26 मई को नरेंद्र मोदी के भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के साथ भारतीय राजनीति में एक और बदलाव की शुरुआत हुई. जो बदलाव ढूंढने में दिलचस्पी रखते हैं उन्हें यह तभी दिख गया होगा जब मोदी नई दिल्ली में आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचे. अपने सामान्य अंदाज से थोड़ा अलग जाते हुए उन्होंने पूरी बांह का कुरता पहना हुआ था और उसके ऊपर नेहरू जैकेट. मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में लगभग सभी पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्ष मौजूद थे. लेकिन यह तो एक छोटा सा बदवाल था. उस दिन समारोह के स्वरूप से लेकर कैबिनेट में मंत्रियों के चुनाव तक हर गतिविधि में वह दिखा जिसे अक्सर ही मोदी के साथ जोड़कर देखा जाता है–हर काम को करने का अपना एक अलग अंदाज.
इसकी उम्मीद शायद ही किसी ने की होगी कि मोदी अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क नेताओं को आमंत्रित करेंगे. उनमें भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को. आखिर पिछले ही साल तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस्लामाबाद में शरीफ के शपथ ग्रहण समारोह का आमंत्रण ठुकरा दिया था. उससे पिछले साल जब तत्कालीन प्रधानमंत्री आसिफ अली जरदारी अजमेर शरीफ आए थे और सिंह ने उन्हें दोपहर के खाने का न्यौता दिया था तो भाजपा ने प्रधानमंत्री पर तीखा हमला किया था. पाकिस्तान के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, शिव सेना और भाजपा के कट्टरपंथी धड़े के नेताओं की भावनाएं आज भी वैसी ही हैं. लेकिन मोदी ने साफ कर दिया कि वे सिर्फ अपने हिसाब से काम करते हैं. अपनी मित्र जयललिता और सहयोगी पार्टी एमडीएमके के विरोध की परवाह न करते हुए उन्होंने श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को भी न्यौता भेजा. यह उनकी जीत की धमक का ही नतीजा था कि भले ही न्यौता सिर्फ हफ्ते भर पहले ही मिला हो, लेकिन लगभग सारे ही सार्क देशों के मुखिया 26 मई को नई दिल्ली आए. बांग्लादेश से शेख हसीना विदेश दौरे पर होने के चलते नहीं आ सकीं, लेकिन उन्होंने सुनिश्चित किया कि बांग्लादेश संसद के अध्यक्ष इस मौके पर मौजूद हों.
मोदी का सबको चौंकाने का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ. सहयोगी तेलुगू देशम पार्टी, शिवसेना और लोक जनशक्ति पार्टी में भले ही सीटों का अच्छा खासा अंतर रहा हो, तीनों को मंत्रिमंडल में सिर्फ एक ही सीट मिली. शिव सेना के अनंत गीते को भारी उद्योग मंत्रालय मिला जिसे उतना अहम नहीं माना जाता. गीते ने मंत्रालय का कार्यभार देरी से संभालकर इस पर अपनी नाराजगी भी जाहिर कर दी, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. यह माना जा रहा है कि बजट सत्र के दौरान जब मोदी अपने मंत्रालय का विस्तार करेंगे तो शायद तेलुगू देशम पार्टी और शिव सेना को कम से कम एक मंत्रालय और मिल जाए.
कई तब भी हैरान हुए जब मोदी के मंत्रिमंडल में उन राज्यों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला जहां भाजपा ने विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया है. राजस्थान में भाजपा ने सभी 25 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन राज्य से मंत्रिमंडल में सिर्फ निहाल चंद के रूप में एक चेहरा है. झारखंड, उड़ीसा, असम और अरुणाचल प्रदेश से भी मंत्रिमंडल में एक ही चेहरा है जबकि पश्चिमी बंगाल में नई जिंदगी पा चुकी भाजपा को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला. साफ था कि मोदी ने उन राज्यों को तरजीह दी जहां निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. महाराष्ट्र में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं. वहां से छह मंत्री कैबिनेट में हैं. बिहार में चुनाव अगले साल हैं. वहां से पांच मंत्री हैं. इस मामले में सबसे बड़ा आंकड़ा उत्तर प्रदेश का रहा जहां से नौ मंत्री कैबिनेट में हैं. उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनाव होने हैं.
हालांकि मंत्रियों का चुनाव उतना अप्रत्याशित नहीं था. बुजुर्ग नेताओं के बारे में काफी हद तक साफ हो गया था कि उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलेगी. ऐसा होता तो मोदी को खुलकर अपना काम करने में दिक्कत होती. इसलिए ऐसे नेताओं के साथ औपचारिक मुलाकातें करके ही काम चला लिया गया. मोदी ने बिना किसी बड़ी दिक्कत के इस दुविधा से पार पा लिया कि लाल कृष्ण आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठों को मंत्रिमंडल में कौन सी जिम्मेदारी दी जाए.
मोदी ने जिस तरह गुजरात में अमित शाह को अपना सबसे बड़ा विश्वासपात्र चुना था, उसी तरह उन्होंने केंद्र में अरुण जेटली पर सबसे ज्यादा भरोसा जताया है. जेटली को वित्त और रक्षा जैसे दो भारी-भरकम मंत्रालय दिए गए हैं. हालांकि गृहमंत्रालय पाने के चलते कैबिनेट में राजनाथ सिंह दूसरे स्थान पर आते हैं लेकिन वास्तव में नंबर दो कौन है यह औपचारिक रूप से तब साफ होगा जब मोदी अपने पहले विदेश दौरे पर जाएंगे.
मोदी ने अपने उन विश्वस्त और वफादार सहयोगियों को पुरस्कृत किया है जो मिशन 272 प्लस की उनकी लड़ाई में उनके साथ सबसे मजबूती से खड़े रहे. पीयुष गोयल, प्रकाश जावड़ेकर, निर्मला सीतारमन और स्मृति ईरानी समाचार चैनलों पर लगातार और मजबूती से मोदी का पक्ष रखते रहे थे. धर्मेंद्र प्रधान को बिहार में भाजपा के शानदार प्रदर्शन का ईनाम मिला.
कैबिनेट में मंत्रालयों का बंटवारा जिस तरह से हुआ है उससे मोदी ने यह भी साफ संदेश दे दिया है कि जिस तरह गुजरात में वे सुपर सीएम थे, केंद्र में भी वे सुपर पीएम रहेंगे. आर्थिक मामलों से जुड़े जो भी अहम मंत्रालय हैं उन्हें जूनियर मंत्रियों के सुपुर्द किया गया है. जैसे गोयल को ऊर्जा और कोयला मंत्रालय मिला है तो प्रधान को तेल एवं गैस और जावड़ेकर को सूचना एवं प्रसारण और पर्यावरण. संदेश साफ है कि इन विभागों को एक तरह से मोदी ही चलाएंगे.
कैबिनेट के गठन से पहले ही कयास लगने लगे थे कि कामकाज प्रभावी तरीके से हो, इसके लिए मोदी कुछ मंत्रालयों को मिलाकर एक कर देंगे या एक ही क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले अलग-अलग मंत्रालयों की जिम्मेदारी एक ही व्यक्ति को दे देंगे. ऐसा ही हुआ भी. कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय को वित्त मंत्रालय के साथ मिला दिया गया. इसी तरह विदेश मामले और प्रवासी भारतीय मंत्रालय को भी मिलाकर इसका जिम्मा सुषमा स्वराज को दिया गया. वेंकैय्यानायडू को शहरी विकास और आवास एवं गरीबी उन्मूलन मंत्रालय मिले जबकि गोपीनाथ मुंडे को ग्रामीण विकास, पंचायती राज, पेयजल और सफाई. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय को मिलाकर इनकी जिम्मेदारी नितिन गडकरी को दी गई. पीयुष गोयल को ऊर्जा, कोयला और गैरपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के मंत्रालय का जिम्मा मिला. इससे उम्मीद जग रही है कि पिछली सरकार की तरह अलग-अलग मंत्रालयों के बीच टकराव देखने को नहीं मिलेगा. ऐसी कोशिशें पहले भी हुई थीं. मसलन 80 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शिक्षा, युवा मामले और खेल मंत्रालयों को मिलाकर मानव संसाधन मंत्रालय बना दिया था. गठबंधन सरकारों के आने के बाद मंत्रालयों को तोड़कर नए-नए मंत्रालय बनाने का काम हुआ, क्योंकि प्रधानमंत्री को सहयोगी पार्टियों को उनकी ताकत के हिसाब से मंत्रिपद देकर संतुष्ट करना होता था. इसका नुकसान यह होता है कि कई मंत्रियों का अलग-अलग रुख व्यापक तरीके से कोई फैसला लेने में आड़े आने लगता है. जैसे ऊर्जा से संबंधित अलग-अलग मंत्रालयों के होने से एक व्यापक ऊर्जा नीति बनने में दिक्कत होती है, क्योंकि अलग-अलग मंत्री और उनके विभाग अपने-अपने अधिकार क्षेत्र को बचाए रखने के लिए टकराने लगते हैं और बात आखिर में प्रधानमंत्री के पास जाती है. यानी जो मामला एक मंत्रालय के स्तर पर हल हो सकता था, वह प्रधानमंत्री के स्तर पर जाता है और वहां प्रधानमंत्री को तमाम मंत्रियों के अहम की संतुष्टि करनी होती है. उम्मीद की जा रही है कि अब यह स्थिति बदलेगी.
हालांकि मंत्रालयों के मेल का यह खेल आलोचना का भी शिकार हुआ. वित्त और रक्षा मंत्रालय या सूचना एवं प्रसार और पर्यावरण मंत्रालय एक ही व्यक्ति को देना कइयों के पल्ले नहीं पड़ा. हो सकता है और जैसा कि जेटली ने भी 27 मई को कहा कि मोदी अब भी अपने हिसाब के रक्षामंत्री के नाम पर विचार कर रहे हों. लेकिन कई लोगों का मानना है कि पर्यावरण मंत्रालय शिव सेना के सुरेश प्रभु या भाजपा की ही मेनका गांधी को दिया जा सकता था जो अतीत में भी इन मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं.
इसका एक मतलब यह हो सकता है कि मोदी, इन मंत्रालयों पर भी अप्रत्यक्ष रूप से अपना नियंत्रण रखना चाहते हैं. एक पूर्णकालिक रक्षा मंत्री का मतलब होता कि सुषमा की तरह एक और असंतुष्ट को कैबिनेट के शीर्ष में लाना. अपने विश्वासपात्र जेटली के जरिये मोदी रक्षा मंत्रालय को तब तक अप्रत्यक्ष रूप से खुद चला सकते हैं जब तक उन्हें अपने हिसाब का कोई विकल्प नहीं मिलता.
पर्यावरण मंत्रालय के मामले में तो यह बात और भी साफ दिखती है. निवेश की उम्मीद कर रहे उद्योग जगत को मोदी से बहुत उम्मीदें हैं. उसे आशा है कि मोदी पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया को तेज करेंगे और सात अरब डॉलर से भी ज्यादा लागत की लंबित परियोजनाओं की राह सुगम करेंगे. इस मोर्चे पर अच्छा प्रदर्शन करने के लिए नई सरकार को पर्यावरण से जुड़ी कई कानूनी अड़चनों से पार पाना होगा जिसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय इस मंत्रालय पर अपना नियंत्रण चाहता है. मंत्रालय का पदभार संभालने के बाद प्रकाश जावड़ेकर ने कहा भी कि विकास और पर्यावरण संरक्षण में कोई विरोधाभास नहीं है.
हालांकि इतने से ही बात नहीं बनने वाली. सरकार में आदिवासी मामलों का मंत्रालय भी है जिसकी कमान जुआल ओराम के हाथ में है. इस मंत्रालय को वाजपेयी सरकार ने बनाया था और ओराम 1999 से लेकर 2004 तक इसकी जिम्मेदारी भी संभाल चुके हैं. उनकी पहचान अपने निर्वाचन क्षेत्र सुंदरगढ़ में पॉस्को के प्रस्तावित खनन का विरोध करने वाले आदिवासी नेता की रही है. उनका बयान भी आया है कि खनन की इजाजत तभी मिलनी चाहिए जब यह आदिवासियों के हित में हो. लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि यह फैसला वे करते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय.
मोदी ने कम-से-कम गवर्नमेंट और ज्यादा-से-ज्यादा गवर्नेंस का नारा दिया है. यह आखिरकार इस पर निर्भर करेगा कि कार्यक्षमता के लिए चर्चित मोदी खुद की इस क्षमता को कितना बढ़ा पाते हैं. मोदी के बारे में कहा जाता है कि वे दिन में 18 घंटे काम करते हैं. बहुत से लोगों का मानना है कि गुजरात का प्रशासन बड़ी हद तक उन्होंने अपने दम पर ही चलाया. लेकिन भारत गुजरात से बड़ा और कहीं ज्यादा विविधता और विषमता से भरा है. इसके लिए मोदी को विकेंद्रीकरण करना ही होगा. वे सब कुछ अपने या अपने एक दो मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के हाथ में नहीं रख सकते. प्रशासकीय निर्णयों में भागीदारी बढ़ाने से उनकी राह तो आसान होगी ही, यह धारणा भी गलत साबित होगी कि उनका रवैय्या किसी तानाशाह सा है.