हर दिन कहीं न कहीं दलितों पर क्रूरतापूर्ण हमलों की खबरें आती हैं. आप पूछते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल, हमारे पूरे समाज की संरचना ही ऐसी है कि यहां दलितों पर हमले कोई हैरानी की बात नहीं है. यह होना ही है. सत्ता में भागीदारी बढ़ने के साथ-साथ दलितों पर हमले भी बढ़े हैं. असल में हमने दलितों के सशक्तिकरण की बात तो की, लेकिन जाति को खत्म करने की जगह जिंदा रखा. संविधान में भी यह खेल किया गया कि आरक्षण तो मिले लेकिन जाति जिंदा रहे. जाति और धर्म की संरचना को संवैधानिक ढंग से जिंदा रखा गया है. इस पर कोई सवाल नहीं करता. जैसे आजकल कोई गाय की राजनीति पर सवाल नहीं करता, उसका अपने फायदे में कितना भी खतरनाक इस्तेमाल हो. उसी तरह संविधान की संरचना अगर जातिगत व्यवस्था को बनाए रख रही है तो कोई सवाल नहीं उठाता. यह सब ऊंंची जाति के लोगों की चाल थी कि जाति व्यवस्था जिंदा रहे. जाति जब तक जिंदा है, तब तक दलितों के साथ छुआछूत, भेदभाव और हिंसक हमले होते रहेंगे.
आम्बेडकर का मिशन जाति का जड़ से खात्मा था ताकि एक ऐसा समाज बनाया जा सके जो आजादी, बराबरी और भाईचारे पर आधारित हो. लेकिन आम्बेडकर के लिए जितने प्यार का दिखावा किया जाता है, उतनी ही हिकारत उनके सपनों को लेकर बनी हुई है. जातियों को भूल जाइए, जिन्हें संविधान में जज्ब कर दिया गया था और जिन्हें ऊपर से लेकर नीचे तक पूरे समाज को अपनी चपेट में लेना था; छुआछूत जिसको असल में गैरकानूनी करार दिया गया था, अब भी अपने सबसे क्रूर शक्ल में मौजूद है. हाल में कई सर्वे रिपोर्ट में छुआछूत की दहला देने वाली घटनाएं उजागर हुई हैं. असल में छुआछूत जाति का महज एक पहलू है और जातियां बनी रहीं तो छुआछूत भी कभी खत्म नहीं होगी. आम्बेडकर का आजादी, बराबरी और भाईचारे का आदर्श बहुत दूर है और हरेक गुजरते हुए दिन के साथ यह और भी दूर होता जा रहा है. आज भारत की गिनती दुनिया के सबसे गैरबराबरी वाले समाज में होती है! एक जातीय समाज में भाईचारा वैसे भी कल्पना से बाहर की बात है, 1991 के बाद के नए जातीय भारत में तो और भी कल्पनातीत हो गया है.
विकास का ऐसा कोई पैमाना नहीं है, जिसमें दलितों और गैरदलितों (बदकिस्मती से इसमें मुसलमान भी शामिल हैं, जिनकी दशा दलितों जितनी ही खराब है) के बीच की खाई बढ़ी नहीं है. इस खाई की सबसे चिंताजनक विशेषता यह है कि यह पहले चार दशकों के दौरान घटती हुई नजर आई, जबकि नवउदारवादी सुधारों को अपनाने के बाद से यह बड़ी तेज गति से और चौड़ी हुई है. इन नीतियों ने दलितों को कड़ी चोट पहुंचाई है और उन्हें हर मुमकिन मोर्चे पर हाशिये पर धकेला है. अगर उत्पीड़नों को जातीय चेतना के प्रतिनिधि के रूप में लिया जाए तो कोई भी इस नतीजे पर पहुंचने से नहीं बच सकता कि पिछले नवउदारवादी दशकों में जातीय चेतना अभूतपूर्व गति और तेजी से बढ़ रही है.
1968 में तमिलनाडु के किल्वेनमनी में, जहां 44 दलित औरतों और बच्चों को जिंदा जला दिया गया था, वहां दलित हिंसा अपनी नई शक्ल में सामने है. आंध्र प्रदेश (करमचेडु, चुंदरू) के बदनाम अत्याचारों, बिहार के दलित जनसंहारों ने यह साफ है कि राज्य दलितों के खिलाफ जातिवादी अपराधियों को शह दे रहा है. 1996 में बथानी टोला जहां 21 दलितों की हत्या कर दी गई, 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे जहां 61 लोगों को काट डाला गया, 2000 में मियांपुर जहां 32 लोग मारे गए, नगरी बाजार जहां 10 लोगों की 1998 में हत्या कर दी गई और शंकर बिगहा जहां 1999 में 22 दलितों का जनसंहार किया गया था. हरियाणा दलितों पर अत्याचार के लिए बदनाम है जहां मिर्चपुर जैसी भयावह घटनाएं हुईं.
ज्यादातर लोग इन समस्याओं का सतही ढंग से आकलन करते हैं, जबकि सतह पर देखने से चीजें साफ नहीं होंगी न ही उनके उपाय हो सकेंगे. हमारे सामाजिक ढांचे में ही खराबी है. संविधान कहता है कि छुआछूत नहीं होनी चाहिए, लेकिन समाज में आज भी छुआछूत जारी है. उसे खत्म नहीं किया जा सका क्योंकि जाति के उन्मूलन की बात ही नहीं हुई. जो उपाय किए गए, वे जाति को जिंदा रखकर किए गए और वही आज भी हो रहा है.
संविधान बनने के बाद शुरुआत में आरक्षण की व्यवस्था इसलिए नहीं की गई थी कि लोग जातीय रूप से पिछड़े हैं, बल्कि इसलिए की गई थी कि वे सामाजिक-आर्थिक ढांचे से बाहर हैं. वे वंचित हैं इसलिए आरक्षण दिया गया था. आम्बेडकर ने जाति उन्मूलन की बात की थी, लेकिन वे असफल रहे. देखिए, आरक्षण दलित-वंचित तबके को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक तो है लेकिन वह कोई पैनाशिया (रामबाण) नहीं है कि सारी समस्याएं उसी से ठीक हो जाएंगी.
संविधान कहता है कि छुआछूत नहीं होनी चाहिए, लेकिन समाज में आज भी छुआछूत जारी है. क्योंकि जाति के उन्मूलन की बात ही नहीं हुई
दलितों की स्थिति सुधारने की दिशा में आरक्षण कोई खास मदद नहीं कर पाया है. आप जायजा लेकर तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं. दलित समुदाय के लोग जहां थे, वे वहीं हैं. आरक्षण की नूराकुश्ती से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला, क्योंकि इस तंत्र की संरचना में खराबी है, जो वंचितों को आगे नहीं आने देती. पहले यह था कि लोग वर्ण व्यवस्था के मुताबिक रहते थे, उनमें छुआछूत आदि तो थी, लेकिन शोषणकारी व्यवस्था के बावजूद समाज एक-दूसरे की मदद पर निर्भर था. जबसे वंचित-दलित तबके पावर शेयरिंग में शामिल होने लगे, ऊंची जातियां आक्रामक होने लगीं. शहरों में हालत उतनी बुरी नहीं है, जितनी गांवों में है. ऊंची जातियों के लोग लगातार दलितों पर हमले कर रहे हैं और राजनीति इसमें कोई अंतर नहीं ला पा रही है. आज के दलित नेता और दलितों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियां बिचौलिया बनकर रह गए हैं. दलितों के नाम पर कई पार्टियां बनीं, कई नेता सक्रिय हैं, लेकिन उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं दिखती. उत्तर प्रदेश में मायावती और कांशीराम ने अच्छी मंशा के साथ काम किया लेकिन यह तंत्र ऐसा है कि वे लोग कुछ नहीं कर सके. मायावती भी कांग्रेस और भाजपा के बीच उलझकर रह गईं. दलित राजनीति भी अभी संघर्ष की हालत में है. उसे तमाम चालबाजियों से निपटना है.
दलित समुदाय के लिए फिलहाल कोई राष्ट्रीय आवाज नहीं है. क्योंकि जब आप कहते हैं दलित तो इसका मतलब कोई एक जाति नहीं है. जाति तो चमार है, पासी है, कोयरी है. दलित शब्द उस पूरे समुदाय को संबोधित है जिसके तहत तमाम वंचित जातियां हैं. उनको एकत्र करने की आवश्यकता है. एक ऐसा केंद्रबिंदु तैयार किया जाना चाहिए जहां पर दलित समुदाय को मोबलाइज किया जा सके. जहां तक हालात में बदलाव का सवाल है तो हमारा ऐसा मानना है कि बदलाव आएगा. लेकिन वह किसी की वजह से नहीं आएगा. बदलाव समय की मांग है. इसलिए आएगा. नई पीढ़ी ज्यादा प्रगतिशील है और वह तमाम पुराने ढांचों को तोड़ रही है. इसलिए आशा की जानी चाहिए कि समय के हिसाब से जाति खत्म होगी.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक हैं)
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)