झारखंड में रघुबर दास की भाजपा सरकार ने स्थानीय नीति लागू कर दी है. इस नीति के अनुसार 1985 को कट ऑफ डेट माना गया है. जबकि झारखंडी जनता 1932 के खतियान को स्थानीयता का आधार बनाने की मांग करती रही है. राज्य बनने के 15 साल बाद आई सरकार की इस नीति ने आजादी के तुरंत बाद भारी संख्या में आ बसी बाहरी आबादी को उनकी मुंहमांगी सौगात दे दी है तो झारखंड की मूलवासी और आदिवासी जनता के उस नैसर्गिक अधिकार में कटौती कर दी है, जिसकी गारंटी संविधान इस विशेष क्षेत्र के लिए करता है.
झारखंड अन्य भारतीय राज्यों की तरह सामान्य राज्य नहीं है, औपनिवेशिक समय से ही इस क्षेत्र को विशेष प्रावधानों के तहत शासित किया जाता रहा है. पांचवीं अनुसूची के द्वारा झारखंड की इस विशेष स्थिति को संविधान में बनाए रखा गया है. सन 2000 में इसका गठन भी स्वायत्तता और अलग प्रांत के लंबे राजनीतिक संघर्ष के बाद ही हुआ. देश का यह पहला आदिवासी बहुल राज्य है जिसने 1928 में झारखंड को अलग प्रशासनिक क्षेत्र बनाने का ज्ञापन साइमन कमीशन को दिया था. ज्ञापन में कहा गया था कि सबसे ज्यादा राजस्व (वनोपज, खनन, उद्योग से) देने के बावजूद झारखंड के आदिवासियों को शिक्षा, नौकरी और प्रशासन में भागीदारी से वंचित रखा जा रहा है. बंगाल-बिहार उनके साथ भेदभाव कर रहे हैं. इससे उनकी भाषा-संस्कृति और पहचान खतरे में है.
1940 में इन्हीं सवालों पर जयपाल सिंह मुंडा ने कांग्रेस को घेरा और 1970 तक गांधी-नेहरू नीतियों को राजनीतिक तौर पर धूल चटाते रहे. अस्सी-नब्बे के दशक में झामुमो और आजसू के उभार के पीछे भी 1932 के खतियान धारकों के मूल अधिकार- शिक्षा, रोजगार, भाषा-संस्कृति, परंपरागत स्वशासी व्यवस्था की बहाली का हनन और खनन व उद्योगों के कारण होने वाला भारी विस्थापन और बाहरी आबादी का दबाव रहा है. इसलिए डोमिसाइल का मुद्दा झारखंड के लिए कोई सामान्य मुद्दा नहीं है, यह झारखंड की विशिष्ट आदिवासी जनता के विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक अस्मिता का मसला है. यह जीवन-मरण का मुद्दा है जिसके लिए आदिवासियों का इतिहास जाना जाता है. चाहे वह 18वीं सदी के मध्य में हुआ बाबा तिलका का शहीदी विरोध हो, 1830-32 का सारंडा से लेकर चतरा तक पसरा कोल का युद्ध हो, 1855 का संताल हूल हो या 1900 में बिरसा के नेतृत्व में हुआ उलगुलान. इसी कारण 17वीं सदी के अंत से 20वीं सदी की शुरुआत तक अंग्रेज शासकों को बार-बार ‘विल्किंसन रूल 1832’ और ‘छोटानागपुर टेनेंसी ऐक्ट 1908’ जैसे कानून बनाने पड़े ताकि वे आदिवासियों का भरोसा जीत सकें. 1949 में भारतीय संविधान ने भी पांचवीं अनुसूची से आदिवासियों को भरोसा दिया लेकिन रघुबर दास ने 2016 में स्थानीय नीति बनाकर यह भरोसा छीन लिया. राज्य गठन की मूल झारखंडी भावना को सदा-सदा के लिए खारिज कर दिया. इसका दूरगामी लाभ भाजपा को मिलेगा, पर उसने हमेशा के लिए आदिवासी-मूलवासी समर्थन खो दिया है.
राजनीतिक दलों की यह मजबूरी होती है कि वे सत्ता में बने रहने के लिए विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच अपना संतुलन बनाए रखें. 1960 के बाद झारखंड की संरचना बाहरी आबादी के कारण स्पष्ट रूप से दो वर्गों- झारखंडी और गैर-झारखंडी में विभाजित हो गई है. इसलिए झामुमो, आजसू जैसे झारखंडी दल भी विरोध के जरिए अपने मुख्य मूलवासी-आदिवासी आधार को इस सवाल पर हिमायती बने रहने का आश्वासन तो दे रहे हैं, परंतु समूचे राज्य में जो आक्रोश है, उसका नेतृत्व करने को तैयार नहीं हैं. क्योंकि ऐसा करने से दूसरा सामाजिक वर्ग जो गैर-झारखंडियों का है, उनसे पूरी तरह से अलग हो जाएगा, और वे सत्ता में आने की संभावना खो बैठेंगे. भाकपा माले इस मुद्दे पर मुखर है और ईमानदार भी, परंतु उनका प्रभाव क्षेत्र सीमित है. इसलिए अगर कोई संगठित राजनीतिक विरोध इस स्थानीय नीति के खिलाफ नहीं दिख रहा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि झारखंडी जनता ने इसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया है. राजनीतिक पंडितों को आने वाला समय चकित करेगा क्योंकि आदिवासी जनता धीरे-धीरे सुलगती है, वह तत्काल प्रतिक्रिया नहीं करती. देखती है, सुनती है, गुनती है और फिर जब लामबंद होती है, तो इतिहास बदल जाता है. पिछले 250 सालों की अनवरत संघर्ष परंपरा उनकी इसी मानसिकता को बताती है. क्योंकि डोमिसाइल का सवाल ऐतिहासिक है, झारखंड की आदिवासी अस्मिता से जुड़ा है. आग लगी हुई है, और तेज हवा चलेगी ही, फिर तो बहुत कुछ जलेगा.