जनता परिवार में शामिल होने वाले छह दलों में कर्नाटक की जद (एस) दक्षिण भारत से अकेली पार्टी है और फिलहाल कर्नाटक में बहुत मतबूत स्थिति में नहीं है. कांग्रेस शासित कर्नाटक में भाजपा विपक्ष है और जद (एस) तीसरे स्थान पर, इसलिए अपनी मौजूदा राजनीतिक हैसियत के साथ जद (एस), जनता परिवार के मार्फत राष्ट्रीय राजनीति और कर्नाटक में क्या हासिल कर पाएगी ये आनेवाले समय में पता चलेगा. लेकिन इतिहास में जाएं तो पता चलता है कि तीसरे मोर्चे की राजनीति में जनता पार्टी और जनता दल की बहुत अहम भूमिका रही है. कर्नाटक में जद (एस) और लोकशक्ति पार्टी बाद में इसी से आस्तित्व में आई हैं. जनता पार्टी की विरासत रामकृष्ण हेगड़े जैसे लोकप्रिय जननेता के दौर से शुरू होती है, 1983 में यहां हेगड़े के नेतृत्व में जनता पार्टी ने बाहर से भाजपा के समर्थन के साथ पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनाई थी. इसलिए ये दिलचस्प है कि हमेशा कांग्रेेस के खिलाफ एक होनेवाली जनता पार्टी इस बार भाजपा के विरोध में एक हो रही है.
दूसरी ओर आज भले जद (एस) या देवगौड़ा जनता पार्टी की परंपरा और विरासत की बात कर रहे हों लेकिन वो भी इसे खंडित करनेवालों में से रहे हैं. गौरतलब है कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल में उनके निर्देश पर ही तत्कालीन जनतादल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने रामकृष्ण हेगड़े को जनतादल से निष्कासित कर दिया था. बाद में हेगड़े ने लोकशक्ति पार्टी बना ली और 1999 लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़े तब राज्य में इसी गठबंधन को अधिकतम लोकसभा सीटें हासिल हुई थीं. ये बात भी दिलचस्प है कि जनतादल का गठन 1988 में बंगलुरु में ही जनता पार्टी और कुछ छोटी विपक्षी पार्टियों के मेल से हुआ था और 1994 में देवगौड़ा ने कर्नाटक में जनता दल की सरकार बनाई थी. 1996 में इसी जनता दल के नेता के तौर पर एचडी देवगौड़ा संयुक्त मोर्चे की सरकार में प्रधांनमंत्री बने थे. लेकिन 1999 आते आते जनता दल बिखर गया, जद (एस) और जदयू दोनों इसी टूट से निकली पार्टियां हैं. हालांकि देवगौड़ा शुरू से धर्मनिरपेक्ष राजनीति की हिमायत करते आए हैं, 1999 में भाजपा के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार को समर्थन देने के मसले पर ही कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री जेएच पटेल और देवगौड़ा में अलगाव हुआ था, जेएच पटेल जेडीयू के साथ गए और देवगौड़ा ने जनता दल सेक्यूलर या जद (एस) का गठन कर लिया. लेकिन इसी जद (एस) ने बाद में कर्नाटक में कांग्रेस के साथ भी गठबंधन किया और 2004 में भाजपा के साथ मिलकर सरकार भी बनाई, जिसमें 20 महीने तक एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री रहे.
1983 में हेगड़े के नेतृत्व में जनता पार्टी ने बाहर से भाजपा के समर्थन के साथ पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी
दरअसल, 1999 के बाद धर्मनिरपेक्ष राजनीति का सैद्धांतिक दावा करने के बावजूद जद (एस) की पहचान एक अवसरवादी दल की बनी है खासतौर पर देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने और पार्टी की कमान कुमारस्वामी के हाथ में आ जाने के बाद. वरिष्ठ पत्रकार और राजीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन की राय में भी कुमारस्वामी को हल्के में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि वो पैसेवाले हैं, मेहनती हैं और वोक्कालिंगा वोटबैंक पर उनकी मजबूत पकड़ है. कर्नाटक में जाति विमर्श हमेशा से धर्मनिरपेक्ष राजनीति को काटता रहा है, उत्तर भारत के जाट वोटबैंक की तरह वोक्कालिंगा जाति कर्नाटक के एक खास भौगोलिक क्षेत्र में केंद्रित है, जो जद (एस) का मजबूत आधार है. दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में भले जद (एस) को बहुत बड़ी भूमिका नहीं मिले लेकिन शक्ति संतुलन के खेल में ये पार्टी निर्णायक हो सकती है. वैसे देवगौड़ा बहुत सधे हुए राजनीतिज्ञ हैं, पिछली बार भी अचानक उनका नाम प््रधानमंत्री के लिए लिया गया तब कोई विरोध नहीं कर पाया था, आगे भी समय आने पर बहुत होशियारी से वो अपना कोई पत्ता फेंक सकते हैं.
दरअसल, जद (एस) की संभावना सिद्धारमैया और मोदी की छवि की चमक घटने के साथ बढ़ने की है. सिद्धारमैया बेशक विवादरहित और साफ छवि वाले मुख्यमंत्री हैं, लेकिन बतौर मुख्यमंत्री बहुत लोकप्रियता हासिल नहीं कर पाएं हैं. ऐसे में भाजपा को टक्कर देते हुए जद (एस) राज्य में अपनी स्थिति मजबूत करती है तो जनता परिवार में उसकी हिस्सेदारी बढ़ेगी. दूसरी ओर बिहार चुनाव में जनता परिवार का प्रदर्शन अगर बेहतर होता है तो कर्नाटक में जद (एस) को जरूर फायदा मिल सकता है. राष्ट्रीय नेताओं का हमेशा कर्नाटक की जनता पर प्रभाव रहा है, जद (एस) के सबसे बड़े आदर्श जयप्रकाश नारायण हैं, और इसे लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली सफलता से भी समझा जा सकता है जब विधानसभा चुनाव हार जाने के बावजूद मोदी की छवि के कारण भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा.
वैसे, जद (एस) भले जनता पार्टी के गठन को लेकर सकारात्मक हो लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस-भाजपा इसे अपने लिए चुनौती नहीं मान रहे हैं. कांग्रेस को सिद्धारमैया के शासन पर भरोसा है, कर्नाटक कांग्रेस प्रवक्ता दिनेश गुंडु राव पार्टी की प्रतिक्रिया बताते हुए कहते हैं, अगर सचमुच विचारधारा के आधार पर धर्मनिरपेक्ष दल एक साथ आ रहे हैं तो हम उनका स्वागत करते हैं. लेकिन जद (एस) ने कर्नाटक में अवसरवादिता की राजनीति की है और भाजपा विरोध की बात करते समय भूल रहे हैं उन्होंने भाजपा के साथ राज्य में सरकार बनाई है. कांग्रेस के लिए यही देखना दिलचस्प होगा कि जिस जद (एस) में कई मसलों पर पिता-पुत्र की राय और बयान एक-दूसरे से अलग होते हैं, वहां अलग दलों के साथ इनका कितना और कितने समय तक सामंजस्य बैठ पाता है.
जबकि भाजपा खुद के विरुद्ध ही लामबंद हो रहे जनता परिवार को लेकर कर्नाटक में चिंतित क्यों नहीं दिख रही नहीं? इसका जवाब देते हुए कर्नाटक विधानपरिषद में नेता विपक्ष के. ईश्वरप्पा कहते हैं, कर्नाटक में सिर्फ जद (एस) है, कोई और पार्टी यहां आकर उसके साथ चुनाव नहीं लड़नेवाली. भाजपा को न तो राज्य में इस गठबंधन से खतरा है न ही राष्ट्रीय स्तर पर, क्योंकि भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ रही है, अल्पसंख्यक भी पार्टी से जुड़ रहे हैं इसलिए गोवा में भाजपा की सरकार बनी. पहले जिसे केवल ब्राह्मणों, फिर बनियों और केवल उत्तर भारत की पार्टी कहा गया आज उसकी मौजूदगी पूरे देश में है. दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक सभी उससे जुड़े हैं, जबकि जद (एस) धर्मनिरपेक्षता का दिखावा करनेवाली एक जातिवादी पार्टी है. भाजपा को अगर खतरा है तो अपने ही दल के कुछ कट्टर हिंदुवादियों से, पार्टी इसे समझ रही है. मोदी भी लगातार संदेश दे रहे हैं कि उदारवादी राजनीति ही भाजपा की असली राजनीति है. भाजपा से अलग हुए येदुरप्पा और श्रीरामलू जैसे नेता पार्टी में वापस आ गए, इसलिए विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद लोकसभा चुनाव में भाजपा को 38 में से 17 सीटें मिलीं. कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष प्रहलाद जोशी भी जनता परिवार की चुनौती को सिरे से नकारते हुए कहते हैं, नीतीश कुमार हमारे साथ थे, लोकसभा चुनाव में भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ने पर बिहार की जनता का समर्थन उन्हें नहीं मिला ऐसे में वो कैसी संभावना पर विचार कर रहे हैं? और जहां तक देवगौड़ा जी की बात है तो अपने कैरियर के लिए ये उनका राजनीतिक प्रयोग भी हो सकता है, क्योंकि कर्नाटक में तो मुकाबला कांग्रेस भाजपा के बीच ही है.