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यौनकर्मियों की त्रासदी

खुला देह व्यापार : कोलकाता हवाई अड्डे पर बिक्री के लिए सेक्स किसी कहानी के लिए एक आकर्षक शीर्षक है। लेकिन तहलका की विशेष जाँच टीम ने कैमरे में इसे तब क़ैद किया, जब कोरोना महामारी में हुई तालाबंदी के बाद सामान्य स्थिति लौट रही थी। यहाँ तक कि नाबालिग़ लड़कियों को मसाज और शारीरिक सम्बन्धों के लिए बुलाने वाले यात्रियों को लुभाने वाले दलालों के रूप में अवैध टैक्सी संचालक दोहरी भूमिका निभाते दिखते हैं। भारत में अपने स्तर पर वेश्यावृत्ति ग़ैर-क़ानूनी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने 19 मई को वेश्यावृत्ति को एक पेशे के रूप में मान्यता देने और इस बात पर ज़ोर देने के लिए निर्देश दिया था कि किसी भी अन्य पेशेवरों की तरह यौनकर्मी भी गरिमा और संवैधानिक अधिकारों के हक़दार हैं। हालाँकि वेश्यालय चलाने के लिए सम्पत्ति को दलाली करने के लिए या फिर किराये पर देना अवैध है। यहाँ इस मामले में दलालों ने 14 और 15 वर्ष की आयु वर्ग की नाबालिग़ लड़कियों को तब सेक्स और मसाज के लिए भेजने की पेशकश की जब व्यवसायी के रूप में आये रिपोर्टर ने सवाल किया कि क्या वे उसे मसाज के लिए ले जा भी सकते हैं? ‘सभी के लिए।’

यह सब बेख़ौफ़ चल रहा है। जब सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फ़ैसला आया, तो एशिया के सबसे बड़े रेड-लाइट ज़िलों में से एक कोलकाता के सोनागाछी की तंग गलियों में यौनकर्मियों ने चेहरों पर रंग लगाकर और मिठाई बाँटकर ख़ुशी मनायी। यौनकर्मियों के कल्याण के लिए काम करने वाले एक ग़ैर-सरकारी संगठन, दरबार महिला समन्वय समिति की क़ानूनी अधिकारी महाश्वेता मुखर्जी ने कहा था कि संगठन के 27 साल के संघर्ष ने आख़िरकार फल दिया है। लेकिन ऐसा लगता है कि बहुत कुछ नहीं बदला है। यह अनुमान है कि भारत में 15-35 आयु वर्ग में लगभग 30 लाख यौनकर्मी हैं। इनमें अधिकांश नाबालिग़ लड़कियाँ हैं। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश सिर्फ़ पहला क़दम भर हैं। हालाँकि ग़रीबी, अभाव, भूख और असमानताओं से गम्भीर रूप से पीडि़त कई लोगों के लिए जीवित रहना सर्वोच्च प्राथमिकता है और मानवाधिकार और गरिमा उनके लिए इसके बाद की चीज़ें हैं।

ज़्यादातर महिलाएँ, जिन्होंने स्वेच्छा से या जबरन इस पेशे को चुना है; ग़रीब पृष्ठभूमि से हैं और उन्हें अपने परिवार का समर्थन करने के लिए इस पेशे में घसीटा जाता है। निश्चित ही देश के लिए यह शर्मनाक बात है। वेश्यावृत्ति कई शहरों में समान रूप से फैल गयी है। व्यस्त सड़कों और बाज़ारों में दिन से शाम तक देह व्यापार के लिए पिक-अप प्वॉइंट बन जाते हैं। और अब तो ऑनलाइन देह व्यापार के मामले भी सामने आ रहे हैं, जिन्हें सुलझाना पुलिस के लिए चुनौती बन गया है। पुलिसकर्मी भी यौनकर्मियों की त्रासदी को समझने की जगह उन्हें एक अपराधी के रूप में अधिक देखते हैं। यह हाशिये पर जाने का एक दुष्चक्र है, क्योंकि महिला वेश्याओं को नीची दृष्टि से देखा जाता है; जबकि वेश्यालयों में पैदा होने वाले बच्चों को भी स्कूलों में आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के मुताबिक, पुलिस को यौनकर्मियों की शिकायतों को गम्भीरता से लेना है; लेकिन पुलिस पर अक्सर लापरवाही के आरोप लगते रहते हैं। पुनर्वास, समान अधिकार और सुरक्षा सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के मुख्य विषय प्रतीत होते थे। लेकिन यह खोजी रिपोर्ट एक बड़ा सवाल खड़ा करती है कि क्या वे सम्मान के साथ ज़िन्दगी जीने के अधिकारी नहीं?

जॉर्जिया की तर्ज पर भ्रष्टाचार ख़त्म करे सरकार

हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया के अनेक देशों में भ्रष्टाचार एक ऐसी बीमारी है, जो 1,000 लोगों में कोई एक करता है; लेकिन इसके शिकार बाक़ी के 9,99 लोग होते हैं। सवाल यह है कि क्या यह भ्रष्टाचार पूरी तरह 100 फ़ीसदी रोका जा सकता है? इसका जवाब सीधा-सा है- बिलकुल लगाया जा सकता है; बशर्ते ऐसा करने की नीयत होनी चाहिए। अफ़सोस की बात यह है कि आजकल हिन्दुस्तान की हर राजनीतिक पार्टियाँ इन दोनों ही बुराइयों को ख़त्म करने के दावे और वादे तो करती हैं; लेकिन फिर भी भ्रष्टाचार और अपराध दोनों में रात-दिन इज़ाफ़ा होता जा रहा है।

देश में जब भी नयी सरकार चुनी जाती है, भ्रष्टाचार व घोटालों की लिस्ट और भी लम्बी हो जाती है। इसका सीधा-सीधा असर उस मजबूर जनता पर पड़ता है, जो कड़ी मेहनत करके गुज़ारे के लिए चार पैसे कमाना चाहती है। सदियों से पनपे इस भ्रष्टाचार और अपराध के ख़िलाफ़ बाक़ी 9,99 लोगों में से 10 लोग भी मुश्किल से बोलते हैं; जबकि 989 में 400 लोग अपराधियों और भ्रष्टाचारियों का साथ देते हैं और बाक़ी के 589 लोग ख़ामोश रहते हैं। यही वजह है कि भ्रष्टाचारी और अपराधी बेख़ौफ़ होकर दोनों ही अपराध करते हैं और उनकी ताक़त दिन-रात बढ़ती चली जा रही है। आज हाल यह है कि अगर सही से जाँच की जाए, तो हर विभाग में भ्रष्टाचार के अनेक उदाहरण मिल जाएँगे। यही भ्रष्टाचारी अपराधियों का संरक्षण करते हैं।

सन् 2014 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लोगों को उम्मीद थी कि वह हिन्दुस्तान में जड़ जमा चुके भ्रष्टाचार और अपराध नाम की महामारियों को जड़ से उखाड़ फेकेंगे। बहुत-से लोग आज भी ऐसा ही मानते हैं। लेकिन मेरा मानना यह है कि भ्रष्टाचार तब तक ख़त्म नहीं हो सकता, जब तक कि राजनीति भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं होगी। वैसे तो एक ही ईमानदार नेता अगर ताक़तवर हो, तो इस गंदगी को चंद दिनों में साफ़ कर सकता है; और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह क़तई असम्भव नहीं है। लेकिन उन्हें जॉर्जिया के पूर्व राष्ट्रपति मिखाइल साकाशविली की तरह कड़े क़दम उठाते हुए भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जॉर्जिया के फार्मूले पर काम करना होगा।

दरअसल सन् 2003 तक जॉर्जिया में इस क़दर भ्रष्टाचार था कि वहाँ का हर आम नागरिक इससे परेशान था। हाल यह था कि वहाँ के सरकारी अधिकारी और कर्मचारी खुलेआम लोगों से रिश्वत वसूला करते थे। पुलिस से लेकर हर विभाग तक हर अधिकारी, कर्मचारी रिश्वत लिये बिना काम नहीं करता था। सन् 2003 तक जॉर्जिया के लोगों को रिश्वत देने की आदत-सी बन चुकी थी और उनके दिमा$ग से यह बात तक़रीबन निकल चुकी थी कि भ्रष्टाचार से उन्हें कभी मुक्ति मिलेगी। इसी बीच वहाँ के पूर्व क़ानून मंत्री मिखाइल साकाशविली निकलकर सामने आये, जो काफ़ी लम्बे समय से भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर रहे थे। लोगों ने उन्हें चुना और एक मौक़ा उन्हें उनका वादा पूरा करने का दिया, जिसमें पहला वादा भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का था। यह मौक़ा मिलने पर मिखाइल चाहते, तो ख़ुद भी भ्रष्टाचारियों से मिलकर अरबों-ख़रबों रुपये इकट्ठे कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा न करके अपनी ईमानदारी को बरक़रार रखा और जॉर्जिया में फैले भ्रष्टाचार को ख़त्म करके ही दम लिया।

वैसे तो मिखाइल साकाशविली तब चर्चा में आये, जब एक बार उन्होंने संसद की मंत्रिमंडल की बैठक में भ्रष्टाचार की तस्वीरें लहराते हुए सरकार पर अधिकारियों के ज़रिये भ्रष्टाचार कराने का आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था कि भ्रष्ट अधिकारी मामूली-सी तनख़्वाह पाने के बावजूद चंद दिनों में आलीशान इमारतें ख़रीद लेते हैं, क्योंकि वे जनता से खुली वसूली करते हैं। तब जॉर्जिया के लोगों को यह नहीं मालूम था कि मिखाइल उनके लिए मसीहा बनकर उभरेंगे। लेकिन इतना ज़रूर था कि उनके समर्थक लगातार बढ़ते जा रहे थे। नवंबर, 2003 में वह अपने लाखों समर्थकों के साथ संसद में घुस गये, इसका असर यह हुआ कि जॉर्जिया के तत्कालीन राष्ट्रपति को वहाँ से भागना पड़ा। आख़िर दो महीने बाद नये सिरे से चुनाव हुए और मिखाइल साकाशविली की जीत हुई। भ्रष्टाचार से जनता कितनी तंग थी, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि चुनाव में उनके गठबंधन को 96 फ़ीसदी वोट हासिल हुए थे। यह कोई छोटी जीत नहीं, बल्कि इतिहास की एक सबसे बड़ी लोकतांत्रिक जीत थी, जो आज तक दुनिया के किसी भी नेता को हासिल नहीं हो सकी है।

जीत हासिल करके सत्ता में आते ही सबसे पहले मिखाइल ने एक छोटी-सी टीम बनाकर जॉर्जिया में सुधार के लिए सबसे पहले ट्रैफिक पुलिस में भ्रष्टाचार रोकने से शुरुआत की। उन्होंने वहाँ की पुरानी पुलिस को पूरी तरह बर्ख़ास्त करके नये सिरे से भर्ती की और तनख़्वाह भी बढ़ायी। साथ ही यह क़ानून बनाया कि अगर कोई ट्रैफिक पुलिसकर्मी रिश्वत लेता है, तो उसकी नौकरी तो जाएगी ही, उसे उम्र क़ैद की सज़ा भी सुनायी जाएगी। बस फिर क्या था, सुधार होने लगा। इसके बाद हर सरकारी विभाग में इसी तरह पुराने लोगों को हटाकर नयी भर्तियाँ की गयीं। इससे हुआ यह कि जॉर्जिया का हर आम आदमी इसी में लग गया कि अब उसे किसी भी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी को रिश्वत नहीं देनी है, और अगर कोई उससे रिश्वत माँगता है या किसी से रिश्वत लेते दिखता है, तो उसकी शिकायत उन नंबरों पर कर देनी है, जो भ्रष्टाचार निरोधक नंबर हैं। आज जॉर्जिया में भ्रष्टाचार पर क़रीब-क़रीब 80 से 90 फ़ीसदी रोक लग चुकी है। यह तब है, जब मिखाइल के बाद के लोग वहाँ शासन कर रहे हैं। आज वहाँ की आम जनता काफ़ी सुखी है और समृद्ध हो रही है।

बहरहाल जॉर्जिया का उदाहरण देते हुए यह सब लिखने का मेरा मतलब यह है कि यह सुधार तभी सम्भव हो सका, जब वहाँ के एक राजनेता ने इसके लिए सही मायने में एक ईमानदार पहल की और लोगों का भरोसा जीता। आज हिन्दुस्तान में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में भरपूर शक्तियाँ हैं और देश की जनता को उनसे आशा है कि वह भ्रष्टाचार और अपराध मुक्त हिन्दुस्तान का नवनिर्माण करेंगे, जो कि हिन्दुस्तान को विश्व गुरु बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम साबित होगा। आज हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और केंद्र की मोदी सरकार ने घर-घर तिरंगा अभियान चलाया हुआ है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि इस अभियान से लोगों में देश के प्रति समर्पण की भावना पैदा होगी और इससे एक माहौल बनेगा, जो राष्ट्र निर्माण के नज़रिये से एक बेहतर क़दम माना जा सकता है। बशर्ते इसमें किसी तरह के आरोप-प्रत्यारोप और सियासी हमले की गुंजाइश न रहे।

आज हिन्दुस्तान का हर आदमी यही चाहता है कि उसका रोज़ी-रोज़गार चलता रहे, वह जो भी कमाये उससे उसका घर आसानी से चलता रहे और उसे किसी तरह की दिक्क़त न हो। ज़ाहिर है कि जब देश में भ्रष्टाचार नहीं होगा, तो न तो लोगों पर कर (टैक्स) बढ़ाने की ज़रूरत महसूस होगी, न सरकारें घाटे में जाएँगी और न ही देश पर विदेशी क़र्ज़ बढ़ेगा। लेकिन जब देश पर क़र्ज़ नहीं बढ़ेगा, तो डॉलर के मुक़ाबले में रुपया भी कमज़ोर नहीं होगा। मेरे ख़याल से इस नीति पर अगर काम हुआ, तो हिन्दुस्तान की तरक्क़ी इतनी तेज़ी से होगी कि दुनिया भर में एक मिसाल क़ायम हो जाएगी। बाक़ी और बेहतर सुझाव सरकार और अर्थशास्त्रियों के पास होंगे। उम्मीद है कि केंद्र की मोदी सरकार इस दिशा में काम कर भी रही होगी। अगर नहीं, तो उसे ऐसा करना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

हमारे अंतरराष्ट्रीय हीरे

बर्मिंघम में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने कुछ नये खेलों में भी जीते पदक

इंग्लैंड के बर्मिंघम में इस बार के राष्ट्रमंडल खेल भारत के लिए कुछ नये खेलों की ज़मीन तलाशने वाले साबित हुए हैं। मसलन ट्रिप्पल जम्प। इस खेल में एक वक़्त ऐसा लग रहा था कि पोडियम पर तीनों भारतीय होंगे। ऐसा होता, तो यह अनोखी घटना होती। लेकिन भारत के प्रवीण वह चौथे स्थान पर रहे और कांस्य उनके हाथ नहीं आ पाया। कुछ अन्य खेलों में भी भारत ने पहली बार पदक (मेडल) जीते। एक और बात, पुरुष खिलाडिय़ों को चिन्ता में डालने वाली। महिला खिलाड़ी पदक जीतने में पुरुष साथियों को कड़ी टक्कर दे रही हैं। इस बार दो दर्ज़न पदक महिला खिलाडिय़ों ने जीते, जिनमें सात स्वर्ण पदक (गोल्ड मेडल) हैं।

इस बार शूटिंग राष्ट्रमंडल खेलों में शामिल नहीं थी। होती, तो भारत के पदकों का ग्राफ कहीं ऊँचा होता। लेकिन कोई शक नहीं कि भारतीय खिलाडिय़ों ने दमदार खेल दिखाया। नये क्षेत्र (खेल) भी खोजे और पहले से मज़बूत क्षेत्रों में और दमदार प्रदर्शन किया।

अंतरराष्ट्रीय खेलों में भारत के खिलाड़ी अब नये तेवर के साथ मैदान में उतरते हैं। वह प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी की आँखों में आँखें डालकर बात करते हैं और मनोवैज्ञानिक रूप से ख़ुद को एक विजेता के दावेदार के रूप में पेश करते हैं। इस बार के राष्ट्रमंडल खेलों में यह साफ़ दिखा और इसके नतीजे भी सुखद रहे हैं।
उदाहरण के लिए मुक्केबाज़ निकहत ज़रीन की फाइनल में अपनी प्रतिद्वंद्वी उत्तरी आयरलैंड की कार्ले मैकनाउल के ख़िलाफ़ बॉडी लैंग्वेज को गौर से देखें। कार्ले को 5-0 से हराने के बाद वह राष्ट्रमंडल खेलों में पहली बार मेडल जीतीं। लेकिन जीत के बाद उनका चेहरा देखने से साफ़ लगता था कि उन्हें स्वर्ण पदक जीतने का पक्का भरोसा था। हाल में निकहत ने विश्व मुक्केबाज़ी में भी टाईटल जीता था। भारतीय खिलाडिय़ों में आत्मविश्वास का यह नया स्तर है, जो उन्हें अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों में और ऊँचे पायदान पर ले जा रहा है।

पदकों की संख्या से देखें, तो भले यह सन् 2010 में जीते 101 पदकों से काफ़ी कम हैं। लेकिन कई खेलों में भारत ने भविष्य के लिए बड़ी सम्भावनाओं का रास्ता खोला है। हॉकी में महिलाओं ने कांस्य पदक (ब्रांज मेडल) जीता और क्रिकेट में महिलाओं ने ही रजत पदक (सिल्वर मेडल)। लान बॉल गेम में स्वर्ण पदक, जबकि मिनिमम वेट कैटेगिरी में भी स्वर्ण। ट्रिप्पल जम्प में स्वर्ण और रजत दोनों भारत के हिस्से आये। पैरालम्पिक महिला टेबल टेनिस में भाविना हसमुख भाई ने भी स्वर्ण पदक जीतकर बता दिया कि शारीरिक बाध्यता हौसले से ज़्यादा ताक़तवर नहीं होती।

अविनाश साबले ने तो 3,000 मीटर स्टीपलचेज में भारत को राष्ट्रमंडल का पहला पदक दिलाया है। उनका रजत जीतना बताता है कि साबले लम्बी दूरी की दौड़ में भविष्य की उम्मीद हैं। वह महज़ 0.05 सेकेंड से स्वर्ण जीतने से चूक गये। लेकिन जिस तरी$के से उन्होंने फिनिशिंग की, उससे ज़ाहिर होता है कि वह कितनी योजना बनाकर ट्रैक पर उतरे थे। प्रियंका गोस्वामी ने 10,000 मीटर पैदल चाल में कांस्य जीतकर उम्मीद जगायी है।

अनु रानी भाला फेंक में पदक जीतने वाली पहली महिला खिलाड़ी बनीं, जिन्होंने कांस्य जीता। ट्रिपल जम्प में अल्डास पॉल और अब्दुल्ला अबुबकर ने जबरदस्त कमाल किया। स्वर्ण और रजत पदक जीतकर। राष्ट्रमंडल खेलों में पॉल ट्रैक इवेंट में स्वर्ण जीतने वाले सिर्फ़ छठे भारतीय हैं। सबसे पहला स्वर्ण सन् 1958 में महान् धावक मिल्खा सिंह ने जीता था।

लेकिन इस प्रदर्शन के बाद भारतीय खिलाड़ी सन्तुष्ट होकर नहीं बैठ सकते। विश्व या ओलम्पिक मुक़ाबलों में प्रतिस्पर्धा कहीं ज़्यादा कठिन होती है। वहाँ जीत का पैमाना भी ऊँचा रहता है। सबसे बड़ी बात यह कि ओलम्पिक जैसे खेलों में अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस, फ्रांस और इटली जैसे मुश्किल प्रतिद्वंद्वी होते हैं। लिहाज़ा भारतीय खिलाडिय़ों को वर्तमान तेवर बनाये रखते हुए और बेहतर प्रदर्शन के साथ आगे जाना होगा।

इन राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय खिलाडिय़ों ने सम्भावनाएँ जगायी हैं, जो विश्व या ओलम्पिक स्पर्धाओं के उन खेलों में भारत के पदकों का सूखा खत्म कर सकती हैं, जिनमें पदक का अभी तक सिर्फ़ इंतज़ार है। बहुत-से ऐसे खेल हैं, जिनमें भारत पदक पाने के लिए दशकों से तरसता रहा है। कई खेल तो ऐसे हैं, जहाँ भारत के खिलाड़ी विश्व रिकॉड्र्स के आसपास भी नहीं हैं। लेकिन इस बार के राष्ट्रमंडल खेलों को देखें, तो उम्मीद की किरण नज़र आती है।

पुरुष हॉकी में भारत ने रजत पदक जीता। हॉकी खेल भारत के खेलों का कभी मुकुट हुआ करता था; लेकिन हाल के तीन दशकों में भारत विश्व पायदान में हॉकी में नीचे ही गया है। अब राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय टीम ने रजत जीतकर भविष्य के लिए उम्मीद जतायी है। हालाँकि फाइनल में भारत की ऑस्ट्रेलिया के हाथों 0-7 की हार निराशाजनक कही जाएगी। मनप्रीत सिंह के नेतृत्व में भारत ने फाइनल तक बेहतर खेल दिखाया था। इंग्लैंड के ख़िलाफ़ ज़रूर उसने 4-1 की अच्छी-ख़ासी बढ़त के बावजूद ड्रॉ खेला। पेनल्टी कार्नर में भारत को सुधार की और ज़रूरत है।

महिलाओं का कमाल

पी.वी. सिंधु पिछली बार स्वर्ण नहीं जीत पायी थीं। इस बार उन्होंने भारत की झोली में स्वर्ण पदक डालकर ख़ुद के महान् खिलाड़ी होने का परिचय दिया। भले उनकी प्रतिद्वंद्वी कनाडा की मिशेल ली की वल्र्ड रैंकिंग उनसे कमज़ोर है; लेकिन किसी भी अंतरराष्ट्रीय फाइनल में मुक़ाबला कभी आसान नहीं होता। ली की विश्व रैंकिंग 13वीं है; जबकि सिंधु की 7वीं। निश्चित ही सिंधु आज भारत की स्टार शटलर हैं। ख़ासकर उनके प्रदर्शन का महत्त्व तब और बढ़ जाता है, जब हैदराबाद की उनकी सहयोगी साइना नेहवाल का खेल ढलान की तरफ़ जाता दिखता है।

युवा श्रीजा अकुला ने टेबल टेनिस में बड़ी उम्मीद जगायी है। अचंता शरत कमल के साथ मिश्रित युगल में श्रीजा अकुला ने टीटी का स्वर्ण पदक जीता। श्रीजा कम उम्र की हैं और उनके पास अपने खेल को ऊँचाई तक ले जाने का बड़ा अवसर है। भारत ने इस बार महिला लॉन बॉल में पहली बार पदक जीता और वह भी स्वर्ण। लवली चौबे, पिंकी, नयनमोनी सैकिया और रूपा रानी टिर्की की चौकड़ी ने निश्चित ही कमाल किया।

कॉमनवेल्थ खेलों में पहली बार महिला क्रिकेट को शामिल किया गया था और भारत ने रजत पदक जीता। भविष्य में स्वर्ण जीतने के लिए उसे ऑस्ट्रेलिया से पार पाना होगा। लेकिन भारतीय टीम शानदार खेली। अन्नू रानी को भाला फेंक में कांस्य पदक मिला और वे भविष्य में बेहतर प्रदर्शन करने में सक्षम दिखती हैं।

वैसे भारत के लिए मीराबाई चानू ने 2022 के स्वर्ण जीतने का खाता खोला। उनके खेल में लगातार सुधार आया है और उनसे ओलंपिक और विश्व स्पर्धा में स्वर्ण पदक की उम्मीद है। वह वेटलिफ्टिंग की स्टार हैं। इन खिलाडिय़ों के अलावा प्रमुख महिला विजेताओं में बिंदियारानी देवी ने इसी खेल में रजत पदक जीता। जुडो में सुशीला देवी ने रजत, हरजिंदर कौर ने वेटलिफ्टिंग में कांस्य, तूलिका मान ने जुडो में रजत, अंशु मलिक ने 57 किग्रा कुश्ती में रजत, साक्षी मलिक ने 62 किग्रा फ्रीस्टाइल में स्वर्ण, प्रियंका गोस्वामी 10,000 मीटर रेस वॉक में रजत, जैस्मीन लम्बोरिया ने 60 किग्रा लाइटवेट में रजत, पूजा गहलोत ने 50 किग्रा फ्रीस्टाइल में कांस्य, नीतू घंगास ने 48 किग्रा मिनिमम वेट में स्वर्ण, निकहत ज़रीन ने 50 किग्रा लाइट फ्लाईवेट में स्वर्ण के अलावा पूजा सिहाग (76 किग्रा फ्रीस्टाइल, कांस्य), भाविना पटेल (सिंगल्स क्लासेस 3-5 पैरा टेबल टेनिस स्वर्ण), सोनलबेन पटेल सिंगल्स क्लासेस पैरा टीटी 3-5 (रजत) और त्रिशा जॉली-पुलेला गायत्री गोपीचंद (डबल्स बैडमिंटन रजत) जीते हैं।

भारत के सामने अब अगली चुनौती पेरिस ओलम्पिक हैं। ये खेल 26 जुलाई, 2024 को होंगे। संयोग की बात है कि 100 साल बाद 2024 को पेरिस आधिकारिक तौर पर तीसरी बार ओलंपिक खेलों की मेज़बानी करेगा। वैसे फ्रांस ओलंपिक गेम्स का छठी बार आयोजन करेगा। उसने सन् 1924 में पहली बार ग्रीष्मकालीन खेलों की पहली बार मेज़बानी की थी। भारत के राष्ट्रमंडल खेलों में प्रदर्शन को देखते हुए उम्मीद की जा सकती है कि वह खेलों के इस महाकुम्भ में सबसे बेहतर प्रदर्शन करेगा।

स्वर्णिम यादें
आज जब हम राष्ट्रमंडल खेलों की बात कर रहे हैं, तो बता दें भारत के लिए किसी भी खेल में सबसे पहला पदक राशिद अनवर ने जीता था। यह सन् 1934 की बात है, जब राष्ट्रमंडल खेलों (कॉमनवेल्थ गेम्स) का नाम ब्रिटिश एम्पायर गेम्स था। रशीद ने 74 किलोग्राम भार वर्ग में फ्री-स्टाइल रेसलिंग में कांस्य पदक भारत की झोली में डाला था। कल्पना की जा सकती है, तब देश के खेल प्रेमियों को कितनी ख़ुशी हुई होगी! जहाँ तक भारत के पहले स्वर्ण पदक की बात है, इसका सौभाग्य दिग्गज मिल्खा सिंह को मिला था। सिंह ने सन् 1958 में कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों में स्प्रिंट (440 मीटर, 46.6 सेकण्ड) में स्वर्ण पदक जीता था।

किसके हिस्से, कौन-सा पदक?
स्वर्ण पदक विजेता : मीराबाई चानू, जेरेमी लालरिनुंगा, अंचिता शेउली, महिला लॉन बॉल टीम, टीटी पुरुष टीम, सुधीर, बजरंग पूनिया, साक्षी मलिक, दीपक पूनिया, रवि दहिया, विनेश, नवीन, भाविना, नीतू, अमित पंघाल, एल्डहॉस पॉल, निकहत ज़रीन, शरत-श्रीजा, पीवी सिंधु, लक्ष्य सेन, सात्विक-चिराग, शरत।
रजत पदक विजेता : संकेत सरगर, बिंदियारानी देवी, सुशीला देवी, विकास ठाकुर, भारतीय बैडमिंटन टीम, तूलिका मान, मुरली श्रीशंकर, अंशु मलिक, प्रियंका, अविनाश साबले, पुरुष लॉन बॉल टीम, अब्दुल्ला अबुबकर, शरथ-साथियान, महिला क्रिकेट टीम, सागर, पुरुष हॉकी टीम।
कांस्य पदक विजेता : गुरुराजा, विजय कुमार यादव, हरजिंदर कौर, लवप्रीत सिंह, सौरव घोषाल, गुरदीप सिंह, तेजस्विन शंकर, दिव्या काकरन, मोहित ग्रेवाल, जैस्मिन, पूजा गहलोत, पूजा सिहाग, मोहम्मद हुसामुद्दीन, दीपक नेहरा, रोहित टोकस, सोनलबेन, महिला हॉकी टीम, संदीप कुमार, अन्नू रानी, सौरव-दीपिका, किदांबी श्रीकांत, त्रिषा-गायत्री, साथियान।

भारत के पाँच श्रेष्ठ प्रदर्शन
सन् 2002 मैनचेस्टर कुल 69 पदक (चौथा स्थान) 30 स्वर्ण।
सन् 2010 दिल्ली कुल 101 पदक (दूसरा स्थान) 38 स्वर्ण।
सन् 2014 ग्लासगो कुल 64 पदक (पाँचवाँ स्थान) 15 स्वर्ण।
सन् 2018 गोल्ड कोस्ट (घाना) कुल 66 पदक (तीसरा स्थान) 26 स्वर्ण।
सन् 2022 बर्मिंघम कुल 61 पदक (चौथा स्थान) 22 स्वर्ण।

भाजपा को सबक़ है नीतीश का छिटकना

देश की राजनीति पर असर डाल सकता है जद(यू) का एनडीए से अलग होना

बिहार में सत्ता परिवर्तन हो गया। नीतीश कुमार एनडीए छोड़कर सरकार बनाने के लिए राजद-कांग्रेस के साथ चले गये। हाल के वर्षों में नीतीश और उनकी पार्टी जद(यू) भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को छोडऩी वाली देश की दूसरी बड़ी पार्टी हैं। उनसे पहले उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना सन् 2019 में यूएपीए का हिस्सा हो गयी थी। नीतीश का एनडीए से बाहर जाना भाजपा के लिए सबक़ है कि अपने ही सहयोगियों को तोडऩे की जगह उसे उनसे बेहतर तरीक़े से पेश आना चाहिए। नीतीश और उद्धव दोनों ने अपने साथ भाजपा के ख़राब बर्ताव की शिकायत की थी। बिहार जैसे बड़े राज्य में नीतीश का एनडीए से बाहर जाना 2024 के मिशन में जुटी भाजपा के लिए बड़ा झटका है।

नीतीश बिहार में फिर मुख्यमंत्री हो गये हैं; लेकिन इस बार राजद-कांग्रेस और कुछ अन्य दलों के साथ। ऐसा पहले भी हुआ था; लेकिन 2018 में वे भाजपा के सहयोगी हो गये थे। इसके बावजूद वैचारिक स्तर पर नीतीश कुमार और भाजपा के बीच दुराब जारी रहा था। भाजपा के साथ होते हुए भी नीतीश ने केंद्र सरकार की सीएए, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 को ख़त्म करना जैसे फ़ैसलों का समर्थन नहीं किया।

देश में अल्पसंख्यकों के साथ भाजपा के रुख़ के भी नीतीश विरोधी रहे। ऊपर से उनकी पार्टी के भीतर यह ख़ौफ़ बना रहा कि भाजपा मगरमच्छ की तरह उनकी पार्टी को निगल जाएगी। ऐसे माहौल में नीतीश का भाजपा से बाहर जाना कोई बड़ी घटना नहीं है। बड़ी बात यह है कि शक्तिशाली भाजपा से बिना ख़ौफ़ खाये नीतीश ने उससे बाहर जाने की हिम्मत दिखायी, जो उन अन्य दलों के रास्ता खोल सकती है, जो भाजपा के साथ रहते हुए भी उससे डर कर रहते हैं।

बिहार के इस सारे राजनीतिक घटनाक्रम से तेजस्वी यादव और उनकी राजद ताक़तवर होकर उभरे हैं। तेजस्वी नीतीश की सरकार में उप मुख्यमंत्री बने हैं; लेकिन आने वाले समय में वह निश्चित ही मुख्यमंत्री पद के गम्भीर उम्मीदवार बन गये हैं। तेजस्वी युवा हैं और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बिहार में सबसे बड़ा राजनीतिक दल है।

इस घटनाक्रम से कांग्रेस को भी लाभ हुआ, जो अस्तित्व के संकट का सामना कर रही है। उसे देश में एक बड़ा राजनीतिक सहयोगी मिल गया है। कहा जाता है कि एनडीए छोडऩे से पहले नीतीश ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गाँधी को भरोसे में लिया था। नीतीश ने फोन करके अपने फ़ैसले की जानकारी उन्हें देते हुए उनसे ख़ुद के लिए सहयोग माँगा था। सोनिया ने सहयोग का वादा किया और उसे निभाया। बिहार जैसे राज्य के ज़रिये कांग्रेस को भाजपा का एक बड़ा विरोधी मिल गया है।

बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं, जिनमें से सन् 2019 के चुनाव में भाजपा ने नीतीश के सहयोग से 20 सीटें जीती थीं। भले ख़ुद नीतीश दो सीटों पर सिमट गये थे। तब भी जद(यू) के कुछ बड़े नेताओं ने आरोप लगाया था कि भाजपा ने चुनाव में जद(यू) के उम्मीदवारों को अपना वोट ट्रांसफर नहीं किया, ताकि उसे कमज़ोर किया जा सके। ऐसा ही आरोप सन् 2019 के महाराष्ट्र के विधानसभा के चुनाव में उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने भी लगाया था, जिसने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था।

इस तरह सहयोगियों का भाजपा से छिटकना 2024 के उसके ‘मिशन रिपीट’ के लिए बड़ा झटका है। यदि कुछ और सहयोगी अब उससे अलग होने की हिम्मत दिखाते हैं, तो भाजपा को लेने के देने भी पड़ सकते हैं। बिहार की ही बात करें, तो वहाँ भाजपा अब अकेली पड़ गयी है। उसका कोई मज़बूत सहयोगी नहीं रहा और अपने बूते उसे विधानसभा या लोकसभा के चुनाव में बड़ी जीत हासिल करना सम्भव नहीं रहेगा। जातियों पर आधारित राजनीति वाले बिहार में भाजपा अकेले कहीं नहीं ठहरती।

नीतीश आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। नीतीश सन् 1974 के बिहार छात्र आन्दोलन के दौर से सूबे की राजनीति में सक्रिय हैं और उन्होंने देश में सबसे ज़्यादा बार मुख्यमंत्री होने का रिकॉर्ड बना दिया है। सन् 1990 में जब लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने थे, तो इसमें नीतीश की ही बड़ी भूमिका थी। यह अलग बात है कि बाद में लालू प्रसाद के साथ उनके रिश्ते बिगड़ गये। तब नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी बनायी और सन् 1996 के लोकसभा चुनाव से पहले ही भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए का हिस्सा बन गये।

उस समय संघर्ष कर रही भाजपा जब गठबंधन के साथ सत्ता में आयी, तो अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें उपकृत करते हुए रेल मंत्री का ओहदा दिया। बाद में सन् 2000 में नीतीश पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण उनकी सत्ता सात दिन तक ही चली। उसके बाद कई उतार-चढ़ाव देखने वाले नीतीश बिहार की राजनीति के ‘किंग’ बने रहे।

आज तक बिहार में उनका सिक्का चल रहा है। यही कारण है कि अगस्त के पहले पखवाड़े उन्होंने जब ताक़तवर भाजपा के ख़िलाफ़ विद्रोह किया, तो भी उनके तमाम घटक उनके साथ मज़बूती से बने रहे। बिहार में 165 विधायकों के समर्थन के साथ नीतीश निश्चित की मज़बूत पिच पर खड़े हैं। बशर्ते भाजपा भविष्य में कोई ख़ुराफ़ात न करे।

पीएम उम्मीदवारी का पेच
भाजपा इन ख़बरों को हवा दे रही है कि साल 2024 के लोकसभा चुनाव में नीतीश प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। ख़ुद नीतीश से उनके शपथ ग्रहण के बाद पत्रकारों ने इस बाबत सवाल किया, तो नीतीश का जवाब ‘न’ था। साल 2024 में देश में क्या राजनीतिक स्थिति बनेगी? अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन जिस तरह नीतीश ने सोनिया गाँधी को फोन किया और उनके सम्मान का पूरा ख़याल रखा, उससे लगता नहीं है कि वह विवाद करके प्रधानमंत्री पद के दावेदार होना चाहेंगे।

नीतीश कुमार ने नये गठबंधन के बाद खुले रूप से तो नहीं; लेकिन माना जाता है कि सोनिया गाँधी से बातचीत में यह कहा था कि कांग्रेस को विपक्ष का नेतृत्व करने में सबसे सक्षम मानते हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि पलटी मारने के लिए बदनाम नीतीश का आने वाले दो साल में क्या रुख़ रहता है?

तेजस्वी हुए मज़बूत
वर्तमान परिवर्तन का यदि किसी को सबसे ज़्यादा फ़ायदा हुआ है, वह राजद और उसके नेता तेजस्वी यादव हैं। उनके पास जातिगत समीकरण से लेकर ज़मीन पर वोट बैंक का ठोस आधार है। यह इस तथ्य से ही ज़ाहिर हो जाता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के जलवे के होते हुए भी राजद सबसे ज़्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी थी।

अब जिस तरह तेजस्वी यादव ने सबसे ज़्यादा सीटें होते हुए भी नीतीश को सम्मान देते हुए मुख्यमंत्री बनाया है, उससे आम जनता में भी अच्छा सन्देश गया है। लालू यादव के समय राजद की छवि थी, तेजस्वी ने उससे भी बाहर निकलने की कोशिश। यदि वे राजद को एक बेहतर लोकतांत्रिक संस्था में बदलने में सफल रहे निश्चित ही बिहार में भविष्य उनका है।

नीतीश का सफ़रनामा
 1985 में पहली बार एमएलए बने
 1989 में पहली बार सांसद बने
 1996,1998, 1999 में फिर सांसद बने
 1998 में केंद्र में पहली बार मंत्री (रेल) बने
 1999 में केंद्रीय कृषि मंत्री
 2000 में बिहार के मुख्यमंत्री
 2005, 2010, 2013, 2015, 2017, 2020 में
  मुख्यमंत्री बन और अब बीच में ही 2022 में भाजपा से नाता तोड़कर फिर मुख्यमंत्री बने हैं।

सामाजिक ध्रुवीकरण का कुत्सित प्रयास

इतिहास अपने वास्तविक स्वरूप में गतिशील होता है। उसके गर्भ में कुछ ऐसे बीज तत्त्व होते हैं, जो वर्तमान एवं भविष्य की गतिशीलता को प्रेरित करते हैं। इतिहास की इस गतिशीलता की पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। ब्रिटिश इतिहासकार हर्बर्ट बटरफ़ील्ड ने इतिहास को ‘एक निरंतर अग्रसारित होने वाली शक्ति’ के रूप में परिभाषित किया हैं। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से भारत में इस शक्ति का उपयोग नकारात्मकता के प्रसार में किया जा रहा है।

देश में राजनीतिक विमर्श का स्वरूप विघटनकारी हो चुका है। पिछले कई वर्षों से लगातार व्यक्तित्व के समानांतर व्यक्तित्व को खड़ा करके विवाद पैदा करने के कुत्सित प्रयास किये जा रहे हैं। इसके लिए सन्दर्भ रहित घटनाओं, आधे-अधूरे तथ्यों एवं परिस्थिति विशेष में कहे गये वक्तव्यों का प्रयोग किया जा रहा है। इसी के अनुरूप गाँधी-अंबेडकर, पटेल-नेताजी सुभाष चंद्र बोस-नेहरू, गाँधी-सावरकर जैसे चलायमान विवादों की इसी फ़ेहरिस्त में नया नाम शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का है।

ऐसे बेतुके विमर्श का नया क्षेत्र पंजाब बना है। पंजाब में ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को एक-दूसरे पर तरजीह देने का विवाद तब शुरू हुआ, जब आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री पद का कार्यभार ग्रहण करते हुए भगवंत मान के पीछे मुख्यमंत्री कक्ष से गाँधी जी की तस्वीर ग़ायब थी। कांग्रेस के नेताओं ने आम आदमी पार्टी पर गाँधी जी की तस्वीर जानबूझकर हटाने का आरोप लगाया। हालाँकि दीवार पर डॉ. अंबेडकर और शहीद भगत सिंह की तस्वीरें लगी हुई दिखायी दे रही थीं।

उधर भाजपा और अकाली दल के नेताओं ने आम आदमी पार्टी पर महाराजा रणजीत सिंह की तस्वीर हटाये जाने का आरोप लगाकर हंगामा किया। प्रथम दृष्टया यह विवाद पैदा करने का सुनियोजित प्रयास प्रतीत होता है। ऐसा नहीं था कि मुख्यमंत्री कार्यालय की दीवार इतनी सीमित थी कि भगत सिंह और डॉ. अंबेडकर की तस्वीरों के साथ गाँधी जी एवं महाराजा रणजीत सिंह की तस्वीरें न लगायी जा सकें। वास्तव में यह सब प्रतीकों के माध्यम से वैचारिक युद्ध का प्रयास है, जिनमें व्यक्तित्वों का प्रयोग हथियार एवं सुरक्षा आवरण दोनों ही रूपों में किया जा रहा है।

इसी कड़ी में कुछ समय से अचानक ही कुछ अराजक तत्त्वों ने शहीद भगत सिंह को अपमानित करना शुरू कर दिया है। अकाली दल (अमृतसर) के प्रमुख एवं संगरूर (पंजाब) से सांसद सिमरनजीत सिंह मान ने संगरूर सीट से अपनी जीत को भिंडरावाले को समर्पित किया। इसके बाद उन्होंने शहीद भगत सिंह पर विवादित टिप्पणी करते हुए उन्हें ‘आतंकी’ कहा। अपनी टिप्पणी का आधार सिमरनजीत सिंह ने भगत सिंह द्वारा एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या एवं संसद में बम फेंकने को बताया। हालाँकि पंजाब की आम अवाम और बाहर रहने वाले सिखों ने इसका जमकर विरोध किया। आश्चर्य है कि राष्ट्र एवं संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेने वाले जनप्रतिनिधि एक राष्ट्रीय नायक के प्रति ऐसे अशोभनीय एवं अनैतिक विचार रखते हैं। दूसरी मुख्य बात यह वर्तमान में राजनीतिक-बौद्धिक समूहों के द्वारा चयनित तर्कों के आधार पर राष्ट्रीय नायकों के सम्मान हनन की प्रचलित हो चुकी सुनियोजित परम्परा का हिस्सा है। बौद्धिक-राजनीतिक जगत में ऐसा विमर्श पिछले काफ़ी समय से अस्तित्व में हैं।
दिक़्क़त यह है कि इस गम्भीर विमर्श में अल्पज्ञ एवं अमर्यादित प्रकृति के नेता भी कूद पड़े हैं, जो ऐसे मुद्दों पर आधारित बहसों में भाषा की मर्यादा लाँघ जा रहे हैं। कोई शहीद भगत सिंह को अपशब्द कह रहा है, किसी की समीक्षा के अंतर्गत देश की सारी समस्याओं की जड़ में गाँधीवाद है। साथ ही यह तुलना करने का प्रयास भी जारी है कि महात्मा गाँधी ज़्यादा महान थे या डॉ. अंबेडकर? आजकल वीर सावरकर की माफ़ी का सबसे ज़्यादा ज़िक्र करने वालों में आम आदमी पार्टी के नेता शामिल हैं। सम्भवत: वे ख़ुद अपनी पार्टी के मुखिया केजरीवाल को भूल गये हैं, जिन्होंने पहले एक भाजपा नेता पर निराधार आरोप लगाया, और फिर न्यायालय से फटकार पड़ते ही चिट्ठी लिखकर माफ़ी माँग ली।

आधारभूत मसला यह है कि कौन-सी विचारधारा किसी समाज के लिए किसी विशेष परिस्थिति में अधिक श्रेष्ठ है, इस पर बहस की जा सकती है। लेकिन किसी चयनित राष्ट्रीय नायक के त्याग को दूसरे प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के समक्ष श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास बौद्धिक अशिष्टता ही मानी जाएगी। किसी विभूति द्वारा किया गया त्याग कुछ विशेष परिस्थितियों पर आधारित होता है। राष्ट्रीय नायकों के संघर्षों एवं त्याग की तुलनात्मक व्याख्या एक ऐसी अनैतिक बहस को जन्म देगी, जिसका परिणाम अंतहीन एवं विकृत टकराव होगा।

ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को अपने मनोनुकूल कुछ विशेष घटनाओं के परिपेक्ष्य में सम्पूर्णत: से देखने या दिखाने का प्रयास विद्रूप अन्याय ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक कुटिलता भी होगी। उदाहरणार्थ बाल गंगाधर तिलक ने औपनिवेशिक सत्ता के विरोध के दौरान सामाजिक सुधार के कुछ मुद्दों पर रूढि़वादी मत को अपना समर्थन दिया। जैसे बाल विवाह को रोकने के लिए पारित क़ानून-1891 का एज ऑफ कंसेंट एक्ट, जिसका लोकमान्य तिलक ने इस आधार पर कड़ा विरोध किया कि विदेशियों को भारत के धार्मिक-सामाजिक रीति-रिवाज़ों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं हैं। उनके इस निर्णय के बहुत सारे पहलू हो सकते हैं, मसलन उन्होंने इसके आधार पर भारत में राष्ट्रवाद के प्रसार का प्रयास किया। परन्तु उनके इस निर्णय ने कहीं-न-कहीं बच्चियों के मानवाधिकारों को आघात पहुँचाया। अब इस एक घटनाक्रम के आधार पर लोकमान्य तिलक जैसे विराट व्यक्तित्व का मूल्यांकन, तो नहीं किया जा सकता।

स्वयं महात्मा गाँधी ने ख़िलाफ़त आन्दोलन (1919-20) को समर्थन देने के दौरान जिस तरह मुस्लिम रूढि़वाद को तरजीह दी, वह बहुत हद तक भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का आधार बनी। स्वयं बाबा साहेब अंबेडकर (थॉट्स ऑन पाकिस्तान) समेत कई विद्वानों ने इस विषय पर गाँधी जी के रुख़ की आलोचना की है। अब महात्मा गाँधी की एक ऐतिहासिक भूल (जैसा कई इतिहासकारों ने कहा है,) के आधार पर उनके व्यक्तित्व का चित्रांकन सरासर अनुचित होगा। ऐसा कोई भी प्रयास राष्ट्र के प्रति उनके त्याग, तपस्या एवं समर्पण की अवहेलना होगी। अन्यत्र गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने गाँधीवादी रणनीति से प्रेरित स्वतंत्रता आन्दोलन पद्धति की आलोचना की है। किन्तु इससे यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि वह साम्राज्यवादी सत्ता के समर्थक थे। इसके अतिरिक्त पिछले कुछ वर्षों से यह बहस चर्चा में थी कि नेहरू की जगह सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते, तो देश की स्थिति क्या होती? हालाँकि समस्या यह है कि इतिहास का मूल्यांकन तथ्यों एवं यथार्थ पर आधारित होता है, ऐतिहासिक कल्पनाओं पर नहीं। अत: ऐसे विमर्श औचित्यहीन हैं। आज जो राजनीतिक समूह इन व्यक्तित्वों के प्रति अपना समर्पण दिखा रहे हैं, ऐसा नहीं है कि वे इनके व्यक्तित्व या विचारों से प्रभावित या इनके प्रति समर्पित ही हैं। वास्तव में उनका लक्षित समूह समाज का वह वर्ग है, जो इन महापुरुषों के विचारों, इनके जातिगत-सामाजिक आधार से ख़ुद का जुड़ाव महसूस करता है। ऐसे लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि ये विशिष्ट व्यक्तित्व इस राष्ट्र और समाज की साझा विरासत हैं। इन्हें सुविधाजनक खाँचों में बाँटकर ऐसे स्वार्थी तत्त्व इनके जीवन मूल्यों का अपमान तो कर ही रहे हैं, साथ ही समाज में अनावश्यक संघर्ष भी पैदा कर रहे हैं।

इसमें कोई समस्या नहीं कि कोई राजनीतिक या सामाजिक अथवा धार्मिक समूह किसी इतिहास पुरुष के विचारों एवं जीवन वृत्त के प्रति जुड़ाव रखे। किन्तु उसके समकक्ष किसी अन्य व्यक्तित्व को अनुचित तरी$के से विरोधी या खलनायक की तरह प्रस्तुत करना समस्या पैदा करेगा। यह उस व्यक्तित्व से जातिगत, धार्मिक अथवा किसी अन्य रूप में जुड़े दूसरे पक्ष को उकसायेगा कि वह इसका प्रतिकार करे। इससे सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा, जिसके परिणाम अंतत: विघटनकारी होंगे।

ऐसे विमर्श का दायरा भारतीय राजनीति के वर्तमान नेतृत्व वर्ग तक भी प्रसारित है, जिसके लिए बहुत हद तक सरकारी तंत्र, राजनीति एवं मीडिया भी ज़िम्मेदार हैं। चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने पर पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री के तगमे से अख़बारों को पाट दिया गया। वही हालत महामहिम द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति निर्वाचित होने पर हो रही है। उनके साथ आदिवासी शब्द का प्रयोग लगातार उपसर्ग (प्रीफिक्स) के रूप में किया जा रहा है। इसी प्रकार भूतपूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायणन जैसे उच्च प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति की जातिगत पहचान को प्रमुखता से बनाये रखने में भी राजनीति एवं मीडिया जगत की ही प्रमुख भूमिका थी। उन्हें एक विद्वान राष्ट्रपति के बजाय आज भी देश के पहले दलित राष्ट्रपति के रूप में ही सम्बोधित किया जाता है।

कैसी विडंबना है कि जो देश संविधान लागू होने के बाद के सात दशकों से अधिक की यात्रा में लगातार जाति-भेद मिटाने का लक्ष्य लेकर चला है, उसका शिक्षित तबक़ा, जिसमें हर जाति-वर्ग के लोग शामिल है; समाज के प्रेरक व्यक्तित्वों को उनकी जातिगत पहचान से बाहर ही नहीं आने देना चाहता। सरकारी तंत्र भी इस प्रयोजन में उतना ही योगदान दे रहा है। आज भी दलित बस्तियों के नाम बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर ही क्यों हो? यह लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लोकनायक जे.पी. के नाम पर क्यों नहीं हो सकते हैं? इसी के समानांतर संस्कृत और ज्योतिष विद्यालयों-महाविद्यालयों एवं सवर्ण गाँवों के नाम भी डॉ. अंबेडकर और महात्मा ज्योतिबा फुले के नाम पर होने चाहिए।

इतिहासकार ए.एल. राउज का मानना है कि ‘इतिहास की उपयोगिता संकुचित दृष्टि वाले व्यक्तियों के लिए नहीं है।’ सम्मानित विभूतियों के व्यक्तित्व के मध्य सूक्ष्म अन्वेषण द्वारा लक्षित विरोधाभास, भारतीय राजनीति के लिए विभाजित वर्गों के भावनाओं का लाभ उठाने के लिए सुरम्य भूमि बन गये हैं। व्यक्ति को व्यक्ति से लड़ाने या इतिहास को जातिगत-वर्गीय खाँचों में बाँटने का प्रयास समाज और राष्ट्र को विभाजित और कमज़ोर ही करेगा।

ये उचित है कि नयी पीढ़ी को वास्तविक एवं तथ्यपूर्ण इतिहास का ज्ञान होना चाहिए। किन्तु इतिहास का प्रयोग राजनीतिक कुचक्रों के लिए किया जाना अनुचित है। वर्तमान की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं एवं समाज के ध्रुवीकरण हेतु इतिहास से प्रतिशोध नहीं लिया जाना चाहिए। यदि ऐसा होता रहा, तो समाज में कटुता और विघटन का बढऩा तय है, जिसके विध्वंसक परिणाम राष्ट्र को भुगतने होंगे।

(लेखक राजनीति एवं इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)

सत्ता पर क़ब्ज़े की ज़िद

एक दौर था, जब सियासत देश सेवा के भाव से किये जाने के लिए सियासतदान वचनबद्ध हुआ करते थे। यही वजह थी कि कई मौक़ों पर विपक्षी दल भी सत्तापक्ष के सामने समर्थक के रूप में नज़र आते थे। संसद में ज़ोरदार तकरार और सवाल-जवाब की नोकझोंक के बावजूद किसी के मन में विद्वेष की भावना नहीं देखी जाती थी। शायद इसी का परिणाम था कि एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की मृत्यु पर भावुक होकर कहा था कि आज अगर मैं ज़िन्दा हूँ, तो राजीव गाँधी की वजह से। आज की स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भी बार नहीं कहा कि अगर आज वह प्रधानमंत्री हैं, तो अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की वजह से।

विदुर कहते हैं कि जो लोग अपने बड़ों का सम्मान करना छोड़ देते हैं, उनका पतन निश्चित होता है। आज यह सभी जानते हैं कि भाजपा का झण्डा उठाकर मोदी ने एक अगुआ की तरह पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाया है और देश की सर्वोच्च सत्ता हासिल करके लगातार केंद्र की सत्ता में दूसरी सफल पारी खेल रहे हैं। लेकिन वह राजनैतिक मूल्यों की आहुति देकर राजनीति कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ज़िद और सत्ता न छोडऩे की राजनीति पर आमादा हैं। यह कोई नयी बात नहीं है, सत्ता की भूख ही ऐसी है कि जो भी सत्ता में आता है, वह गद्दी छोडऩा नहीं चाहता। लेकिन लोकतांत्रिक देशों में जनता का अपना निर्णय ही सबसे महत्त्वपूर्ण होता है, उसमें अपनी मनमानी करने वाले सियासतदानों के लिए जनता की उलाहना और घृणा के सिवाय कुछ हासिल नहीं होता। दुनिया में कितने ही शासक सिंहासन पर क़ब्ज़ा करके बैठे, परन्तु जनता के दिल में शासन नहीं कर सके। आज मोदी के समर्थकों का कोई मुक़ाबला भले ही न हो, पर उन्होंने अपनी छवि को धूमिल करने की शुरुआत कर दी है। कई प्रदेशों की विपक्षी सरकारों के गिराकर अपनी सरकार बनाने की उनकी लालसा उनकी छवि को निरंकुश शासक की तरह दर्शाने लगी है।

दिल्ली में भी जिस तरह से उनके नेतृत्व और केजरीवाल सरकार के बीच द्वंद्व की स्थिति लगातार बनी हुई है, उससे मोदी की छवि पर कम दाग़ नहीं लग रहे हैं। सत्येंद्र जैन के मामले में न्यायालय द्वारा ईडी की फटकार लगाये जाने के बावजूद उनकी ईडी का विपक्षी नेताओं पर शिकंजा कसना इस बात को साफ़ दर्शाता है कि भाजपा के शीर्ष नेता विद्वेष की राजनीति करने में लगे हैं। यही वजह है कि एक बार फिर मोदी सरकार के दिल्ली के नुमाइंदे संवैधानिक पद पर आसीन उप राज्यपाल विनय कुमार सक्सेना और केजरीवाल सरकार के बीच तकरार बढ़ती नज़र आ रही है। इस लड़ाई में उप राज्यपाल की रीढ़ केंद्रीय गृह मंत्रालय बना हुआ है।

समझ नहीं आता कि जिस केजरीवाल सरकार को जनता ने चुना है और सर्वोच्च न्यायालय अपने एक फ़ैसले में भी साफ़ कर चुका है कि दिल्ली का बॉस मुख्यमंत्री है, इसके बावजूद केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाकर क़ानूनी रूप से उप राज्यपाल को दिल्ली का बॉस तय कर दिया। लगातार जनहित के कार्यों में रोड़े डालने की उप राज्यपालों की आदत और केजरीवाल सरकार के ख़िलाफ़ कई केंद्रीय जाँचों ने यह तो सिद्ध कर दिया कि सच्चाई को परास्त करना आसान नहीं होता। दरअसल मोदी को ख़तरा केजरीवाल की दिल्ली सत्ता से नहीं, बल्कि देश में उसके विस्तार से ज़्यादा है। कांग्रेस को ख़त्म करने के मंसूबे में बड़े पैमाने पर कामयाब होने के बाद अब नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती अरविंद केजरीवाल से मिल रही है, जिसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह से लेकर कोई भी भाजपाई पचा नहीं पा रहा है।

ताजा विवाद नयी आबकारी नीति को लेकर है। इस मामले में अभी तक यह साफ़ नहीं हो पाया है कि केजरीवाल सरकार की मुफ़्त की राजनीति में केंद्र सरकार का क्या नुक़सान हो रहा है। साफ़ है कि नरेंद्र मोदी को अपनी सत्ता के चढ़े सूरज के डूबने का ख़तरा अब कांग्रेस से ज़्यादा आम आदमी पार्टी के उभरते नेता केजरीवाल से महसूस हो रहा है। केजरीवाल सरकार ने जिस तरह कोरोना काल में बचे शराब के स्टॉक को ख़त्म करने के लिए एक बोतल पर एक बोतल मुफ़्त करने की राजनीति की, उससे ऐसा नहीं कि उनकी छवि पर दाग़ नहीं लगे। ऐसी नीतियों से छवि ख़राब होनी तो तय है। लेकिन गुजरात में शराबबंदी के बावजूद शराब की अवैध रूप से तस्करी ने भाजपा और नरेंद्र मोदी की छवि पर ज़्यादा दाग़ दिखा दिये हैं।

हालाँकि केजरीवाल सरकार ने नयी आबकारी नीति वापस ले लिया है, पर इस मामले में मोदी सरकार उप राज्यपाल के माध्यम से बड़ी कार्रवाई करने पर आमादा है। उप राज्यपाल ने दिल्ली सरकार के तत्कालीन एक्‍साइज कमिश्नर आईएएस अरवा गोपी कृष्ण और दानिक्स अधिकारी तत्कालीन उपायुक्त आनंद कुमार तिवारी समेत कुल 11 अधिकारियों और कर्मचारियों को निलंबित कर दिया है। सूत्रों से पता चला है कि यह कार्रवाई केंद्रीय गृह मंत्रालय के आदेश पर की गयी है। उप राज्यपाल के आदेश पर मुख्य सचिव नरेश कुमार ने निलंबन और प्रमुख अनुशासनात्‍मक कार्रवाई के आदेश दिये हैं। इस कार्रवाई से ग़ुस्साये दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने नयी आबकारी नीति को लेकर पूर्व उप राज्यपाल अनिल बैजल को दोषी ठहराते हुए सीबीआई को इस मामले की जाँच के लिए पत्र लिखा है। सवाल यह है कि क्या सीबीआई इस मामले की निष्पक्ष जाँच करेगी? यह सवाल इसलिए उठता है, क्योंकि सीबीआई और ईडी से लेकर न्यायालयों और चुनाव आयोग तक पर मोदी सरकार का दबाव साफ़ नज़र आ रहा है।

इसी दबाव की देन है कि ममता बनर्जी के पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी और उनकी क़रीबी अर्पिता मुखर्जी पर जब ईडी का चाबुक चला, तो ममता बनर्जी को अपने कई मंत्रियों को हटाकर उनकी जगह नये मंत्री नियुक्त करने पड़े। उनके दिल्ली दौरे और मोदी से मुलाक़ात को जानकार इसी दबाव का नतीजा बता रहे हैं। हालाँकि अर्पिता मुखर्जी पर ईडी की कार्रवाई पर कथित रूप से यह बात उड़ी कि उनके यहाँ जो पैसा मिला, वो सारा का सारा उनका नहीं था। इसी तर्ज पर झारखण्ड की हेमंत सोरेन की सरकार पर भी चुपके-चुपके मोदी सरकार का चाबुक चल रहा है। इससे सवाल यह उठता है कि क्या मोदी सरकार विपक्षियों को जड़ से ख़त्म करने की कोशिश में लगी है? कुछ राजनीतिक जानकार कह रहे हैं कि मोदी और शाह की जोड़ी विपक्षी दलों को पूरी तरह कमज़ोर और ख़त्म करने पर आमादा है, जिसके लिए वे अनैतिक हथकंडे अपनाने से भी नहीं चूक रहे हैं। इस बात की पुष्टि दो स्थितियों से होती नज़र आ रही है।

एक स्थिति में कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनके बेटे कांग्रेस नेता राहुल गाँधी को नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी द्वारा लगातार दबाव में लाया जा रहा है। दूसरी स्थिति को कुछ दिनों पहले ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा द्वारा दिया गया बयान स्पष्ट करता है, जिसमें वह साफ़ शब्दों में कह रहे हैं कि ‘अपनी विचारधारा और कैडर की बदौलत भविष्य में एकमात्र राजनीतिक दल भाजपा ही बचेगी, बा$की सब मिट जाएँगे।’ यहाँ नड्डा ने विचारधारा और कैडर का सहारा लेकर मोदी और शाह की वो मंशा स्पष्ट कर दी है, जिसे पूरा करने के लिए वे विपक्षी पार्टियों को किसी भी तरह ख़त्म करने में लगे हैं। यह लोकतंत्र के लिए ख़तरे की घंटी है और अघोषित आपातकाल है, जिसे अभी सब लोग भले ही नहीं देख पा रहे हैं, परन्तु निकट भविष्य में जल्द ही देख पाएँगे। लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी; क्योंकि लोकतंत्र मर चुका होगा और जनता छटपटा रही होगी।

अगली बार मोदी या कोई और?

साल 2024 के आम चुनाव में भाजपा के नेतृत्व को लेकर अभी से चर्चा

भाजपा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की उँगली पकड़कर चलती है, सभी जानते हैं। आरएसएस की बात भाजपा में ब्रह्म वाक्य की तरह मानी जाती है। अब आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने 9 अगस्त को बड़ी बात कही। उन्होंने कहा कि अकेले एक नेता देश के सामने मौज़ूद चुनौतियों से नहीं निपट सकता और कोई एक संगठन या पार्टी देश में बदलाव नहीं ला सकती। इससे कोई एक पखवाड़ा पहले भाजपा के ताक़तवर नेता और गृह मंत्री अमित शाह ने गुजरात के एक पार्टी कार्यक्रम में कार्यकर्ताओं को कहा कि वे मोदी के नेतृत्व में अगला लोकसभा चुनाव जीतने की अभी से तैयारी शुरू कर दें। शाह जो कहते हैं, उसे भाजपा में ब्रह्म वाक्य माना जाता है। तो क्या भाजपा मोदी के ही नेतृत्व में सन् 2024 के लोकसभा चुनाव में बिखरे हुए विपक्ष से भिड़ेगी या मोहन भागवत ने इससे अलग कुछ संकेत दिया है? भाजपा नेताओं की राय देखें, तो उन्हें लगता है कि मोदी के करिश्मे के बिना भाजपा को चुनाव जीतना मुश्किल होगा।

हाल के विधानसभा चुनाव में जीत और फिर महाराष्ट्र में छल-बल-दलबदल से सरकार बदलकर जो भाजपा ताक़तवर दिख रही थी, वह अगस्त के पहले पखवाड़े के दूसरे हफ़्ते में बिहार जैसे राज्य में नीतीश कुमार के एनडीए से बाहर चले जाने से वहाँ अकेली पड़ गयी है। बिहार के रूप में 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले एक बड़ा राज्य भाजपा के हाथ से निकल गया है और उसे अगले लोकसभा चुनाव में एक बहुत मज़बूत गठबंधन, जिसमें दलित, अति और साधारण पिछड़ा वर्ग, अति और साधारण वामपंथ, मध्यमार्ग और अल्पसंख्यक का अद्भुत संयोजन है। अर्थात् राजद, जद(यू), कांग्रेस, वामपंथी, मुस्लिम और घोर पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले दलों का सामना भाजपा के लिए किसी भी सूरत में आसान नहीं होगा।

यह घटनाक्रम तब हुए हैं, जब 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा के भीतर बड़े स्तर की चर्चाएँ चल रही हैं। नेतृत्व से लेकर रणनीति तक। भले भाजपा नेता और बड़े बहुमत से 2024 में सत्ता में लौटने के दावे कर रहे हों, पार्टी के भीतर माना जाता है कि अगला चुनाव 2019 के चुनाव के मुक़ाबले थोड़ा कठिन होगा। फ़िलहाल तो भाजपा में यही माना जाता है कि पार्टी के सबसे बड़े आकर्षण होने के नाते नरेंद्र मोदी ही अगले चुनाव में भी नेतृत्व करेंगे। उनके रहते पार्टी के ज़्यादातर नेता जीत को पक्का मानते हैं। लेकिन हाल के समय में पार्टी के भीतर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी भविष्य के नेतृत्व की एक गम्भीर सम्भावना के रूप में उभरे हैं।
अब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जब यह कहा कि ‘एक चीज़ जो संघ की विचारधारा का आधार है। वह यह है कि कोई एक नेता इस देश के समक्ष मौज़ूद सभी चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता है, वह ऐसा नहीं कर सकता; चाहे वह कितना भी बड़ा नेता हो।’ इसके निहितार्थ समझने की कोशिश भाजपा ही नहीं, विपक्ष के नेता भी कर रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि भागवत नये नेता को सामने लाने का संकेत दे रहे हैं? आरएसएस हिन्दुत्व, एक भारत और हिन्दू राष्ट्र की सोच पर केंद्रित संगठन है। भाजपा के मामले में वह एक संगठन मात्र नहीं है। एक विचारधारा है, जिससे भाजपा भी संचालित होती है। ऐसे में भागवत के बयान पर कयास लगने जारी हैं।
भाजपा के भीतर नेतृत्व की चाह और नेताओं को नहीं है, यह नहीं कहा सकता। अमित शाह, नितिन गडकरी जैसे नेता हैं, जो नेतृत्व की क्षमता रखते हैं। योगी आदित्यनाथ का अपना बड़ा प्रशंसक वर्ग भाजपा के भीतर है। एक ऐसा भी वर्ग है, जो मोदी की नीतियों से बहुत ज़्यादा इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता; लेकिन ख़ामोश रहता है। ऐसे में संघ नेतृत्व को लेकर क्या सोचता है, यह काफ़ी अहम हो जाता है।

राजनीति में करिश्मे वाला नेतृत्व महत्त्वपूर्ण होता है। बिना किसी हिचक के कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी के रूप में भाजपा के पास ऐसा चेहरा है। लेकिन यह भी सच है कि एक वृहद वर्ग में उनकी स्वीकार्यता नहीं है। ख़ासकर अल्पसंख्यक उन्हें सन्देह की दृष्टि से देखते हैं। इसके अलावा इतनी अपार लोकप्रियता के बावजूद देश के कई राज्यों, ख़ासकर दक्षिण भारत में भाजपा का इन आठ वर्षों में भी पैर न जमा पाना यह संकेत करता है कि मोदी की लोकप्रियता वहाँ पहुँच नहीं पायी है। राजनीति के बहुत जानकार मानते हैं कि भाजपा उत्तर भारत से बाहर बहुत मज़बूत ज़मीन पर नहीं खड़ी है। लेकिन यहाँ यह सवाल भी है कि क्या भाजपा मोदी के नेतृत्व के बिना लोकसभा जैसा बड़ा चुनाव जीत सकती है? इसका जवाब अभी देना कठिन है। इस साल और अगले साल भी कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। इनके नतीजे बहुत अहम होंगे। भाजपा के लिए मार्च-अप्रैल में हुए विधानसभा चुनावों के विपरीत अगले चुनावों में चुनौती कठिन है। इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि इनमें से कुछ राज्यों में भाजपा आधार तलाश रही है, जबकि कुछ अन्य में उसके सामने विपक्षियों की मज़बूत चुनौती है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि भाजपा का नेतृत्व इन चुनावों के नतीजों के आधार तय होगा; लेकिन निश्चित ही यह एक पैमाना रहेगा।

भाजपा ने हाल के महीनों में ध्रुवीकरण की राजनीति को अपना प्रमुख हथियार बना लिया है। वह विकास से इतर हिन्दुत्व और आक्रामक राष्ट्रवाद पर ज़्यादा निर्भर दिखने लगी है। इसके अलावा जो तीसरी बात भाजपा करने लगी है, वह है परिवारवाद के ख़िलाफ़ उसका मोर्चा खोलना। ज़ाहिर है एक रणनीति के तहत भाजपा गाँधी परिवार को निशाने पर रख रही है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि भाजपा का अचानक हर मंच पर परिवारवाद के ख़िलाफ़ सक्रिय होना इस कारण से है; क्योंकि वह जनता के दिमा$ग में यह बैठाना चाहती है कि गाँधी परिवार उसके लिए सही नहीं। और यह भी कि वह भ्रष्ट है। जबकि हक़ीक़त यह है कि भाजपा मानती है कि देश की राजनीति में गाँधी परिवार के रहते उसके (भाजपा) सामने राजनीतिक चुनौतियाँ हमेशा रहेंगी, भले फ़िलहाल कांग्रेस कमज़ोर हो। उसके ‘देश में सिर्फ़ भाजपा’ के अभियान में गाँधी परिवार और कांग्रेस ही मुख्य अड़चन हैं, क्षेत्रीय दल कम-से-कम राष्ट्रीय स्तर पर उसके लिए कोई गम्भीर चुनौती नहीं, भाजपा यह अच्छी तरह समझती है।
भाजपा परिवारवाद के ख़िलाफ़ तो बोलती है; लेकिन सच यह है कि ख़ुद उसके दर्ज़नों नेताओं के परिजन उसकी राजनीति चला रहे हैं। इनमें राष्ट्रीय नेताओं से लेकर क्षेत्रीय नेता तक शामिल हैं। कांग्रेस की बात करें, तो राजीव गाँधी की सन् 1991 में एलटीटीई के हाथों हत्या के बाद तीन बार बनी कांग्रेस की सरकारों में एक बार भी गाँधी परिवार का प्रधानमंत्री नहीं रहा। यहाँ तक कि कांग्रेस अध्यक्ष भी हमेशा गाँधी परिवार से नहीं रहा। ऐसे में कांग्रेस को इन तीन दशकों में गाँधी परिवार ने ही चलाया, यह भी सही नहीं है; भले उसका दबदबा पार्टी पर बरक़रार रहा हो।

ऐसे में भाजपा की परिवार विरोधी राजनीति की मुहिम गाँधी परिवार को कितना नुक़सान पहुँचाएगी और ख़ुद भाजपा को कितना फ़ायदा देगी, यह तो समय ही बताएगा। फ़िलहाल भाजपा और भाजपा से बाहर इस बात पर कयास लग रहे हैं कि 2024 के आम चुनाव में कौन नेता पार्टी का नेतृत्व करेगा? प्रधानमंत्री मोदी ही या कोई और। दिग्गज भाजपा नेता अमित शाह और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयानों के बाद यह चर्चा और तेज़ हो गयी है।


“मुझे विश्वास है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा 2024 के आम चुनाव में दो-तिहाई बहुमत के साथ जीतेगी। इसे कोई नहीं रोक सकता।’’
अमित शाह
वरिष्ठ भाजपा नेता


“कोई एक नेता इस देश के समक्ष मौज़ूद सभी चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता है। चाहे वह कितना भी बड़ा नेता हो। कोई एक संगठन या पार्टी देश में बदलाव नहीं ला सकती।’’
मोहन भागवत
आरएसएस प्रमुख

आख़िरकार जागी कांग्रेस, लम्बे समय से ठंडी पड़ी पार्टी के नेता दिखने लगे सड़कों पर

कांग्रेस फिर सड़क पर दिखने लगी है। आठ साल से केंद्रीय सत्ता से बाहर कांग्रेस को लग रहा है कि अब आर-पार की लड़ाई लड़े बिना काम नहीं चलेगा। उदयपुर के चिन्तन शिविर में उसने सड़क पर आने का संकल्प किया था और अब वह उस पर अमल करती दिख रही है। हाल के एक महीने में महँगाई, बेरोज़गारी और अन्य मुद्दों पर कांग्रेस लगातार सड़क पर दिख रही है। इस दौरान प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने नेशनल हेराल्ड मामले में राहुल गाँधी और फिर सोनिया गाँधी को जब कई-कई बार तलब किया, तो कांग्रेस ने इसे सहानुभूति में बदलने के लिए सड़कों पर आकर नारेबाज़ी की। अब जबकि भाजपा समर्थित सोशल मीडिया में चर्चा है कि राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी को ईडी गिरफ़्तार कर सकती है, कांग्रेस का पूरा कुनबा गाँधी परिवार के साथ खड़ा दिखने लगा है।

लेकिन यहाँ एक बड़ा सवाल है कि राहुल और सोनिया गाँधी को ईडी के दफ्तरों के चक्कर लगवाकर क्या भाजपा कांग्रेस को एकजुट नहीं कर रही? यदि कहीं इन दोनों में से किसी को गिरफ़्तार कर लिया जाता है, तो निश्चित की कांग्रेस को एक बहुत बड़ा मुद्दा मिल जाएगा। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार ने सन् 1979 में कुछ ऐसा ही इंदिरा गाँधी के साथ किया था। तब एक साल बाद ही मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गाँधी सहयोगी दलों से मिलकर 373 सीटों के जबरदस्त बहुमत के साथ सत्ता में लौट आयी थीं।

बिहार में जिस तरह सत्ता परिवर्तन हुआ है और नीतीश कुमार भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए से अलग हुए हैं, उससे कांग्रेस को निश्चित ही बिहार की राजनीतिक तस्वीर में आने का अवसर मिला है, भले ही उसके कम मंत्री बने हों। राष्ट्रीय राजनीतिक फ़लक पर भी कांग्रेस को इसका लाभ मिलेगा, क्योंकि नीतीश की पार्टी अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ेगी। यह माना जाता है कि नीतीश कुमार ने एनडीए से अलग होने से पहले सोनिया गाँधी से बात की थी, जिसमें उन्होंने कांग्रेस नेता से कहा था कि आपका साथ हमारे लिए ज़रूरी है; क्योंकि उनकी पार्टी यानी जद(यू) यह मानती है कि कांग्रेस के बिना भाजपा का राष्ट्रीय स्तर पर मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। निश्चित ही जद(यू) का कांग्रेस के साथ आना उसके लिए सुखद ही होगा, भले ख़ुद नीतीश कुमार को भविष्य में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार माना जाता है। कांग्रेस को लगता है कि यदि बड़े दल भाजपा से दूर जाना शुरू करते हैं, तो देश की राजनीति में यह एक सुखद संकेत होगा।
कांग्रेस लगातार चुनाव हारने से चिन्तित है। लिहाज़ा अब सड़कों पर दिखने लगी है। यह पहली बार दिख रहा है कि चिन्तन शिविर में उसने जो फ़ैसले किये थे, उन पर वह अमल कर रही है। नहीं तो सत्ता में रहते हुए इस तरह के शिविरों पर हुए फ़ैसलों पर वह कम ही अमल करती रही थी। यहाँ तक की सन् 2014 में सत्ता बे बाहर होने के बाद जब कांग्रेस ने कई विधानसभा चुनाव हारे और उनको लेकर सीडब्ल्यूसी और अन्य बैठकों में जो फ़ैसले हुए, वह काग़ज़ी ही साबित हुए।

विपक्ष के जो दल कांग्रेस का साथ देते रहे हैं, वह भी कांग्रेस की निष्क्रियता से नाराज़ रहे हैं। उनका कहना था कि क्योंकि कांग्रेस का देशव्यापी आधार है, उसे मुद्दों को लेकर आगे आना चाहिए। लेकिन देश में सन् 2019 में दोबारा भाजपा की सरकार बनने के बाद जब काफ़ी बड़े मुद्दे सामने आये, तब भी कांग्रेस ने कोई देशव्यापी आन्दोलन शुरू नहीं किया। देश भर के सभी राज्यों में उसका थोड़ा बहुत ही सही, पर आधार है। राहुल गाँधी ने निश्चित ही देश से जुड़े गम्भीर मुद्दों को बार-बार उठाया है। लेकिन यदि राहुल गाँधी जनता के बीच जाकर आन्दोलन करते, तो आज नतीजा कुछ और ही होता।
देश में इस दौरान कांग्रेस के लिए ऐसे बड़े मुद्दे थे, जो सीधे जनता से जुड़े थे। महँगाई, बेरोज़गारी और सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग का विरोध ख़ुद राहुल गाँधी के प्रिय विषय रहे हैं। वह कोई सामजिक कार्यकर्ता नहीं, बल्कि देश की सबसे पुरानी और अब दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के नेता हैं। उन्हें कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा होने के कारण जनता के बीच जाना चाहिए था। लेकिन महत्त्वपूर्ण मुद्दे सोशल मीडिया में ताक़त से उठाने के बावजूद जनता के बीच न जाकर राहुल गाँधी ने एक बेहतर अवसर गँवा दिया।

अध्यक्ष चुनने की चुनौती
कांग्रेस के सामने अब अध्यक्ष चुनने की बड़ी चुनौती है। अगस्त के दूसरे पखवाड़े जब कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू होगी, विपक्ष ही नहीं भाजपा की भी उस पर नज़र रहेगी। राहुल गाँधी के समर्थन में पार्टी का एक बड़ा वर्ग है; लेकिन वो ख़ामोश बैठे हैं। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता कहते हैं कि सोनिया गाँधी को पार्टी का फिर अध्यक्ष बन जाना चाहिए। पार्टी का ही एक वर्ग कहता है कि प्रियंका गाँधी को बाग़डोर सौंप देनी चाहिए।

निश्चित ही कांग्रेस दुविधा में है। राहुल गाँधी कहते हैं कि गाँधी परिवार से बाहर के किसी नेता को अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। उन्होंने यह बात एक बार से ज़्यादा और ज़ोर देकर कही है। हालाँकि इस पर अमल होगा, ऐसा कहना कठिन है।

पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने ‘तहलका’ से बातचीत में नाम न छापने की शर्त पर कहा- ‘वर्तमान परिस्थितियों में सबसे बेहतर विकल्प यह होगा कि सोनिया गाँधी कांग्रेस स्थायी अध्यक्ष बनें। उनका विपक्ष के सभी बड़े नेताओं के साथ बेहतरीन तालमेल है। पार्टी के नेताओं में उनकी स्वीकार्यता किसी भी अन्य पार्टी नेता से कहीं ज़्यादा है। उनके फ़ैसले भी बहुत सोच-विचार कर किये गये होते हैं।’

हालाँकि पार्टी का एक बड़ा वर्ग मानता है कि इस उम्र में सोनिया गाँधी को मार्गदर्शक के रूप में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए और राहुल गाँधी या प्रियंका गाँधी में से किसी एक को पार्टी का अध्यक्ष बनाना चाहिए। एक वर्ग ऐसा भी है, जिसमें नेता मानते हैं कि सचिन पायलट जैसे युवा को कमान सौंपकर पार्टी से बाहर गाँधी परिवार के निंदकों को ख़ामोश कर देना चाहिए।

अभी साफ़ नहीं है कि पार्टी किसे अध्यक्ष बनाएगी। अशोक गहलोत जैसे व$फादार; लेकिन राजनीतिक अनुभव में वज़नदार नेता को भी पार्टी अध्यक्ष चुन सकती है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि चुनाव में राष्ट्रीय चेहरा राहुल गाँधी या प्रियंका गाँधी को बनाना पार्टी की मजबूरी है; क्योंकि ‘पैन इण्डिया’ चेहरे के रूप में कांग्रेस के पास यह दो सबसे मजबूत चेहरे हैं।

पार्टी की पदयात्रा
अब अक्टूबर से कांग्रेस ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू करने की तैयारी कर रही है। इसकी अगुवाई राहुल गाँधी करेंगे। क़रीब 3,500 किलोमीटर की इस यात्रा की शुरुआत कन्याकुमारी से होगी। कांग्रेस इस यात्रा के ज़रिये न सिर्फ़ राजनीतिक तौर पर खोयी अपनी ज़मीन तलाशने की कोशिश करेगी, बल्कि मोदी सरकार की विफलताओं को जनता के सामने रखेगी।

‘भारत जोड़ो यात्रा’ की रूपरेखा तैयार करने के लिए कांग्रेस के वॉर रूम काफ़ी सक्रिय हैं; क्योंकि पार्टी इसे जनता से संवाद की दिशा में बड़ी उम्मीद के रूप में देख रही है। भारत जोड़ो यात्रा समिति के अध्यक्ष दिग्विजय सिंह हैं, जबकि प्रियंका गाँधी, सचिन पायलट और अविनाश पांडे जैसे नेता इसमें हैं।
यह माना जाता है कि 2024 में लोकसभा चुनाव की तैयारी इस पद यात्रा से करने जा रही है। पार्टी को लगता है कि जनता से जो कनेक्ट उसने खोया है, वह फिर बहाल होगा। कांग्रेस सन्देश देना चाहती है कि भाजपा देश में धार्मिक उन्माद फैलाकर देश को तोडऩे का काम कर रही है और देश-जनता के असली मुद्दों की तरफ़ उसका ध्यान नहीं है। कांग्रेस जनता के सामने अपनी छवि ‘देश को जोडऩे वाली पार्टी’ के रूप में लाना चाहती है। राहुल गाँधी अक्सर इसकी बात करते हैं।

घोटाले का पर्याय बनीं ई-पॉस मशीनें!

राशन वितरण में आ रहीं दिक़्क़तें, लोग कर रहे शिकायत

मशीनों से घोटाले की कल्पना अधिकतर लोग नहीं करते। मगर इस युग में मशीनों से घोटाले होते हैं। सेवानिवृत्त अध्यापक यशवंत सिंह कहते हैं कि आधुनिक मशीनों के आने से लोग परिश्रम के बिना ही सब कुछ पा लेना चाहते हैं। यही कारण है कि अब घोटाले बढ़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में घोटाले न हों, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता। राशन घोटाले के समाचार आने से क्रोधित सेवानिवृत्त अध्यापक यशवंत सिंह की तरह ही अन्य कई ग्रामीण भी इसे लेकर क्रोधित दिखते हैं।

विदित हो कि उत्तर प्रदेश में राशन घोटाले को रोकने तथा आम लोगों को सही, सुनिश्चित व सुचारू रूप से राशन वितरण के लिए लगभग आठ वर्ष पूर्व योगी आदित्यनाथ सरकार-1 में ई-पॉस अर्थात् इलेक्ट्रिक पीओएस मशीनों को लगाया गया था। पूरे प्रदेश में 80,000 से अधिक ई-पॉस मशीनें लगायी गयी थीं। सरकार के निर्देशानुसार वर्ष 2016 की शुरुआत से इन मशीनों के माध्यम से राशन वितरण आरम्भ हुआ था। मगर अधिकतर मशीनों ने आरम्भ से ही राशन वितरण कार्य से मानो मना ही कर दिया हो। पूरे प्रदेश में पचासों स्थानों पर राशन न मिलने से मशीनों द्वारा राशन बँटने की लोगों की प्रसन्नता पर पानी फिर गया। तबसे लेकर आज तक इन मशीनों ने राशन उपभोक्ताओं की नाक में दम करके रखा हुआ है। स्थिति ऐसी हो चुकी है कि कभी मशीनों की वजह से, तो कभी किसी अन्य कारण से लोगों को राशन न मिल पाने के समाचार पढऩे व सुनने को मिलते हैं।
जालिम नगला गाँव के पप्पू कैप्टन कहते हैं कि करोड़ों रुपये के व्यय से लगायी गयीं ई-पॉस मशीनें फेल होती दिख रही हैं, तो उन्हें ठीक करने पर भी करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे हैं। योगी सरकार तो स्थिति में सुधार के लिए ई-पॉस मशीनें लेकर आयी थी, मगर राशन वितरकों तथा अधिकारियों की मिलीभगत से घोटाले के द्वार खुलते दिख रहे हैं।

विदित हो कि प्रदेश के सभी 75 जनपदों के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित राशन की लगभग 80,000 दुकानों पर ई-पॉस मशीनें लगाने का ठेका सरकार ने दो कम्पनियों को दिया था। मशीनें भी लग गयीं। मगर आरम्भ से ही कभी नेटवर्क नहीं रहता है, तो कभी मशीन राशन कार्ड धारक के अँगूठे के निशान को पहचानने से मना कर देती है। प्रकाशित समाचारों से पता चलता है कि अधिकांश क्षेत्रों में 50-55 फ़ीसदी राशन कार्ड धारकों को ठीक तरह से राशन वितरण नहीं हो पा रहा है।

घोटाले की परतें
लिखित में राशन न मिलने की शिकायतों से पता चलता है कि नोएडा, ग़ाज़ियाबाद, बुलंदशहर, अमरोहा, मुरादाबाद, बरेली, सहारनपुर, मेरठ, लखनऊ, प्रयागराज, रायबरेली, उन्नाव, औरैया, बलरामपुर, मुज़फ़्फ़रनगर, शामली, आगरा, मथुरा, मैनपुरी तथा फ़िरोज़ाबाद समेत कई जनपदों में लगभग 350 करोड़ रुपये के राशन घोटाले की बात उत्तर प्रदेश एसटीएफ के माध्यम से उजागर हुई है।

एसटीएफ को मेरठ में हुए राशन घोटाले की शिकायत के आधार पर सितंबर, 2018 में जाँच करने के आदेश मिले थे। यह जाँच 14 जनपदों में की गयी थी। अभी शेष जनपदों में राशन घोटालों की जाँच हो सकती है। जाँच तो यहाँ तक बताती है कि राशन कार्ड धारकों का आधार नंबर मशीन में डालकर राशन निकाल लिया गया, मगर राशन कार्ड धारक को एक दाना भी प्राप्त नहीं हुआ। जाँच में सामने आया है कि केवल मेरठ में ही 27,000 राशन कार्ड धारकों के लिए राशन की 220 दुकानें हैं, जिन पर गड़बड़ी पायी गयी है। इतना ही नहीं, अकेले मेरठ के राशन कार्ड धारकों ने अलग-अलग थानों में 51 प्राथमिकी दर्ज करायी हैं।

करोड़ों का नुक़सान

सरकार ने राशन वितरण में पारदर्शिता लाने के लिए प्रत्येक मशीन 20,000 रुपये में क्रय किया था। सभी 80,000 मशीनों को 160 करोड़ रुपये के व्यय से लगाया गया था। अब तक इन मशीनों का किराया और रखरखाव पर 12,00 करोड़ रुपये से अधिक का व्यय किया जा चुका है। प्रत्येक मशीन के किराये व रखरखाव के लिए पहले सरकार 17 रुपये प्रति कुंतल के हिसाब से भुगतान करती थी, जिसे अब बढ़ाकर 21 रुपये प्रति कुंतल कर दिया गया है। इस तरह मशीन लगाने वाली कम्पनियों को प्रदेश की योगी सरकार प्रति वर्ष किराये व रखरखाव के लिए 240 करोड़ रुपये का भुगतान कर रही है। ये मशीनें वर्ष 2016 से लगातार उपयोग में लायी जा रही हैं।
सरकार के रिकॉर्ड में इन मशीनों के माध्यम से हर माह 15 करोड़ से अधिक राशन उपभोक्ताओं को राशन वितरित हो रहा है। मगर धरातल पर बड़ी संख्या में उपभोक्ताओं को राशन नहीं मिल पाता है। कई लोगों की शिकायत है कि उन्हें राशन नहीं मिला, जबकि उनके हिस्से का राशन बँट गया। लोग कह रहे हैं कि राशन विततरण के नाम पर घोटाले की कोई सीमा नहीं है। राजकुमार मौर्य बताते हैं कि उनका राशन कई बार गड़बड़ हुआ है। कभी चना नहीं मिलता, तो कभी रिफाइंड नहीं मिलता, सो अलग। मशीन बन्द हो गयी है। मशीन काम नहीं कर रही है। ऊपर से इस बार राशन नहीं आया है। इस प्रकार की कहानियाँ राशन वितरक आये दिन सुनाते रहते हैं। कई-कई चक्कर लगाने के बाद राशन मिल जाए, तो गनीमत समझो।

सत्यवीर नाम के एक राशन कार्ड धारक का कहना है कि राशन पहले हाथ से बँटता था, तब ठीक प्रकार से मिलता था, मगर अब तो सब राम भरोसे है। कभी मिल जाता है, तो कभी नहीं भी मिलता है। कभी बहुत जल्दी राशन वितरित हो जाता है, तो कभी महीने के अन्त में भी नहीं मिलता। सत्यपाल गंगवार कहते हैं कि राशन वितरण बन्द करके सरकार को उपभोक्ताओं के खाते में सीधे पैसे भिजवा देने चाहिए जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों के खाते में सीधे-सीधे पैसा भेजते हैं। इससे राशन वितरकों को घोटाला करने का मौक़ा ही नहीं मिलेगा। उनका कहना है कि जितना पैसा योगी आदित्यनाथ सरकार ई-पॉस मशीनों पर और राशन पर व्यय कर रही है, उतने पैसे को राशन कार्ड धारकों के बीच प्रति यूनिट के हिसाब से विभाजित करके देखे कि एक यूनिट के हिस्से में कितने रुपये आते हैं, जितने रुपये एक यूनिट के हिस्से में आएँ उस हिसाब से पूरे परिवार के पैसे राशन कार्ड के मुखिया के बैंक खाते में भेज दे। अगर सरकार ऐसा करती है, तो एक यूनिट के हिस्से में कुछ नहीं तो 1,000 रुपये आराम से आ आएँगे। इससे उसे महीने भर के खाने भर को राशन, तेल, दालें सब कुछ मिल जाएगा।

एक बुज़ुर्ग उपभोक्ता कहते हैं कि पहले राशन के साथ चीनी तथा मिट्टी का तेल भी मिलता था, अब तो न चीनी देखने को मिलती है और न मिट्टी का तेल। अब या तो पाँच किलो गेहूँ ले लो या पाँच किलो चावल। कोई मंत्री पाँच किलो राशन से महीना भर भोजन कर सकता है क्या? अगर कर ले, तो हम इतना राशन भी छोड़कर उसी मंत्री को दे देंगे। क्रोध में बुज़ुर्ग उपभोक्ता कहते हैं कि सरकार की आँखों पर पट्टी बँधी है, जो ये मशीनें लगा रखी हैं। ऐसा लगता है कि मशीनें राशन निगल रही हैं। राशन वितरक कहता है कि वह ईमानदार है, तो फिर सरकार यह बताये कि $गरीबों के हिस्से का राशन खा कौन रहा है?
इस विषय में मंत्रियों तथा स्थानीय नेताओं तक शिकायतें पहुँच रही हैं। थानों में भी शिकायतें पहुँच रही हैं तथा खाद्य वितरण विभाग से भी उपभोक्ता शिकायत कर रहे हैं। देखना यह है कि इस घोटाले में योगी आदित्यनाथ सरकार क्या कार्रवाई करती है?

मज़बूत ईडी, फिर भी लाखों करोड़ रुपये का बैंक क़र्ज़ बट्टे खाते में!

इस साल 28 मार्च को भारतीय रिजर्ब बैंक (आरबीआई) ने डेटा जारी किया था। इसमें दावा किया गया था कि वित्तीय वर्ष के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा सकल ग़ैर-निष्पादित परिसम्पत्तियों की वसूली वित्त वर्ष 2017-18 में 11.33 फ़ीसदी से बढ़कर वित्त वर्ष 2018-19 में 13.52 फ़ीसदी और 2019-20 में 14.69 फ़ीसदी हो गयी है। हालाँकि बिल्ली थैले से बाहर आ गयी, जब 2 अगस्त को वित्त राज्य मंत्री भागवत के. कराड ने राज्यसभा में एक लिखित जवाब में बताया कि बैंकों ने पिछले पाँच वित्तीय वर्षों में क़रीब 10 लाख करोड़ रुपये को क़र्ज़ बट्टे खाते में डाल दिया।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने पिछले पाँच वित्तीय वर्षों में क़रीब 10 लाख करोड़ रुपये के ऋण को बट्टे खाते में डाल दिया है। वित्त वर्ष 2021-22 में राइट-ऑफ की गयी राशि 1.57 लाख करोड़ रुपये थी। जबकि वित्त वर्ष 2020-21 में यह राशि 2.02 लाख करोड़ रुपये, वित्त वर्ष 2019-20 में 2.34 लाख करोड़ रुपये, वित्त वर्ष 2018-19 में 2.36 लाख करोड़ रुपये और वित्त वर्ष 2017-18 में 1.61 लाख करोड़ रुपये थी। वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान राइट-ऑफ राशि पिछले वित्त वर्ष के 2,02,781 करोड़ रुपये की तुलना में घटकर 1,57,096 करोड़ रुपये रह गयी। वित्त वर्ष 2019-20 में राइट-ऑफ राशि 2,34,170 करोड़ रुपये थी, और वित्त वर्ष 2018-19 में दर्ज राशि 2,36,265 करोड़ रुपये से कम थी, जो कि सभी पाँच वर्षों में सबसे अधिक थी। कुल मिलाकर पिछले पाँच वित्त वर्षों (2017-18 से 2021-22) के दौरान 9,91,640 करोड़ रुपये का बैंक ऋण बट्टे खाते में डाला गया है।

निश्चित ही बट्टे खाते में डाले गये क़र्ज़ से सवाल खड़े होते हैं। सवाल यह कि यह सब ऐसे समय में कैसे हो सकता है, जब ईडी बहुत मज़बूत है? प्रवर्तन निदेशालय ने 23 मार्च, 2022 तक 19,111 करोड़ रुपये की सम्पत्ति कुर्क की है। यह धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 के प्रावधानों के तहत ऋण भगोड़ों के कुछ मामलों से जुड़ी है, जो कि इन मामलों में 22,586 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी की राशि का 84.61 फ़ीसदी है। इन कुर्क की गयी सम्पत्तियों में से 15,113 करोड़ रुपये, जो कि धोखाधड़ी की राशि का 66.91 फ़ीसदी है; को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बहाल कर दिया गया है।

ग़ौरतलब है कि केंद्र ने विलफुल बैंक लोन डिफॉल्टर्स या भगोड़े आर्थिक अपराधियों से निपटने के निर्देश जारी किये थे। इसके लिए एक अधिकृत प्रवर्तक के अनुरोध पर भारतीय नागरिकों और विदेशियों के सम्बन्ध में आप्रवासन ब्यूरो द्वारा एक लुक आउट सर्कुलर खोला जा सकता है। इसमें अधिकृत लोगों में भारत सरकार के उप सचिव के पद से नीचे का अधिकारी न हो; या एक अधिकारी, जो राज्य सरकार में संयुक्त सचिव के पद से नीचे का न हो ; या ज़िला अधिकारी; या पुलिस अधीक्षक; या विभिन्न क़ानून लागू करने वाली और सुरक्षा एजेंसियों के नामित अधिकारी; या इंटरपोल के नामित अधिकारी; या सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के अध्यक्ष / प्रबन्ध निदेशक / मुख्य कार्यकारी; या भारत में किसी भी आपराधिक न्यायालय के निर्देशों के अनुसार तय लोग शामिल हैं।

गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा कि आव्रजन प्राधिकरण किसी भी व्यक्ति, जिसमें जानबूझकर चूककर्ता भी शामिल है; को भारत छोडऩे से रोका जा सकता है। उसके ख़िलाफ़ एलओसी जारी की गयी है। ब्यूरो ऑफ इमिग्रेशन ने अब तक बैंकों के इशारे पर 83 एलओसी खोले हैं। भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम, 2018 भारतीय अधिकार क्षेत्र से भागने वाले आर्थिक अपराधियों के ख़िलाफ़ प्रभावी कार्रवाई के लिए अधिनियमित किया गया है। यह भगोड़े आर्थिक अपराधियों की सम्पत्ति की कुर्की और ज़ब्ती का प्रावधान करता है और उन्हें किसी भी नागरिक दावे का बचाव करने से वंचित करता है। इसके अलावा सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को 50 करोड़ रुपये से अधिक की ऋण सुविधाओं का लाभ उठाने वाली कम्पनियों के प्रमोटरों और निदेशकों और अन्य अधिकृत हस्ताक्षरकर्ताओं के पासपोर्ट की प्रमाणित प्रति प्राप्त करने की सलाह दी है। आरबीआई के अनुसार, विलफुल डिफॉल्टर्स (जानबूझकर बने दिवालिया) के सम्बन्ध में सीआरआईएलसी डेटा 2018-19 से बनाये रखा जाता है। आँकड़ों के अनुसार, पिछले चार वर्षों में विलफुल डिफॉल्टर्स की कुल संख्या 10,306 थी। वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान रिपोर्ट किये गये सबसे अधिक 2,840 विलफुल डिफॉल्टर्स की संख्या अगले वर्ष 2,700 थी। मार्च, 2019 के अन्त में विलफुल डिफॉल्टर्स की संख्या 2,207 थी, जो वित्त वर्ष 2019-20 में बढ़कर 2,469 हो गयी।

मार्च, 2022 के अन्त में शीर्ष 25 विलफुल डिफॉल्टर्स का विवरण साझा करते हुए कराड ने कहा कि गीतांजलि जेम्स लिमिटेड इस (डिफाल्टर्स) सूची में सबसे ऊपर है। ये डिफॉल्टर्स बैंकों के 59,000 करोड़ रुपये दबाये बैठे हैं। इसके बाद एरा इंफ्रा इंजीनियरिंग, कॉनकास्ट स्टील एंड पॉवर, आरईआई एग्रो लिमिटेड और एबीजी शिपयार्ड लिमिटेड आते हैं। फरार हीरा कारोबारी मेहुल चोकसी की कम्पनी गीतांजलि जेम्स पर बैंकों का 7,110 करोड़ रुपये बकाया है। वहीं एरा इंफ्रा इंजीनियरिंग पर 5,879 करोड़ रुपये और कॉनकास्ट स्टील एंड पॉवर लिमिटेड का 4,107 करोड़ रुपये बकाया हैं। इसके अलावा आरईआई एग्रो लिमिटेड और एबीजी शिपयार्ड ने बैंकों से क्रमश: 3,984 करोड़ रुपये और 3,708 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी की है।

अन्य विलफुल डिफॉल्टर्स जैसे फ्रॉस्ट इंटरनेशनल लिमिटेड पर 3,108 करोड़ रुपये, विनसम डायमंड्स एंड ज्वेलरी पर 2,671 करोड़ रुपये, रोटोमैक ग्लोबल प्राइवेट लिमिटेड पर 2,481 करोड़ रुपये, कोस्टल प्रोजेक्ट्स लिमिटेड पर 2,311 करोड़ रुपये और कुडोस केमी पर 2,082 करोड़ रुपये बकाया हैं। आरबीआई से मिली जानकारी के अनुसार, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों / भारतीय बैंकों (विदेशी बैंकों को छोड़कर) / चुनिंदा वित्तीय संस्थानों द्वारा रिपोर्ट किये गये 500 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी और उससे अधिक की धोखाधड़ी के मामलों में वित्त वर्ष 2019-20 में 79 मामले, वित्त वर्ष 2020-21 में 73 मामले और वित्त वर्ष 2021-22 में (30 जून 2021 तक) 13 मामले दर्ज हैं।
धोखाधड़ी पर आरबीआई मास्टर सर्कुलर-2015 में पाया गया है कि बेईमान उधारकर्ताओं द्वारा धोखाधड़ी विभिन्न तरीकों से की जाती है, जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ उपकरणों की धोखाधड़ी छूट, गिरवी रखे गये या गिरवी रखे शेयरों का धोखाधड़ी से निपटान, फंड डायवर्जन, आपराधिक उपेक्षा और दुर्भावनापूर्ण प्रबंधकीय विफलता शामिल है। एक क़र्ज़दारों का हिस्सा भी है। मास्टर सर्कुलर कुछ अन्य तरीक़ों को भी संदर्भित करता है, जिसमें जाली लिखित, हेरफेर की गयी खाता बही, फ़र्ज़ी खाते, अनधिकृत क्रेडिट सुविधाएँ, धोखाधड़ी वाले विदेशी मुद्रा लेन-देन, एकाधिक बैंकिंग व्यवस्था का शोषण और भूमिका के साथ तीसरे पक्ष की ओर से ऋण स्वीकृति और संवितरण कमी शामिल है।

सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के बड़े मूल्य की बैंक धोखाधड़ी से सम्बन्धित प्रणालीगत और व्यापक छानबीन के लिए एक फ्रेमवर्क जारी किया है, ताकि उनकी ग़ैर-निष्पादित परिसम्पत्तियों (एनपीए) के पुराने स्टॉक की जानकारी समय पर मिल सके और उसकी रिपोर्टिंग और जाँच हो सके। इस व्यवस्था के तहत 50 करोड़ से अधिक मूल्य के खातों, यदि उन्हें एनपीए के रूप में वर्गीकृत किया गया है; की सम्भावित धोखाधड़ी के कोण से बैंकों द्वारा जाँच की जाएगी। इस जाँच के निष्कर्षों पर एनपीए की समीक्षा के लिए बैंक की समिति के समक्ष एक रिपोर्ट रखी जाएगी। साथ ही किसी खाते के एनपीए होने की स्थिति में केंद्रीय आर्थिक ख़ुफ़िया ब्यूरो से क़र्ज़ लेने वाले की रिपोर्ट माँगी जाएगी। भगोड़ा आर्थिक अपराधी अधिनियम-2018 आर्थिक अपराधियों को भारतीय न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहकर भारतीय क़ानून की प्रक्रिया से बचने से रोकने के लिए अधिनियमित किया गया है।

यह अधिनियम एक भगोड़े आर्थिक अपराधी की सम्पत्ति की कुर्की, सम्पत्ति की ज़ब्ती और उसे किसी भी नागरिक दावे का बचाव करने से वंचित करने का प्रावधान करता है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को सलाह दी गयी है कि वो 50 करोड़ रुपये से अधिक की ऋण सुविधा प्राप्त करने वाली कम्पनियों के प्रमोटरों / निदेशकों और अन्य अधिकृत हस्ताक्षरकर्ताओं के पासपोर्ट की प्रमाणित प्रति प्राप्त करें। उन्हें कहा गया है कि वो भारतीय रिजर्व बैंक के निर्देशों के अनुसार और उनकी बोर्ड-अनुमोदित नीति के अनुसार विलफुल डिफॉल्टर्स की तस्वीरें प्रकाशित करने और अधिकारियों / कर्मचारियों के रोटेशनल ट्रांसफर को सख्ती से सुनिश्चित करने का निर्णय लें। पीएसबी के प्रमुखों को लुक आउट सर्कुलर के लिए अनुरोध जारी करने का भी अधिकार दिया गया है। सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को आरबीआई के निर्देशों के अनुसार और उनकी बोर्ड-अनुमोदित नीति के अनुसार इरादतन चूककर्ता की तस्वीरें प्रकाशित करने और 50 करोड़ रुपये से अधिक की ऋण सुविधा प्राप्त करने वाली कम्पनियों के प्रमोटरों / निदेशकों और अन्य अधिकृत हस्ताक्षरकर्ताओं के पासपोर्ट की प्रमाणित प्रति प्राप्त करने के लिए निर्देश / सलाह जारी की गयी है।

शीर्ष 10 विलफुल डिफॉल्टर्स (पूरी सूची 25 की है।)
गीतांजलि जेम्स लिमिटेड : 7110 करोड़ रुपये
इरा इंफ्रा इंजीनियरिंग लिमिटेड : 5879 करोड़ रुपये
कनकास्ट स्टील एंड पॉवर लिमिटेड : 4107 करोड़ रुपये
आरईआई एग्रो लिमिटेड : 3984 करोड़ रुपये
एबीजी शिपयार्ड लिमिटेड : 3708 करोड़ रुपये
फ्रॉस्ट इंटरनेशनल लिमिटेड : 3108 करोड़ रुपये
विनसम डायमंड्स ऐंड ज्वेवरी लिमिटेड : 2671 करोड़ रुपये
रोटोमैक ग्लोबल प्राइवेट लिमिटेड : 2481 करोड़ रुपये
कोस्टल प्रोजेक्ट्स लिमिटेड : 2311 करोड़ रुपये
कुडोस केमी लिमिटेड्स : 2082 करोड़ रुपये