंह भी पीलीभीत पुलिस के उस अमानवीय कृत्य का शिकार बने थे. वे उस बस में अपनी मां के साथ मौजूद थे.
करनैल सिंह से जब ‘तहलका’ ने संपर्क साधा तो उनकी बहू परमजीत कौर से पता लगा कि वे साफ देख व सुन नहीं सकते. इसलिए अब इस लड़ाई को लड़ने की जिम्मेदारी उन्होंने अपने कंधों पर उठा रखी है. आगे परमजीत सिंह ने जो बताया, वह संवेदनाओं को झकझोरने वाला था. वे बोलीं, ‘सुरजन सिंह मेरे जेठ थे पर मैं कभी उनसे मिली नहीं. उनकी मौत मेरी शादी के 10 साल पहले ही हो गई थी.’ यह बोलते समय उनके चेहरे और जुबान पर दर्द साफ देखा जा सकता था. आगे हम कुछ पूछते उससे पहले ही वे बोल पड़ीं, ‘पुलिस की उस घिनौनी करतूत के बारे में मैंने अपने ससुर से जाना था. उस हादसे के बाद वे दिमागी रूप से कमजोर हो गए थे इसलिए मेरी सास जो उस घटना के समय बस में मौजूद थीं, वही कानूनी लड़ाई लड़ती रहीं. मेरे पति तब महज 10 साल के थे. ससुर की दिमागी हालत ठीक नहीं थी इसलिए घर और बाहर का सारा भार मेरी सास के कंधे पर आ गया जिसके दबाव में 1997 में उन्होंने भी दम तोड़ दिया. परिवार की आर्थिक हालत भी बिगड़ गई.’
उस हादसे ने करनैल सिंह से केवल उनका बड़ा बेटा ही नहीं छीना था. बल्कि इस घटना में यह परिवार ही टूट गया. वहीं करनैल सिंह के मन में यह भी डर बैठ गया था कि कहीं कोई उनके छोटे बेटे की भी हत्या न कर दे तो वे उन्हें अपनी आंखों से दूर कहीं नहीं जाने देते थे. कुछ सालों बाद उन्होंने उनकी शादी परमजीत से करा दी. इस बीच सदमे और डर के साये में रहकर मेरे पति धीरे-धीरे अपना दिमागी संतुलन खो बैठे. परमजीत बताती हैं, ‘आज भी मेरे पति अपने भाई और मां के गम में डूबे रहते हैं. उनका दिमागी संतुलन ठीक नहीं है. शराब भी पीते हैं. हमारे पास इतना पैसा नहीं कि उनका इलाज करा सकें. जो जमीन-जायदाद और गहने थे वो सब या तो इस केस में बिक गए या फिर घर चलाने में. यही कारण था कि शादी के बाद इस मुकदमे की बागडोर लेने के लिए मैं बेबस थी. मैं न लेती तो कौन लेता और लड़ूं भी क्यों नहीं? आज मैं दूसरों के घर के बर्तन साफ कर घर चलाती हूं. यह सब उस 25 साल पुराने जख्म की देन है. आज मेरे पति को कोई सहारा देने या समझाने वाला नहीं है. इसलिए मन में आता है कि अगर मेरे जेठ होते तो उनकी ऐसी हालत नहीं होती. अब तो हम अकेले रह गए हैं. खुद ही जानते हैं कि कैसे समय काट रहे हैं, घर का भी करते हैं और बाहर का भी.’ आगे वे आरोपियों को मिली सजा के बारे में कहती हैं, ‘अगर परिवार का एक सदस्य बेमौत मारा जाए तो मौत पूरे परिवार की होती है. उन्होंने हमारे पूरे परिवार का कत्ल किया है, जो था वो सब छिन गया. उन्हें तो फांसी होनी चाहिए.’
बहरहाल करनैल सिंह भले ही साफ देख व सुन नहीं सकते, चलने के लिए भी उन्हें एक व्यक्ति के सहारे की जरूरत पड़ती है, लेकिन अपने बेटे सुरजन सिंह को न्याय दिलाने के लिए वे आज भी प्रतिबद्ध हैं. जिस दिन लखनऊ की सीबीआई कोर्ट आरोपी पुलिसवालों की सजा मुकर्रर करने वाली थी, उस दिन भी वे एक हजार किलोमीटर का सफर तय करके पंजाब से लखनऊ पहुंचे थे.[/symple_box]