पानी में किसी वस्तु के तैरने के कारणों की खोज कर उत्प्लावन का सिद्धांत देने वाले महान वैज्ञानिक आर्किमिडीज की जिंदगी से जुड़ी एक बात बहुत ही चाव से बताई-सुनाई जाती है. बहुत हद तक संभव है कि यह किस्सा ही हो. कहते हैं कि आर्किमिडीज ने जिस समय वस्तुओं के पानी में तैरने के विज्ञान को समझा, उस वक्त वे एक तालाब में तैर रहे थे. आर्किमिडीज को जैसे ही उत्प्लावन के सिद्धांत का विचार दिमाग में कौंधा, वे अचानक पानी से बाहर निकलकर मारे खुशी के नंगे ही दौड़ने लगे. ‘यूरेका-यूरेका’ चिल्लाते हुए वे सड़कों पर दौड़ रहे थे. यूरेका का मतलब होता है- पा लिया या खोज लिया. शुरू में लोगों ने समझा आर्किमिडीज पागल हो गए हैं लेकिन जब उन्होंने समझाया कि क्या पा लिया है तो दुनिया उत्प्लावन बल के सिद्धांत को समझ सकी. इसके बाद उनका मुल्क और उसके लोग उन पर गर्व करने लगे.
पिछले दिनों जब बिहार में भाजपा के सहयोग-समर्थन व मार्गदर्शन में चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जाति की व्याख्या करते हुए राष्ट्रीय कुशवाहा परिषद की ओर से उनका 2320वीं जयंती समारोह (17 मई) मनाने के लिए होर्डिंग लगे और उस पर भाजपा नेताओं की तस्वीरें नजर आईं तो राजधानी पटना की सड़कों और नुक्कड़ों पर कुछ भाजपाई कार्यकर्ता ‘यूरेका-यूरेका’ वाले अंदाज में ही जोश में थे, चिल्ला रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने बिहार में सफल होने का सूत्र पा लिया है. बिहार में एक बड़ा वर्ग था, जिसको हंसी आ रही थी, कुछ को उबकाई भी कि प्रदेश की राजनीति को क्या हो गया है कि महान सम्राट अशोक तक को जाति की परिधि में बांधने की कोशिशें हो रही हैं. लेकिन तब पटना की सड़कों पर ‘यूरेका-यूरेका’ चिल्ला रहे भाजपाइयों का जोश देखते बन रहा था. वे अपनी ही धुन में मगन थे. उन्हें लग रहा था कि सियासत के समीकरण को बदलने का एक बड़ा सूत्र अथवा सिद्धांत उनके हाथ लग गया है. चक्रवर्ती सम्राट अशोक को कुशवाहा यानी कोईरी जाति की परिधि में कैद कर वे विजयी भाव से ग्रस्त दिख रहे थे. लोग हंसते रहे, गालियां देते रहे, सवाल पूछते रहे.
विधायक सूरज नंदन प्रसाद कुशवाहा एक ही वाक्य में रोमिला थापर से लेकर आरएस शर्मा जैसे इतिहासकारों के अध्ययन को खारिज कर देते हैं. उनका दावा है कि उनकी पार्टी के पास ठोस सबूत है कि सम्राट अशोक कुशवाहा ही थे
दिल्ली से इतिहासकार रोमिला थापर, जिन्होंने सम्राट अशोक पर विस्तार से अध्ययन कर एक किताब लिखी है. वह कहती रहीं कि अशोक की जाति का कहीं से कोई पता नहीं चलता. पटना निवासी प्रख्यात इतिहासकार आरएस शर्मा के अध्ययन संदर्भों का उदाहरण देकर पटना के ही इतिहासकार राजेश्वर प्रसाद सिंह कहते रहे कि अशोक के पूर्वज चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म एक शूद्र दासी की कोख से हुआ था, इसलिए उनके कुशवाहा होने का तो सवाल नहीं. दूसरी तरफ पटना में इतिहास पढ़ाने वाले विधायक सूरज नंदन प्रसाद कुशवाहा जैसे भाजपा के बौद्धिक चिंतक यह कहकर एक ही वाक्य में रोमिला थापर से लेकर आरएस शर्मा जैसे इतिहासकारों के अध्ययन को खारिज करते रहे कि उनकी पार्टी के पास ठोस सबूत है कि सम्राट अशोक कुशवाहा ही थे.
बहुत सारे तथ्य और तर्क हैं पास में. इतिहास के पन्नों से संदर्भ और तथ्य टकराते रहे हैं. बिहार में इतिहास से कोई सरोकार नहीं रखने वाले लोगों के भी सहज सवाल टकराते रहे कि अशोक पर तो कुशवाहा समाज पहले से दावेदारी करता ही रहा है. समाज उनके नाम पर आयोजन भी करता-कराता रहता था तो अचानक भाजपा को खुलकर जाति के इस खेल में आने की जरूरत क्यों पड़ गई? बिहार की राजनीति को जानने-समझने वालों को पता है कि भाजपाइयों में आया यह भाव अकारण नहीं है. वे जानते हैं कि बिहार की सियासत वर्षों से ऐसे ही समीकरणों से चलती रही है. जल्द ही अशोक कुशवाहा समाज के एक बड़े हिस्से के नायक हो जाएंगे और भाजपा ऐसा कर इस चुनाव में कुछ न कुछ तो फायदा उठा ही लेगी. इतिहास का क्या कबाड़ा होगा और आगे का इतिहास कैसा बनेगा, इसकी चिंता फिलहाल किसी को नहीं है. विधानसभा चुनाव में वे अशोक की जाति खोजकर क्या फायदा उठा लेंगे, यही उनके लिए सबसे जरूरी है. और उम्मीद की जा रही है कि कुछ हद तक तो वे इससे अपना मतलब साध ही लेंगे.
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता इसे ऐसे समझाते हैं, ‘देखिए, बिहार में वर्षों से लव-कुश समीकरण चल रहा है. यह दो जातियों कोईरी और कुर्मी के मेल-मिलाप वाला समीकरण है. इसके चैंपियन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार माने जाते रहे हैं. हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में इस समीकरण से उनका गणित हल नहीं हो सका.’ इस पर वह सवाल उठाते हुए पूछते हैं, ‘बताइए लव और कुश, दोनों भाई, दोनों क्षत्रीय कुल के रामचंद्र के वंशज, तो भला उनमें से एक कुर्मी और दूसरा कोईरी कैसे बन गया. कालांतर में समीकरण पर और उसी मिथकीय आधार पर वर्षों तक राजनीति को कैसे साधा जाता रहा.’ वह बताते हैं, ‘सम्राट अशोक वाले मामले को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं, बस अभी चुनाव है. लोकसभा चुनाव में कोईरी-कुर्मी गठजोड़ को नरेंद्र मोदी की आंधी के जरिये और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता को आगे कर के तोड़ा जा चुका है. दूसरे नेताओं की जो बची-खुची संभावनाएं हैं, उस पर हमला करने के लिए ही सम्राट वाला फॉर्मूला निकाला गया है.’ यह पूछे जाने पर कि सब तो ठीक है लेकिन आपके दल के बड़े नेता पटना में अशोक की प्रतिमा भी लगाने को कह रहे हैं. उनकी प्रतिमा की कल्पना कैसे करेंगे? क्या मन से सोच लेंगे कि अशोक ऐसे रहे होंगे, वैसे रहे होंगे? इस पर वह बात को टालते हुए कहते हैं, ‘राम, कृष्ण या किसी दूसरे देवता को किसी ने देखा है क्या… फिर भी आज उनकी तस्वीरें और मूर्तियां पूरी दुनिया में हैं. अशोक की भी वैसे ही लग जाएगी.’
‘बिहार में वर्षों से लव-कुश समीकरण चल रहा है. बताइए लव और कुश, दोनों भाई, दोनों क्षत्रिय कुल के रामचंद्र के वंशज, तो भला उनमें से एक कुर्मी और दूसरा कोईरी कैसे बन गया’
संयोग से उनसे पटना के होटल अशोक की लॉबी में ही बात हो रही थी. भाजपा आज अशोक की जाति खोजने के बाद उनकी प्रतिमा लगा देने को बेताब और बेचैन है. सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि बिहार में तकरीबन आठ सालों तक सत्ता में रहने के बावजूद अशोक के नाम पर इस इकलौते सरकारी होटल का उद्धार नहीं कराया जा सका और न ही भाजपा ने कभी इस बारे में बात की. इतना ही नहीं अशोक के नाम पर पटना में एक मुख्य सड़क ‘अशोक राजपथ’ की दशा सुधारने की चिंता भी किसी ने कभी व्यक्त नहीं की. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘बहुत हैरत में पड़ने की जरूरत नहीं. बस, इसमें आश्चर्य और हास्यास्पद बात ये है कि भाजपा जैसी पार्टी विकास की राजनीति का दावा करके सीधे-सीधे तौर पर जाति के खोल में समाने को बेचैन है. राज्य की राजनीति में ऐसा अरसे से होता रहा है. हर जाति में. 30 के दशक में ही त्रिवेणी संघ बना था, जिसमें कुर्मी और कोईरी जैसी जातियों ने कुर्मी क्षत्रीय और कुशवाहा क्षित्रय बनने का आंदोलन चलाया था. तब वे क्षत्रीय बनकर सत्ता और संपत्ति में अपना हक पाना चाहते थे. इसमें वे सफल भी हुए. संपत्ति में हिस्सेदारी हुई और अब सत्ता में हिस्सेदारी के लिए ये प्रपंच किया जा रहा है.’ वह कहते हैं, ‘पिछड़ी जातियों में यादव और कुर्मी द्वारा सत्ता पाने के बाद अब कुशवाहा समुदाय को भी यह लगता है कि वे भी इसके हकदार हैं. इसके लिए सम्राट अशोक जैसे नाम से खुद को जोड़ने से यह भाव उपजाने की कोशिश होगी कि यह जाति सबसे बड़े सम्राट की जाति का है. वह सत्ता संभालने के लायक है और आगे के लिए स्वाभाविक दावेदार है.’ सुमन बताते हैं कि राजनीति में यह सब चलता रहता है. मौर्य और अशोक को लेकर कुशवाहा समाज का एक बड़ा हिस्सा वर्षों से यह सब करता रहा है लेकिन दुखद यह है कि भाजपा जैसी पार्टी बिहार की राजनीति में इस तरह जाति का खेल खुलेआम खेलना चाहती है, जबकि उसे भी ये पता है कि समय के साथ संदर्भ बदल चुके हैं. अब मिथकीय या ऐतिहासिक नायकों के साथ लड़ाई नहीं लड़ी जाती.
बिहार या उत्तर भारत के इतिहास को देखें तो ऐसे नायकों की तलाश कर राजनीति होती रही है. खुद को मिथकीय या ऐतिहासिक नायकों से जोड़कर श्रेष्ठताबोध से भरने का दौर आता रहा है. साथ ही बड़े नायकों को अपनी जाति में कैद कर लेने का दौर भी आया है. बड़े-बड़े नायकों को विरोधियों द्वारा किसी जाति विशेष का बताकर उसे छोटा करने का अभियान भी खूब चला है. इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो बिहार में कुशवाहा समुदाय ऐसा पहली बार नहीं कर रहा. न ही पहली बार ऐसा हुआ है कि कुशवाहा परिषद जैसी संस्था को सामने कर भाजपा जैसी पार्टी ऐसा खेल खेल रही है. हां, यह सच है कि इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा बात तो विकास की कर रही है और उसके बूते ही चुनाव लड़ने का राग भी अलाप रही है लेकिन जातिगत राजनीति के हर दांव-पेंच को आजमाने में भी वह पीछे नहीं है. इसका एक उदाहरण पिछले दिनों भाजपा द्वारा धूमधाम से बड़े स्तर पर बाबा साहब आंबेडकर के नाम पर पटना में रैली करने से लेकर पासवानों के मिथकीय नायक, कुर्मी चेतना रैली आदि नीतीश कुमार के जीवन का प्रमुख टर्निंग प्वाइंट रहा है. इसके अलावा कुर्मी समाज द्वारा पटेल को अपनी जाति के खाके में कैद करने का अभियान भी चर्चित मामला रहा है. वीर कुंवर सिंह को राजपूतों द्वारा अपनी जाति की परिधि में कैद करने के लिए उनके नाम से संगठन बनाकर जयंती-पुण्यतिथि मनाने का रिवाज अब पुराना हो चला है. निषादों द्वारा रामायण के निषाद से लेकर वेदव्यास तक को अपनी जाति का मानना और अपने सामर्थ्य के हिसाब से इसे उभारने की कोशिश करना भी बिहार की राजनीति का ही एक हिस्सा है.
ब्राह्मणों द्वारा चाणक्य पर दावेदारी सब जानते हैं और भूमिहारों द्वारा परशुराम से लेकर स्वामी सहजानंद को अपने पाले में करने की पुरजोर कोशिश के बाद बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह और दिनकर जैसे कवि को अपने खेमे में लेने का अभियान चलता रहता है. डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के जमाने में भी उनके और बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा के बीच जाति के आधार पर चलने वाली लड़ाई का किस्सा सुनाया जाता है. बिहार में अब फणीश्वर नाथ रेणु जैसे महान लेखक को भी धानुक जाति से होने के कारण कुर्मी जाति का बताने का अभियान कुछ सालों से चल रहा है तो आर्यभट्ट को भट्ट ब्राह्मण बनाने का अभियान भी शुरू हो चुका है. जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री बनने के बाद दीना-भदरी जैसे मिथकीय नायकों का और माता सबरी के नायकत्व को उभारने की नए सिरे से कोशिश जारी है. एक जाति को दूसरी जाति की श्रेणी में लाने की होड़ भी बिहार की राजनीति का पुराना अभियान रहा है. भूमिहार द्वारा खुद को भूमिहार ब्राह्मण कहना और कुर्मी और कुशवाहा द्वारा खुद को क्षत्रिय कहना उसी अभियान का हिस्सा रहा है. और अब एक संगठन के बारे में यह सूचना है कि जल्द ही बुद्ध की जाति की तलाश कर उनके नाम पर जाति सम्मेलन की तैयारी पटना में चल रही है. पिछले दिनों महाराणा प्रताप को भी अपने खेमे में करने के लिए क्षत्रियों का एक समूह पटना में आयोजन कराने की कोशिश में था. यादवों की राजनीति के प्रतीक कृष्ण रहे हैं और उनका इस्तेमाल लालू प्रसाद यादव से लेकर नरेंद्र मोदी तक करते रहे हैं. लालू प्रसाद के आवास में कृष्ण की तस्वीरों की भरमार मिलेगी तो पिछले साल जब नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के समय बिहार आए तो यादवों की ओर इशारा करते हुए कहा था कि लालूजी के जेल जाने से यदुवंशी भाई परेशान न हों. उनका भी यदुवंशियों से पुराना नाता रहा है, क्योंकि वे गुजरात से आए हैं और गुजरात में ही द्वारका है. उस वक्त पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा था कि मोदी के कहने से यादव उनकी ओर नहीं जाएंगे. यादव हमारे साथ हैं. यदुवंशी जानते हैं सब सच.
बहरहाल इन प्रसंगों को बताने का आशय सिर्फ इतना है कि बिहार में शायद ही कोई मिथकीय या ऐतिहासिक नायक हो, जिसका इस्तेमाल राजनीति में अपना हित साधने के लिए न किया गया हो. अभी नरेंद्र मोदी द्वारा रामधारी सिंह दिनकर के नाम पर दिल्ली में आयोजन करके भले ही यह कहा गया कि बिहार जाति की राजनीति की वजह से बर्बाद हो रहा है. लेकिन मोदी के उस आयोजन का एक बड़ा मतलब बिहार के भूमिहारों को साधना था. सूत्र बताते हैं कि जल्द ही बिहार में बनारस की दुकानों से प्रेरणा लेकर महान लेखक जयशंकर प्रसाद को भी जाति के खाके में बांधने की तैयारी चल रही है. हलवाइयों की एक सभा कर जयशंकर प्रसाद की तस्वीरें बांटने का अभियान चलने वाला है.
बिहार में जाति की राजनीति का क्या रंग है और कौन-कौन से रंग सामने आने वाले हैं, इसे पटना के इनकम टैक्स गोलंबर के इर्द-गिर्द लगने वाले पोस्टरों व होर्डिंग के जरिये जाना-समझा जा सकता है. यहां पर रोजाना नए पोस्टर लगते हैं. रातोरात पोस्टर बदले जाते हैं. एक लगाता है, दूसरा हटा देता है. वहां पल भर में पोस्टर को चुपके से हटाकर अपना पोस्टर लगा देने का अभियान चलता है. दिन में दिखता है कि भूमिहार और ब्राह्मण एक होकर नया एकता परिषद बना रहे हैं तो शाम तक दिखता है कि भूमिहार अकेले चलकर परशुराम की जयंती मना रहे हैं. ब्राह्मण समाज अलग से परशुराम पर दावेदारी करने के लिए पोस्टर लगा रहा है.
ऐसे कई किस्से और कहानियां बिहार की राजनीति में हैं. वर्षों से चली आ रही परंपरा की तरह. बस, इस बार मजेदार ये हुआ है कि भाजपा, जो राष्ट्रवादी राजनीति करने की पैरोकारी करती रही है, वह विशुद्ध रूप से जाति की राजनीति में समाने को बेचैन दिखी और खुलकर संकीर्ण व स्थानीय राजनीति का हिस्सा बनने के लिए बेताब. बिहार चुनाव को लेकर भाजपा की यह बेचैनी स्वाभाविक है, क्योंकि यह तय हो चुका है कि इस बार का विधानसभा चुनाव सिर्फ और सिर्फ जाति के आधार पर लड़ा जाना है. जाति की राजनीति को ही साधने के लिए किसी भी कीमत पर नीतीश कुमार अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद के साथ अस्वाभाविक गठजोड़ करने के लिए दिन रात एक किए हुए हैं. जाति की राजनीति होने की संभावना की वजह से तीन दशक से राजनीति करते रहने वाले जीतन राम मांझी चुनाव की धुरी बन गए हैं.
जल्द ही बिहार में बनारस की दुकानों से प्रेरणा लेकर लेखक जयशंकर प्रसाद को भी जाति के खाके में बांधने की तैयारी है. हलवाइयों की सभा कर जयशंकर प्रसाद की फोटो बांटने का अभियान चलने वाला है
राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘आगे-आगे देखते तो रहिए क्या होता है. इसे विडंबना ही कहिए कि राष्ट्रवादी राजनीति का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा इस तरह खुलकर जाति की राजनीति करने पर अामादा है. हालांकि इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं क्योंकि इसके पहले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहते हुए खुद नरेंद्र मोदी अपने को पिछड़ा बताकर यह संकेत दे चुके थे कि भाजपा आगे किस रास्ते पर चलने वाली है.’ वह कहते हैं, ‘भाजपा राम को भी चाहती है और भारत के सबसे प्रतापी सम्राट अशोक पर भी कब्जा जमाना चाहती है. राम और अशोक पर एक साथ कब्जा करने की राजनीति उसकी विडंबना को ही दिखाता है. सबसे शर्मनाक बात ये लगी कि अशोक को कुशवाहा जाति में कैद करने और अपनी पार्टी में लाने के लिए केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह घोषणा कर दी है कि वे अशोक की मूर्ति लगाने के साथ डाक टिकट भी जारी करेंगे. जिस राजा के सिंह को भारत का चिह्न माना गया है, जिसके चक्र को राष्ट्रीय प्रतीक माना गया है, उसकी मूर्ति बनाकर उसका महत्व कम करना ही तो होगा. अशोक के जमाने में ही सिंह और चक्र की मूर्ति बनी थी. अशोक या उसके बाद के लोग चाहते तो उस समय के कुशल कारीगरों से अशोक की मूर्ति बनवा सकते थे लेकिन ऐसा नहीं किया गया. अब उस महानायक के नाम पर इस तरह की मनमानी और छेड़छाड़ ठीक नहीं.’ फिलहाल भाजपा अपनी धुन में मगन है. वह अशोक की प्रतिमा बनवाएगी. कुछ दिनों बाद चंद्रगुप्त मौर्य की प्रतिमा भी बनेगी. संभव है कि पटना में फिर एक-एक कर कई मिथकीय नायकों की प्रतिमा को स्थापित करने का दौर भी शुरू हो. संभव है कि पटना में ही मूर्तियों में आरक्षण का भी दौर शुरू हो, क्योंकि मूर्तियों की संख्या बढ़ेगी और सभी जाति व समुदाय के लोग अपने नायकों की प्रतिमा स्थापित करने की मांग करेंगे. उस पटना को देखना मजेदार होगा.
इंतजार कीजिए. कुछ दिनों बाद बुद्ध की जाति तलाश कर आयोजन होंगे. यह तय है और मजाक में कहा जाता है कि राम को राजपूत, कृष्ण को यादव, परशुराम को भूमिहार बना देने के बाद बिहार अगले एकाध चुनाव में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की जाति का भी पता लगाकर दिखा देगा. बिहार वह राज्य है, जहां जीते जी जाति की परिधि में रखने के लिए तमाम प्रयोग तो होते ही हैं, यह स्वर्गीय हो जाने के बाद भी जाति के बाहर नहीं रहने देने वाला और इस परंपरा को मजबूती से स्थापित करने वाला राज्य भी है.