छह सितंबर की बात है. बंगलुरु के पास स्थित हरिदवनम से एक खबर चली कि समाजवादी चिंतक, विचारक, लेखक प्रो. कृष्णनाथ शर्मा नहीं रहे. उन्हें जानने वाले बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक एक-दूसरे को फोन करते रहे. कुछ ने इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर भी टकटकी लगा ली कि शायद उनसे जुड़ी खबर मिल जाए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अगले दिन उम्मीद थी कि अखबारों में खबर आएगी, मगर एकाध अखबारों ने ही उन्हें तरजीह दी. प्रो. कृष्णनाथ कौन थे और उनके जाने से कैसी रिक्तता आई, यह कोई नहीं जान सका.
कृष्णनाथ की मृत्यु के तीन दिनों बाद ही शोर-शराबे के साथ भोपाल में विश्व हिन्दी सम्मेलन शुरू हुआ. उम्मीद की गई कि कम से कम वहां उन पर कुछ बात होगी. अधिकारियों, मंत्रियों, नेताओं वाले इस सम्मेलन में उन पर तब भी कोई चर्चा नहीं हुई. हिन्दी के साहित्यकारों के वर्चस्व वाला सम्मेलन भी होता तो उनसे कृष्णनाथ जैसे लोगों की याद करने की उम्मीद बेमानी थी. कहानी-कविता की आत्ममुग्ध दुनिया में छटपटाते हिन्दी साहित्य के लोग और एक-दूसरे की पीठ थपथपाकर आगे बढ़ने को आतुर हिन्दी साहित्य समाज में कृष्णनाथ जैसे लोगों को महत्व नहीं दिया जाता है, उनके साथ अनाथों जैसा व्यवहार किया जाता है.
बहरहाल हिन्दी वालों ने जो किया सो किया. आज चहुंओर समाजवादी राजनीति की होड़ मची है, उसमें कुछ लोगों को छोड़कर शायद ही किसी ने ये याद करने की कोशिश की कि समाजवादी राजनीति के लिए संभावनाओं के द्वार खोलने में प्रो. कृष्णनाथ जैसे लोगों की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण रही थी. जबकि उन्होंने अपना व्यक्तित्व व कृतित्व समाजवादी राजनीति और हिन्दी साहित्य में खपा दिया था. अब तक प्रो. कृष्णनाथ से कुल चार मुलाकातें हुई थीं. पहली मुलाकात कोई पांच साल पहले बनारस के सारनाथ स्थित उनके आवास पर हुई थी. सारनाथ में उनका आवास तिब्बती विश्वविद्यालय के पास नवापुरा गांव में है. दिन के करीब 11 बजे झक्क सफेद लुंगी, सफेद बनियान और माथे पर सफेद साफा बांधे एक कुर्सी पर बैठकर वह किताबों की दुनिया में खोए हुए थे. तकरीबन चार घंटे तक बातचीत हुई.
इस बतकही में एक सुखद आश्चर्य ये था कि गलती से भी उनकी जुबान से ऐसा कोई वाक्य नहीं निकला, जिसमें अंग्रेजी का कोई शब्द हो. यह साधना की ही बात थी. प्रो. कृष्णनाथ अंग्रेजी समेत कई भाषाओं के प्रखर जानकार और दुनिया भर की यात्रा कर चुके थे.
साठ के दशक में अंग्रेजी में ही उन्होंने ‘द इंपैक्ट ऑफ फॉरेन एड ऑन इंडियन कल्चर’ विषय पर काम किया था. इसके जरिये उन्होंने काफी पहले भारत में उपभोक्तावादी संस्कृति के खतरे को चिह्नित किया था. वे कहते थे कि भारतीय जीवन, संस्कृति और सरोकारों के क्षेत्र में विदेशी पूंजी के आने से क्या होने वाला है. आज जिस विषय पर देशभर में बातें हो रही हैं, ये बातें 60 के दशक में ही प्रो. कृष्णनाथ ने की थी. 70 के दशक के आरंभिक सालों में शिमला के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज में एक सेमिनार के दौरान उन्होंने साफ-साफ कह दिया था कि भारत में शीघ्र ही राजनीति हाजीपुर के मेले का रूप लेने वाली है. गठबंधन सरकार का दौर आने वाला है. सभी अपनी-अपनी सीटों के साथ दुकान लगाएंगे और बेचेंगे. उस समय उनकी इस बात पर काफी हंगामा भी हुआ था, लेकिन बाद में भारत की राजनीति उसी रास्ते पर चली.
यह सब प्रो. कृष्णनाथ तब कह रहे थे, जब वे काशी विद्यापीठ में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक हुआ करते थे और उनकी गिनती तेज-तर्रार अर्थशास्त्रियों में होती थी. वर्ष 1934 में काशी विद्यापीठ में ही उनका जन्म हुआ था. एक ऐसे परिवार में, जिस परिवार से नेहरू-गांधी से लेकर आचार्य नरेंद्र देव के पारिवारिक और घनिष्ठ संबंध थे. बाद में उनका घर लोहिया से लेकर अच्युत पटवर्धन तक का भी डेरा बना. आचार्य नरेंद्र देव के प्रभाव में आकर कृष्णनाथ मात्र 16 साल की उम्र में समाजवादी आंदोलन से जुड़े और हर दिन नई राह खोजते रहे.
अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ वे समाजवादी आंदोलन के सिपाही और प्रणेता थे. उन्हें हिमालय का चिर यात्री और घुमक्कड़ माना गया. उन्होंने ‘लद्दाख में राग-विराग’, ‘स्फीति में बारिश’, ‘किन्नर धर्मलोक’, ‘पृथ्वी परिक्रमा’, ‘हिमालय यात्रा’, ‘कुमाऊ यात्रा’, ‘किन्नौर यात्रा’ जैसी कई किताबें हिमालय के अलग-अलग हिस्से को केंद्र में रखकर लिखी. बाद में वे स्वाध्याय से बौद्ध दार्शनिक हुए. तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के करीबी जिदू उनके फाउंडेशन से जुड़े. आज बंगलुरु के हरिदवनम में, जहां प्रो. कृष्णनाथ का निधन हुआ, यहीं ‘जी कृष्णमूर्ति फाउंडेशन’ चलाया जाता है. अपने अंतिम दिनों में यहीं रहकर वे फाउंडेशन की पत्रिका ‘परिसंवाद’ का संपादन कर रहे थे. इससे पहले उन्होंने हिंदी में ‘कल्पना’, अंग्रेजी में ‘मैनकाइंड’ और समाजवादी राजनीति की ‘जन’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया. उनके लिखने-पढ़ने की उनकी दुनिया बड़ी रही और कैमरे के भी वे बड़े उस्ताद थे. उनके शौक में फोटोग्राफी भी शामिल था. रीलवाले कैमरे के जमाने में हिमालय के सुदूर इलाकों को न जाने कितनी ही बार तस्वीरों में कैद किया. यह सब उनकी पहचान का एक हिस्सा भर है.
उनकी पहचान का दूसरा मजबूत हिस्सा 1950 में समाजवादी आंदोलन से उनका जुड़ना था. इस दौरान 1950 से 1970 के बीच वे 13 बार जेल गए. हर बार अलग-अलग वजहों से. प्रो. कृष्णनाथ हिन्दी के लिए तब जेल गए, जब लोहिया ने अंग्रेजी विरोध का नारा दिया था. लोहिया के आह्वान पर बनारस में अंग्रेजी विरोध आंदोलन को परवान चढ़ाते हुए मैदागिन चौराहे पर लगी विक्टोरिया की मूर्ति तोड़ने के जुर्म में प्रो. कृष्णनाथ को जेल भेजा गया था. उसके बाद वे नास्तिक हो गए और काशी विश्वनाथ मंदिर की जड़ता को तोड़ने के लिए दलितों को साथ लेकर मंदिर प्रवेश करने के अभियान के प्रणेता बने. इसके लिए भी उन्हें जेल में डाल दिया गया. फिर झारखंड के पलामू में आकर छह माह तक आदिवासियों के साथ रहे. आदिवासियों के साथ रहते हुए उन्हें आंदोलित करने और उनके साथ आंदोलन करने के जुर्म में उन्हें एक बार फिर जेल भेजा गया. इस तरह भाषा, अस्मिता, किसान, गरीब, दलित, आदिवासी और राष्ट्रीयता के सवाल पर उन्हें बार-बार कैद किया गया. यह सिर्फ जेल जाना भर ही नहीं था. उन्हें भरपूर यातनाएं भी दी गईं, कभी नशेड़ियों के वार्ड में रखकर तो कभी पागलों के वार्ड में रखकर. हालांकि हर बार वे जेल से और मजबूत होकर निकले. जेपी और लोहिया समेत न जाने कितने नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहे और लोहिया के लिए तो उन्होंने लाठियां भी खाईं.
एक तरीके से खांटी राजनीतिक कर्म करते हुए प्रो. कृष्णनाथ हिंदी को जीते रहे. लोहिया ने संसद में जब ‘तीन आना बनाम तेरह आना’ का सिद्धांत उठाया तो कहा गया कि यह प्रो. कृष्णनाथ का ही फॉर्मूला है. पलामू में रहते हुए उन्होंने खरवारों को अधिकारी के घर के सामने डेरा डालने के लिए आंदोलित किया. यह पहला मौका था जब आंदोलन में ‘घेरा डालो-डेरा डालो’ का नारा चला और ये कांसेप्ट आया. उनकी पहचान यहीं खत्म नहीं होती. वह मौन मनीषी की तरह न जाने कितने क्षेत्रों में सक्रिय रहे. अपनी रचनाओं के जरिये हिन्दी साहित्य को भी उन्होंने समृद्ध किया. ‘दत्तर दिगंबर माझे गुरु’ उनका प्रसिद्ध यात्रा वृतांत है. ‘नागार्जुन कोंडाः नागार्जुन कहां है’, ‘बौद्ध निबंधावली: समाज और संस्कृति’ जैसी मशहूर किताबें उन्होंने लिखीं. वे हिन्दी में ही लिखते रहे, लेकिन हिन्दी समाज की अपनी विडंबना है, जो उनके ‘मठों’ से नहीं जुड़ता, कविता-कहानी की दुनिया से अलग होकर और आलोचना कर्म के बने-बनाए ढर्रे से अलग राह अपनाता है, हिंदी साहित्य की दुनिया उसे अपनी जमात में नहीं रखती. उनके जाने के बाद भी यह दुनिया उसे याद करना मुनासिब नहीं समझती. जीवन में ठेठपन और देसज अस्मिता के साथ जीना उनका स्वाभाविक गुण था. वे ठेठ बनारसी और साधारण हिंदुस्तानी थे. वे बंगलुरु के हरिदवनम में या फिर सारनाथ के नवापुरा गांव स्थित अपने घर में रहते थे. इन दोनों जगहों पर नहीं होते तो हिमालय में पाए जाते थे.
राजनीति के क्षेत्र में भी प्रो. कृष्णनाथ एक जानी-मानी शख्सियत रहे. का एक दूसरा पक्ष है. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में शायद ही कोई समाजवादी नेता हो, जो सीधे उनसे संपर्क में न रहा हो लेकिन बाद में सबने उनसे कन्नी काटनी शुरू कर दी. वजह साफ थी. प्रो. कृष्णनाथ अपने समाजवादी साथियों के रवैये से ही नाराज रहते थे. उन्हें अपने ही समाजवादी साथियों की राजनीति देखकर वितृष्णा भी होने लगी थी. वे पूछने पर इतना ही कहते थे कि सभी अपने ही हैं, किसे कहे और क्या कहें. कहने का क्या फायदा! राजनीतिक चेतना वाले व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने कभी सत्ता की राजनीति नहीं की. वे बस आंदोलन करते रहे, आंदोलन की राह दिखाते रहे, सूत्र गढ़ते रहे, सिद्धांत देते रहे. एक बार भी सत्ता ने उन्हें आकर्षित नहीं किया जबकि राज्यपाल बनने के प्रस्ताव भी उनके पास आए, लेकिन वह सभी प्रस्तावों को हंस कर टालते रहे. हंसना उनके स्वभाव का हिस्सा था.