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परीक्षा के संचालन में सुधार का समय

राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) ने 21 अगस्त से 04 सितंबर के बीच विश्वविद्यालय अनुदान आयोग-राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा 2024 जून सत्र की परीक्षा, संयुक्त सीएसआईआर यूजीसी नेट 25 से 27 जुलाई तक, एनसीईटी की परीक्षा 10 जुलाई को निर्धारित की है। परीक्षाओं की नयी तारीख़ें मिलना, एक समिति का गठन और नीट जैसी महत्त्वपूर्ण परीक्षाओं के संचालन में हुई अनियमितताओं की जाँच का ज़िम्मा सीबीआई को सौंपे जाने के बीच एनटीए के महानिदेशक पद से सुबोध कुमार सिंह को हटाना सरकार की मंशा को दर्शाता है। नीट मेडिकल प्रवेश परीक्षा, जिसमें रिकॉर्ड 24 लाख उम्मीदवार उपस्थित हुए; अब सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न एजेंसियों की जाँच के दायरे में है। यूजीसी-नेट परीक्षा आयोजित होने के एक दिन बाद उसे रद्द करना केंद्र के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी है, जिसने माना है कि परीक्षा की अखंडता से समझौता किया गया है। हालिया फ़ैसले विपक्ष द्वारा संसद में इस सर्वोपरि मुद्दे को बार-बार उठाने के बाद आये हैं।

हमारी एसआईटी द्वारा की गयी ‘तहलका’ की इस बार की आवरण कथा ‘परीक्षा माफ़िया का जाल’ से पता चलता है कि कैसे एक व्यापक नेटवर्क परीक्षा प्रणाली की अखण्डता से समझौता कर रहा है, जिससे चुनिंदा केंद्रों के कई उम्मीदवार असामान्य रूप से उच्च अंक प्राप्त कर रहे हैं। सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम-2024, जिसे पेपर लीक विरोधी क़ानून के रूप में भी जाना जाता है; लागू हो गया है। लेकिन क्या यह पर्याप्त है? प्रश्न-पत्रों का बार-बार लीक होना जनता का विश्वास बहाल करने के लिए पूर्ण सुधार की आवश्यकता पर ज़ोर देता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के बढ़ते उपयोग के बीच ख़तरा और भी बढ़ गया है। एनटीए की स्थापना 2017 में हुई थी। लेकिन इतने वर्षों के बाद भी एजेंसी यूपीएससी की तर्ज पर एक फुलप्रूफ प्रणाली विकसित करने में विफल रही है, जो सुरक्षा को शामिल किये बिना सिविल सेवा परीक्षा, एनडीए की परीक्षा और अन्य समान रूप से प्रतिष्ठित परीक्षाओं का संचालन करती है।

तो ग़लत क्या है? आवश्यकता है कि सज़ा को तीन साल से बढ़ाकर कम-से-कम 10 साल किया जाए, फास्ट ट्रैक अदालतों में समयबद्ध फ़ैसले दिये जाएँ, किसी भी पेपर लीक घोटाले में शामिल कोचिंग संस्थानों को काली सूची में डालना चाहिए, नक़ल में शामिल प्रतियोगियों को भविष्य की सभी परीक्षाओं से वंचित करना चाहिए और राजनीतिक संबद्धता के आधार पर परीक्षण निकायों के सदस्यों को नियुक्त करने की प्रथा को बंद करना चाहिए।

सभी प्रकार के राजनेताओं और सभी हितधारकों को एक साथ बैठकर समाधान खोजने के लिए विचार-मंथन करने की आवश्यकता है। क्योंकि यह देश के भविष्य का सवाल है। एनटीए या इसी तरह के संस्थानों को ख़त्म करना समाधान नहीं है; बल्कि अपर्याप्तताओं को ठीक करना है। दरअसल एनटीए की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान है। परीक्षाओं को रद्द करने और स्थगित करने से प्रतियोगियों और उनके परिवारों की मानसिक और भावनात्मक स्थिति पर भारी असर पड़ सकता है। इस मुद्दे पर देशव्यापी बहस की ज़रूरत है। क्योंकि शिक्षा और बेरोज़गारी के मुद्दे केंद्र में हैं और विश्वास की कमी को पूरा किया जाना चाहिए, ताकि विद्यार्थी और उनके परिवार ख़ुद को ठगा हुआ महसूस न करें।

पानी और मनमानी !

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दिल्ली देश की राजधानी है, जहाँ प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री, जज, अधिकारी, अमीर और बड़ी संख्या में ग़रीब भी रहते हैं। इसके बावजूद अब दिल्ली में पानी का गंभीर संकट हो गया है। पानी सर्वोच्च मानवीय ज़रूरत है। संविधान में भारत को वेलफेयर स्टेट कहा गया है। मतलब सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है कि वह जनता को सड़क, बिजली, पानी मुहैया करवाए। लेकिन संविधान क्योंकि आजकल राजनीतिक अखाड़े में उलझा दिया गया है, पानी की किसी को फ़िक्र नहीं। जनता को पानी मिले, इससे ज़्यादा मेहनत इस बात पर की जा रही है कि पानी की क़िल्लत का राजनीतिक लाभ कैसे उठाया जाए? विरोधी दल को घेरने के लिए धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं; लेकिन जनता बिना पानी के बेचारगी में खड़ी यह तमाशा देखने को मजबूर है। संविधान की बड़ी-बड़ी क़समें खाने वाले हुक्मरान जनता को पानी नहीं दे पा रहे। टैंकर माफ़िया सिस्टम की इस नाकामी का पूरा फ़ायदा उठा रहा है। क्योंकि माफ़िया की पीठ पर धन्नासेठों का ही नहीं, राजनीति के मज़बूत खिलाड़ियों का भी हाथ है।

क़ुदरत ने भी इस बार गर्मी की कड़ी फटकार मारी। दिल्ली कहने को देश की राजधानी है। जन सुविधाओं का यहाँ जो हाल है, वह किसी भी सूरत में देश के पाँच ट्रिलियन इकोनॉमी की देहरी पर खड़े होने की झलक नहीं देता। आप यदि देश की राजधानी में आधी आबादी को पानी ही नहीं दे पा रहे, तो पाँच ट्रिलियन की इकोनॉमी भला किस काम की? आज़ादी के 77 वर्षों में आप देश की राजनधानी तक में जनता को पानी उपलब्ध करवाने का पक्का इंतज़ाम नहीं करवा पाये और कहते हैं कि यह आज़ादी का अमृत-काल चल रहा है। जी नहीं; न तो यह अमृत-काल है और न ही राम-राज्य। क्योंकि आप जनसेवा की सौगंध खाकर भी जनसेवा नहीं कर रहे, सिर्फ़ ग़रीब जनता के टैक्स से उपलब्ध सरकारी सुविधाओं में अपनी सत्ता का सुख भोग रहे हैं।

कोई तीन करोड़ आबादी है देश की राजधानी दिल्ली की। इस आबादी को हर रोज़ क़रीब 130 करोड़ गैलन पानी की ज़रूरत होती है। और यह दिल्ली में पानी उपलब्ध करवाने के लिए ज़िम्मेदार दिल्ली जल बोर्ड के आँकड़े हैं। हो सकता है हक़ीक़त में इससे कहीं ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती हो; क्योंकि कई बस्तियाँ सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं हैं। फिर रोज़ देश भर से यहाँ आने वाले हज़ारों लोग भी हैं, जो यहाँ होटलों आदि में ठहरते हैं। वहाँ भी पानी की खपत होती है। यह कोई पहली बार नहीं है, जब राजधानी में पानी का संकट खड़ा हुआ है। पहले भी ऐसा होता रहा है। लेकिन सत्ताधीश इसका कोई ठोस हल नहीं निकाल पाये हैं।

राजधानी में पानी के इस संकट के पीछे कई कारण हैं। इनमें सबसे बड़ा है ज़मीनी पानी का अंधाधुंध निकास। यह इसलिए है; क्योंकि माँग और आपूर्ति का अंतर बहुत ज़्यादा है और इसे पाटने के लिए दिल्ली जल बोर्ड के पास एक ही हथियार है- ज़मीनी जल का जमकर दोहन। आज की तारीख़ में यह 135 मिलियन गैलन प्रतिदिन (एमजीडी) पहुँच चुका है, जबकि चार साल पहले क़रीब 86 एमजीडी ही था। ऊपर से पानी प्रबंधन बेहद लचर है। जलस्रोतों में प्रदूषण और पानी के अंतरराज्यीय विवाद दिल्ली में संकट को और बढ़ाते हैं। अमूमन दिल्ली को क़रीब पाँच अरब लीटर पानी की हर रोज़ ज़रूरत होती है; लेकिन उपलब्धता (सप्लाई) औसतन महज़ 3.7 अरब लीटर प्रतिदिन है। लेकिन यह आँकड़ा स्थिर नहीं। ऊपर-नीचे होता रहता है; क्योंकि उपचार संयत्र (डब्ल्यूटीपी) भी कई बार जवाब दे देते हैं। ज़ाहिर है दिल्ली की बड़ी आबादी प्यासी रहने को मजबूर है।

देखें तो दिल्ली हरियाणा में यमुना नदी, उत्तर प्रदेश में गंगा नदी और पंजाब में भाखड़ा नांगल और हिमाचल में रवि-व्यास से मिलने पानी पर निर्भर रहा है। पिछले साल के आँकड़े देखें तो दिल्ली को हरियाणा (यमुना) से औसतन 38.8 करोड़ गैलन, उत्तर प्रदेश (गंगा) से क़रीब 25.3 करोड़ गैलन और पंजाब (भाखड़ा नांगल) से क़रीब 22 करोड़ गैलन पानी, जबकि बाक़ी का हिमाचल से मिलता है, जो कुल मिलाकर क़रीब 95.2 करोड़ गैलन हो जाता है। इस साल की बात करें, तो यह आँकड़ा क़रीब 97 करोड़ गैलन पहुँच गया। हिमाचल से आने वाले पानी में एक पेंच यह है कि यह दिल्ली को सीधे नहीं मिलता।

हिमाचल हरियाणा को अतिरिक्त पानी देता है। इस बार दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी है कि यह पूरा अतिरिक्त पानी दिल्ली को मिलना चाहिए। इस पर सर्वोच्च अदालत ने हिमाचल सरकार को आदेश दिया कि बिना देरी के यह अतिरिक्त पानी दिल्ली के लिए छोड़े। साथ ही हरियाणा सरकार को भी आदेश दिया गया कि हिमाचल के इस पानी को दिल्ली पहुँचाने की व्यवस्था करे।

हिमाचल सरकार ने पहले तो कहा कि पानी छोड़ दिया है; लेकिन इसके बाद अदालत में उसने कहा कि उसके पास अतिरिक्त पानी ही नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने हिमाचल को 137 क्यूसेक अतिरिक्त पानी दिल्ली के लिए छोड़ने का आदेश दिया था। जब पानी के विवाद को लेकर सर्वोच्च अदालत में सुनवाई हुई, तो अदालत ने दिल्ली सरकार को कहा कि जल आपूर्ति के लिए वह अपर यमुना रिवर बोर्ड (यूवाईआरबी) जाए। सर्वोच्च अदालत भी मानती है कि राज्यों के बीच यमुना जल बँटवारा जटिल विषय है और तमाम पक्षों के साथ बातचीत से ही कोई सर्वसम्मत नतीजा निकल सकता है। अदालत का मानना है कि पानी के बँटवारा का विवाद अपर यमुना रिवर फ्रंट पर छोड़ देना चाहिए, जो पहले ही दिल्ली सरकार से मानवीय आधार पर 152 क्यूसेक पानी देने की गुहार लगा चुका है। 

जल संकट में एक बड़ा कारक टैंकर माफ़िया भी हैं। ऐसी दज़र्नों रिपोर्ट्स हैं, जिनमें बताया गया है कि यह माफ़िया अवैध रूप से दिल्ली को जल सप्लाई के इकलौते स्रोत  मुनक नहर से पम्पों के ज़रिये पानी टैंकरों में भरकर उन्हें ज़्यादा पैसे में दिल्ली में बेचता है। यह टैंकर हज़ारों की संख्या में हैं और इनके मालिक धन्नासेठों से लेकर राजनीति के ताक़तवर लोग तक हैं। दिल्ली के एलजी वी.के. सक्सेना दिल्ली पुलिस आयुक्त से पानी की इस चोरी को रोकने के लिए कड़ी निगरानी रखने को कह चुके हैं। दिल्ली सरकार पहले ही अपने हलफ़नामे में इस माफ़िया की ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के मामले में अपने हाथ खड़े कर चुकी है। उसका कहना है कि टैंकर माफ़िया के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। होता, तो वह ज़रूर कार्रवाई करती।

दिल्ली जल बोर्ड ने राजधानी में पानी की आपूर्ति के लिए एक योजना तैयार की है, जिसके ज़मीन पर उतरने का इंतज़ार है। दावा है कि यह ब्लूप्रिंट हक़ीक़त में आने के बाद दिल्ली में पानी संकट को लगभग ख़त्म कर देगा। पानी के रिसाव की समस्या का हल होना बहुत ज़रूरी है। राजधानी के वीआईपी इलाक़ों में तो पानी सप्लाई की पाइपें चकाचक हैं। लेकिन अन्य कई इलाक़ों में वर्षों पुरानी पाइपों से काम चलाया जा रहा है, जो जगह-जगह फटी पड़ी हैं। उनसे न सिर्फ़ पानी की बर्बादी होती है, बल्कि बैक साइफनिंग के कारण गन्दा पानी इन पाइपों से लोगों के घर पहुँच जाता है।  दिल्ली जल बोर्ड ने पानी की माँग और सप्लाई में कमी की देखते हुए 587 ट्यूबवेल लगाने की एक योजना भी तैयार की थी। योजना के पहले चरण में कुछ इलाक़ों में ट्यूबवेल लगे भी, जिनसे 19 एमजीडी पानी उपलब्ध हुआ। लेकिन दूसरे चरण में 259 ट्यूबवेल लगाने के लिए जल बोर्ड ने सरकार से 1,800 करोड़ रुपये की माँग की। दिल्ली सरकार का वित्त विभाग यह पैसे नहीं दे पाया, जिससे योजना अटक गयी।

दिल्ली में पानी के संकट पर राजनीति भी ख़ूब हुई है। हरियाणा में भाजपा की सरकार है और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की। ज़ाहिर है आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला जारी है। धरने हो रहे हैं। प्रदर्शन हो रहे हैं। लेकिन मिल-बैठकर समस्या का स्थायी हल निकालने की कोई कोशिश नहीं हो रही। राजधानी को कच्ची जल आपूर्ति जिन चार स्रोतों से होती है, उनमें से 40 फ़ीसदी हरियाणा के ज़रिये यमुना से होती है। हाल के ह$फ्तों में दिल्ली सरकार की जल मंत्री आतिशी आरोप लगा चुकी हैं कि भाजपा की हरियाणा सरकार मुनक नहर से दिल्ली के हिस्से का पानी रोक रही है।

भाजपा इससे इनकार कर चुकी है। उसका आरोप है कि केजरीवाल सरकार अपनी नाकामी का ठीकरा हरियाणा सरकार पर फोड़ रही है। आतिशी आप कार्यकर्ताओं के साथ धरने पर भी बैठीं और सेहत बिगड़ने के कारण उन्हें अनशन ख़त्म करना पड़ा। दिल्ली सरकार 31 मई को राजधानी को ज़्यादा पानी आपूर्ति के हरियाणा को निर्देश देने की माँग के लिए ही सर्वोच्च अदालत का रुख़ किया था।

जल सबसे बड़ी मानवीय ज़रूरत है। लेकिन यही उपलब्ध नहीं हैं, तो सरकारों का होना, न होना कोई मायने नहीं रखता। सरकारों को जनता चुनती है। लिहाज़ा कोई दल या उसकी सरकार राजनीतिक विरोध की भावना से यदि पानी देने जैसे काम में अड़चन पैदा करती है, तो वह मानव के प्रति ही अपराध नहीं करती, बल्कि संविधान की मूल भावना का भी अनादर करती है। समय आ गया है कि पानी जैसे मुद्दों पर मिल-बैठकर रास्ता निकाला जाए। पानी प्रकृति की देन है, यह किसी राजनीतिक दल विशेष की जागीर नहीं है। जनता का उस पर बराबर का हक़ है।

उत्तर प्रदेश में बदल रही दलित राजनीति

उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश में इन दिनों दलित राजनीति फिर चर्चा में है। दरअसल पहली बार में ही आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के मुखिया चंद्रशेखर आज़ाद का नगीना की लोकसभा सीट से चुनाव जीतना और इसके विपरीत उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी दलित नेता मानी जाने वाली मायावती की पार्टी बसपा की इस बार एक भी लोकसभा सीट न आना इस चर्चा की सबसे बड़ी वजह है।

राजनीति के जानकार अब मानने लगे हैं कि बसपा मुखिया मायावती की राजनीति अब उतार पर है और चंद्रशेखर आज़ाद की राजनीति का उदय हो रहा है यानी एक दलित चेहरा कमज़ोर पड़ता दिखायी दे रहा है, तो दूसरा दलित चेहरा मज़बूत होता दिखायी पड़ रहा है। कभी उत्तर प्रदेश में एकछत्र राज करने वाली बसपा आज शून्य पर सिमट चुकी है। हालाँकि इससे यह नहीं कहा जा सकता कि मायावती राजनीतिक रूप से समाप्त हो गयीं। उत्तर प्रदेश में दलित नेता के रूप में हमेशा मायावती को एक क़द्दावर नेता माना जाएगा। लेकिन इसके इतर सवाल यह है कि क्या अब दलित राजनीति को फिर से उस ऊँचाई तक ले जाने का कारनामा चंद्रशेखर आज़ाद कर सकेंगे? क्योंकि तमाम राजनीतिक दलों ने जिस प्रकार से कांशीराम और मायावती की बढ़ती ताक़त रोकने की कोशिश की थी, उन्हीं दलों ने चंद्रशेखर आज़ाद का रथ रोकने की कोशिशें कीं और शायद आगे भी करेंगे।

हालाँकि मायावती की राजनीति उत्तर प्रदेश में तब उफान पर आयी, जब उन्होंने सिर्फ़ दलितों की राजनीति छोड़कर बहुजन समाज की राजनीति की और सन् 2007 में वह इसी दम पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं। इससे पहले जब तक वह ‘तिलक, तराजू और तलवार; इनके मारो जूते चार’ की राजनीति करती रहीं। तब उन्हें मुख्यमंत्री बनने के मौक़े तो मिले; लेकिन कभी भाजपा के साथ गठबंधन करके, तो कभी मुलायम सिंह के साथ गठबंधन की सरकार बनाकर। लेकिन तब भी वह पूरे पाँच साल शासन नहीं कर सकीं। अब जब वह सियासी और शारीरिक रूप से कमज़ोर होती जा रही हैं, तब उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपने भतीजे को भी उनसे सभी अधिकार छीनकर एक प्रकार से चुनाव में प्रचार करने से रोक दिया था। यह अलग बात है कि अब उन्हें दोबारा उन्हें नेशनल को-ऑर्डिनेटर का पद और उत्ताधिकार उनकी बुआ मायावती ने वापस दे दिया है।

इसके साथ ही मायावती दोबारा सिर्फ़ दलित राजनीति पर सिमट गयी हैं। इसके अलावा उन पर दलितों में भी सिर्फ़ अपनी जाति के लोगों का ही भला करने के आरोप भी लगते रहे हैं। इसके इतर आज़ाद समाज पार्टी (आसपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद न सिर्फ़ एक युवा दलित चेहरा हैं, बल्कि वह संघर्ष करके अपने दम पर राजनीति में आज एक सांसद का मुकाम हासिल कर सके हैं। लेकिन उनकी राजनीति का अंदाज़ सर्व-समाज को साथ लेकर चलने वाला है। चंद्रशेखर की ख़ासियत यह है कि वह किसी से भी बैर नहीं रखते, न ही किसी को कोसते हैं और न ही किसी जाति के ख़िलाफ़ बोलते हैं; बल्कि वह हर पीड़ित के साथ खड़े होते हैं, चाहे पीड़ित किसी भी जाति का हो। उनका कहना है कि वह हमेशा पीड़ितों के साथ खड़े रहेंगे। इसके कई नमूने भी उन्होंने अपने छोटे-से राजनीतिक करियर में पेश किये हैं। मसलन, जब किसान आन्दोलन कर रहे थे, तब न सिर्फ़ चंद्रशेखर आज़ाद ने उनकी आवाज़ उठायी, बल्कि उनके बीच में भी गये। इसी प्रकार से देश की अंतरराष्ट्रीय स्तर की महिला खिलाड़ियों के साथ भी वह खड़े हुए। कहीं पर किसी महिला पर अत्याचार हो, किसी पुरुष पर अत्याचार हो, तो चंद्रशेखर आज़ाद पीड़ित के साथ खड़े हो जाते हैं। यही वजह है कि पहली बार में ही नगीना से चंद्रशेखर एक बड़े अंतर से जीत हासिल करके सांसद चुने गये हैं। वो भी तब, जब उनके ख़िलाफ़ न केवल मायावती ने, बल्कि अखिलेश यादव, जयंत चौधरी और कांग्रेस ने भी जमकर चुनाव प्रचार किया था।

बहरहाल अगर उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की बात करें, तो उत्तर प्रदेश के दलित युवा एक क्रांतिकारी चेहरे की तलाश में थे और उन्हें चंद्रशेखर में अपना वह क्रांतिकारी नेता दिखायी देता है। यही वजह है कि अभी तक दलित वोटर जहाँ बसपा के लिए संगठित माने जाते थे, आज वे चंद्रशेखर आज़ाद के लिए संगठित होते दिख रहे हैं। एक तरफ़ इस बार जहाँ बसपा अपना खाता तक नहीं खोल सकी, वहीं चंद्रशेखर आज़ाद ने बड़ी जीत दर्ज करके दलित राजनीति में न सिर्फ़ एक नये अध्याय की शुरुआत कर दी है, बल्कि ख़ुद को राष्ट्रीय चर्चा में ला दिया है। उनकी चर्चा इस बात को लेकर भी है कि सहारनपुर से इमरान मसूद और मुज़फ़्फ़रनगर में सपा के हरेंद्र मलिक की जीत का श्रेय भी कुछ जानकार उनको ही दे रहे हैं। मुझे याद आता है कि सन् 1989 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से पहली बार कोई दलित महिला चुनाव जीतकर संसद पहुँची थी और वह मायावती थीं। यह सीट भी सहारनपुर की थी और जब वह सन् 1996 में पहली बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, तो भी उन्होंने सहारनपुर की हरौड़ा सीट से ही जीत दर्ज की थी। इसके बाद से ही उनका क़द बढ़ता गया और वह सन् 2007 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और वो भी अपने दम पर बिना किसी पार्टी के समर्थन के। अगर हम लोकसभा सीट की बात करें, तो सन् 1989 में 2.1 फ़ीसदी वोट हासिल करते हुए बसपा ने तीन लोकसभा सीटें जीती थीं। इसके बाद सन् 1991 में भी तीन लोकसभा सीटें जीती थीं। हालाँकि इस साल बसपा का वोट फ़ीसद गिरकर महज़ 1.8 रह गया था। लेकिन इसके बाद उनका वोट फ़ीसद ज़्यादातर लोकसभा चुनावों में बढ़ा और सन् 2009 में बढ़कर 6.2 फ़ीसदी पर भी पहुँच गया था, जब बसपा के सबसे ज़्यादा 21 सांसद लोकसभा पहुँचे थे। सन् 2014 में फिर बसपा को एक भी लोकसभा सीट नहीं मिल सकी; लेकिन सन् 2019 में फिर से बसपा ने सपा के साथ गठबंधन बनाकर 3.7 फ़ीसदी वोटों के साथ 10 सीटें हासिल कीं। लेकिन इस बार जब उत्तर प्रदेश में भाजपा ने महज़ 33 सीटों पर ही जीत हासिल की, तब भी मायावती की बसपा के हाथ ख़ाली रहे। राजनीतिक जानकार अब भी मान रहे हैं कि मायावती अपना वोट बैंक भाजपा को ट्रांसफर करना चाहती थीं; लेकिन ये उनसे नहीं हो सका और दलित वोटर आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम), सपा और कांग्रेस की झोली में ज़्यादातर वोट चले गये। हालाँकि फिर भी बसपा को 9.39 फ़ीसदी वोट मिले, जो कि अच्छा-ख़ासा वोट बैंक है। लेकिन उनके एक भी उम्मीदवार की जीत न होने के पीछे कहीं-न-कहीं उनकी रणनीतिक ग़लतियाँ ही रही हैं, जिनमें सबसे बड़ी ग़लती मायावती के द्वारा अपने भतीजे पर बीते लोकसभा चुनाव में शिकंजा कसने की थी।

दरअसल चंद्रशेखर ने कुछ साल पहले जब भीम आर्मी का गठन किया, तब वह भी मायावती को अपनी अग्रणी नेता मानते थे और उनको सम्मान से अपनी कई जनसभाओं, प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने उन्हें अपना अग्रणी नेता कहा भी था; लेकिन बड़ी नेता होने के नशे और चंद्रशेखर पर चले मुक़दमों ने मायावती को चंद्रशेखर की ओर देखने तक नहीं दिया। यहाँ तक हुआ कि मायावती ने चंद्रशेखर को लेकर कोई पॉजिटिव बयान तक नहीं दिया। उस समय अपने कुछ समर्थकों के साथ चंद्रशेखर आज़ाद संघर्ष करते रहे और चुपचाप पीड़ितों की आवाज़ उठाते रहे। मार्च, 2020 में चंद्रशेखर आज़ाद ने आज़ाद समाज पार्टी की घोषणा की और बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के मिशन को आगे ले जाने, दलितों, वंचितों, शोषितों की आवाज़ बनने का बीड़ा उठाते हुए राजनीति की शुरुआत की। उन्होंने मायावती को बड़ी नेता बताकर ख़ुद को उनके बाद का दलित नेता तक सोशल मीडिया पर कहा, और यह बात साबित कर दी कि कोई इंसान जितना झुककर चलेगा, उसका क़द उतना ही बड़ा होगा। चंद्रशेखर आज़ाद का व्यवहार भी ऐसा है कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ चार-पाँच साल में ही काफ़ी बढ़ गया है और वह आज न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में, बल्कि हरियाणा और राजस्थान में भी दलित ही नहीं, बल्कि दूसरी जातियों के युवाओं में भी चर्चित, लोकप्रिय और बिना किसी विवाद के युवाओं के लिए प्रेरणा बन रहे हैं।

बहरहाल इस बार के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में न सिर्फ़ सवर्ण सांसदों की संख्या घटी है, बल्कि दलित और पिछड़ा वर्ग के सांसदों की संख्या भी बढ़ी है। इस बार बसपा की एक भी संसदीय सीट न आने के बावजूद 18 दलित सांसद उत्तर प्रदेश से चुनकर लोकसभा पहुँचे हैं। वहीं ओबीसी वर्ग के तो सबसे ज़्यादा 34 सांसद चुनकर लोकसभा पहुँचे हैं। हालाँकि इसके अलावा 11 सांसद ब्राह्मण, सात क्षत्रिय, पाँच मुस्लिम, तीन वैश्य और दो भूमिहार भी हैं। चंद्रशेखर की किसी से दुश्मनी भी नहीं है और वह दलित सांसदों में सबसे लोकप्रिय सांसद भी हैं। ख़ुद की राजनीतिक पार्टी के मुखिया भी हैं। ऐसे में उनके लिए आगे संभावनाएँ काफ़ी नज़र आती हैं। लेकिन इसके लिए अभी उनकी परीक्षाएँ बहुत होनी हैं। क्योंकि अभी उनका असली उदय हुआ है और वो भी एक सांसद के रूप में। इसलिए अब उनको अपनी पार्टी को खड़ा और बड़ा करने में दिन-रात एक करने होंगे और पार्टी में ईमानदार, मेहनती और राजनीतिक समीकरणों को साधने वाले नेताओं को जोड़ना होगा। इसके साथ चंद्रशेखर के क़द का पता अभी 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव में भी चलेगा। चंद्रशेखर पूरे दमख़म से इस उपचुनाव में अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारें, तो हो सकता है कि उनकी झोली में भी कुछ सीटें आ जाएँ। इस प्रकार प्रदेश की राजनीति में भी उनकी अच्छी शुरुआत हो सकती है।

बहरहाल एक ऐसे दलित नेता की देश ख़ासकर उत्तर प्रदेश के दलित समाज को तलाश है, जो उनकी आवाज़ बन सके, तो वहीं ओबीसी समाज को भी एक ऐसे नेता की तलाश है, जो बिना भेदभाव के उनकी आवाज़ बन सके। इस समय उत्तर प्रदेश में दोनों ही वर्गों में ऐसे नेताओं का अभाव है। हालाँकि सभी वर्ग यही चाहते हैं कि उनकी आवाज़ कोई बने और उनके समाज का भला करे; लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो यह चाहते हैं कि सबको साथ लेकर चलने वाला कोई नेता हो। इसी सोच के चलते साल 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ मायावती को उत्तर प्रदेश की जनता ने सत्ता सौंपी थी। क्योंकि किसी एक वर्ग या एक जाति का नेता पूरे प्रदेश का नेतृत्व नहीं कर सकता। उत्तर प्रदेश में सभी 36 जातियाँ रहती हैं। इसके लिए प्रदेश के ज़्यादातर लोगों की यही सोच है कि उनकी आवाज़ उठाने वाला कोई नेता हो। और ज़ाहिर है कि जो सबकी आवाज़ बनकर उभरेगा, वही सबसे बड़ा नेता बनेगा। चंद्रशेखर आज़ाद ने अभी तक किसी से कोई भेदभाव नहीं किया और वो पीड़ितों के साथ हमेशा खड़े भी दिखते हैं, फिर चाहे वो पीड़ित कोई सवर्ण हो या दलित, पिछड़ा हो या मुस्लिम। कुछ लोगों का दावा है कि चंद्रशेखर की इसी अच्छाई की वजह से उन्हें इस बार न सिर्फ़ दलितों ने, बल्कि पिछड़ों, राजपूतों और मुस्लिमों ने भी वोट दिये हैं। लेकिन राजनीति में चुनौतियाँ कम नहीं होतीं, इसलिए सवाल यही है कि क्या चंद्रशेखर उत्तर प्रदेश में एक बड़े दलित नेता के रूप में मायावती की तरह या उनसे बड़ा चेहरा बन सकेंगे? हालाँकि चंद्रशेखर के जीतने से प्रदेश में दलित राजनीति के फिर से उभरने की उम्मीद जगी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

मंत्रिमंडल नहीं, अहंकार

शिवेन्द्र राणा

तीसरे दौर में एनडीए की अस्थिर चित्त के जदयू एवं तेदेपा जैसे सहयोगियों के सहारे सरकार बन चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी और उनके कई चहेते शपथ ग्रहण कर चुके हैं और अब नये संसद भवन में पहला सत्र भी चल रहा है। संभावना थी कि कम सीटें आने के झटके के बाद सरकार के नुमाइंदों की संरचना बदल जाएगी। कुछ चेहरे बाहर किये जाएँगे, कुछ नये चेहरे मंत्रिमंडल में शामिल होंगे। यह भी कहा जा रहा था कि सहयोगियों को महत्त्वपूर्ण मंत्रालय मिलेंगे, नहीं तो सरकार गिर जाएगी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सारे कयासों को धता बताते हुए प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल में अपने अधिकांश पुराने साथियों को पदासीन करने सफल रहे। वही पार्टी के नाश-कर्ताओं की जमात फिर से दिख रही है।

भाजपा के कथित चाणक्य ने अपना दबदबा दिखाते हुए एकाधिकार से टिकट बाँटे, पूरे देश में कटु राजनीतिक वातावरण पैदा किया और करवाया। इस हार की ज़िम्मेदारी तय करने के बजाय उन्हें फिर गृह मंत्रालय में बैठा दिया गया। पार्टी को डुबोने में अपने नाकारापन और अपने स्तरहीन बयानों के साथ योगदान करने वाले नड्डा को फिर से अध्यक्ष की कुर्सी दे दी गयी। निरंतर हादसों से रेलवे और सरकार, दोनों की भद्द पिटवा रहे अश्विनी वैष्णव को फिर रेल मंत्रालय मिल गया। अग्निवीर और लॉजिस्टिक के ख़र्च घटाने के नाम पर सेना के ढाँचे को मटियामेट करने वाले राजनाथ सिंह पुन: रक्षामंत्री बन गये। पूरे देश में पेपर लीक और परीक्षा घोटाले हो रहे हैं। लेकिन नीट से लेकर तमाम पेपर लीक के घोटालों के लिए जवाबदेही तय करने के बजाय धर्मेन्द्र प्रधान को फिर से शिक्षा मंत्रालय मिल गया। जीएसटी, महँगाई और मुद्रास्फीति के सम्बन्ध में अजीब-ओ-ग़रीब तर्क देने वाली अपने ही पति से आलोचना सुनने वाली निर्मला सीतारमण फिर से वित्त मंत्री बन गयीं। ऐसे ही कई अन्य अयोग्य सांसद केंद्र में फिर से सत्ता जमते ही मनचाही कुर्सियों से बैठा दिये गये।

अब इसे अहंकार नहीं, तो और क्या कहा जाए कि सरकार की नाक के नीचे अव्यवस्थाएँ फैली हुई हैं; लेकिन इसकी वजह जानने और इससे निपटने में अक्षम ग़ैर-ज़िम्मेदार सांसदों की कमियों को अनदेखा किया जा रहा है। आख़िर इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा? मंत्रिमंडल में इन चेहरों के होने का एक ही अर्थ है- नित नये-नये भ्रष्टाचार। भाजपा नेतृत्व का अहंकार इतना तीव्र है कि उसने आत्म-समीक्षा के मार्ग को ही बाधित कर दिया गया है। हालाँकि नितिन गडकरी जैसे व्यक्तित्वों को मंत्रिमंडल में देखना संतोषप्रद है। सत्ता के अहंकार से उपजी मानसिक कुंठा और आत्ममुग्धता स्व-मूल्यांकन का मार्ग अवरुद्ध करके पतनशीलता का मार्ग खोल देती है। यही भाजपा में हो रहा है। लेकिन भविष्य ही बताएगा कि साहेब का अहंकार उन्हें मनमर्ज़ी से कार्य करने के कितने अवसर उपलब्ध कराता है?

इस चुनाव में साहेब एक तरफ़ हिंदुत्व और पंथ-निरपेक्ष के मझदार में फँसे दिखे, तो दूसरी ओर पार्टी के प्रचार को स्व-केंद्रित रखने में उद्यत रहे। इससे भाजपा का मूल काडर रुष्ट दिखा। जैसे कश्मीरी ब्राह्मणों के हितैषी बनकर सहानुभूति बटोरने वाले साहेब को वहाँ के मुस्लिमों के साथ सेल्फी लेने का समय मिल गया; लेकिन शरणार्थी बने हिन्दुओं का हाल-चाल लेने की फ़ुर्सत नहीं मिली। बस उनके नाम पर लफ़्फ़ाजी ही करते रहे। असल में इनकी नोबेल पुरस्कार पाने की चाहत अभी पार्टी को और बुरे दिन दिखाएगी।

जिस धर्म केंद्रित राजनीति ने भाजपा को शीर्ष सत्ताधिकारी बनाया, उसी ने इस बार पार्टी को नकार दिया। यह नकारना इतना तीव्र था कि देश के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों चित्रकूट, अयोध्या, प्रयागराज, बक्सर, रामेश्वरम और रामटेक में भाजपा क्षेत्रीय दलों से पराजित हो गयी। ग़ाज़ीपुर सीट से पारसनाथ राय को चुनाव में उतारा, जिन्होंने कोई दावेदारी ही नहीं की थी। आम लोगों और पत्रकारों से अधिक तो ख़ुद पारसनाथ राय अपनी उम्मीदवारी से आश्चर्यचकित थे। आधे से अधिक प्रचार का समय तो पूरे ज़िले में उनका परिचय कराने में ही गुज़र गया। प्रतापगढ़ सीट से भी विरोध के बावजूद संगम लाल गुप्ता को दोबारा टिकट दे दिया गया। इसी तरह आजमगढ़, कन्नौज, चंदौली, अमेठी और अयोध्या जैसी कई महत्त्वपूर्ण सीटों पर भी उम्मीदवारों के विरुद्ध आम जनता की शिकायतों और नाराज़गी की चर्चा आम थी; लेकिन तब भी उन्हें मैदान में उतारा गया। आज भाजपा इवेंट ऑर्गेनाइजर का संगठन बनकर रह गयी है। स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस के जिस व्यक्ति पूजन परंपरा के संघ-जनसंघ एवं भाजपा कटु आलोचक रहे हैं, आज वही संस्कृति भाजपा में ज़हर बनकर एक दशक से उसका चारित्रिक पतन कर रही है और संगठन अब भी आँखें मूँदे बैठा है।

स्वतंत्र भारत में छ: दशकों तक निर्द्वंद्व राज करने वाले कांग्रेसियों के घमंड से संक्रमित होने में भाजपा नेताओं को मात्र एक दशक ही लगा। आप साहेब और कथित चाणक्य ही नहीं, बल्कि उनके भरोसे कुर्सियाँ पाने वाले सभी महिला-पुरुष नेताओं का मीडिया के सामने आने से लेकर पर्दे के अंदर तक का आचरण देखिए, चरम अहंकार से भरा हुआ है। मानो ये लोग स्वयं ख़ुदा समझ बैठे हों। जैसे पिछले कार्यकाल में स्मृति ईरानी का अहंकार इस स्तर पर था कि वह अमेठी में विरोधियों को तो छोड़िए, भाजपा कार्यकर्ताओं को भी सार्वजनिक रूप से पमानित करने लगीं थीं।

पार्टी काडर की कौन कहे, साहेब और चाणक्य के चाटुकार दरबारियों ने पार्टी के प्रतिबद्ध नेताओं को निरंतर अपमानित किया। दूसरे दलों से आयातित नेताओं, वंशवादियों और भूतपूर्व नौकरशाहों को पदासीन करके इन लोगों ने भाजपा-संघ की दूसरी पीढ़ी के उभरते नेतृत्व को मटियामेट कर दिया गया। काफ़ी भाजपाई सार्वजनिक रूप से भले इस बात को स्वीकार न करें; लेकिन इस बार के चुनाव परिणाम से विपक्षी दलों से अधिक तो वही प्रसन्न हैं। कमाल है कि भाजपा सत्ता के बाहर जितना ज्ञान नैतिकता पर देती है और काडर के सम्मान का दम भरती है, सत्ता पाते ही वो सारा भाव तिरोहित हो जाता है। सन् 2004 में पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और हवाबाज़ी ने अगली विजय की प्रबल संभावनाओं को ध्वस्त किया था; लेकिन भाजपा ने अतीत से कुछ भी न सीखने की क़सम खा रखी है। आज भी भाजपा नेता 2024 में पुन: उसी रास्ते पर हैं। लेकिन तब भी सवाल मौज़ूँ है कि आख़िर ऐसा क्यों हुआ कि साहेब पुन: अपनी महत्त्वाकांक्षा पार्टी-संगठन पर लादने में सफल हुए?

असल में पिछले एक दशक में संघ से लेकर भाजपा तक में एकाधिकार समर्थक समूह के ऐसे कील-काँटे सेट किये गये हैं कि विभिन्न पदों पर क़ाबिज़ यह रीढ़-विहीन सुविधाभोगी वर्ग मलाई चाटने का अभ्यस्त हो चुका है और जो प्रतिवाद करने और सवाल उठाने में सक्षम थे, उन्हें सुनियोजित तरीक़े से ठिकाने लगा दिया गया। एक वक़्त हुआ करता था, जब भाजपा में नीति-निर्णयन से लेकर चुनावी प्रबंधन एवं टिकट वितरण सामूहिक निर्णय की प्रक्रिया द्वारा सुनिश्चित की जाती थी। लेकिन पिछले सात-आठ वर्षों में पार्टी में एकाधिकार की व्यवस्था बन गयी, जिस पर मोदी-शाह का पूर्ण अधिकार हो गया। आख़िर इस आम चुनाव में भाजपा की इस राजनीतिक दुर्गति के लिए इन दोनों गुजराती बंधुओं की जवाबदेही क्यों नहीं तय की जानी चाहिए? समीक्षा सिर्फ़ भाजपा नेतृत्व की ही नहीं, बल्कि इनकी दरबारी फ़ौज की भी होनी चाहिए।

एक समय जिस भाजपा में वंशवाद-परिवारवाद की राजनीति को एक नैतिक अपराध माना जाता था, आज उसी में बीसीसीआई प्रमुख के पद से लेकर लोकसभा और विधानसभाओं तक के टिकट सगे-सम्बन्धियों को बाँटे जाते हैं। पार्टी के लिए सड़कों पर पसीना बहाने वाले लोग अपमानित किये जाते हैं। बाहर से आये सेटर और घुसपैठिये मखमली कारपेट के रास्ते बुलाकर सत्ता की कुर्सियों पर बैठाये गये। पार्टी के पूरे सांगठनिक चरित्र को पतित कर दिया गया और इस दुर्गति तक पहुँचाने वालों से सवाल करने के बजाय उन्हें फिर से उनके मनचाहे सिंहासन दिये जा रहे हैं। आज भाजपा नेतृत्व भ्रष्टाचार के विरुद्ध ज़ीरो टोलरेंस की नीति की वकालत कर रहा है और इस मामले में बिलकुल ईमानदार भी दिखना चाहता है। कामचोर लोग इस नीति का समर्थन कर रहे हैं। लेकिन प्रबुद्ध छोड़िए, किसी आम भारतीय से पूछकर देखिए, वह भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का प्रबल समर्थन करता मिलेगा। फिर भी भ्रष्टाचार विरोधी कार्यवाहियाँ चयनित तरीक़े से हो रही हैं। केंद्र द्वारा ईडी, सीबीआई के दुरुपयोग, दबाव की राजनीति और कई राज्यों में ऑपरेशन लोटस के नाम पर विरोधियों को जेल भेजने और सरकारें बनाने-बिगाड़ने के खेल का जनता में कोई सकारात्मक संदेश नहीं गया। वैसे भी पिछले पाँच वर्षों में भाजपा के राजनीतिक शुद्धिकरण मशीन की चर्चा ख़ूब हुई। लेकिन पार्टी ने ऐसी आलोचनाओं पर कान धरना भी गवारा नहीं समझा, जिसका नतीजा आज सामने है।

अब भाजपाई हार की खीझ में जनता को कोस रहे हैं, जो समझ के परे है। जब सन् 2014 और 2019 में इसी जनता ने सिर-माथे पर बैठाया था, तब सब अच्छा था; और आज जब उसने आईना दिखा दिया, तो आप गालियाँ देने पर उतर आये। सत्ता किसी की बपौती नहीं है। जो काम करेगा, उसे जनता चुनेगी, जो गड़बड़ी करेगा, उसे उतार फेंकेगी। उसे कोसने वाला कोई कौन होता है? प्रधानमंत्री और उनके अनुगामी स्वयंभू मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों को पतन की ओर धकेलने वाला चाटुकार समूह ही नहीं, बल्कि भाजपा के सियासी रणनीतिकारों को आम जनमानस की समझ पर संदेह नहीं करना चाहिए। क्योंकि लोगों को पता है कि किसे सत्ता सौंपनी है और किसे ज़मीन दिखानी है।

भाजपा को यह याद रखना चाहिए कि हारकर भी उसकी जीत में इस बार बहुत हद तक विपक्ष के नकारापन का भी योगदान है। यदि ज़मीनी संघर्ष से तपे-परखे नेता इस बार विपक्ष में होते, तो भाजपा इस चुनाव में बुरी तरह एक कमज़ोर विपक्ष बन जाती। पिछले 10 वर्षों में सिलसिलेवार कई जन-विरोधी कार्यों, भाजपा के परिवारवाद, भ्रष्टाचार, वैश्विक छवि के पीछे पड़ोसी देशों से रिश्ते बिगाड़ने और साहेब पर होने वाले बड़े ख़र्च जैसे तमाम मुद्दों पर भाजपा की ढंग से घेरेबंदी हो सकती थी। लेकिन वंशवादी सत्ता की उपज से निकम्मे बने विपक्षी दल एंटी-इनकम्बेंसी के भरोसे बैठे रहे। जनता की स्वत:स्फूर्त सोच ने ही उन्हें पहले से अधिक सीटें दी हैं। जनता पार्टी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री माई लाइफ’ में लिखते हैं- ‘वर्ष 1980 में हमने यह भी सीखा कि गहरा मोहभंग भी उन्हें (मतदाताओं को) उस पार्टी को सज़ा देने के लिए उकसा सकता है, जो उनकी आशाओं पर खरा नहीं उतरती।’ उम्मीद है भाजपा अपने पितृ-पुरुष के राजनीतिक अनुभव से कुछ सीखेगी।

उत्तर भारत में मानसून की एंट्री, भीषण गर्मी से लोगों राहत

नई दिल्ली: पंजाब के कई शहरों में आज बारिश की बूंदों ने लोगों को उमसभरी गर्मी से राहत दिलाई। वहीं आज उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दक्षिण-पश्चिमी मानसून ने पूरी तरह कवर कर लिया है। इसके साथ ही मानसून गुजरात, राजस्थान के कुछ हिस्सों, उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से और बिहार में आगे बढ़ गया है। मानसून उत्तरी पंजाब में भी दाखिल हो गया है। यूपी और मध्य प्रदेश में 26 जून को मॉनसून प्रवेश कर चुका है। भीषण गर्मी से लोगों का हाल बेहाल था। IMD के मुताबिक, अगले 24 घंटों के दौरान, केरल, कर्नाटक, कोंकण, गोवा, गुजरात, लक्षद्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के कुछ हिस्सों में मध्यम से भारी बारिश संभव है।पश्चिम उत्तर प्रदेश में 28 से 29 जून को भारी बारिश की संभावना जताई गई है। इसके साथ ही मानसून का असर हिमालयी राज्यों पर भी दिखाई देगा। यहां भी एक दो दिन में ये एक्टिव होगा।

दर्दनाक हादसाः तीर्थयात्रियों से भरी मिनी बस की ट्रक से जोरदार भिड़ंत,13 लोगों की मौत

कर्नाटक :  कर्नाटक के हावेरी जिले में बड़ा सड़क हादसा हुआ है। यहां ब्यादगी तालुक में शुक्रवार तड़के एक मिनी बस के खड़े ट्रक से टकरा जाने से 13 लोगों की मौत हो गई और दो अन्य गंभीर रूप से घायल हो गए।

पुलिस ने बताया कि पीड़ित शिवमोगा के रहने वाले थे और देवी यल्लम्मा के दर्शन के लिए तीर्थयात्रा के बाद बेलगावी जिले के सवादट्टी से लौट रहे थे। घायलों को अस्पताल में भर्ती कराया गया है और उनकी हालत गंभीर बताई जा रही है।

पुलिस ने कहा कि ऐसा लगता है कि बस के चालक को नींद आ गई थी, जिसके कारण यह दुर्घटना हुई। पुलिस ने कहा कि आगे की जांच जारी है।

एसएमई, एमएसएमई को आगे बढ़ने में मदद कर रहा है फोनपे का भुगतान समाधान

नई दिल्ली : विश्व एमएसएमई दिवस हर साल 27 जून को मनाया जाता है। इस मौके पर फोनपे पेमेंट गेटवे (पीजी) ने गुरुवार को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ को सहारा देने के लिए गहरी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की। फोनपे पेमेंट गेटवे ने शेयर किया कि वह पहले से ही टियर 2 शहरों और उससे आगे आधे से अधिक एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) के साथ पीजी समाधान सक्षम करने के लिए काम कर रहा है। मुख्य फोकस रीजनल बिजनेस को सशक्त बनाने पर है। इससे समावेशी विकास को बल मिलेगा और व्यवसायों को तेजी से विस्तार करने में मदद मिलेगी।

ज्यादातर पेमेंट गेटवे 2 प्रतिशत का लेनदेन शुल्क लेते हैं। वहीं फोनपे पीजी के पास नए व्यापारियों के लिए फ्री में शामिल होने के लिए एक विशेष प्रस्ताव है। इस प्रस्ताव में कोई छिपा हुआ शुल्क, सेटअप शुल्क या सालाना रखरखाव शुल्क नहीं है। इसके अलावा, फोनपे पीजी भरोसेमंद है। यह व्यापारियों के लिए 100 प्रतिशत अपटाइम सुनिश्चित करता है। यह सक्रिय रूप से डाउनटाइम का पता लगाता है और रियल टाइम में लेनदेन को सुनिश्चित करता है। फोनपे पेमेंट गेटवे और ऑनलाइन मर्चेंट्स के प्रमुख अंकित गौर ने कहा, “इस विश्व एमएसएमई दिवस पर, फोनपे पीजी पूरे भारत में एमएसएमई और एसएमई को सशक्त बनाने के लिए अपनी अटूट प्रतिबद्धता दोहराता है। हम टियर 2, टियर 3 शहरों और उससे आगे के व्यवसायों के सामने आने वाली चुनौतियों को समझते हैं। बिना बाधा के पेमेंट समाधान कर और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देकर हम उन्हें नए ग्राहकों और बाजारों तक पहुंचने में सक्षम बना रहे हैं, जो पहले पहुंच से बाहर थे।”

उन्होंने आगे कहा, “हमारे पास ऑनबोर्डिंग के बाद से पहले तीन महीनों के लिए शून्य लेनदेन लागत की एक यूनिक पेशकश है। ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अधिक से अधिक एसएमई/एमएसएमई भुगतान गेटवे की ओर से दी जाने वाली सुविधा और सुरक्षा को अपना सकें और उसका उपयोग कर सकें। फोनपे पीजी के लिए प्रतिबद्धता पूरे देश में व्यवसायों के लिए विकास क्षमता को अनलॉक करना और अधिक जीवंत राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान देना है। फोनपे पीजी को व्यापारी भी पसंद करते हैं। यह 100 प्रतिशत सुरक्षित लेनदेन सुनिश्चित करता है। एमएसएमई पेमेंट लिंक समाधान का उपयोग कर आसानी से लिंक के माध्यम से पेमेंट कलेक्ट कर सकते हैं, जिन्हें ग्राहकों के साथ जनरेट और शेयर किया जा सकता है।

वे आसानी से पेमेंट प्राप्त करने के लिए अपने ग्राहकों को व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, एसएमएस, ईमेल या उनकी पसंद के किसी अन्य प्लेटफॉर्म के माध्यम से पेमेंट (भुगतान) लिंक भेज सकते हैं। एसएमई के लिए कनेक्ट सेशन फोनपे की ओर से एक मल्टी-सिटी पहल का हिस्सा है, जिसे उभरते शहरों में आयोजित करने की योजना है। वे एसएमई के वरिष्ठ नेतृत्व और प्रमुख निर्णयकर्ताओं को अपनी ऑनलाइन मौजदूगी को अनुकूलित करने और अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए तकनीकी इनोवेशन का लाभ उठाने के लिए एक प्लेटफार्म देते हैं।

फोनपे पीजी ने हाल ही में अपने रेफरल प्रोग्राम की शुरुआत की भी घोषणा की है। फोनपे पीजी पार्टनर प्रोग्राम उन सभी लोगों के लिए डिजाइन किया गया है जो किसी व्यवसाय को ऑनलाइन बढ़ाने में मदद करते हैं। एक रेफरल पार्टनर के रूप में, वे अपने ग्राहकों से ऑनलाइन पेमेंट लेने और व्यवसाय के विकास में तेजी लाने के लिए अपने ग्राहकों को रेफर कर सकते हैं।

UN में कश्मीर का जिक्र कर फंसा पाकिस्तान, भारत ने लगाई लताड़

न्यूयॉर्क : पाकिस्तान की ओर से संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर का जिक्र किए जाने के बाद भारत ने पड़ोसी देश की आलोचना की है। भारत ने जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान की ‘निराधार टिप्पणियों’ की निंदा की है। भारत ने पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर किए गए बयानों को राजनीति से प्रेरित और निराधार बतलाया है।

भारत ने पाकिस्तान पर हमला करते हुए कहा कि यह उसके अपने देश में बच्चों के खिलाफ जारी गंभीर उल्लंघनों से ध्यान हटाने का एक और आदतन प्रयास है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बच्चों और सशस्त्र संघर्ष पर खुली बहस के दौरान, संयुक्त राष्ट्र में भारत के उप प्रतिनिधि आर रवींद्र ने बुधवार को कहा कि केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख भारत के अभिन्न और अलग-अलग हिस्से हैं।

अमेरिकी संघीय अदालत ने विकीलीक्स संस्थापक जूलियन असांजे को रिहा किया

WikiLeaks founder Julian Assange arrives at a United States District Court in Saipan, Northern Mariana Islands, U.S., June 26, 2024. REUTERS/Kim Hong-Ji

वाशिंगटन : उत्तरी मारियाना द्वीप समूह की राजधानी साइपन स्थित एक अमेरिकी संघीय अदालत ने बुधवार को विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे को तत्काल रिहा करने का आदेश दिया। उन्होंने जासूसी अधिनियम के उल्लंघन के एक मामले में अपना अपराध स्वीकार कर लिया।

न्यायाधीश रमोना मंगलोना ने कहा कि वह एक ‘स्वतंत्र व्यक्ति’ के रूप में अदालत से बाहर निकलेंगे।

न्यायाधीश ने कहा कि पहले ही ब्रिटेन की एक जेल में उनके द्वारा बिताए गये 62 महीने को उनकी सजा के रूप में स्वीकार करना उचित है। न्यायाधीश मंगलोना ने कहा, “आप इस न्यायालय से एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में बाहर निकल सकेंगे।”

इससे पहले, असांजे ने अमेरिकी न्याय विभाग के साथ एक समझौते के तहत अदालत में दोष स्वीकार कर लिया, ताकि आगे की सजा से बचा जा सके और वर्षों से चली आ रही कानूनी लड़ाई समाप्त हो सके।

विकीलीक्स के संस्थापक ब्रिटेन की जेल से रिहा होने के बाद बुधवार सुबह प्रशांत महासागर में स्थित अमेरिकी क्षेत्र के उत्तरी मारियाना द्वीप पर पहुंचे, जहां उन्होंने पांच साल से अधिक समय बिताया था।

अमेरिका में ऑस्ट्रेलिया के राजदूत और पूर्व प्रधानमंत्री केविन रुड, और ब्रिटेन में ऑस्ट्रेलिया के उच्चायुक्त स्टीफन स्मिथ भी न्यायालय में उपस्थित थे। असांजे अब ऑस्ट्रेलिया की राजधानी कैनबरा के लिए उड़ान भरेंगे।

स्पीकर ओम बिरला ने इमरजेंसी की बरसी पर लोकसभा में रखवाया मौन

नई दिल्ली: लोकसभा में आज ओम बिरला स्पीकर बन गए और अपनी पहली ही स्पीच में बिरला ने इंंदिरा सरकार द्वारा लगाई गई इमरजेंसी की बरसी पर जमकर सदन में सुनाया। उन्होंने इमरजेंसी को लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय बताया, कांग्रेस को उसके लिए घेरा और सदन में दो मिनट का मौन भी रखवा दिया। सत्ता पक्ष के सांसदों ने मौन रखा, लेकिन कांग्रेस और विपक्ष के सांसद हंगामा करते रहे। कांग्रेस सांसदों का आरोप था कि स्पीकर भाजपा का एजेंडा चला रहे हैं।

मौन के बाद स्पीकर ने गुरुवार तक के लिए संसद को स्थगित कर दिया। लोकसभा अध्यक्ष ने कहा, ‘प्रधानमंत्री मोदी और सदन के सभी सदस्यों को मुझे फिर से सदन के अध्यक्ष के रूप में दायित्व निर्वाहन करने का अवसर देने के लिए सबका आभार व्यक्त करता हूं। मुझ पर भरोसा दिखाने के लिए भी मैं सभी का आभारी हूं।’ उन्होंने आगे कहा, ‘यह 18वीं लोकसभा लोकतंत्र का विश्व का सबसे बड़ा उत्सव है। अन्य चुनौतियों के बावजूद 64 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने पूरे उत्साह के साथ चुनाव में भाग लिया। मैं सदन की ओर से उनका और देश की जनता का आभार व्यक्त करता हूं। निष्पक्ष, निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से चुनाव प्रक्रिया संचालित करने के लिए और दूर-दराज के क्षेत्रों में भी एक भी वोट पड़े, यह सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग द्वारा किए गए प्रयासों के लिए मैं उनका आभार व्यक्त करता हूं।’