प्रफुल्ल जी के लिए ऐसे अचानक श्रद्धांजलि लिखनी पड़ेगी, कभी सोचा न था. मैं 1990 के शुरुआती वर्षों में अर्थनीति और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर उनके लेख पढ़ते हुए बड़ा हुआ. तब के अखबारी लेखक पीछे छूटते गए, लेकिन बाद में नई दिल्ली स्थित जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी करते हुए भी उनका लिखा उतना ही काम आया. वे एक विद्वान, पेशेवर, प्रतिबद्ध पत्रकार और बुद्धिजीवी थे. परमाणु निरस्त्रीकरण और अणु ऊर्जा, दक्षिण एशिया से लेकर फिलस्तीन तक के मुद्दे, पर्यावरण की वैश्विक राजनीति और उसका जनपक्ष, सांप्रदायिकता और सेकुलरिज्म, बाजार का अर्थशास्त्र और लातिन अमेरिका के जन केंद्रित प्रयोग जैसे हर मुद्दे पर गहन रिसर्च और उनकी तह तक जाना उनकी खासियत थी. भारत के अकादमिक जगत और पत्रकारिता दोनों की व्यापक दरिद्रता के दौर में एक मिसाल थे प्रफुल्ल बिदवई.
वे कभी वामपंथी दल के मेंबर नहीं रहे. नंदीग्राम-सिंगूर से लेकर सामाजिक न्याय व अन्य लोकतांत्रिक मुद्दों पर खुली आलोचना की लेकिन वे वामपंथ के भरोसेमंद दोस्त थे, इसमें किसी को कभी कोई शक न हुआ.
1977 में उन्होंने परमाणु ऊर्जा विभाग पर खोजी रिपोर्ट लिखी और सुरक्षा-खामियों को सार्वजनिक करने पर देशद्रोही तक कहलाए, 1984 में भोपाल गैस कांड के बाद उनके पड़ताली लेख इंसाफ तलाशते भुक्तभोगियों का संबल बने. 90 के दशक में सांप्रदायिकता के तांडव और बाजार की नृशंसता पर उनकी कलम ने चोट किया. 1998 में युद्धप्रेमी राष्ट्रवाद के कानफोड़ू शोर के बीच उन्होंने निर्भीकता से परमाणु परीक्षणों की निंदा की और शोधपरक लेखों के माध्यम समझाया कि क्यों अणु बम दक्षिण एशिया में सुरक्षा नहीं देते बल्कि हमें हथियारों की होड़ में झोंकते हैं और पश्चिमी देशों पर निर्भर बनाते हैं.
परमाणु मुद्दे से उनका केंद्रीय सरोकार रहा और मनमोहन सिंह सरकार के तहत हुई परमाणु डील का प्रफुल्ल बिदवई ने मुखर विरोध किया. उसके राजनीतिक, पर्यावरणीय और मिलिट्री खतरों से आगाह किया. 2010 में परमाणु दुर्घटनाओं से होने वाले नुकसान की भरपाई का बोझ विदेशी कंपनियों से हटाकर भारतीय आमजन के कंधे पर डालने की सरकारी कोशिशों के विरोध में उन्होंने डटकर लिखा और बोला. 2011 में जापान के फुकुशिमा परमाणु दुर्घटना के बाद एक बार फिर उन्होंने भारत में सुरक्षा कमियों और अणु ऊर्जा के अंतर्निहित व असाध्य खतरों ओर ध्यान दिलाया और इस प्रकरण में जुबानी सरकारी आश्वासनों की पोल भी खोली. उसी दौरान महाराष्ट्र के जैतापुर, तमिलनाडु के कुडनकुलम, गुजरात के मीठीविर्दी, आंध्रप्रदेश के कोव्वाडा, हरियाणा के गोरखपुर व देश के अन्य कई इलाकों में प्रस्तावित अणु ऊर्जा परियोजनाओं खिलाफ स्थानीय ग्रामीणों के आंदोलनों का सशक्त समर्थन किया.
पिछले साल जब मोदी सरकार ने आते ही वह आईबी रिपोर्ट जारी की जिसके अनुसार कुछ ‘देशद्रोही’ लोग व संस्थाएं ‘विकास’ से जुड़ी परियोजनाएं रोककर भारत की वृद्धि दर दो प्रतिशत कम कर रहे हैं, तो उसमें प्रफुल्ल और उनके बनाए परमाणु बम व अणु ऊर्जा विरोधी मंच ‘सीएनडीपी’ का नाम शुरुआती पन्नों पर था. तब मोदी का शबाब चरम पर था लेकिन प्रफुल्ल बिदवई ने कॉनस्टीट्यूशन क्लब में प्रेसवार्ता कर निडरता से इस दुष्प्रचार का मुंहतोड़ दिया और सरकार को आरोपों को साबित करने की खुली चुनौती दी. विकास की जनविरोधी परिभाषा को अंतिम सत्य मानकर उसे पुलिस मैन्युअल में बदल देने और सभी असहमतों को ठिकाने लगाने वालों को दी गयी प्रफुल्ल बिदवई की वह चुनौती हमें आगे बढ़ानी है.
परमाणु डील के मुद्दे पर विपक्ष में रहते समय विरोध करने वाली भाजपा के मौजूदा प्रधानमंत्री हर विदेशी दौरे में परमाणु समझौतों और मुआवजे की शर्तों में विदेशी कंपनियों के ढील देने को ट्रॉफी तरफ चमकाते हैं. इन करारों की आखिरी मार उन किसानों-मछुआरों पर पड़नी है जिनके यहां फुकुशिमा के बाद पूरी दुनिया में नकारे गए ये परमाणु प्लांट लगाए जा रहे हैं. प्रफुल्ल ने मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर शायद जो आखिरी लेख लिखा, वह आने वाले कई सालों तक हमें दिशा दिखाएगा क्योंकि साल-निजाम बदलते रहते हैं लेकिन आम जनता और प्रफुल्ल बिदवई सरीखे उसके भरोसेमंद दोस्तों की लड़ाई जारी रहती है.