जो चंपारण में गांधी के सत्याग्रह को जानते हैं, वे राजकुमार शुक्ल का नाम भी जानते हैं. गांधी के चंपारण सत्याग्रह में दर्जनों नाम ऐसे रहे जिन्होंने दिन-रात एक कर गांधी का साथ दिया. अपना सर्वस्व त्याग दिया. उन दर्जनों लोगों के तप, त्याग, संघर्ष, मेहनत का ही असर रहा कि कठियावाड़ी ड्रेस में पहुंचे बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी चंपारण से ‘महात्मा’ बनकर लौटते हैं और फिर भारत की राजनीति में एक नई धारा बहाते हैं. गांधी 1917 में चंपारण आए तो सबने जाना. गांधी चंपारण आने के बाद महात्मा बने, उसकी कहानी भी दुनिया जानती है. गांधी चंपारण न आते तो उनकी राजनीति का रूप-स्वरूप क्या होता और किस मुकाम को हासिल करते, इस पर अंतहीन बातों का सिलसिला जारी है और रहेगा.
इतिहास के पन्ने में दर्ज भले न हो लेकिन चंपारण में यह भी सब जानते हैं कि गांधी के यहां आने के पहले भी एक बड़ी आबादी निलहों से अपने सामर्थ्य के अनुसार बड़ी लड़ाई लड़ रही थी. उस आबादी का नेतृत्व शेख गुलाब, राजकुमार शुक्ल, हरबंश सहाय, पीर मोहम्मद मुनिश, संत राउत, डोमराज सिंह, राधुमल मारवाड़ी जैसे लोग कर रहे थे. यह गांधी के चंपारण आने के करीब एक दशक पहले की बात है. 1907-08 में निलहों से चंपारणवालों की भिड़ंत हुई थी. यह घटना कम ऐतिहासिक महत्व नहीं रखती. शेख गुलाब जैसे जांबाज ने तो निलहों का हाल बेहाल कर दिया था. चंपारण सत्याग्रह का अध्ययन करने वाले भैरवलाल दास कहते हैं, ‘साठी के इलाके में शेख ने तो अंग्रेज बाबुओं और उनके अर्दलियों को पटक-पटककर मारा था. इस आंदोलन में चंपारणवालों पर 50 से अधिक मुकदमे हुए और 250 से अधिक लोग जेल गए. शेख गुलाब सीधे भिड़े तो पीर मोहम्मद मुनिश जैसे कलमकार ‘प्रताप’ जैसे अखबार में इन घटनाओं की रिपोर्टिंग करके तथ्यों को उजागर कर देश-दुनिया को इससे अवगत कराते रहे. राजकुमार शुक्ल जैसे लोग रैयतों को आंदोलित करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह की भाग-दौड़ करते रहे.’
ये राजकुमार शुक्ल ही थे जिन्होंने गांधी को चंपारण आने को बाध्य किया और आने के बाद गांधी के बारे में मौखिक प्रचार करके सबको बताया ताकि जनमानस गांधी पर भरोसा कर सके और गांधी के नेतृत्व में आंदोलन चल सके
जो तमाम नाम ऊपर वर्णित हैं, उन्होंने अपने तरीके से अपनी भूमिका निभाई और इस आंदोलन का असर हुआ. 1909 में गोरले नामक एक अधिकारी को भेजा गया. तब नील की खेती में पंचकठिया प्रथा चल रही थी यानी एक बीघा जमीन के पांच कट्ठे में नील की खेती अनिवार्य थी. भैरवलाल बताते हैं, ‘इस आंदोलन का ही असर रहा कि पंचकठिया की प्रथा तीनकठिया में बदलने लगी यानी रैयतों को पांच की जगह तीन कट्ठे में नील की खेती करने के लिए निलहों ने कहा.’ भैरवलाल आगे बताते हैं, ‘गांधी के आने के पहले चंपारण में इन सारे नायकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही.’ इनमें कौन महत्वपूर्ण नायक था, तय करना मुश्किल है. सबकी अपनी भूमिका थी, सबका अपना महत्व था. लेकिन 1907-08 के इस आंदोलन के बाद गांधी को चंपारण लाने में और उन्हें सत्याग्रही बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही राजकुमार शुक्ल की. यह बात सिर्फ भैरवलाल नहीं बताते, चंपारण के सत्याग्रह के इतिहास पर बात करने वाले सभी राजकुमार शुक्ल की भूमिका को काफी अहम मानते हैं. सब जानते हैं कि ये राजकुमार शुक्ल ही थे जो गांधी को चंपारण लाने की कोशिश करते रहे. गांधी को चंपारण बुलाने के लिए एक जगह से दूसरी जगह दौड़ लगाते रहे. चिट्ठियां लिखवाते रहे. (देखें बॉक्स- मान्यवर महात्मा, किस्सा सुनते हो रोज औरों के, आज मेरी भी दास्तां सुनो)
चिट्ठियां गांधी को भेजते रहे. पैसे न होने पर चंदा करके, उधार लेकर गांधी के पास जाते रहे. कभी अमृत बाजार पत्रिका के दफ्तर में रात गुजारकर कलकत्ता में गांधी का इंतजार करते रहते, कई बार अखबार के कागज को जलाकर खाना बनाकर खाते तो कभी भाड़ा बचाने के लिए शवयात्रा वाली गाड़ी पर सवार होकर यात्रा करते. राजकुमार शुक्ल के ऐसे कई प्रसंग हैं. खुद गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ’ में राजकुमार शुक्ल पर एक पूरा अध्याय लिखा है. (देखें बॉक्स- नील के धब्बे)
गांधी ने तो राजकुमार शुक्ल पर इतना ही लिखा लेकिन उनके बारे में तमाम लोग और विस्तार से बताते हैं. सबका लब्बोलुआब होता है कि भले ही चंपारण आने के बाद गांधी के संग तमाम लोग लग जाते हैं और सत्याग्रह की लड़ाई को आगे बढ़ाते हैं लेकिन ये राजकुमार शुक्ल ही थे जिन्होंने गांधी को चंपारण आने को बाध्य किया और चंपारण आने के बाद भी गांधी के बारे में मौखिक प्रचार कर-करके सबको बताया ताकि जनमानस गांधी पर भरोसा कर सके और गांधी के नेतृत्व में आंदोलन चल सके. खैर, यह तो एक अध्याय है. राजकुमार शुक्ल से जुड़े हुए ऐसे कई अध्याय हैं कि गांधी के आने के बाद कैसे वे रैयतों को एकजुट कर लाते थे. सबका छोटा-बड़ा केस लड़ते थे. लेकिन शुक्ल की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण अध्याय गांधी के चंपारण से चले जाने के बाद का है, जो अजाना-सा ही है, जिस पर ज्यादा चर्चा नहीं होती.
भैरवलाल दास द्वारा संपादित राजकुमार शुक्ल की डायरी में एक बेहद मार्मिक प्रसंग है. गांधी के चंपारण से जाने के बाद भितिहरवा से शुक्ल के संगठन का काम जारी रहता है. रोलट एक्ट के विरुद्ध वे ग्रामीणों व रैयतों में जन जागरण फैलाते रहते हैं. ग्रामीणों के बीच उनकी सक्रियता 1920 में हुए असहयोग आंदोलन में भी रहती है. वे चंपारण में किसान सभा का काम करते रहते हैं. 1919 में लहेरियासराय में बिहार प्रोविंशियल एसोसिएशन का 11वां सत्र आयोजित होता है जिसमें वे भाग लेते हैं. वहां जासूसी करने गया एक अंग्रेज अधिकारी तो यह लिखता है कि राजकुमार शुक्ल ही इसके नेता हैं. शुक्ल को गांधी की खबर अखबारों से मिलती रहती है. वे गांधी को फिर से चंपारण आने के लिए कई पत्र लिखते हैं. गांधी का कोई आश्वासन नहीं मिलता है. अपनी जीर्ण-शीर्ण काया लेकर 1929 की शुरुआत में वे साबरमती आश्रम पहुंच जाते हैं. कस्तूरबा उन्हें देखने ही रोने लगती हैं. 15-16 दिनों तक शुक्ल वहां रुकते हैं, तब गांधी से उनकी मुलाकात हो पाती है. उस समय गांधी कहीं बाहर गए हुए होते हैं. गांधी को देखते ही राजकुमार शुक्ल की आंखें भर आती हैं. गांधी कहते हैं कि आपकी तपस्या अवश्य रंग लाएगी. राजकुमार पूछते हैं- क्या मैं वह दिन देख पाऊंगा? गांधी निरुत्तर हो जाते हैं.
साबरमती से लौटकर शुक्ल अपने गांव सतबरिया नहीं जाते हैं. वे उसी साहू के मकान में चले जाते हैं जहां गांधी रहा करते थे. उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था. 54 वर्ष की उम्र में 1929 में उनकी मृत्यु मोतिहारी में हो जाती है. मृत्यु के समय उनकी बेटी देवपति वहीं रहती हैं. मृत्यु के पूर्व शुक्ल अपनी बेटी से ही मुखाग्नि दिलवाने की इच्छा जाहिर करते हैं. मोतिहारीवाले चंदा करते हैं. मोतिहारी में रामबाबू के बागीचे में शुक्ल का अंतिम संस्कार होता है.
ऐमन वही अंग्रेज अधिकारी है जो राजकुमार शुक्ल को हर तरीके से बर्बाद करता है. धन-संपदा से विहीन तो कर ही देता है, मौके तलाश-तलाश कर उनको प्रताड़ित करता है और मछली मारने के जुर्म में जेल भिजवा देता है
उनकी मृत्यु की सूचना ऐमन को मिलती है. ऐमन बेलवा कोठी का अंग्रेज अधिकारी है. ऐमन वही अधिकारी है जो शुक्ल को हर तरीके से बर्बाद करता है. धन-संपदा से विहीन तो कर ही देता है, मौके तलाश-तलाश कर उनको प्रताड़ित करता है. कहा जाता है कि शुक्ल जब किसानी का पेशा कर रहे होते हैं तो वे अपने घर के आगे आलू लगाते हैं. ऐमन का एक कारिंदा आलू की मांग करता है या मालगुजारी देने को कहता है. वह दोनों ही देने से मना कर देते हैं. वे जानते थे कि नियमतः घर के अहाते की खेती में से हिस्सा देना जरूरी नहीं. ऐमन तक सूचना पहुंचती है तो वह बौखला जाता है. उसे लगता है कि राजकुमार नहीं देंगे तो देखा-देखी दूसरे किसान भी यही करने लगेंगे. इसके बाद शुक्ल को मछली मारने के जुर्म में फंसाया जाता है. तीन हफ्ते की जेल होती है. शुक्ल का घर ढहा दिया जाता है. फसल को रौंद दिया जाता है. ऐमन के लोग और भी कई तरीकों से उन्हें प्रताड़ित करते हैं.
शुक्ल की मृत्यु की सूचना जब ऐमन को मिलती है तो वह स्तब्ध रह जाता है. उसके मुंह से बस इतना ही निकलता है कि चंपारण का अकेला मर्द चला गया. वह तुरंत अपने चपरासी को बुलाता है. उसे 300 रुपये देता है. कहता है, ‘शुक्ल के घर पर जाओ और श्राद्ध के लिए पैसा देकर आओ. इस मर्द ने तो सारा काम छोड़कर देश सेवा और गरीबों की सहायता में ही अपने 25 वर्ष लगा दिए. रहा-सहा सब मैंने उससे छीन लिया. अभी उनके पास होगा ही क्या?’ चपरासी हाथ में रुपये लेकर हक्का-बक्का ऐमन का मुंह देखता रह जाता है. कुछ क्षण बाद वह बोलता है कि साहब वह तो आपका दुश्मन था. उसकी बात काटते हुए ऐमन बोलता है,’ तुम उसकी कीमत नहीं समझोगे. चंपारण का वह अकेला मर्द था जो 25 वर्षों तक मुझसे लड़ता रहा.’
शुक्ल के श्राद्ध में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, ब्रजकिशोर प्रसाद आदि दर्जनों नेता सतवरिया में मौजूद रहते हैं. ऐमन भी वहां मौजूद रहता है. राजेंद्र बाबू कहते हैं, ‘अब तो आप खुश होइए ऐमन, आपका दुश्मन चला गया.’ ऐमन अपनी बात दुहराता है, ‘चंपारण का अकेला मर्द चला गया. अब मैं भी ज्यादा दिन नहीं बचूंगा.’ चलते-चलते ऐमन शुक्ल के बड़े दामाद को अपनी कोठी पर बुलाता है. वह मोतिहारी के पुलिस कप्तान को एक पत्र देता है जिसके आधार पर शुक्ल के दामाद सरयू राय को पुलिस जमादार की नौकरी मिलती है. ऐमन को राजकुमार शुक्ल की मृत्यु का सदमा लगता है. वह भी कुछ महीने बाद दुनिया से विदा हो जाता है.