एक पखवाड़े पहले तक भाजपा और उसके साथियों का समूह यानी राजग जिस तरह की बढ़त लिए हुए दिख रहा था, अब वैसी स्थिति नहीं है. लालू प्रसाद-नीतीश कुमार और कांग्रेस के योग से बने महागठबंधन की स्थिति बेहतर होती हुई दिखी है. इसके पीछे का आधार रणनीतिक तौर पर दिखी एकता है. अंदर चाहे जितनी कचकच हो महागठबंधन में लेकिन बाहर से इन लोगों ने एका दिखाई है, दिखाने की हरसंभव कोशिश की है. सीट बंटवारे से लेकर टिकट बंटवारे तक की घोषणा में. एका दिखाने का संदेश भी अच्छा गया है. इससे एकजुटता भी बढ़ी है. इसका एक स्पष्ट फायदा यह हुआ कि इसके पहले यह लग रहा था कि लालू अपने कोर वोट को नीतीश के लिए ट्रांसफर नहीं करवा पाएंगे और नीतीश अपने कोर वोट को लालू के लिए ट्रांसफर नहीं करवा पाएंगे, उससे धुंध छंटा. अब दोनों अपने कोर वोट एक-दूसरे के उम्मीदवारों के लिए ट्रांसफर कराने की स्थिति में बहुत हद तक आ गए हैं. लेकिन इसी एक ताकत या कवायद के भरोसे महागठबंधन को बढ़त मिल जाए, संभव नहीं दिखता. भाजपा और राजग के पास अपनी कमजोरियां हैं. उनके सहयोगी दलों में बिखराव ज्यादा है. उसका नुकसान उन्हें चुनाव में उठाना पड़ेगा, लेकिन स्थितियां उसे मजबूत भी बनाती हैं. लालूजी ने फिर से मंडल टू का मसला उठाया है. उसे ही वे प्रचारित कर रहे हैं. वे जब अपनी पहली चुनावी सभा में गए तो खुलकर बोले कि यह बैकवर्ड और फॉरवर्ड की लड़ाई है. लालूजी जिस तरह से मंडल के उभार के लिए बेचैन हैं और जिस तरह के बयान दे रहे हैं, वैसे बोल तो वे मंडल के शुरुआती दिनों में भी नहीं बोलते थे. 90 के दशक के आरंभिक सालों में भी लालू खुलकर इस तरह नहीं बोलते थे. यह उनकी बेचैनी को दिखा रहा है. उन्हें अहसास है कि मंडल कार्ड ही खतरे में है. इसलिए वे बार-बार मंडल टू और फिर उससे सरककर यदुवंशियों पर आ रहे हैं. लेकिन इस मंडल में मुख्य करिश्मा अतिपिछड़े दिखाते थे, दलित दिखाते थे. लालूजी इसे ही जिन्न कहते थे, और इस बार उनके साथ जिन्न दिख नहीं रहे. बिना जिन्न के मंडल टू कैसे होगा, यह एक सवाल है. नीतीश कुमार ने जो टिकट बंटवारा किया है, वह तो फिर भी ठीक-ठाक है लेकिन लालू के टिकट बंटवारे को देखिए. 18 सीटें उन्होंने दलितों को दिया है. यह उनकी मजबूरी थी, क्योंकि वे रिजर्व सीट थे. बाकि बचे सीटों में से 16 सीट मुसलमानों को दिए लेकिन उसके बाद की 66 सीटो में से 53 सीट उन्होंने यादवों को दी. मंडल के नाम पर यादवों का पुनः उभार या उनको उभारने की कोशिश ही इस राह में रोड़ा बनेगा. एक समय होता है, सामर्थ्य की एक सीमा होती है, उसके बाद सब चुकता है. यादवों की वोट कैचिंग कैपिसिटी पहले जैसी नहीं रह गई है. लालू, यादव और मुसलमानों को तो संभाल भी लें लेकिन दूसरे छिटकते जा रहे हैं. इसलिए मंडल टू की बात बार-बार कहने पर भी वह जोश दूसरी जातियों में नहीं आ पा रहा. इसकी दो वजहें हैं. एक तो महागठबंधन इस बार जिस भाजपा से लड़ने को तैयार है, वह भाजपा वन नहीं भाजपा टू है. वह मंडल और कमंडल, दोनों को अपने में समाहित किए हुए है. कमंडल के सबसे बड़े प्रतीक आडवाणी थे, उन्हें भाजपा दरकिनार कर चुकी है. अब जो भाजपा टू है, उनसे कमंडल में मंडल और मंडल में कमंडल को समाहित करने की कोशिश कर, घालमेल कर दिया है. सारी बीच नारी कि नारी बीच सारी जैसी स्थिति बना दी है. मंडल टू का नारा चलता, अगर पिछले 25 सालों में कोई ठोस काम हुआ होता. बिहार में शहरीकरण हुआ होता, पिछड़ों के लिए अलग से ठोस आर्थिक नीति बनी होती, उनके शिक्षा या रोजगार के लिए कुछ हुआ होता, लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं. तो जब 25 सालों में नहीं कर सके तो फिर काठ की हांडी दोबारा वे चढ़ायेंगे नहीं, जिनके बूते मंडल चलता रहा. 25 साल का समय कोई कम भी नहीं होता. इतने सालों में जो ठोस नहीं कर सका, अब वह जितने भी लंबे समय तक रहे, ठोस नहीं कर सकता. माओ ने 1949 में चीन में सरकार बनाई थी और 1972 आते-आते जो करना था कर दिया. ऐसे उदाहरण दुनिया भर में मिलेंगे. किसी एक बदलाव के लिए एक नेतृत्व या नीति पर जनता लंबे समय तक भरोसा नहीं करती. मंडल टू की बात करेंगे, आरक्षण पर बात करेंगे, उसे एजेंडा बनाएंगे लेकिन कांग्रेस साथ में रहेगी, हार्दिक पटेल प्रचार करने आएंगे, अरविंद केजरीवाल को साथ में घुमाया जाएगा तो फिर उसका असर कैसा होगा, यह भी समझने वाली बात है. कांग्रेस के नेता जतिन प्रसाद साफ कह रहे हैं कि पिछड़ों में जो ऊंची जातियां हैं, उन्हें आरक्षण से बाहर किया जाना चाहिए. मनीष तिवारी कह रहे हैं कि आरक्षण की समीक्षा हो. हार्दिक पटेल का पूरा अभियान ही मंडल विरोधी है. अरविंद केजरीवाल के बारे में सब जानते हैं कि वे आरक्षण पर क्या विचार रखते हैं. ऐसे लोग साथ रहेंगे और आरक्षण-मंडल की बात भी होगी, यह कैसे संभव होगा. और बात इतनी ही नहीं. सामाजिक न्याय सिर्फ जातियों पर तो चलता नहीं. इस पर तो पिछले 25 सालों में काम हुआ नहीं. जब नीतीश कुमार सत्ता संभाली थी तब राज्य में 29 प्रतिशत लोग बीपीएल में आते थे, 2010 में उनके ही मंत्री ने आंकड़ा पेश किया था कि यह प्रतिशतता बढ़कर 56 प्रतिशत हो गई है. गरीब बढ़ते गए, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले बढ़ते गए तो उसका कोई असर तो राजनीतिक दृष्टि से भी पड़ा होगा. इस बार दलितों का एक हिस्सा मांझी के कारण लालू नीतीश से दूर है. पासवान, मुसहर, दलित नीतीश से दूर हैं. अतिपिछड़ों में कहार, मल्लाह, कुम्हार, केवट आदि नीतीश से दूर हैं. एक-एक कर कई ब्लॉक दूसरी ओर शिफ्ट कर चुके हैं. इसका असर तो होगा ही. और इतने के बाद लालू प्रसाद अगर कहेंगे कि वे गरीब के बेटे हैं तो उधर से नरेंद्र मोदी उनसे भी ज्यादा तेज आवाज में बताने वाले हैं कि उनकी मां पोछा करती थी, वे चाय बेचते थे. और रही-सही कसर तीसरे मोर्चे के रूप में पनपा फ्रंट करेगा, वह एनडीए को कम और महागठबंधन को ज्यादा नुकसान पहुंचाएगा.
(निराला से बातचीत पर आधारित)