अच्छे सपने देखना अच्छी बात है. मानव समाज सपनों से खाली नहीं हो सकता. सपने हमें जीने का हौसला देते हैं. लेकिन रात और दिन में देखे गए सपनों में बड़ा अंतर होता है. रात के सपने सिर्फ कल्पनालोक को आलोकित करते रहते हैं जबकि दिन में देखे गए सपने साकार किए जा सकते हैं. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को एक महादेश बनाने का सपना दिन में देखा गया सपना है. इस महादेश में यदि तीन बड़े देश आएंगे तो नेपाल, श्रीलंका और भूटान अपने को अलग नहीं रख पाएंगे.
टूटे हुए दिलों और देशों को जोड़ने के लिए सबसे पहले यह समझने की जरूरत पड़ती है कि वे टूटे क्यों थे. जब तक टूटने के कारणों का पता नहीं, तब तक जोड़ने की प्रक्रिया को शुरू नहीं किया जा सकता. भारत विभाजन का वैचारिक आधार ‘द्वि-राष्ट्र’ सिद्धांत था, जिसके अंतर्गत यह माना गया था कि हिंदू और मुसलमान दो-दो राष्ट्रीयताएं हैं और दोनों को अलग हो जाने की आवश्यकता है. यह समझ केवल मुस्लिम लीग की नहीं थी. इसके प्रमाण मिलते हैं कि कट्टरवादी हिंदू विचारक भी इस पर विश्वास करते थे. केवल कांग्रेस इस सिद्धांत से असहमत थी. उसका मानना था कि राष्ट्रीयता का आधार धर्म नहीं है. हिंदू-मुस्लिम अलगाव के बीज 19वीं शताब्दी में पड़ने शुरू हो गए थे. अंग्रेजी, साम्राज्यवाद, पश्चिमी शिक्षा और राष्ट्रीय आंदोलन ने कुछ नई अवधारणाओं को जन्म दिया था. इसमें सबसे बड़ी अवधारणा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति पाकर देश को लोकतांत्रिक स्वरूप देने की थी. लोकतंत्र में चूंकि बहुमत द्वारा ही सत्ता स्थापित होती है इसलिए यह माना जा रहा था कि हिंदुस्तान में हिंदू सत्ता स्थापित होगी. सर सैयद के आजादी और लोकतंत्र विरोध का यही कारण था. पश्चिम से अत्यंत प्रभावित होने के बाद भी सर सैयद ने लोकतंत्र के केवल बाह्य रूप को ही पहचाना था. उन्हें इसकी जानकारी कम थी कि लोकतंत्र में योग्यता और दक्षता का भी बड़ा महत्व होता है जो किसी भी मायने में संख्या से कम नहीं होता.
19वीं शताब्दी में 1857 के बाद पूरे देश में स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य के पास कुछ ऐसे सामाजिक मूल्य थे जो यूरोप में अर्जित किए गए थे जिन पर अंग्रेजों का पूरा विश्वास था. वे भारतीय उपनिवेश को उनके आधार पर चलाना चाहते थे. इन मूल्यों में मनुष्य और मनुष्य को बराबर मानने और समझने पर विशेष जोर था. यह अवधारणा हिंदुस्तान के लिए बिल्कुल नई थी. इस अवधारणा के अंतर्गत धर्म, जाति और पारिवारिक श्रेष्ठता का कोई महत्व न था, जबकि तत्कालीन सामंती भारतीय समाज में इनका बहुत महत्व था. ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने विचारों और सिद्धातों के अनुसार हिंदू-मुसलमानों और सभी धर्मों को मानने वालों को बराबर समझकर ऐसे-ऐसे कानून बनाए थे जिसने सामंती मुस्लिम समाज को विचलित कर दिया था और उन्हें अपनी श्रेष्ठता खतरे में लगने लगी थी.
‘20वीं शताब्दी में बहुत-से छोटे-छोटे देश बनते देखे गए. पर किसी देश के दो टुकड़ों को साथ मिलते कम ही देखा गया. एकीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण जर्मनी है. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी मिलकर एक देश बन गए थे’
इसी शताब्दी में मुसलमान अपने पारंपरिक अंग्रेज विरोध के कारण शिक्षा और नौकरी के क्षेत्रों में हिंदुओं से पीछे हो गए थे. सर सैयद के आंदोलन ने एक नया मुस्लिम मध्यम वर्ग जरूर पैदा किया था पर उसकी संख्या और प्रभाव कम था. पढ़ा-लिखा मुस्लिम मध्यम वर्ग खुद को हर नए क्षेत्र में हिंदुओं से पीछे ही पाता था. इसलिए उसने पाकिस्तान के रूप में एक ‘सुरक्षित स्वर्ग’ की कल्पना की थी जो जल्द ही ‘असुरक्षित नरक’ मे बदल गया था. पाकिस्तान बनने के पीछे और चाहे जितने कारण रहे हों पर मुख्य कारण मुस्लिम मध्यम वर्ग की महत्वाकांक्षा थी. पाकिस्तान के निर्माण को भारतीय मुसलमानों की एक भयंकर भूल माना जाएगा जिसके कारण न केवल वे स्वयं बर्बाद हुए बल्कि लाखों बेघर हुए और हजारों की हत्याएं हुईं. पाकिस्तान बन जाने के परिणामस्वरूप भारत में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों को एक बड़ा आधार मिला जो लगातार बड़ा होता चला गया और आज देश में उनका शासन है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी सांप्रदायिक शक्तियां बहुत शक्तिशाली हैं. इन परिस्थितियों में आरएसएस और भाजपा द्वारा अखंड भारत की बात करना कुछ विचित्र-सा लगता है. इससे पहले ‘अखंड भारत’ की चर्चा दो प्रकार से होती रही है. हिंदू सांप्रदायिक शक्तियां कांग्रेस को ‘टारगेट’ बनाने के लिए यह मुद्दा उठाती रही हैं. दूसरी तरफ हिंदू-मुस्लिम सद्भावना और भारत-पाक मैत्री वाले समूह इसे दोस्ती और मित्रता के संदर्भ में उठाते रहे हैं. लेकिन इन दोनों समूहों को यह पता था कि इस कल्पना के वास्तविक उद्देश्य कुछ और हैं. भारत को आजाद हुए आधी शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है. उपमहाद्वीप की जनसंख्या में बहुत तीव्र गति से वृद्धि हुई है. आज भारत में तकरीबन 20 करोड़ मुसलमान हैं. पाकिस्तान में तकरीबन 18 करोड़ हैं. बांग्लादेश में तकरीबन 15 करोड़ हैं. इस तरह उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जनसंख्या तकरीबन 50 करोड़ है. अखंड भारत का अर्थ यह होगा कि उसमें 50 करोड़ मुसलमान होंगे और 82 करोड़ के करीब हिंदू होंगे. क्या आरएसएस को ऐसा अखंड भारत स्वीकार होगा जिसमें 50 करोड़ मुसलमान हों? भारत में अब तक हिंदू मतों के ध्रुवीकरण में असफल रही भाजपा क्या 50 करोड़ मुसलमान मतदाताओं को स्वीकार करेगी?
ऊपर दिए गए तथ्यों के बाद भी राम माधव ने यदि अखंड भारत की बात की है तो उनका आशय निश्चित रूप से कुछ और ही होगा. महत्वपूर्ण यह है कि वे ‘अखंड भारत’ के निर्माण के लिए तीनों देशों की सहमति और रजामंदी को पहली शर्त मानते हैं. मतलब अखंड भारत तीनों देशों की मर्जी से बनेगा. यह अवधारणा सराहनीय है.
20वीं शताब्दी में बहुत-से बड़े देशों से छोटे-छोटे देश तो बहुत बनते देखे गए. पर किसी देश के दो टुकड़ों को साथ मिलते कम ही देखा गया. एकीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण जर्मनी है. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी मिलकर एक देश बन गए थे.
यह एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि पूर्वी जर्मनी की संसद में जब पश्चिमी जर्मनी के साथ विलय के प्रस्ताव पर मतदान हुआ तो प्रस्ताव के विरोध में एक मत भी नहीं था. पूर्वी जर्मनी की संसद सौ प्रतिशत विलय के पक्ष में थी क्योंकि उस समय पूर्वी जर्मनी की तुलना में पश्चिमी जर्मनी अधिक संपन्न लोकतंत्र था. पूर्वी जर्मनी आर्थिक संकट से गुजर रहा था. सोवियत यूनियन के पतन के बाद उसकी स्थिति बहुत चिंताजनक हो गई थी.
यह एक सीधी-साधी और साधारण बात है कि कठिनाई के दिनों में लोग संपन्न रिश्तेदारों के घर ही जाते हैं. संपन्न रिश्तेदार यदि उदार भी है तो क्या कहना. विभाजित देशों के विलय के लिए भी यह सिद्धांत लागू होता है. बड़े देश यदि संपन्न और उदार हैं तो वे अपने से अलग हुए छोटे देशों को आकर्षित कर सकते हैं. इस संदर्भ में उपमहाद्वीप को देखने की आवश्यकता है.
‘भारत ने यह स्थापित किया है कि वह एक बड़ा लोकतंत्र है. भारत के प्रति पाकिस्तान में सम्मान का भाव है. आम पाकिस्तानी मानता है कि उनका देश उन्हें जो नहीं दे पाया है वह भारत ने अपने नागरिकों को दिया है’
इसमें संदेह नहीं कि भारत ने यह स्थापित कर दिया है कि वह एक बड़ा लोकतंत्र है. भारत के लोकतंत्र के प्रति पाकिस्तान में सम्मान और प्रशंसा का भाव है. आम पाकिस्तानी मानता है कि उनका देश उन्हें जो नहीं दे पाया है वह भारत ने अपने नागरिकों को दिया है. यही नहीं, वे मानते हैं कि भारत के लोकतंत्र का प्रभाव पाकिस्तानी राजनीति पर भी पड़ता है. ऐसी स्थिति में भारत के प्रति पाकिस्तान की साधारण जनता का आकर्षण समझ में आता है.
भारत निश्चित रूप से उपमहाद्वीप का एक ‘धनवान रिश्तेदार’ है. भारत की अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत है, जबकि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था अमेरिका की बंधुआ मजदूर बन गई है. भारत की प्रगति और विकास से भी पाकिस्तानी अभिभूत हैं. आज भारत का एक रुपया पाकिस्तान के दो रुपये के बराबर है. आज से 30-35 साल पहले पाकिस्तानी मिलते थे तो यह सामान्य बातचीत का विषय बनता था कि भारत ज्यादा ‘अच्छा’ है या पाकिस्तान. लेकिन आज कोई पाकिस्तानी इस विषय पर बात नहीं करना चाहता क्योंकि यह स्थापित हो गया है कि भारत ज्यादा ‘अच्छा’ है. भारत की प्रगति देखकर पाकिस्तानी भौंचक्के रह जाते हैं. प्रत्येक क्षेत्र में भारत पाकिस्तान से आगे है. छोटी और कमजोर अर्थव्यवस्था होने के कारण पाकिस्तान का मीडिया बहुत ‘छोटा’ और ‘कमजोर’ है. पाकिस्तान के कलाकार भारत आकर काम करने के लिए व्याकुल रहते हैं क्योंकि कलाकारों को यहां जो पैसा मिलता है उसकी कल्पना भी पाकिस्तान में नहीं की जा सकती.
लोकतंत्र और अच्छी अर्थव्यवस्था वे दो बड़े कारण हैं जो भारतीय मूल के लोगों को भारत की ओर आकर्षित करते हैं. लेकिन महत्वपूर्ण उन बिंदुओं पर विचार करना है जो भारतीय मूल के लोगों को भारत से विमुख करते हैं. कराची निवासी भारतीय मूल की उर्दू कवयित्री फहमीदा रियाज़ ने भारत में पहली बार भाजपा की सरकार बनने पर एक कविता लिखी थी जिसका शीर्षक है- ‘तुम भी हम जैसे निकले’. कविता का मूल भाव यह है कि पाकिस्तान में तो उसके निर्माणकाल के समय से ही एक धर्मिक कट्टरता, अंधविश्वास, अनुदारता, जड़ता और हिंसा थी, वह आधी शताब्दी के बाद भारत में भी खुलकर सामने आ गई है. कविता में प्रतिगामी शक्तियों से पूछा जाता है- ‘अब तक कहां छिपे थे भाई’. फहमीदा की इस कविता का भारत के एक बड़े वर्ग ने बड़ा विरोध किया था. लेकिन कविता की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता.
‘अखंड भारत’ में शामिल होने से पहले पाकिस्तान और बांग्लादेश इस मुद्दे पर विचार जरूर करेंगे कि भारत से जुड़कर क्या उन्हें आंतरिक सुरक्षा मिलेगी. दुख की बात है कि भारत के शासक गुटों ने, जिसमें मुख्य रूप से कांग्रेस शामिल है, सांप्रदायिकता की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया है बल्कि उससे लाभ उठाने के लिए उसे हवा-पानी दिया है. कांग्रेस के अनाड़ी नेतृत्व विशेष रूप से राजीव गांधी को यह पता न था कि जिस सांप्रदायिकता से वे लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं वही सांप्रदायिकता एक दिन उनके विनाश का कारण बन जाएगी.
सांप्रदायिकता के प्रति भारतीय गणतंत्र की ‘समझ’ का एक प्रमाण यह भी दिया जाता है कि देश ने आतंकवाद से निपटने के लिए नए कानून तो बना दिए हैं लेकिन सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक दंगों में लोगों को न्याय या सजा देने के लिए नए कानून नहीं बनाए गए हैं. नतीजा यह निकलता है कि सांप्रदायिक दंगों में हत्या या जनसंहार करने वाले साफ बच जाते हैं. यह बताने की जरूरत नहीं है कि इसका अल्पसंख्यकों पर क्या प्रभाव पड़ता होगा. ‘अखंड भारत’ में शामिल होने वाले पाकिस्तान या बांग्लादेश के मुसलमान क्या इस मुद्दे पर विचार नहीं करेंगे?
अखंड भारत या भारतीय महासंघ के लिए एक और महत्वपूर्ण विचारणीय मुद्दा है, क्या भारतीय राजसत्ता ने अपने प्रदेशों- विशेष रूप से कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के साथ सम्मानजनक बराबरी का व्यवहार किया है? मेरे विचार से ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति पाने के बाद भी भारतीय शासकवर्ग की ‘सोच’ साम्राज्यवादी बनी रही और संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र को साम्राज्य की तरह चलाने की इच्छा हमारे नेताओं पर छाई रही. इंदिरा गांधी ने अपने राज्यकाल में साम्राज्यवादी नीतियों को चरम पर पहुंचा दिया था जिसके बड़े भयानक परिणाम निकले थे. यदि कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के संबंध में विचार किया जाए तो कटु तथ्य सामने आते हैं. पूर्वोत्तर राज्यों में जनभावनाओं को समझने और उनसे संवाद स्थापित करके समाधान खोजने के बजाय सेना के माध्यम से उसे कुचला गया. अपने ही देश के एक हिस्से पर हवाई हमला किया गया. उत्तर भारत तथा शासन वर्ग के बारे मे पूर्वोत्तर राज्यों में अब तक कटुता बनी हुई है. इसी तरह का काम पाकिस्तान बलूचिस्तान में कर रहा है. अब सवाल पैदा होता है कि कौन-सा देश किसी ऐसे ‘लोकतंत्र’ के साथ मिलने का प्रयास करेगा जो अपने ही देश के एक भाग पर बम वर्षा कर चुका हो. जहां तक कश्मीर का सवाल है तो वह भी भारत या कहना चाहिए कांग्रेस के नेताओं मुख्य रूप से इंदिरा गांधी की साम्राज्यवादी समझ से उत्पन्न एक गंभीर समस्या है. साम्राज्यवाद पूरे साम्राज्य को अपने अधीन मानता है. कश्मीर को भारत का एक प्रदेश बना देने की इच्छा संविधान के खिलाफ है. यह भी सामने आता है कि देश अपने संविधान तक का सम्मान नहीं करता है. ऐसी साम्राज्यवादी सोच तो देश की एकता और अखंडता के लिए ही हानिकारक है. दूसरे देश इससे कैसे आकर्षित हो सकते हैं?
भाजपा या आरएसएस स्वेच्छा से अखंड भारत की जो बात करते हैं, वह एक महासंघ के रूप में ही संभव है पर महासंघ के लिए परस्पर विश्वास का रिश्ता बनना भी जरूरी है. उपमहाद्वीप में स्थिति यह है कि भारत और पाकिस्तान के कुछ शक्तिशाली समूह दोनों देशों को एक-दूसरे का पक्का शत्रु बनाने का लगातार प्रयास करते रहते हैं. इन समूहों में पाकिस्तान की सेना प्रमुख है क्योंकि भारत की शत्रुता के कारण ही उसका महत्व है. भारत से पाकिस्तान की दोस्ती पाकिस्तान की सेना को ‘शून्य’ कर देगी. निकट भविष्य में यह नजर नहीं आता कि पाकिस्तान सेना की गिरफ्त से बाहर निकल पाएगा. इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश युद्ध के बाद पाकिस्तान को यह अवसर दिया था. वहां के राजनेता इसमें सफल नहीं हो सके.
‘भारतीय महासंघ का सपना तो देखा ही जा सकता है. पर यह ध्यान रहना चाहिए कि यह केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं है. जिस पीढ़ी ने ‘अखंड भारत’ देखा था या उसमें रही थी, वह करीब-करीब समाप्त हो चुकी है’
आतंकवाद भी एक बड़ा मसला है जो उपमहाद्वीप के देशों के निकट आने में एक बड़ी बाधा है. पाकिस्तान के पास आतंकवाद से लड़ने या उसे रोक पाने की शक्ति और इच्छा नहीं है, जबकि पाकिस्तान स्वयं भी उससे आहत है. भारत की ही यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साधनों और प्रयासों से भारत में आतंकी घुसपैठ को रोके और भारत के अंदर पनपने वाले आतंकवाद के लिए सही नीतियां बनाए. आतंकवाद केवल कानून व्यवस्था की समस्या तक सीमित नहीं होता. उसके राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कारण भी होते हैं. उपमहाद्वीप के संघ बनने और एक अर्थ में अखंड भारत बनने का लाभ सभी देशों को होगा. यूरोपियन यूनियन जैसा गठबंधन बनाया जा सकता है. यह स्थिति फिलहाल तो दिखाई नहीं पड़ती लेकिन भारत के पास यह क्षमता है कि वह एक सशक्त लोकतंत्र बनने के बाद इस दिशा में पहल कर सकता है. लेकिन प्रश्न तो यही है कि भारत को अच्छा लोकतंत्र बनाने वाली शक्तियां अभी नजर नहीं आ रही हैं. भारतीय राजनीति पूरी तरह सत्तोन्मुखी हो गई है. प्राय: सभी दल किसी न किसी तरह सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं. पर ‘अखंड भारत’ अर्थात भारतीय महासंघ या ‘इंडियन यूनियन’ का सपना तो देखा ही जा सकता है. पर यह ध्यान रहना चाहिए कि यह केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं है. जिस पीढ़ी ने ‘अखंड भारत’ देखा था या उसमें रही थी, वह करीब-करीब समाप्त हो चुकी है. उस पीढ़ी के लिए यह अवश्य ही बड़ा भावनात्मक मुद्दा था. विभाजन पर लिखा गया साहित्य भी भावना के स्तर पर ही उसे संबोधित करता था. पर आज यह स्थिति नहीं है. पाकिस्तान और भारत की युवा पीढ़ी की भावना इस मुद्दे से नहीं जुड़ी है. भाजपा और आरएसएस यदि इसे केवल भावनात्मक मुद्दा बनाएंगे तो यह शायद साकार नहीं हो सकता. आज यह बहुत व्यावहारिक मुद्दा है. नई पीढ़ी की रुचि इस मुद्दे में इसी प्रकार से हो सकती है.
पाकिस्तान भारत के लिए एक बहुत बड़ा बाजार है. दोनों देशों के बीच आज जो व्यापार होता है वह सौ गुना बढ़ सकता है जिसका लाभ दोनों देशों को होगा. दोनों देश लंबी-चौड़ी सीमा की देख-रेख पर जो करोड़ों रुपये खर्च करते हैं वह कम हो सकता है. यह प्रस्तावित संघ चीन जैसा शक्तिशाली हो सकता है. इस कारण इसकी सुरक्षा की गारंटी हो सकती है. पूंजीवाद देश जिस प्रकार इन देशों पर अपनी ‘इच्छा’ थोपते और लाभ उठाते हैं, उस पर भी लगाम लग सकती है. यह संघ अपनी शर्तों पर विश्व के बड़े देशों के साथ संबंध बना सकता है. अखंड भारत या भारतीय महासंघ एक बड़ी चुनौती है जिस पर भावनात्मक नहीं, व्यावहारिक ढंग से बात करने की आवश्यकता है.